चैप्टर 8 काली घटा : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 8 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 8 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda

Chapter 8 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda

Chapter 1 | 2 | 3 | | 5 67  | | 10 | 11

PrevNext | All Chapters

“यह क्या?”

“वासुदेव! अब आज्ञा चाहिए।”

“पागल तो नहीं हो गये। तुम नहीं जा सकते।” वासुदेव जी उसके हाथ से लेकर कपड़े अलमारी में रख दिये और फिर बोला, “याद है तुम्हें एक वचन दिया था!”

“क्या?”

“मुझे मझधार में छोड़कर ना जाओगे।”

“मैं तो स्वयं डूब रहा हूँ, तुम्हारी क्या सहायता करूंगा।”

“कभी तिनके का सहारा भी बहुत बड़ा सहारा बन जाता है।”

“तुम तो जानते हो, अब मेरा यहाँ रहना तुम दोनों के लिए अच्छा नहीं।”

“ऐसा तो तुम सोचते हो राजी! मैं नहीं। मन की बात कह दूं।”

“क्या?”

“तुम्हारी दो दिन की संगत पर माधुरी का जीवन बदल गया। तुम दोनों के मन में प्रेम का नव-संचार हुआ है। इस बस्ती को फिर से उजाड़ने में क्या लाभ?”

“यह तुम कह रहे हो?”

“हाँ! मैं ही कह रहा हूँ। मेरा और माधुरी का यही संबंध है कि वह दुनिया वालों के सामने मेरी पत्नी है। किंतु मैं उसके जीवन को यूं नीरस बनाए रखूं, यह करना मेरे लिए संभव नहीं है। अब मेरी यही इच्छा है कि तुम दोनों सुखी रहो। तुम दोनों युवा हो, तुम्हारा पहले का प्रेम है, भगवान इस प्रेम को बनाए रखें। इसी में मेरी प्रसन्नता है।”

“परंतु वासुदेव! यह कितनी विचित्र बात है। इससे तुमको जलन होगी?”

“जलन! मुझे तो अब जीवन भर ही जलन रहेगी। परंतु उस निर्दोष को भी अपनी ज्वाला में क्यों धकेलूं।”

“तो क्या उससे यह पाप करने को कहोगे। स्वयं, अपनी आँखों के सामने।”

“इस पाप का भार तो मुझ पर है, उस पर नहीं।”

“नहीं नहीं! तुम उसके साथ मुझसे भी पाप करवाओगे। यह संभव नहीं।”

“तो राजेंद्र! क्या यह अच्छा होगा कि वह मुझे छोड़कर एक दिन किसी और के साथ भाग जाये और मैं किसी को मुँह ना दिखा सकूं। वह दूसरों के सामने मेरा रहस्य खोल दें और लोग मेरा उपहास उड़ायें और मैं तंग आकर आत्महत्या कर लूं।”

राजेंद्र यह सुनकर सटपटा गया। उससे कोई उत्तर ना बन पड़ा और वह मुट्ठियाँ भींचता हुआ खिड़की के पास जा खड़ा हुआ। अभी पौ ही फटी थी। उससे दूर क्षितिज में झांका। उसे किसी प्रकार का चैन ना था। वासुदेव उसके पीछे आ खड़ा हुआ और धीरे से बोला –

“किसी दूसरे के पास जाने से तो अच्छा होगा कि वह तुम्हारी हो जाये। तुम्हारा यह उपकार मैं जीवन भर ना भूलूंगा।”

“एक बार फिर सोच लो वासुदेव!” वह मुड़ते हुए बोला।

“यह सब कुछ सोच विचार कर ही कह रहा हूँ।”

“तो एक वचन देना होगा।”

“क्या?”

“तुम हमारे प्रेम में कांटा ना बनोगे और माधुरी पर कभी प्रकट ना करने दोगे कि तुम उससे घृणा करते हो।”

“घृणा! मैंने उसे सदा प्रेम किया है और प्रेम करता रहूंगा।”

“वह कहाँ है?” राजेंद्र ने पूछा।

“सो रही है। तुम उसे जगा लाओ। मैं सैर के लिए घोड़ों का प्रबंध करता हूँ।”

“उसे तुम स्वयं ही जगाओ।”

“नहीं भई! चले भी जाओ।” वासुदेव ने मुस्कुराते हुए कहा और बाहर चला गया।

राजेंद्र ने उसकी मुस्कुराहट के पीछे छुपी पीड़ा का अनुमान लगाया। वह कैसा पति है, जो अपनी पत्नी को दुराचार की खाई में धकेल कर अपने मन की शांति खोज रहा है? कहीं वो उसकी परीक्षा तो नहीं ले रहा? उसकी समझ में कुछ ना आ रहा था कि वह क्या करें। इतनी बड़ी मानसिक समस्या उसके सामने उत्पन्न हो सकती है या उसने कभी न सोचा था।

अनमने मन से वह माधुरी के कमरे की ओर रवाना हुआ। बरामदे में रखे फूलों के गमलों से उसे गुलाब का एक फूल तोड़ा और मुट्ठी में रख लिया।

माधुरी अपने बिस्तर पर ना थी। उसने चारों और दृष्टि दौड़ा कर देखा। स्नान गृह का द्वार खुला था, जिसे प्रकट हो रहा था कि वह अभी-अभी भीतर गई है। वह पर्दे की ओट में खड़ा होकर उसके बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगा।

थोड़ी देर में वह बाहर निकली और तौलिए से मुँह पोंछकार दर्पण के सामने केश संवारने आने लगी। राजेंद्र धीरे-धीरे दबे पांव उसके पीछे जा खड़ा हुआ और गुलाब के फूल को उसके जुड़े में टांके लगा। दर्पण में छाया देखकर माधुरी झट से मुड़ी और राजेंद्र को देखकर उखड़ी हुए सांस में बोली –

“ओह! आप…इस समय?”

फूल राजेंद्र के हाथ से फर्श पर जा गिरा। माधुरी ने घबराहट में चारों ओर देखा और नीचे झुककर फूल उठाने लगी। उसी समय राजेंद्र भी झुका। दोनों के हाथ टकराए और शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई। माधुरी का हाथ ढीला पड़ गया। राजेंद्र ने फूल उठा लिया और मुस्कुरा कर उसकी ओर देखते हुए बोला –

“अनुमति हो, तो इसे तुम्हारे बालों में टांक दूं।”

लज्जा से माधुरी के मुँह पर घबराहट सी उत्पन्न हुई। राजेंद्र समझ गया और नीचे संकेत करते हुए बोला – “तुम्हारे पति महोदय तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।”

“कहाँ?”

“नीचे ड्योढ़ी में…घोड़ों पर घूमने का विचार है।”

“मुझसे तो नहीं कहा।”

“किंतु मुझको तुम्हें ही लाने के लिए भेजा है।”

यह जानकर कि वासुदेव नीचे हैं, माधुरी ने सांत्वना की सांस ली और फिर से दर्पण में देखने लगी। राजेंद्र बढ़कर फूल उसके जूड़े में टांक दिया।

“कहिए रात कैसे कटी?” माधुरी ने होठों को सिकोड़ते हुए धीमे स्वर में पूछा।

“जैसे तैसे कट ही गई…हँसकर गुजारें या इसे रोकर गुजार दें।”

राजेंद्र अंतिम वाक्य बड़ा धीरे-धीरे और रुक-रुक कर बोला।

माधुरी मुस्कुरा दी और बोली, “और अब दिन कैसे कटेगा?”

“वह भी तुम लोगों के संग कट जायेगा।”

“यदि मैं साथ न जा सकूं तो?”

“तो वासुदेव को अकेले ही जाना पड़ेगा।”

“पर आप?”

“मैं! मेरा क्या है? तुम्हारे बिना मैं न जा सकूंगा।”

यह उत्तर सुनकर माधुरी चुप हो गई और दर्पण में अपने आप को देखती रही। वह भी मौन खड़ा उसे देखता रहा। नीचे से घोड़ों के हिनहिनाने की ध्वनि आई, तो दोनों चौंक पर एक-दूसरे को ताकने लगे। राजेंद्र ने समीप आकर पूछा –

“क्या विचार है?”

“आप चलिये। मैं कपड़े पहन कर अभी आई।”

कुछ देर बाद तीनों घोड़ों पर सवार झील के किनारे किनारे बढ़े जा रहे थे। अभी सूर्य ना निकला था। हवा के शीतल झोंको ने तीनों के मस्तिष्क से एक बोझ सा हटा दिया था। घोड़ों की डोर थामे वह आसपास के दृश्य में खोये चले जा रहे थे। अपनी अपनी धुन में, अपनी अपनी कल्पना में बिना बातचीत किये।

बस्ती को वह बहुत पीछे छोड़ आये थे। सहसा यह देखकर कि वासुदेव बहुत आगे निकल चुका है, माधुरी आश्चर्य में पड़ गई। वह दोनों अपने विचारों में इतने गुमसुम थे कि उन्हें पता भी न चला, वह कब उनको छोड़कर आगे चला गया। उसने दृष्टि फिराकर राजेंद्र की ओर देखा और हवा से लहराते हुए लटों को संभालती हुई बोली –

“आप नहीं गये?”

“कहाँ?”

“उनके साथ…घोड़ा दौड़ने?”

“तुम्हें अकेला छोड़ कर। यह कैसे हो सकता है?”

“आज न जाने क्यों अकेले ही रहने को मन चाहता है।”

“तो ठीक है!” राजेंद्र ने कहा और घोड़े को एड़ लगा दी।

माधुरी ने उसे पुकारकर उसे रोकना चाहा, किंतु क्षण भर में ही वह दूर पहुँच चुका था।

थोड़ी देर में घोड़ा दौड़ते हुए वह वासुदेव से जा मिला और उसके घोड़े से घोड़ा मिलाते बोला, “तुम इतनी दूर कहाँ चले आये?”

“एक हिरण देखा था। न जाने कहाँ चला गया?” वासुदेव ने बंदूक कंधे पर लटकाते हुए उत्तर दिया और फिर उसे अकेला देखकर पूछने लगा, “माधुरी कहाँ है?”

“पीछे आ रही होगी।”

“अच्छा होता, जो तुम उसके साथ रहते। अकेले में डर ना जाये।”

“डरने की क्या बात है?” राजेंद्र असावधानी से पूछा।

“स्त्री ही तो है, देखो! मैं अपने शिकार की खोज में जंगल जाता हूँ, तुम यहीं उसके आने की प्रतीक्षा करो। लौटते में मिलेंगे।” वासुदेव यह कहकर क्षण भर में घोड़े को एड़ लगाकर ओझल हो गया। राजेंद्र ने घोड़े का मुँह पीछे की ओर मोड़ लिया और माधुरी को देखने लगा।

थोड़ी देर में घोड़ा दौड़ाते हुए माधुरी भी आ पहुँची और बोली, “यह क्या? मुझे अकेले छोड़ आये।”

“तुम ही तो अकेलापन चाहती थी।”

“बात तो पूरी सुन ली होती।”

“क्या?”

“अकेलापन चाहती थी, किंतु आपके साथ!”

“तो लो मैं आ गया।”

“यह आज आपको हुआ क्या है?”

“क्या?”

“ये अनूठापन…कुछ बने बने दिख रहे हैं!”

“नहीं तो! बड़े दिनों पश्चात घोड़े की सवारी की है इसलिए।”

“मैं कौन सी घुड़सवार हूँ।” उसने कहा और फिर क्षण भर रुकर पूछा, “वह कहाँ चले गये?”

“सामने जंगल में…हिरण का शिकार करने।” राजेंद्र ने दूर जंगल की ओर संकेत करते हुए उत्तर दिया।

“हूं..” वह नाक चढ़ाते बोली, “वास्तविकता को छोड़कर कल्पना के स्वर्ण मृग के पीछे भागते फिरते हैं।”

“चलो इसी बहाने हमारा मिलन तो हो जाता है।”

“ऐसा मिलन भी क्या, जो मन को एक धड़का सा लगा रहे, हर आहट में घबराहट छुपी हो।”

“ठीक है माधुरी! किंतु बिल्कुल आजाद जीवन में भी कोई आनंद नहीं। हल्का-हल्का डर ही तो प्रसन्नता को बढ़ाता है।”

“छोड़िए इस वाद विवाद को…मैं तो थककर चूर हो गई।” उसने घोड़े को बिल्कुल पास लाते हुए कहा।

“अभी तो आरंभ ही है और तुम थक गई। आगे चलकर क्या होगा?”

“आरंभ तो जीवन की दौड़ का है। मैं घोड़ा दौड़ाने की बात कर रही हूँ।”

“ओह! मैं समझा तुम प्रेम से थक गई हो। अच्छा! प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।”

“किसकी?”

“तुम्हारे पतिदेव की।” राजेंद्र ने ‘पति’ के शब्द को चबाकर बोलते हुए कहा। उसे यूं अनुभव हुआ कि यह शब्द माधुरी को कांटे के सामान लगा हो। कुछ देर दोनों चुप रहे और फिर राजेंद्र बोला –

“तुम्हारे शिकारी पति पर बड़ा तरस आता है।”

“क्यों?”

“स्वयं शिकार के पीछे चला गया है और अपना धन यहाँ छोड़ दिया है।”

“आप पर भरोसा जो है।”

“हाँ जानती हो, क्या आदेश दे गया है?”

“क्या?”

“मेरी माधुरी अकेले में डर ना जाये। उसके साथ रहना।”

“इसलिए आप मुझे अकेला छोड़ कर भाग जाना चाहते थे।”

“चाहता तो नहीं, किंतु हो गया ऐसा ही।”

“तो आप मुझे छोड़ जायेंगे।”

“माधुरी! न जाने क्यों कुछ ऐसे ही विचार आते हैं।”

“क्या?”

“कि मैं तो महापाप कर रहा हूँ, जो मित्र मुझ पर इतना विश्वास करता है, उसी का विश्वासघात कर रहा हूँ। उसी के यहाँ चोरी कर रहा हूँ।”

माधुरी ने उसकी बात सुनी और तीव्र दृष्टि से उसे देखा। वह आगे कुछ और कहना चाहता था, किंतु माधुरी घोड़े को पगडंडी पर डालकर आगे बढ़ गई। कुछ देर चुपचाप खड़ा वह उसे जाते हुए देखता रहा और जब वह पेड़ों में ओझल हो गई, तो धीमी चाल से उसने भी घोड़ा पगडंडी पर डाल दिया।

वातावरण में एक चीख गूंजी। घोड़े पर बैठा राजेंद्र सिर से पांव तक कांप गया और तेजी से उसी और बढ़ा, जिधर माधुरी गई थी। उसकी चीख अभी तक उसके कानों में गूंज रही थी। ना जाने अचानक उसे क्या हो गया था।

कुछ दूर उसने माधुरी के घोड़े को खड़े हुए देखा। माधुरी धरती पर बेसुध पड़ी थी। सोच रहा था कि उसके गिरने का क्या कारण हो सकता है कि उसकी दृष्टि थोड़ी दूर पर एक पेड़ के तने पर पड़ी, जहाँ एक लंबा सांप रेंगता हुआ ऊपर चढ़ रहा था।

राजेंद्र शीघ्रता से नीचे उतरा और माधुरी का सिर हाथों में थाम कर उसे पुकारने लगा। इस विचार से कि कहीं वह सांप के काटने से बेसुध ना हो गई हो, उसने उसे अपने आगे घोड़े पर डाला और सरपट घोड़ा दौड़ता घर की ओर मुड़ा। माधुरी का घोड़ा भी उसके पीछे पीछे भागता चला आया।

घर पहुँचने पर भी वह सुध में ना आई। राजेंद्र ने उसे गंगा की सहायता से नीचे उतारा और उसके कमरे में जाकर पलंग पर लिटा दिया। गंगा को उसने पानी लाने के लिए भेजा और स्वयं उसकी बांहों को टटोल का सांप काटे का निशान देखकर लगा। साड़ी का घेरा खिसका कर उसने पांव और पिंडलियों को भी छूकर ध्यानपूर्वक देखा। किंतु उस सांप काटे का कोई न दिखाई ना दिया। उसके शरीर को निहारते हुए उसे कुछ संकोच हुआ। उसके सिर को दोनों हाथों से झंझोड़ते हुए अपना मुँह उसके कान के पास ले जाते हुए उसने फिर से पुकारा, “माधुरी माधुरी!”

एकाएक माधुरी के हाथ उठे और उसके गले में पड़ गये। उसकी आँखें अभी तक बंद थी। राजेंद्र घबरा सा गया और हड़बड़ाकर उसकी ओर देखने लगा। माधुरी ने  बाहों की जकड़ और कड़ी कर ली और आँखें खोल कर मुस्कुराने लगी।

“तो क्या तुम?’

“बेसुध थी। आपके शरीर के स्पर्श से सुध में आ गई।”

“झूठ! तुम मुझे बनाती रही!”

“यदि ऐसा ना करती, तो आपका हृदय कैसे पिघलता? और इतनी दूर से मुझे उठाकर कौन लाता?”

“तो तुम मेरी परीक्षा ले रही थी?”

“प्रेम में कुछ ऐसे ही परीक्षायें आती रहती हैं।”

“मैं तो समझा था कि तुम्हें सांप…”

“काट जाता तो अच्छा था। यह दिन का झगड़ा तो मिट जाता।”

“कैसा झगड़ा?”

“आपकी चिंता, उनका क्रोध और अपने मन की पीड़ा। न जाने इसका अंत क्या होगा।”

“हाँ न जाने!”

शब्द अभी राजेंद्र के मुँह में ही थे कि द्वार पर आहट हुई और वह झट अलग हो गए। माधुरी फिर आँखें मूंदकर बेसुध हो गई। राजेंद्र ने मुड़कर देखा, गंगा पानी का गिलास ले भीतर आ रही थी।

राजेंद्र गंगा के हाथ से गिलास ले लिया और माधुरी के मुँह पर पानी के छींटे मारने लगा। माधुरी ने धीरे धीरे आँखें खोल दी। और गंगा की ओर यूं देखने लगी, जैसे उसे पहचानने का प्रत्यन कर रही हो। राजेंद्र पानी का गिलास गंगा को लौटा दिया और गर्म चाय का प्याला लाने को कहा।

गंगा जब बाहर चली गई, तो माधुरी तकिये का सहारा लेकर बैठ गई। पानी के छींटों से उसके मुँह पर ताजगी आ गई और उसके मुस्कुराते हुए होंठ तो यूं लग रहे थे, मानो ओंस में नहाकर कोई अधखुली कली खुल रही हो। माधुरी ने उसे तौलिया देने का संकेत किया। उसी समय राजेंद्र की दृष्टि खिड़की से नीचे ड्योड़ी पर पड़ी। वासुदेव भी लौट आया था और घोड़ा बांध रहा था। क्षण भर के लिए वह भौचक सा स्थिर उसे खड़ा देखता रहा। माधुरी ने पूछा –

“क्या है?”

“कुछ नहीं! देख रहा था अभी वासुदेव नहीं लौटा।”

“किसी हिरण का पीछा कर रहे होंगे!”

राजेंद्र उसके पास बैठ गया और स्वयं तौलिए से उसका मुँह पोंछने लगा। माधुरी ने पलकें बंद कर ली और उसके स्पर्श का आनंद उठाने लगी।

राजेंद्र के कान वासुदेव के पांव की चाप पर लगे हुए थे। सांस रोककर वह कांपते हुए हाथों से उसके गाल पोंछ रहा था। उसी समय धीरे-धीरे पीछे से वासुदेव भीतर आया और द्वार पर लगे हुए पर्दे के पीछे छिप गया। राजेंद्र ने उसे भीतर आते हुए देख लिया था, किंतु माधुरी पर उसे प्रकट न होने दिया।

उसके मुँह पर दृष्टि टिकाये तौलिये से उसका मुँह सुखा रहा था कि सहसा कांपकर  रह गया। माधुरी ने उसकी कंपन को अनुभव किया और झट उसकी कलाई थामते हुए पूछा –

“क्या हुआ?”

“अनजाने में तुम्हारे माथे की बिंदिया पोंछ डाली।”

“तो क्या हुआ?”

“यह तुम्हारा सुहाग का चिन्ह था।”

“सुहाग! तुम इसे सुहाग कहते हो? मुझसे पूछो, निरंतर तीन वर्षों से यह सुहाग भीगी रातों में अंगारों पर चलता है, चांदनी में सिर पटक कर तड़पता है, तारों की छाया में मन में सोच कर लोटता है। ऐसे सुहाग का तो मिट जाना ही अच्छा है राजी! सच पूछो यह मांग अभी खाली है। यह माथा इस चाह में है कि इसका सुहाग का चिन्ह हो…यह अंग अंग एक सहारे का इच्छुक है। क्या तुम सहारा न दोगे? क्या तुम से अपने हाथों से यह बिंदिया न लगाओगे? यह मांग न भरोगे।”

राजेंद्र सुनता रहा और वह कहती रही। पागल सी होकर वह अपने आपको भूले जा रही थी। राजेंद्र ने देखा पर्दा हिल रहा था। उसने माधुरी के मुँह पर हाथ रखकर उसका बोलना बंद कर दिया और उसे दोनों हाथों से पकड़कर ठीक प्रकार से बिठाते हुए बोला, “देखो! गंगा चाय लाई है। दो घूंट पी लो। अभी ठीक हो जाओगी।”

गंगा को देखकर माधुरी ने शरीर को ढीला छोड़ दिया। राजेंद्र गंगा को उसे चाय देने का संकेत करके बाहर चला गया। माधुरी विस्मय से उसे देखने लगी।

पर्दा अभी तक हिल रहा था। वासुदेव पीठ किए गोल कमरे की ओर जा रहा था। राजेंद्र ने उसे मुड़ते हुए देख लिया था। कुछ क्षण तक वह बाहर निकल कर खड़ा सोचता रहा और फिर उसके पीछे-पीछे गोल कमरे की ओर चला गया। वह माधुरी के प्यार की झांकी दिखा कर उसके मन की प्रतिक्रिया देखना चाहता था।

कमरे में आहट हुई और वासुदेव ने तेजी से मुड़ कर देखा। चौखट का सहारा लिए राजेंद्र उसकी ओर देख रहा था। वासुदेव के मुख पर हल्का सा दुख और क्रोध उत्पन्न हुआ और उसने मुँह फेर कर भरे हुए स्वर में रुकते-रुकते पूछा, “गंगा कह रही थी कि माधुरी को सांप ने काट खाया है।”

“उसे तो नहीं काट खाया, किंतु तुम्हारे मन में आवश्यक डंक लगा है।”

“राजी!” वह तमतमा कर चिल्लाया और मुड़कर उसे देखने लगा। राजेंद्र शांत खड़ा मुस्कुरा रहा था। मित्र को क्रोध में देखकर वह बोला –

“मैं ना कहता था कि जो मुझ से मांगा है, उसे देख ना सकोगे। अब भी मुझे जाने दो और मुझे यह विचित्र नाटक खेलने पर विवश ना करो।”

“नहीं राजी! ऐसी बात नहीं। मन ही तो ठहरा, लाख संभालो, पर भी भर आता है। अब ऐसा ना होगा।”

थोड़ी देर दोनों एक-दूसरे को देखते रहे और फिर वासुदेव ने पूछा, “अब कैसी है?”

“चिंता ना करो। सांप का डसना बस एक बहाना था।”

“तो!”

“प्रेम का नाटक!” राजेंद्र ने धीरे से कहा और उसकी पीठ ठोंकते हुए अपने कमरे में चला गया। वासुदेव अवाक मूर्ति बना वहाँ खड़ा रहा।

PrevNext | All Chapters

Chapter 1 | 2 | 3 | | 5 67  | | 10 | 11

अन्य हिंदी उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ वापसी गुलशन नंदा का उपन्यास

~ देवदास शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास

Leave a Comment