Chapter 4 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda
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“मालिक मालिक!”
घर पर ही चीख से गूंज उठा। अभी पौ फटी ही थी कि निस्तब्धता को चीरती हुई यह पुकार वासुदेव के कानों में पहुँची। वह हड़बड़ाकर बिस्तर से उठा और बाहर की और लपका।
गंगा चिल्लाती हुई उसी की ओर आ रही थी, “कोचवन….कोचेवान को बचाइये।”
“क्या हुआ?”
“घोड़े ने उसे मुँह में ले लिया है।”
वासुदेव ने झट दीवार पर टंगी चाबुक उतारी और नीचे भागा।
घर की शेष व्यक्ति भी जागकर बाहर निकल आए थे। माधुरी द्वार पर खड़ी गंगा से पूछ रही थी। साथ के कमरे से राजेंद्र भी निकल आया और बोला, “क्या हुआ?”
“घोड़े ने कोतवाल को दबोच लिया…वह गए हैं…जाइए देखिए….कहीं।”
बात माधुरी की जुबान पर ही थी कि राजेंद्र नीचे भागा। माधुरी और गंगा भी उसके पीछे नीचे उतर गई।
जो वासुदेव नीचे पहुँचा, तो बड़ा मस्त और बिफरा हुआ बिलबिला रहा था। उसके मुंह से झाग निकल रहा था और उसने कोचवान को पेट से पकड़कर मुँह में ले रखा था। वासुदेव ने जोर से घोड़े को ललकारा और आगे बढ़कर उस पर चाबुक बरसाने लगा। कोचवान की चिल्लाहट, घोड़े की हिनहिनाहट और तड़ातड़ चाबुक की आवाज से वातावरण कांप गया। घोड़े ने अब भी कोचवान को ना छोड़ा। वासुदेव चाबुक लिए उसके और समीप जा पहुँचा। माधुरी और राजेंद्र ने उसे रोकना चाहा किंतु वह ना रुका। पास पहुँच कर उसने जमीन पर रखी रस्सी उसकी गर्दन में डालकर जोर से झटका दिया और कोचवान का शरीर उसके मुँह से छूटकर धरती पर आ गिरा। घोड़ा टांगों पर उछलकर जोर से हिनहिनाया और यूं लगा मानो अभी वह वासुदेव का झपटा। माधुरी की डर से चीख निकल गई। किंतु घोड़े को वासुदेव ने बस में कर लिया था। वह अभी तक उस पर चाबुकें बरसा रहा था।
राजेंद्र और गंगा ने बढ़कर कोच वान को उठा लिया। उसका शरीर लहू से लथपथ हो रहा था। घोड़े के दांत उसके पेट में धंसकर गहरा घाव कर गए थे। चौकीदार और आसपास के दो-चार और व्यक्ति भी आ गए थे और उन्होंने मिलकर घोड़े को रस्सी से बांध दिया।
वासुदेव पसीना-पसीना हो रहा था।आज जिस क्रोध और आवेश में उसे चाबुकें चलाई थी, उसे देखकर सब घबरा गए थे। घोड़े के मुँह से अभी तक झाग बह रहा था और उसकी आँखों से पानी निकल रहा था। चाबुकों के चिन्ह उसकी पीठ पर चमक रहे थे। वासुदेव ने एक कड़ी दृष्टि उस पर डाली और कोचवान की ओर देखकर चौकीदार से बोला, “इसे तुरंत नाव में डालकर पार रेलवे डिस्पेंसरी में ले चलो…मैं कुछ देर में कपड़े बदलकर पहुँचता हूँ।”
“यह सब हुआ कैसे?” राजेंद्र ने पूछा।
“पशु जो ठहरा… क्या भरोसा? बेचारा घास डालने को गया और यह आपत्ति सिर आ पड़ी।”
“कोई नया था?”
“नहीं! चार बरस यही कोचवान है, किंतु पशु का क्या, उसी को दबोच लिया जो दिन रात सेवा करता है।”
राजेंद्र चुप हो गया और सब ऊपर चले आये। माधुरी ने गंगा को चाय लाने को कहा और स्वयं वासुदेव के कपड़े निकालने लगी। उसके कान उन दोनों की बातों पर लगे हुये।
“इतने आवेश से चाबुक बरसाने पर घोड़े को बस में कर ही लिया। मुझे अब तक विश्वास नहीं आ रहा।” राजेंद्र बैठते हुए वासुदेव से कहा।
“क्यों?”
“इतना कोमल, गंभीर और शांत स्वभाव व्यक्ति एकाएक इतना कठोर कैसे बन गया?”
“स्थिति ही ऐसी थी। ऐसे में अनचाहे भी स्वयं रुंआ- रुंआ आवेश में आ जाता है।”
गंगा चाय की ट्रे लेकर आ गई और माधुरी उनके लिए चाय बनाने लगी। इस घटना से वातावरण बड़ा गंभीर हो गया था और सहमे हुए से चुपचाप थे।
चाय पीकर वासुदेव कोचवान को देखने के लिए डिस्पेंसरी जाने के लिए तैयार हो गया, उसे डर था कि कहीं पागल घोड़े का विष उसके लहू में ना मिल जाएम राजेंद्र ने भी साथ चलने की इच्छा प्रकट की, किंतु वासुदेव ने उसे यह कहकर रोक दिया , “नहीं तुम घर पर रहो, मैं शीघ्र लौटने का प्रयत्न करूंगा।”
वासुदेव चला गया और जब तक आँखों से ओझल ना हो गया दोनों उसे देखते रहे। कमरे में मौन छाया रहा। फिर माधुरी बोली –
“पशुओं का पागल हो जाना भी बड़ा भयानक होता है।”
“और मानव का पागल होना इस से भी भयानक है।”
ठंडी-ठंडी वायु चल रही थी। वह ड्योढ़ी से बाहर निकल कर झील के किनारे आ पहुँचे और लहरों का नृत्य देखने लगे। अभी तक माधुरी के मस्तिष्क पर वही घटना छाई हुई थी।
राजेंद्र चलते-चलते रुक गया और हरी दूब के एक टुकड़े पर माधुरी को बैठ जाने को कहा। झील के किनारे पर अपने गांव पानी में डाल कर बैठ गये। राजेंद्र की और उसकी पीठ थी। दोनों अपने अपने विचारों में खोये बैठे थे। अंत में राजेंद्र ने में भंग किया और कहा –
“माधुरी कहते हैं कि स्त्री पुरुष की सबसे बड़ी दुर्बलता है।”
“पुरुषों की दृष्टि में…मैं समझती हूँ कि इस आड़ में वह स्त्री को खिलौना बना कर अपना मन बहला होते हैं और जब मन भर जाता है तो सिर्फ तोड़-फोड़ कर फेंक देते हैं।” माधुरी ने बिना उसकी और देखे उत्तर दिया।
“किंतु तुमसे तो कोई ऐसा बर्ताव नहीं हुआ? यह खिलौना अभी तो बहुत सुंदर है।”
“बस एक दिन यह भी स्वयं ही टूट जायेगा।”
“माधुरी! ऐसी बातें क्यों करती हो? मन दुखी होता है।”
“क्यों?”
“न जाने यह सहानुभूति क्यों?”
“आप बनाने लगे क्या?”
“क्या तुम ऐसे समझती हो? मुझे तुमसे यह आशा न थी।”
“और आप मुझे भुला देंगे, मुझे भी आपसे यह आशा न थी।”
“ब्याह हो जाने के पश्चात स्त्री पराई हो जाती है और उसे प्यार किया जाना पाप होता है।”
“आप तो पाप करने से पूर्व ही प्रायश्चित करने लगे।”
“क्यों?
“मेरा अभिप्राय था, इनकी याद आई और मिलने चले आए।”
“तुम्हारे पति तो मेरे मित्र हैं।”
“और मैं शत्रु… यही ना?”
“नहीं तो! मेरा अभिप्राय था तुम एक स्त्री हूँ और यह..”
“क्या स्त्री किसी की मित्र नहीं रह सकती।”
“ब्याह के पश्चात समाज की दृष्टि में ऐसी मित्रता कुछ अनुचित सी है।”
“यही कि कुछ और भी!”
“और यह की स्त्री की मित्रता का क्या विश्वास?”
माधुरी झुंझला उठी और पांव से पानी के छींटे उड़ाते ने झट उठकर वापस जाने लगी। राजेंद्र ने लपक कर उसका पल्लू पकड़ लिया। माधुरी ने झटके से पल्लू छुड़ा लिया और तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखने लगी।
“बुरा मान गई क्या?” राजेंद्र ने कुछ सोचते हुए नम्र स्वर में पूछा।
“आप बातें जो ऐसी करने लगे।”
“वह तो में हँस रहा था…माधुरी! तुम्हें क्या बताऊं कि इतने समय बाद अकस्मात तुम्हें यहां देख कर मैं कितना प्रसन्न हुआ हूँ।”
“पुरुषों को बनाना खूब आता है।”
“क्या करें…स्त्रियाँ भी तो यही चाहती है।” राजेंद्र ने मुस्कुराते हुए कहा। माधुरी के गंभीर मुख पर भी मुस्कान खेलने लगी और वह फिर वहीं बैठ गई।
इन छोटे-छोटे चुभते हुए वाक्यों में दोनों को आनंद आ रहा था। कॉलेज में भी वह ऐसे ही एक दूसरे को छेड़ा करते थे। एक समय के पश्चात दोनों के मन में एक साथ सोई हुई आकांक्षायें जागृत हुई।
वासुदेव को गए हुए बड़ा समय हो चुका था। दोनों सबकुछ भुलाकर झील के किनारे अतीत को याद करके बातों में व्यस्त थे। वही पुरानी घनिष्ठता लौटती आ रही थी। माधुरी हरि दूब पर पेट के बल लेटी एक हाथ से झील के पानी को चीर रही थी और राजेंद्र पास ही बैठा उसके मदमाते यौवन को निहार रहा था।
झील की लहरों के समान राजेंद्र के मस्तिष्क में कई विचार उठ रहे थे। वह सोचने लगा, ‘वासुदेव को माधुरी से प्रेम नहीं और माधुरी के लिए विवाहित जीवन पहाड़ सा बन रहा है… ऐसे में माधुरी को पाने का प्रयत्न करें तो इसमें बुरा क्या है? वह दोनों तो एक दूसरे को अब भी वैसे ही चाहते हैं। एक-दूसरे को भली प्रकार समझते हैं, इकट्ठे पड़े हैं, उनके विचार मिलते हैं।’
फिर कैसा उसे यह विचार आता कि वासुदेव उसका प्रिय मित्र है…वह मित्र से विश्वासघात करें। उसकी विवाहिता पत्नी के विषय में यूं सोचे और उसके अपवित्र विचार इस नई लहर से धुल जाते। परंतु फिर माधुरी पर दृष्टि पड़ती है, उसका सौंदर्य, उसका अंग-अंग उसे पुकारता हुआ दिखाई पड़ता और फिर वही पहली ले रहे चलने लगती। दोनों ने मिलकर प्रेम विवाह का प्रण किया था। कल्पना मैं अपने भावी जीवन के कितने सुंदर महल बनाए थे। उन्होंने एक ही मन से मिलकर आज से कितना समय पहले कल्पना में अपने भविष्य का निर्माण किया था, जिसमें बसंत ही बसंत होगी, फूल ही फूल होंगे और होंगी भीनी-भीनी दो सांसों की सुगंध, दो हृदयों का संगीत – किंतु समय चक्र आया और उसे युद्ध पर जाना पड़ा। वह अलग हो गए, कल्पना के महल डर गए और जब वह युद्ध से लौटा उसे पता चला कि माधुरी ने ब्याह कर लिया है।
अपनी प्रेम का यह देखकर उसका मन टूट गया। उसका रुआं-रुआं पीड़ा से कराहने लगा। उसे संसार से घृणा सी हो गई और उसने कभी ब्याह न करने का प्रण लिया। बरसों वह इस ज्वाला में जलता रहा। उसने उसे भुला देने का बड़ा प्रयत्न किया, किंतु उसकी छबि को बिल्कुल मन से ना मिटा सका। समय बीतता गया और वह शांत होता गया। अतीत और माधुरी का विचार उसके लिए इतना कष्टमय ना रहा।
अकस्मात जब अपने मित्र के यहाँ आया तो बरसों की दबी धधक पड़ी। उसे इस बात का लेश मात्र भी विचार ना था कि वह अपनी प्रेमिका को देख पयेगा और वह भी इतना निकट से।
माधुरी अब उठ बैठी थी राजेंद्र उसे एकटक देखे जा रहा। भाग्य ने उन दोनों को दूर करके फिर मिला दिया था। न जाने कितनी देर में उसे यूं ही देखता रहा यदि माधुरी यह प्रश्न ना कर देती है –
“आप मुझे घूर-घूर कर क्रोध से क्यों देख रहे हैं?”
“क्रोध से नहीं प्यार से!”
“आपका मुख तो कुछ और ही कह रहा है!”
“किसी अन्यायी पर क्रोध आ रहा है।”
“किस पर?”
“तुम्हारे पति पर, जो तुम्हें यूं तड़पा कर अतिरिक्त मार रहा है, तुम्हारे यौवन से इतना विमुख है।,,”
माधुरी के मन को ठेस सी लगी। घुटनों में मुँह देकर कुछ सोचने लगी। राजेंद्र ने देखा कि उसके माथे पर पसीने की बूंदें एकत्र हो गई थी। कुछ देर यूं ही मौन छाया रहा और फिर राजेंद्र बोला –
“माधुरी! एक बात पूछता हूँ बताओगी?”
“क्या?”
“वचन दो कि झूठ ना कहोगे!”
“आप मुझे तो!”
“क्या तुम अब भी मुझसे प्यार करती हो?”
राजेंद्र की यह बात सुनकर वह कांप सी गई और झट मुँह मोड़ कर खड़ी हो गई। अभी वह अपने प्रश्न को दोहरा भी ना पाया था कि झील में चप्पूओं की ध्वनि सुनकर दोनों एक साथ मुड़े और सामने फैली हुई झील को देखने लगे। दूर उस पार से एक नाव आ रही थी। दोनों ने एक दूसरे को देखा और माधुरी बोली –
“चलिए! वह आ गये।”
दोनों वहाँ से उठकर चोरों की भांति घर में आये और अपने अपने कमरे में चले गए मानो घर से बाहर गए ही ना थे।
वासुदेव ने गोल कमरे में प्रवेश कर ते वही ऊँचे स्वर में गंगा को पुकारा। दोनों ने उसका स्वर सुना किंतु अपने अपने कमरे में लेटे रहे। वासुदेव ने राजेंद्र के कमरे में पांव रखा और उसे यू लेटे देखकर बोला, “यह क्या अभी तक नहाये भी नहीं?”
“नहीं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था।”
“माधुरी कहाँ है?”
“अपने कमरे में होंगी।”
राजेंद्र की बात सुनकर वासुदेव अपने कमरे में गया। माधुरी कमरे के झाड़-पोंछ में लगी हुई थी। द्वार पर आहट हुई और वह संभली। वासुदेव ने पूछा –
“क्या हो रहा है?”
“आपकी प्रतीक्षा, काहिए! क्या बना बेचारे कोचवान का!”
“डॉक्टर को सौंप दिया है आशा है ठीक हो जायेगा।”
माधुरी कुछ और पूछना ही चाहती थी कि उसी समय राजेंद्र द्वार के भीतर आया। उसे देखकर वह झेंपकर रह गई और अलमारी में कपड़े रखने लगी।
“राजेंद्र! तुम दोनों एक साथ कॉलेज में पढ़ते रहे हो ना?” वासुदेव ने माधुरी की झेंप को भांपते हुए मुस्कुराकर राजेंद्र की ओर देखा।
“हाँ तो!”
“मुझे विश्वास नहीं आ रहा था।”
“क्यों?”
“इसलिए कि यह एक दूसरे से झेंपना, अपरिचितों सा व्यवहार, एक ही घर में दोनों का अलग-अलग कमरे में घुसे रहना!”
“तो क्या करते?” राजेंद्र ने प्रश्न किया और एक छिपी दृष्टि से माधुरी की ओर देखने लगा।
“कुछ नहीं तो बातें नहीं करते!”
“बातें! आपकी पत्नी से! कैसे संभव था?”
“क्यों?”
“मैं तो आपसे ही अपरिचितों के समान रहती है, भाका वह मुझसे क्या बोलेंगे।”
वासुदेव संकेत को भांप गया और चुप हो गया। माधुरी बाहर जाने लगे।
“माधुरी!” वासुदेव उसे जाते देख कर पुकारा।
“जी!” वह रुक गई किंतु मुड़कर देखने का साहस न कर सकें।
“कहाँ चली?” वासुदेव ने पूछा।
“आपके लिए नाश्ता लाने।”
“तुम दोनों क्या खा चुके?”
“नहीं तो, आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे।” माधुरी यह कहकर बाहर चली गई और वह राजेंद्र के पास बैठकर उसके बातें करनेवलगा। आज राजेंद्र के ममुँह पर कुछ परिवर्तन सा दिखाई पड़ रहा था। उसने चाहा कि अपने अतिथि मित्र से इस बात का कारण पूछे, पर कुछ सोचकर चुप हो गया।
कुछ समय पश्चात वे लोग नाश्ते पर बैठे। माधुरी चाय बनाने लगी। तीनों में कुछ विचित्र तनाव था, वे घबराए से, घुटे से थे। सब मौन से थे। वासुदेव अधिक समय तक इस वातावरण को सहन ना कर सका और बोला, “राजी! मेरी बात मानो तो तुम अब ब्याह कर डालो।”
“सहसा यह विचार कैसे आया तुम्हें?” राजेंद्र ने पहले उसकी और फिर माधुरी की ओर देखा। माधुरी चाय में चीनी मिला रही थी। यह बात सुनते ही उसका हाथ रुक गया।
वासुदेव ने चाय का प्याला उठाते हुए कहा, “हाँ, जीवन की सुविधा के लिये।”
“समय पर खाने को मिल जाये, पहनने को मिल जाये, हर समय कोई प्रतीक्षा करता द्वार पर खड़ा रहे…क्या जीवन की सुख-सुविधा यहीं तक सीमित है?”
“सुख-सुविधा में तो बहुत कुछ है, किंतु थोड़ा-सा भी सुख देने वाले साथी मेंएक गुण होना आवश्यक है।” वासुदेव ने चाय पीते हुए कहा।
“क्या?” राजेंद्र ने पूछा।
“इसको प्यार में बुखार की भावना न हो, जो कुछ हो मन से हो।”
इसी समय दोनों ने एक साथ माधुरी को देखा। वह चुपचाप किसी भी विचार में डूबी धीरे-धीरे चाय पी रही थी। उसके माथे पर पसीने की बूंदें झलक रही थी।
वासुदेव ने प्यार से माधुरी का हाथ अपनी हथेली में लेकर कहा, “क्या मैंने झूठ कहा है माधुरी?”
“जी आप…!” वह चौंक गई और फिर संभलते हुए बोली, “आप कभी झूठ कह सकते हैं?”
यह कह कर वह उठी और चाय का पानी लेने बाहर चली गई। राजेंद्र ने पहले उसे और फिर वासुदेव को देखा। वह झेंप गया। आंगन में गंगा खड़ी थी, उसने माधुरी के हाथ से चाय दानी ले ली। माधुरी भीतर लौट आई और उनके पास से होकर दूसरे कमरे में जाने लगी। अभी वह कमरे में ही थी कि राजेंद्र ने होठों पर हँसी उत्पन्न करते हुए कहा –
“तो भाई! एक लड़की ढूंढ दो ना!”
“कैसी लड़की चाहिए?”
“जैसी तुम पसंद करो।”
“मेरी पसंद! वह तो माधुरी जैसी ही होगी।”
“तो ऐसी ही ला दीजिए।”
वासुदेव झेंप गया। राजेंद्र ने उसके मन में उड़ते हुए ज्वार भाटा को भांप लिया था और साथ ही परदे के नीचे उन लाल स्लीपरों को भी देख लिया था , जो संगमरमर के समान कोमल और गोरे-गोरे पैर को छुपाए हुए थे। माधुरी छिपकर उनकी बातें सुन रही थी। थोड़े समय तक दोनों चुप रहे। गंगा ने आकर चाय का पानी रख दिया और राजेंद्र प्यालो में चाय उड़ेलने लगा।
“वासुदेव! इन पहाड़ियों में क्या तुम्हारा मन नहीं घबराता।” राजेंद्र ने पूछा।
“मैं यहाँ अकेला तो नहीं, माधुरी है और उसके साथ क्या बुरा लगेगा?”
“मेरा अभिप्राय है – क्या वातावरण, यह सुना सुना घर…एक दो बच्चे होते, तो यह मौन दीवारें चहकने लगती।”
राजेंद्र ने ध्यानपूर्वक देखा। क्या बात सुनकर वासुदेव का मुख पीला पड़ गया था। चाय का प्याला कठिन ता से उसके हाथ से गिरते गिरते बचा था। उसने उसके और माधुरी के खाली प्याले में चाय उड़ेली और हिलते हुए पर्दे को देखकर उनके स्वर में पुकारा।
माधुरी झट दूसरे कमरे से निकल आई। राजेंद्र ने प्याला उस की ओर बढ़ाते हुए कहा – “लो चाय ठंडी हो रही है।”
“और इच्छा नहीं!”
“अब तो ले लो, बना हुआ है। साथ के लिए ही सही।”
वह चुप हो गई और प्याला थाम कर चाय पीने लगी। तीनों चुप थे। अपने-अपने विचार में, किंतु तीनों के विषय का केंद्र एक था।
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