चैप्टर 7 काली घटा : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 7 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 7 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda

Chapter 7 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda

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रात मौन थी। वायु का नाम तक न था। दूर मेंढकों के टर्राने की ध्वनि सुनाई दे रही थी। राजेंद्र और वासुदेव झील के किनारे लेटे आकाश की नीलिमा को निहार रहे थे, जिस पर धीरे-धीरे तारों का जाल फैलता जा रहा था। दोनों चुपचाप किसी गहरी सोच में डूबे हुए थे।

मित्र के मन का भेद जानकर राजेंद्र को यूं अनुभव हो रहा था, मानो किसी ने उसके शरीर को सुइयों से छेद डाला हो और उसमें हिलने डुलने की शक्ति भी न रही हो।

क्या यह सच है?

क्या यह वास्तविकता कल्पना से इतनी भयानक थी?

क्या आज तक वह इस ज्वाला में अकेला ही जलता रहा है?

क्या जीवन में ऐसे भेद भी हैं, जो पति अपनी पत्नी से नहीं कह सकता?

ऐसे ही कितने ही प्रश्न उसके मस्तिष्क में उठे और चक्कर लगाने लगे। उसकी सांस घुटी जा रही थी। उसने कठिनता से गर्दन मोड़कर वासुदेव को देखा। वह झील के जल की भांति मौन और शीत, आकाश की ओर पथराई हुई दृष्टि से देख रहा था।

अचानक एक आवाज़ हुई। दोनों के विचार की कड़ी टूट गई और वह एक साथ उठ बैठे। सामने हाथ में टॉर्च लिए माधुरी खड़ी उन्हें पुकार रही थी।

दोनों बिना बात किए सिर झुकाए घर की ओर चल पड़े। माधुरी पीछे और वह दोनों आगे आगे…कहीं उसके प्रेम का रहस्य तो नहीं खुल गया? कहीं इसी बात पर तो दोनों का झगड़ा नहीं हुआ। वह यह सोचती हुई मन ही मन डरती आ रही थी।

खाना खाते समय भी तीनों चुप थे। किसी ने कोई बात न कि, कोई हँसा नहीं, कोई वाद-विवाद नहीं हुआ। बस चुपचाप खाते रहे, यूं अनुभव हो रहा था, मानो तीनों एक दूसरे से डर रहे हों। खाना विष बनकर उनके गले से नीचे उतर रहा था।

राजेंद्र खाने के तुरंत बाद अपने कमरे में चला गया। माधुरी का हृदय धड़क उठा। उसे अकेले में अपने पति से भय लग रहा था। वह सोच रही थी कि कहीं वह अपने कमरे में चला जाये, तो अच्छा हो, किंतु ऐसा न हुआ। वह एक पत्रिका लेकर उसके पास ही आराम कुर्सी पर टांगे लंबी करके बैठ गया। थोड़ी देर माधुरी एक मानसिक दुविधा में बैठी रही और फिर धीरे से उठकर दूसरे कमरे में जाने लगी।

अचानक वासुदेव ने पुकारा, “माधुरी!”

“जी!” वह झेंप गई और घबराहट दूर करने का प्रयत्न करने लगी।

“कुशल तो है? आज कुछ उदास दिख रही हो।”

“नहीं तो…आप चुप थे…मैं तो…”

“राजी को दूध पहुँच गया?”

“गंगा से कह दिया था..”

“स्वयं देख लिया करो, वह अतिथि नहीं मेरा बड़ा प्रिय मित्र है।”

वह चुप रही।

क्षण भर रुककर वासुदेव फिर बोला, “कहीं वह भूल न जाये, जरा देख लेना।”

यह कहकर वह फिर पत्रिका पढ़ने में लग गया। वह उठी और बाहर चली गई।

गंगा दूध का गिलास लिए राजेंद्र के कमरे की ओर जा रही थी। माधुरी ने उसके हाथ से गिलास ले लिया और स्वयं उधर चली। वह बड़ी डर से उससे अकेले में मिलने का यत्न कर रही थी, किंतु अवसर ही न मिल रहा था।

कमरे में हल्का-हल्का प्रकाश था और वह पलंग पर लेटा छत की ओर देख रहा था। उसने माधुरी को आते हुए नहीं देखा। माधुरी ने पहले तो उसे अपने आने की सूचना देनी चाही, परंतु कुछ सोचकर रुक गई। मेज पर दूध का गिलास रखने लगी, तो मेज को हल्की सी ठोकर लगी।

“कौन?” वह आहट सुनकर चौंक उठा।

“मैं माधुरी!”

“माधुरी तुम यहाँ कैसे?”

“आपके लिए दूध लाई थी।”

“गंगा नहीं थी क्या? आज मुझे दूध नहीं पीना।”

“क्यों? मेरे हाथ लग गए इसलिए?”

“नहीं माधुरी, आज मन नहीं चाहता।”

“वहीं तो मैं पूछ रही हूँ, यह आपको एकाएक हो क्या गया है?”

“कुछ नहीं, यूं ही मन उदास हो गया है।”

“क्यों?”

“कुछ विशेष बात नहीं!”

“आप मुझसे कुछ छुपा रहे हैं।”

“मन का भ्रम…एक अकारण का भय।”

“क्या?” वह राजेंद्र के बिल्कुल समीप आ गई और धड़कते हुए हृदय से उसकी बात सुनने लगी।

“सोचता हूँ कहीं तुम्हारा प्रेम धोखा न हो।”

राजेंद्र की बात उसके मन पर नश्तर के समान लगी और वह तेजी से दूर हट गई। ऐसा करते हुए मेज को ठोकर लगी और दूध का गिलास उलट गया।

उसने एक दृष्टि गिरे हुए दूध पर और दूसरी राजेंद्र पर डाली और झट बाहर निकल गई। राजेंद्र के मुख पर एक छिपी मुस्कान थी। अभी उसने बाहर पैर रखा ही था कि लैंप की बत्ती बुझ गई और कमरे में अंधेरा छा गया।

रात बढ़ती जा रही थी। खिड़की खुली थी और बाहर हवा के झोंके एक ठंडी सी मधुर जलतरंग बजा रहे थे।

राजेंद्र की आँखों में नींद न थी। अंधेरे में लेटे उसके मस्तिष्क के छाया पट पर स्वयं अतीत के चित्र उतारने लगे। उसकी आँखों के सामने वह दृश्य फिर गया, जब वह और वासुदेव सैनिक कॉलेज में इकट्ठे शिक्षार्थी थे। दोनों बड़े गूढ़ मित्र थे। शिक्षा समाप्त होने पर दोनों को अलग अलग यूनिटों में बदल दिया गया। वह मद्रास में चला गया और वासुदेव को ब्रह्मा की सीमा पर जाना पड़ा।

जहां उस भयंकर युद्ध ने संसार भर में हाहाकार मचा दी, वहाँ वासुदेव भी इसके प्रभाव से न बच सका। राजेंद्र को उसका रहस्य आज ही ज्ञात हुये। अभी तक उसके कानों में अपने मित्र के दुख भरे शब्द गूंज रहे थे। उसने अपनी पूरी आत्म कथा उसे सुना दी थी।

जापानियों से लड़ते हुए उसकी कंपनी शत्रु के घेरे में सा गई थी और वह बंदी बना लिए गए थे। उसे दस और साथियों के साथ पहाड़ में खोदकर बनाये गए एक ऐसे कमरे में कैद कर दिया गया, जिसके बाहर लोहे कि मोटी सींखों का छोटा सा किवाड़ था। एक ओर छत से मिला हुआ एक झरोखे का स्थान था, जो लोहे कि मोटी जाली से ढका हुए था, जिससे थोड़ा सा उजाला उन तक पहुँचता था। केवल इसी उजाले से वह दिन रात का अनुमान लगा सकते थे। खाना और पानी उन्हें नाममात्र को ही दिया जाता था। यहीं वे जीवन की अंतिम सांसे गिन रहा था।

एक रात उन्होंने साहस किया और मिलकर उस दीवार को खोदने लगे, जिसमें झरोखा था। भाग्य ने उनका साथ दिया और दो रातों में वो झरोखे में इतना स्थान खोदने में सफल हो गए, जिसमें निकाल कर वे बाहर निकल सके।

किसी रात बाहर निकलने की योजना बनी। वासुदेव का पांचवा नंबर था। उससे पहले उसके चार साथी बाहर निकलकर झाड़ियों में छिप गए थे। जब सन्नाटा छा गया और वह निश्चिंत हो गए कि वह लोग सुरक्षित है, तो उसने धीरे-से गर्दन बाहर निकाली और चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। सर्वत्र मौन था। दूर दो संतरी पहरा दे रहे थे। वासुदेव ने शरीर को समेटकर ऊपर उठाया, नीचे वाले साथियों ने सहारा दिया और वह रेंगता हुआ बाहर आ गया। जरा सी आहट हुई, तो उसने अपने आपको झाड़ियों में छुपा लिया और धरती पर लेट गया।

संतरी आपस में मुड़कर बातें करने लगे, तो उसने धीरे-धीरे रेंग कर बढ़ना आरंभ किया। कुछ आगे चलकर उठ खड़ा हुआ और दौड़ने लगा। दुर्भाग्य से उसका पांव फिसला और वह गिर पड़ा। संतरियों ने झट से ललकारा। एक में हवा में गोली छोड़ी और सर्च लाइट घुमा कर देखा।

सर्च लाइट की रोशनी ज्यों-ज्यों उसके समीप आ रही थी, उसकी सांस घुटी जा रही थी। जीवन मृत्यु की सीमा पर दिखाई दे रहा था। बस निकलने का कोई बात न था, करे तो क्या करें? रोशनी उसके आगे होकर मुड़ गई। उसने साहस बटोरा और पूरे बल से भागा। सर्च लाइट मुड़कर उस पर आ पड़ी और उसके साथ ही गोलियों की बौछार उसके आसपास होने लगी। वह धरती पर गिर गया।

गोलियों की बौछार समाप्त हुई, तो घायल वासुदेव ने स्वयं को अंधेरी झाड़ियों में फेंक दिया। भाग्य से उसके दूसरे साथी भी वही छुपे बैठे थे। इससे पहले कि संतरी उस स्थान पर पहुँचते, उसके साथी घायल वासुदेव को लेकर नदी में उतर गये  और रात के अंधेरे में तैरते हुए उसे पार कर गये।

वासुदेव के प्राण तो बच गए, किंतु वह अतिघायल हुआ था। एक गोली उसकी जांघ में घुस गई थी। कैंप में तत्कालीन चिकित्सा दी गई और शीघ्र ऑपरेशन के लिए पीछे भिजवा दिया गया। गोली निकल गई और ऑपरेशन सफल रहा। घाव भरने तक दो महीने उसे अस्पताल में ही रहना पड़ा।

जब उसका अस्पताल से जाने का दिन आया, तो डॉक्टर ने उससे हाथ मिलाते हुए कहा, “वासुदेव! तुम बड़े भाग्यशाली हो।”

“सब आपकी कृपा है डॉक्टर! वरना मुझे तो बचने की कोई आशा नहीं थी।”

“ऐसा मत कहो वासुदेव! मैंने तो अपना कर्तव्य ही पालन किया है…बचाने वाला तो भगवान ही है। अच्छा, अब तुम यहाँ से जा रहे हो, तो मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन संबंधी कुछ कहना चाहता हूँ।”

“क्या?”

“तुम एक जिम्मेदार मिलिट्री ऑफिसर हो और मैं तुम्हें अंधेरे में नहीं रखना चाहता।”

“मैं समझा नहीं डॉक्टर!”

“तुम्हें जीवन तो अवश्य मिल गया है, किंतु खेद है कि मुझे तुम्हारी कुछ खुशियाँ छीननी पड़ी।”

“डॉक्टर!”

“हाँ वासुदेव! तुम्हारे जीवन के लिए मुझे विवशत: ऐसा करना पड़ा। गोली जांघ में  बहुत गहरी चली गई थी।”

“तो?”

“ऑपरेशन करते समय मुझे तुम्हारी कुछ ऐसी नसें काटनी पड़ी, जो फिर नहीं मिल सकती।”

वासुदेव आश्चर्यचकित डॉक्टर की ओर देखने लगा। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि डॉक्टर क्या कहना चाहता था। किंतु जब उसने मुँह मोड़कर धीमे स्वर में उससे कहा, “वासुदेव! अब तुम नपुंसक हो गए हो, स्त्री संभोग के योग्य नहीं रहे।” तो उसके मस्तिष्क पर एक हथौड़े की सी चोट लगी। इसका रोम-रोम कांप उठा। उसे यूं लगा, मानो किसी ने उसकी युवा आकांक्षाओं का गला घोंट दिया हो। कोई बर्फ का गोला उस पर आ गिरा हो और उसका शरीर सुन्न हो गया हो। वह फिर झुकाए चुपचाप अस्पताल से बाहर निकल गया।

राजेंद्र को उसका दु:ख और विवशता जानकार एक आघात सा लगा। उसे स्वयं से घृणा होने लगी। माधुरी के विचार से भी उसका सीना जलने लगता। उसने अपने मित्र की पीठ में खंजर घोपा था। कितना गिरा हुआ कार्य था। उसे अपने मानव होने पर भी शंका होने लगी।

वासुदेव में कितना धैर्य था। वह सचमुच देवता था। अपनी पत्नी के विरुद्ध उसने एक शब्द मुँह से ना निकाला और माधुरी? वह उसे पत्थर समझती है। कितनी शीघ्र ही वह अपना प्रेम और कर्तव्य सब कुछ भूल गई। उसे वासुदेव के कहे गए शब्द स्मरण हो आए, “मैं अब जान पाया कि प्रेम कुछ नहीं। इसका आधार कामुकता पर है और वह यदि ना हो, तो प्रेम एक धोखा है, भुलावा है।”

रात भर वह इन्हीं विचारों में उलझा रहा और सवेरा होने की प्रतीक्षा करता रहा। उसने सोचा क्यों ना वह उस स्थान को छोड़कर चला जाये और आजीवन उसे अपना मुँह न दिखाये।

रात में भाग जाने की सूझी, किंतु सहसा उसे फिर वासुदेव के दु:ख का विचार आया और उसके पांव रुक गये।

अबकी वह उसे धोखा ना देना चाहता था।

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