Chapter 2 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda
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“गंगा!”
“हाँ बीबी जी!”
“साहब ने अभी तक नाश्ता नहीं किया क्या?”
“नहीं वह तो प्रातः ही चले गए।”
“कहाँ?” माधुरी चकित हो बोली।
“झील के उस पार। कहते थे आज उनका कोई मित्र आ रहा है। वह उसे लेने गए हैं।”
“कल तो उन्होंने इसका कोई संकेत तक भी नहीं किया।”
“कदाचित भूल गए होंगे…” और गंगा कमरे की झाड़-पोंछ में व्यस्त हो गई। माधुरी चुपचाप किसी सोच में डूब गई। वह गुमसुम सी खिड़की का किवाड़ खोल कर बैठ गई। सामने ही झील का विस्तृत जल फैला हुआ था। उसकी दृष्टि उसको पार करती हुई उसकी दूसरी ओर जा पहुँची, जहाँ छोटा सा रेलवे स्टेशन था। उस गाँव में प्रत्येक आने वाले को वहीं उतरना पड़ता था। आज उसके पति अपने मित्र को उसी स्टेशन पर लेने गए थे। वहाँ से इस गाँव में आने का एक ही मार्ग था – वह नाव द्वारा।
वह कल पति से बिगड़ गई। अब पछताने लगी, शायद इसी कारण वह उस अतिथि के विषय में कुछ कह नहीं सके और प्रातः ही चले गये। माधुरी ने झील के ऊपर उड़ते पक्षियों को देखा। उसकी धमनियों में फिर से लहू दौड़ने लगा और उसने अपनी थकी हुई बोझिल आँखों में नव जीवन का अनुभव किया। वह तुरंत उठी और गंगा को पुकारा, “गंगा तुम शीघ्र सफाई कर डालो। मैं नाश्ता बनाती हूँ।”
यह कहकर वह रसोई घर में चली गई। आज वह स्वयं अपने हाथों अपने पति और आने वाले अतिथि के लिए नाश्ता बनायेगी। उसे विश्वास था कि जब उसके पति अतिथि के साथ पहुँचेंगे, तो रात की सब बात भूल जायेंगे और उसका परिचय कराते समय यूं कहेंगे –
“यह है माधुरी, मेरा जीवन, जिसके आश्रय पर मैं इस उजाड़ में भी स्वर्ग का आनंद ले रहा हूँ।” वह कल्पना में ऐसे कई चित्र बनाती रही। थोड़ी-थोड़ी समय पश्चात उठकर झील की ओर देखने लगती और उन्हें आता ना देकर निराश पर हो जाती। किसी भी से उसका मन धड़कने लग जाता, किंतु उस भय को वह समझ नहीं पाती । एकाएक गंगा भाग कर आई और बोली – “वह आ गए…आ गए।”
“किधर?”
“नाव पर…”
वह भागकर बरामदे में आ गई और झील को देखने लगी। दूर एक नाव उसी ओर चली आ रही थी। दूरी के कारण में पहचान तो नहीं पाई, किंतु उसका विश्वास था उसके पति ही है और अकेले नहीं, संग में कोई और भी था।
गंगा को रसोई घर में खड़ा करके वह झट अपने कमरे में गई और उसने फिर खिड़की से झांककर देखा। वह नाव निरंतर बढ़ी चली आ रही थी। भय और प्रसन्नता – दोनों भावना यें उसके मन पर अधिकार किए थीं। उसका हृदय धक धक करने लगा। दर्पण उसने अपनी छबि देखी – बिखरे बाल…उल्टी सूरत – वह स्वयं अपने पर झुंझला उठी। उसने शीघ्र कंघी की, बाल सांवरे और अलमारी से हल्के गुलाबी रंग की साड़ी निकालकर पहनी। एक हाथ में उसी रंग की चूड़ियाँ और जूड़े में गुलाबी रंग का रेशमी रुमाल बांधकर बन-संवर कर तैयार हो गई। यह सब उसने पलक झपकते कुछ ही देर में कर डाला। वह किसी अतिथि पर यह प्रकट ना होने देना चाहती थी कि उनके मध्य कोई खिंचाव रहता है तथा उनका दांपत्य जीवन किसी विषाद की कड़ी से सदा जकड़ा रहता है। उसने किवाड़ की ओट से नीचे झांका। नाव झील के किनारे लग चुकी थी और वे नीचे उतर चुके थे। चौकीदार नाव में से समान उतार रहा था। उसके मन की धड़कन तीव्र हो गई।
उसने आगंतुक को देखने का प्रयत्न किया, किंतु उसे देख न पाई। उसके पति ने अपना घर दिखाने के लिए खिड़की की ओर संकेत किया। वह वहाँ से हटकर दीवार से लग गई और अधीरता से उनके आने की प्रतीक्षा करने लगी।
मुझे कुछ शोर हुआ। नौकरों की भागदौड़ हुई और गंगा भागी-भागी भीतर आई। उसने स्वामी के आने की सूचना दे दी। माधुरी के कान तब से उधर ही लगे थे। वह आने वाले की पदचाप सुनने लगी। गोल कमरे के बाहर यह स्वर सुनाई पड़ा – “गंगा! माधुरी कहाँ है?” वह चौंककर संभली। वह साथ वाले कमरे में पहुँच चुके थे। वह कुछ निर्णय भी न कर पाई थी – वही रहे अथवा स्वागत को बाहर आए कि वासुदेव पर्दा उठा कर भीतर आया। माधुरी को क्षण भर देखता ही रह गया। वह प्रातः ही इन है गुलाबी कपड़ों में बड़ी भली और प्यारी लग गई थी। वह मुस्कुरा उठा और हाथ में पकड़ा फूल उसकी ओर फेंका। माधुरी ने संकोच से दृष्टि झुका ली। वासुदेव ने अपना कोट उसको थमाते हुए कहा –
“बाहर कोई अतिथि आया है।”
“आपने कल तो नहीं बताया?”
“तुमने इसका अवसर ही कब दिया!”
वह मौन रही और उसका कोट खूंटी पर टांगने लगी। वासुदेव बोला, “उसके लिए किसी कष्ट की आवश्यकता नहीं…घर का ही व्यक्ति है…हाँ लंबी यात्रा से आया है। गंगा से कहो, उसके नहाने का प्रबंध कर दे…वह मेरे ही कमरे में ठहरेगा।” यह कहकर वह कपड़े बदलने लगा। माधुरी अतिथि के खाने और आराम का प्रबंध करने के लिए बाहर चली गई।
अभी उसने गोल कमरे में पांव रखा ही था कि आने वाले व्यक्ति को देख कर रुक गई। उसकी ओर पीठ के खिड़की के बाहर झील का दृश्य देख रहा था। सिगरेट के धुएं से कमरे में तंबाकू की बास भर गई थी। माधुरी दबे पांव बाहर जाने के लिए बढ़ी। अतिथि ने उसके पांव की चाप सुन ली, किंतु मुड़कर नहीं देखा और सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए बोला, “वासुदेव! यह गाँव नहीं स्वर्ग है। यदि मैं पहले जानता कि यह स्थान इतना सुंदर है, तो कभी का तुम्हारे पास आ गया होता।”
माधुरी ने सोचा कि वह कोई उत्तर दे दे, किंतु उसके होंठ न हिल सके। अतिथि उसे ही वासुदेव समझ रहा था। जब कुछ देर तक उसने कोई उत्तर न दिया, तो अतिथि शीघ्रता से मुड़ा। दोनों की आँखें मिली और उसकी उंगलियों से जलता हुआ सिगरेट फर्श पर गिर पड़ा। माधुरी की आँखें संकोच से झुक गई और वह झट से बाहर जाने लगी कि वासुदेव दूसरे कमरे से निकल आया। माधुरी वहीं खड़ी की खड़ी उसे देखती रही। वासुदेव ने मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा और अतिथि से संबोधित हो बोला – “राजेन्द्र! यह है मेरी माधुरी…मेरा जीवन, जिसके सहारे इस उजाड़ को भी स्वर्ग बनाए बैठा हूँ।”
राजेंद्र में धीरे से हाथ जोड़कर अभिवादन किया। माधुरी ने कांपते होठों से उसका उत्तर दिया और शीघ्रता से बाहर चली गई। जाते हुए उसने राजेंद्र के यह शब्द सुने, जो वह उसके पति से कह रहा था – “वासुदेव बड़े भाग्यवान हो, जो इतना अच्छा जीवनसाथी मिला है।”
जब आप माधुरी ने पर्दे की ओट में खड़े होकर सुनी। उसके भीतर मौन छा गया, तो उसने ओट में से एक बार ध्यान पूर्वक फिर से अतिथि को देखा…बिल्कुल वही सूरत…जानी-पहचानी सी…उसने देखा वह भी सिगरेट का धुआं छोड़ता हुआ कुछ सोच रहा था, कदाचित उसी के विषय में।
बड़ा विचित्र संयोग था। राजेंद्र, वही राजेंद्र उसके पति का मित्र था। कॉलेज में वह उसका सहपाठी था। दोनों ने इकट्ठे बीए की परीक्षा दी थी और वह सफल हो गई और राजेंद्र असफल रहा। दोनों को एक-दूसरे से कितना प्रेम था और दोनों ने आजीवन एक दूसरे का जीवन संगी बनने का प्रण भी किया था। किंतु परिस्थिति जीवन की योजनाओं को क्षण भर में बदल देती है। बड़े-बड़े निर्णय धरे के धरे रह जाते हैं।
राजेंद्र बीए में असफल होते ही सेना में भर्ती हो गया। युद्ध का समय था और उसे शीघ्र ही ब्रह्म की सीमा पर भेज दिया गया। आँख से दूर हुए…प्रण भी ढीला पड़ गया…इसमें उसका क्या दोष था? जात-पात और बिरादरी के नाते घरवालों को यह संबंध अच्छा ना लगा और उन्होंने माधुरी के लिए नये घरानों की खोज आरंभ कर दी। माधुरी को विवश होकर माता-पिता की आज्ञा के सामने झुकना ही पड़ा।
इन्हीं दिनों उसकी भेंट वासुदेव से कराई गई। यह चुनाव उसकी बहन का था। नाते में वह माधुरी के जीजा का चचेरा भाई था और सेना में अफसर था। वासुदेव जंचता हुआ सुंदर युवक था। उसके आचरण, स्वभाव और शिष्ट व्यवहार पर माधुरी भी मोहित हो गई और उसने स्वीकृति दे दी।
वह कल्पना में बीती घटनाओं को कुरेद रही थी कि किसी की उपस्थिति से चौंक गई। उसने देखा राजेंद्र कमरे से बाहर निकलकर भावपूर्ण दृष्टि से उसे देख रहा था।
माधुरी ने घबराहट में अपना आंचल खींचा और सिर पर लपेटकर रसोई घर की ओर जाने लगी। राजेंद्र उसके समीप आ चुका था। उसने धीरे से पूछा –
“थोड़ा गर्म पानी मिल सकेगा क्या?”
माधुरी की आँखें ऊपर ना उठ गई थी। नीचे ही देखते हुए बार रुक-रुक कर बोली – “जी…क्यों नहीं? और फिर गंगा को पुकारने लगी। गंगा भागती हुई रसोई घर से आई। माधुरी ने कहा – “गंगा आपके स्नान के लिए गर्म पानी।”
“स्नान के लिए नहीं…दाढ़ी बनाने के लिए।” राजेंद्र ने हाथ में पकड़ा हुआ प्याला गंगा की ओर बढ़ाते हुए बनाते कहा। गंगा ने प्याला लिया और पानी के लिए चली गई।
माधुरी ने छिपी दृष्टि से देखा – वह ध्यान पूर्वक उसे सिर से पांव तक निहार रहा था। माधुरी उसकी एकटक दृष्टि को सहन ना कर सकी और घबराई हुई सी बरामदा छोड़कर परे आंगन में जा खड़ी हुई। हवा के मधुर झोंके सामने झील के तल पर अठखेलियाँ कर रहे थे। उसने ललाट पर लहराती लटों को संवारा और दूर तक फैली हुई झील को देखने लगी।
“कितना सुहावना दृश्य है?”
राजेंद्र की आवाज ने उसे चौंका दिया। उसने मुड़कर देखा, वह बिल्कुल उसके पीछे खड़ा हुआ था। वह जितना घबरा रही थी, उतना ही वह उससे बात करने के लिए व्याकुल था। माधुरी ने आँख उठाकर उसे देखा और फिर आँखें नीचे करके बिना कुछ कहे जाने लगी। राजेंद्र ने फिर से पूछा –
“कहाँ चली आप?”
“आपके लिए नाश्ता तैयार करने।” माधुरी ने आँखें ऊपर ना उठाई।
“इतनी शीघ्रता? अभी तो बड़ा समय है।”
इसी समय गंगा ने आकर पानी रख देने की सूचना दी। राजेंद्र ने ‘अच्छा’ कहकर सिर हिलाया और मुस्कुराते हुए माधुरी की ओर देखते हुए पूछा – “आप माधुरी है ना?”
माधुरी ने उत्तर न दिया और नख चबाकर अपनी घबराहट को दूर करने का यत्न करने लगी।
राजेंद्र ने फिर पूछा – “आपने शायद पहचाना नहीं मुझे?”
“शेव का पानी ठंडा हो रहा है।” माधुरी एक ही सांस में कहा और रसोई घर की ओर लौट पड़ी। राजेंद्र कमरे से चला आया।
राजेंद्र उसे पहली दृष्टि में ही पहचान गया था, इस बात ने उसकी घबराहट बढ़ा दी थी। वह खोई-खोई सी नाश्ता बनाने लगी। यदि किसी की पुकार सुन पड़ी, तो वह गंगा को भेजकर स्वयं रसोई घर में काम करती रही।
नाश्ता उसने गंगा के हाथ ही भिजवा दिया। वह स्वयं उनके साथ चाय में सम्मिलित ना होना चाहती थी। उसे डर था कि कहीं राजेंद्र के मुख से कोई ऐसी बात ना निकल जाये, जो उसके पति को किसी भ्रम में डाल दें। किंतु उसे अपने पति की आज्ञा पर अपनी इच्छा के विरूद्ध वहाँ जाना ही पड़ा।
राजेंद्र उसकी घबराहट को भांप चुका था। न जाने क्यों, उसे चिंतित देखकर उसे गुदगुदी सी हो रही थी।
बातों-बातों में वासुदेव ने उसे बताया कि राजेंद्र और वह दोनों युद्ध में एक साथ थे, किंतु जब जापानियों का आक्रमण हुआ, तो वह उससे बिछड़ गया और जापानियों का कैदी बना। माधुरी प्याले में चाय उड़ेल रही थी। राजेंद्र ने सहायता देने के लिए दूध बढ़ाया और बोला – “आप जानती हैं हमारी आज की भेंट कितने समय के पश्चात हुई है?”
वह मौन थी और राजेंद्र फिर से बोला – “पांच वर्ष के पश्चात।”
माधुरी ने सिर उठाकर देखा। दोनों मुस्कुरा रहे थे।
“राजी! इतने लंबे समय के बाद मिले हैं, फिर भी ऐसा लगता है, मानो हम कभी भी ना बिछड़े हो।” वासुदेव ने चाय का प्याला हाथ लेते हुए कहा।
“यदि मन में सच्चा प्यार हो, तो ऐसे ही होता है।” फिर राजेंद्र ने भावपूर्ण मुस्कान से देखते हुए वासुदेव को उत्तर दिया।
माधुरी ने राजेंद्र का व्यंग्य भांप लिया और इसके साथ ही उसके शरीर में हल्का सा कंपन्न उत्पन्न हुआ। चाय का प्याला उसके हाथों में थर्रा उठा। वासुदेव राजा दोनों उसे देखकर हँसने लगे। माधुरी को उनकी हँसी कटाक्ष बनकर लगी, किंतु वह चुपचाप बैठी रही।
वासुदेव कठिनता से हँसी को रोकते हुए बोला – “ब्याह को लगभग तीन वर्ष हो गए, किंतु इसके शरीर में वही कंपन है, जो पहले दिन थी, जब यह यहाँ आई थी।”
माधुरी लजा गई। वह जाने को उठी। राजेंद्र ने उसकी ओर देखते हुए कहा – “यह हल्का सा कंपन ही स्त्री की शोभा है, किंतु अब यह अधिक ना रह सकेगा।”
“क्यों?” वासुदेव ने झट पूछा।
माधुरी भी इसका उत्तर सुनने के लिए रुक गई।
“यह कंपन दूर हो जाएगा, क्योंकि तुम्हारे घर में नन्हे-मुन्ने खेलने लग जायेंगे।”
वासुदेव यह बात सुनकर सन्न सा रह गया, जैसे उस पर ओस सी पड़ गई हो। राजेंद्र भी बात को समय के अनुकूल ना जानकर चुप हो गया।
माधुरी सिर नीचा किए हुए रसोई की ओर चली गई। जब रसोई घर में पहुँची, तो उसके कान में फिर दोनों के हँसी की ध्वनि गूंजी। वह पलट कर देखने लगी। दोनों हवा में ठहाके छोड़ रहे हैं।
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