चैप्टर 11 काली घटा : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 11 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 11 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda

Chapter 11 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda

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माधुरी घर पर अकेली थी। गंगा काम-काज से अवकाश पाकर रसोई घर में आराम कर रही थी और वासुदेव किसी काम से झील के पार गया हुआ था। वह अपने कमरे में लेटी किसी उपन्यास का अध्ययन कर रही थी।

बाहर जरा सी आहट से भी चौंक कर वह अपना धड़ उठाकर बाहर झांक लेती और किसी को न पाकर फिर नॉवेल में खो जाती। पहले इसी हवेली में वह घंटों अकेली बैठी रहती थी, किंतु उसे कभी घबराहट न होती। अब जब कभी वासुदेव बाहर जाता, तो उसका मन कंपित हो उठता। भांति-भांति के विचारों से घेर लेते। वह स्वयं को किसी न किसी कार्य में व्यस्त रखती, किंतु फिर भी उसकी व्याकुलता उसे अपने पंजे में दबाए रखती। जितना वह उससे छुटकारा पाना चाहती, वह उतना ही बढ़ जाती। वासुदेव की अनुपस्थिति में उसे घर की हर वस्तु काटने लगती। यद्यपि आज वह पढ़ने में तल्लीन थी, फिर भी उसके कान उस आहट को सुनने पर लगे थे कि कब वह आयेगा।

हवा तेज थी और घर की खिड़कियाँ द्वार बंद होने पर भी हल्की सी खटखट हो जाती। वह लेटी वासुदेव की प्रतीक्षा कर रही थी। वह अभी तक न लौटा था। कभी-कभी पुस्तक हाथ में लिए ही बहुत कुछ सोचने लगती। प्रतीक्षा की घड़ियाँ लंबी ही होती जा रही थी।

सांझ ढलते ही गंगा भीतर आई। वह अभी तक उपन्यास पढ़ने में तल्लीन थी। आहट हुई और उसने पुस्तक से आँख हटाकर कनखियों से गंगा को देखा। उसके हाथ में दो पत्र थे, जो शायद डाकिया दे गया था। माधुरी ने हाथ बढ़ाकर दोनों पत्र ले लिए और ध्यान पूर्वक उन्हें देखने लगी। पत्र उसके पति के नाम थे। गंगा पत्र देकर चाय की पूछ कर वापस लौट गई। जब आप बाहर चली गई, तो माधुरी ने उत्सुकता पूर्वक फिर पत्रों को देखा। यह तो सरकारी था, जो उसने मेज़ पर रख दिया और दूसरा किसी ऐसे व्यक्ति का था, जिसकी लिखाई उसे जानी-पहचानी सी अनुभव हुई। उसने ध्यान पूरा फिर उस पर लिखे पते को देखा। हस्ताक्षर राजेंद्र के प्रतीत होते थे।

वह उठकर बैठ गई और पत्र हाथ में लेकर सोचने लगी। आज बड़े समय के बाद राजेंद्र का पत्र आया था। जब से वह उन्हें छोड़कर गया था, यह उसका पहला पत्र था। पत्र को थामे सहसा उसकी उंगलियाँ कांपने लगी और उसने उसे भी मेज पर रख दिया। स्वयं लेट कर फिर उपन्यास पढ़ने लगी। किंतु अब उसकी दृष्टि पुस्तक पर न जम रही थी। इस पत्र ने उसे उसके मन में कोलाहल उत्पन्न कर दिया था। उसने पुस्तक बंद कर दी और छत की ओर देखने लगी।

इस पत्र ने उसके भाव खोल दिए थे और दबी हुई पीड़ा को जागृत कर दिया था। अतीत चलचित्र की भांति उसके मस्तिष्क पर प्रतिबिंब डालने लगा और वह बेचैन हो उठी। वह सोचने लगी – न जाने वह कहाँ होगा? कैसा होगा? उसने अपने मित्र को भी कोई पत्र ना लिखा था। कई बार वासुदेव ने बातों में उसका वर्णन किया, किंतु माधुरी में टाल दिया और दूसरे कमरे में चली गई।

अबकी और तब की माधुरी में बड़ा अंतर था। अब वह पथ भ्रष्ट हो जाने का कलंक प्रेम द्वारा मिटा चुकी थी और वह तन मन से वासुदेव की सेवा में लगी रहती और उसके सुखचैन का बड़ा ध्यान रखती, जिससे उसके मन में कभी ऐसा विचार न उठ खड़ा हो, जिसका आधार किसी कल्पित शंका पर हो।

किंतु वासुदेव को अब भी इन खुशियों के गगन में कभी-कभी कोई ऐसी बदली दिखाई दे जाती, जिससे उसके विश्वास और आँसू छिपे हुए झलक पड़ते। उसने कई बार रात के मौन में चुपचाप उसे कुछ सोचते हुए पाया है। उसके लिए माधुरी ने अपनी सब इच्छाओं का दमन कर दिया था। हाँ, उसी के लिए…माँ बनने की नारी की प्रबल इच्छा उसके मन में भी थी, किंतु उसने मन मारकर इस पर अधिकार पा लिया था और वह करती क्या?

अब उसमें पहले की सी चंचलता न रही थी। वही माधुरी, जो पहले इन जंगलों में हिरनी के समान फुदकती फिरती, अब वह कहने पर भी घर से बाहर न निकलती। वासुदेव के लाख कहने पर भी कोई न कोई बहाना बनाकर वही पड़ी रहती। वासुदेव को यूं लगता, जैसे अपनी भावनाओं पर विजय पाने के लिए उसे बहुत कष्ट उठाना पड़ रहा हो। अपनी आकांक्षाओं को बलपूर्वक दबाना चाहती। यह विचार वासुदेव के मन को कचोटता रहता। एक ओर विवशता और दूसरी ओर मानव हृदय की करुण पुकार।

किंतु आज इस पत्र ने उसके सोये हुए अरमानों को फिर जगा दिया। एक समय से जो मन के तार मौन थे, उसने फिर से छेड़ दिये, जो पीड़ा उसने अपने मन की गहराइयों में दबा दी थी, वह फिर से उभर आई। उसके मुँह से एक आह निकली और उस वातावरण में खो गई। वह मौन बैठी मन की पीड़ा और व्याकुलता को दबाने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगी। व्यक्ति लाख चाहे कि अपने अतीत को किसी ऐसे अंधकार में छुपा दे, जहाँ जीवन की किरण कभी न पड़े और याद का पर्दा कभी ना उठे। परंतु अनजाने ही कभी किसी झोंके के साथ वह पर्दा हट जाता है और मन की टीस उभर कर ऊपर आने लगती है। अतीत के चित्र फिर उसके मस्तिष्क पर उभरने लगे – कैसी विचित्र है यह पीड़ा यह टीस – इस तड़प में भी एक अनोखा आनंद है।

सांझ ढलने को थी और न जाने माधुरी लेटी क्या सोचे जा रही थी। एकटक छत की ओर देखे जा रही थी। सहसा उसकी आँखों से आँसू ढलके और उसके गालों पर आ गये। उसे इसका भान तक न हुआ कि वासुदेव कब का लौट आया था और खड़ा उसे देख रहा था। अपने विचारों में कोई वह वर्तमान को एकदम बिसराये हुए थी। वासुदेव ने दबे पांव जाकर खिड़की खोल दी। अंधेरे कमरे में प्रकाश फैल गया और शीतल हवा के झोंके से पर्दे लहरा उठे।

माधुरी ने चौंक कर सामने देखा। वासुदेव को देखकर वह संभली। अपने मानसिक द्वंद को छिपाते उठ बैठी। वासुदेव मुस्कुराया और कुर्सी खींचकर उसके पास बैठ गया।

“इतना सुहाना समय और तुम द्वार बंद कर बैठी हो!” वासुदेव ने कहा।

“और करती भी क्या? आप भी तो घर पर न थे।”

“ओह! आज कुछ देर हो गई। यह भी सौभाग्य समझो कि सांझ ढलने के पहले ही आ गया।”

“क्या आधी रात को लौटने का निश्चय था?”

“विचार तो कुछ ऐसा ही था किंतु तुम्हारा ध्यान आते ही भाग आया।”

“इस विचार के लिए धन्यवाद!” माधुरी ने उसकी ओर देखकर कहा और फिर आँखें झुका ली। वासुदेव ने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया और उसे अपनी ओर खींचा। इससे पहले कि वह उसे खींच पाता, माधुरी ने दोनों पत्र उसके सामने रख दिए। वासुदेव ने उसका हाथ छोड़ दिया और पत्र पढ़ने लगा।

माधुरी उसे पत्र देकर बाहर चली गई और गंगा को ऊँचे स्वर में पुकारकर चाय लाने को कहा। जब वह लौटी, तो वह राजेंद्र का पत्र पढ़ रहा था। वह उसके पास आकर खड़ी हो गई, पर पत्र के संबंध में कुछ पूछने का साहस न कर सकी।

वासुदेव ने पत्र पढ़कर एक ओर रख दिया और तीखी दृष्टि से माधुरी को देखा। माधुरी अपनी घबराहट को छुपाते हुए बोली, “चाय पिजिएगा या कॉफ़ी?”

“ऑर्डर तो चाय का दे आई हो, अब मुझसे पूछती हो।”

“नहीं…कहिए तो!”

“आज हम चाय ही पियेंगे। प्रतिदिन अपनी रुचि होती है, आज तुम्हारी ही सही।”

वह में थी। फिर अलमारी खोलकर उसमें से बिस्कुट का डिब्बा निकालने लगी। वासुदेव कुछ क्षण उसे देखता रहा, फिर बोला, “जानती हो यह पत्र किसका है?”

माधुरी ने केवल प्रश्न सूचक दृष्टि से उसे देखा।

“राजेंद्र का है। वह आजकल पूना में है।”

माधुरी फिर भी मौन थी। एक साथ कई प्रश्न उसके होठों पर आकर रुक गये। वह कुछ भी पूछ न सकी और अपनी घबराहट को छुपाने के लिए खूंटी पर से तौलिया उतारकर उसे देने लगी।

“एक शुभ सूचना है।” वासुदेव फिर बोला।

“क्या?” उसने उत्सुकतापूर्वक पूछा।

“तुम्हारे राजी ने ब्याह कर लिया है।” यह कहकर वासुदेव ने पत्र उठा माधुरी के हाथ में दे दिया और स्वयं तौलिया लेकर मुँहह धोने को चला गया। माधुरी के शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई, जैसे उसने कोई अनहोनी बात सुनी हो – क्या इस सूचना ने उसके मन में कोई जलन से उत्पन्न कर दी थी? नहीं…नहीं, उसे तो प्रसन्न होना चाहिए, राजेंद्र का घर बस गया, उसका जीवन सफल हुआ, वह किसी दिन अपनी पत्नी को लेकर उन्हें मिलने अवश्य आयेगा।

माधुरी ने झट से लिफाफा खोला और पत्र बाहर निकाला। पत्र के साथ एक चित्र बाहर निकल कर धरती पर गिर पड़ा। उसने चित्र को उठा लिया और ध्यानपूर्वक देखने लगी। यह राजेंद्र और उसकी पत्नी का चित्र था।

एक युवती नई नवेली दुल्हन बनी उसके साथ खड़ी थी। दोनों को एक साथ देख कर क्षण भर के लिए माधुरी का मुख लाल हो गया। वह पत्र पढ़ने लगी। पत्र कुछ ही पंक्तियों का था, जिसमें राजेंद्र ने ब्याह में उन्हें आमंत्रित न कर सकने की क्षमा मांगी थी। उसका ब्याह हुए साल भर हो चुका था। उसने लिखा था कि वह स्वयं भी नहीं जानता कि क्यों उसने उन्हें ब्याह की सूचना नहीं दी और अंत में एक पंक्ति में उसने माधुरी को भी याद किया था। लिखा था – यदि माधुरी वहाँ हो, तो उसे अपनी भाभी का चित्र दे देना।

मुँह पोंछता हुआ वासुदेव स्नान घर से बाहर आया। माधुरी ने उसे आता देखकर झट से चित्र लिफाफे में रख दिया। वासुदेव ने मुस्कुराते हुए पूछा, “कहो कैसी लगी?”

“क्या?”

“राजेंद्र की पत्नी?”

“बहुत सुंदर! आपका क्या विचार है?”

“स्त्री को स्त्री की दृष्टि अधिक परख सकती है।”

“किंतु पुरुषों से कम।”

“वो कैसे?”

“हम उसे ऊपर से देखते हैं और आप उसके मन की गहराइयों में उतर जाते हैं।”

“आश्चर्य तो यह है कि फिर भी उसका भेद नहीं पा सकते हो।”

“मैं नहीं मानती।”

“अब तुम ही कहो कि लगभग हमें पाँच वर्ष एक साथ रहते हो गए हैं। परंतु अभी तक तुम्हारे मन को समझ नहीं पाया।”

“इसलिए कि आप ने इसे समझने का कभी प्रयत्न नहीं किया।”

वासुदेव कुछ कहने को था ही कि कोई द्वार से भीतर आया और वह मौन हो गया।

गंगा चाय लेकर आई और मेज पर रख कर चली गई। वासुदेव बैठ गया। माधुरी चाय बनाने लगी। कुछ क्षण वातावरण में मौन छाया रहा। वासुदेव ने राजेंद्र का चित्र निकाला और देखने लगा। माधुरी दृष्टि झुकाए चाय बनाती रही।

“मन चाहता है कि अभी पूना चला जाऊं और दोनों को कुछ दिन के लिए यहाँ ले आऊं।”

“तो चले जाइए ना…!”

“अकेले नहीं…तुम भी साथ चलो।” चाय का प्याला हाथ में लेते वासुदेव ने कहा।

“मैं…नहीं, आप जाइये। मुझे वहाँ नहीं जाना।”

“तुम्हें अपनी भाभी से मिलने की इच्छा नहीं?”

“यह किसने कहा? मुझे उनके घर यूं जाना अच्छा नहीं लगता।”

“तुम्हें भी न जाऊंगा।”

माधुरी मौन रही। वासुदेव जाये या ना जाये; किंतु वह नहीं जायेगी। वह उसे जाने से कैसे रोक सकती थी? वह उस पर यह भी स्पष्ट न होने देना चाहती थी कि वह स्वयं राजेंद्र से मिलने की इच्छुक थी और अभी तक उसके मन में उसकी याद बसी है।

दूसरे दिन के वासुदेव बाहर चला गया, तो माधुरी ने उसके कमरे में जाकर राजेंद्र का पत्र निकाला और उसकी तस्वीर देखने लगी। उसकी पत्नी वास्तव में बड़ी सुंदर थी। माधुरी का मन तो चाहता था कि किसी प्रकार वासुदेव पूना चला जाये और उन्हें अपने यहाँ ले आये। वह एक बार स्वयं राजेंद्र से क्षमा मांगने के लिए व्याकुल थी, किंतु यह कामना किसी पर प्रकट न कर सकती थी।

इसके पश्चात घर में कई बार राजेंद्र की बात छिड़ी पर माधुरी ने उसको बढ़ने न दिया। यह बातें घंटों उसके अधूरे सपनों को कुरेदती रहती और वह उन्हें भुलाने का प्रयत्न करते करते बेसुध हो जाती। कभी-कभी तो उसे ऐसा लगता, मानो राजेंद्र और कुमुद उसके घर अतिथि बनकर आ गए हो और वह उनकी आवभगत में लगी हो। पर विचारों का ताता टूटते ही वह तड़पकर रह जाती।

थोड़े दिनों बाद राजेंद्र का दूसरा पत्र आया। लिखा था कि कुमुद बहुत बीमार है और उसे अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया है। उसे एकाएक हो क्या गया है? इसका कोई विवरण न था। यह पढ़कर दोनों को चिंता हुई। वासुदेव ने तो चिंता उस पर स्पष्ट कर दी किंतु माधुरी ने कुछ प्रकट न होने दिया। वासुदेव पूना जाना चाहता था, किंतु वह माधुरी को अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहता था और वह वासुदेव के साथ जाकर दबी हुई चिंगारी को कुरेदना नहीं चाहती थी।

उसने अपने आपको लाख संभालना चाहा, किंतु मन था कि डूबा जा रहा था। डर और कंपकंपी से लहू जमकर रह गया। ऐसा मालूम हो रहा था कि सारा शरीर सुन्न हो गया हो और कोई लाखों सुईया चुभोकर उसे सुध में लाना चाह रहा हो। फिर भी वह थी कि निष्प्राण सी गिरी जा रही थी। यौवन का उन्माद उतर चुका था। उसे ऐसा अनुभव हो रहा था, जैसे कोई उसे पर्वत की चोटी पर ले गया हो और फिर ऊपर से एकाएक उसे नीचे धकेल दिया गया हो। वह मर रही हो और अपनी मृत्यु का तमाशा अपनी आँखों से देख रही हो।

होनी को कौन टाल सकता है? कुछ दिन के पश्चात राजेंद्र का एक एक्सप्रेस तार प्राप्त हुआ। कुमुद की दशा बहुत बिगड़ चुकी थी। उसने वासुदेव को बुलाया था। वासुदेव ने माधुरी को फिर साथ चलने को कहा। परंतु उसने फिर भी इंकार कर दिया और वासुदेव अकेला ही जाने की तैयारी करने लगा।

वह चला गया और माधुरी अकेली रह गई। किंतु उसके मन की व्यग्रता वैसे ही रही। उसकी व्याकुलता बढ़ती ही चली गई। वह अकेली घबराने  लगी और वासुदेव के साथ न जा कर पछता रही थी। भांति-भांति के विचार उसे घेर लेते। ‘राम जाने वह क्या सोचते होंगे? जब वह वहाँ अकेले जायेंगे, तो राजी उनके साथ मुझे ना देकर क्या सोचेगा? क्या कहेगा? कहीं वह यह न सोच बैठे कि मैं कुमुद से ईर्ष्या करने लगी हूँ? – ऐसे ही विचार उसके मस्तिष्क में चक्कर काटने लगते। वह एक पिंजरे के पक्षी के समान फड़फड़ाकर रह जाती। उसे किसी भी भांति चैन न पड़ता।

वासुदेव को गए दस दिन बीत गये, पर उसकी कोई सूचना न थी। जाते हुए वह कह गया था कि कुमुद के ठीक होने पर वह दोनों को संग ले आयेगा। यदि उनके आने की संभावना हुई, तो वह उन्हें देखकर स्वयं वापस लौट आयेगा। उसने इस बीच में एक पत्र भी ना डाला। हो सकता है कि उन लोगों ने आने का निश्चय कर लिया हो और वह रुक गया हो। बस इसी विचार से उसे कुछ सांत्वना मिलती। अपने घर को नये-नये ढंग से सजाती और संवारती, ताकि कुमुद को अपनी योग्यता से प्रभावित कर पाये।

अगले दिन भी कोई पत्र ना आया। वह निराश हो गई। उसने खाना भी न खाया और अपने कमरे में जा पलंग पर पड़ रही। सांझ ढलती जा रही थी। अनजाने ही उसका मन बैठा जा रहा था। वह मन ही मन कहती कि रात हो ही न। अंधेरे की चादर उसके मन में भय का संचार कर देती। वह इस दिन के उजाले का साथ चाहती थी।

मन के भीतर जब भय अंगड़ाइयाँ लेने लगे, तो बाहर के अंधेरे और तनिक खटके से भी वह डरने लगता है। जब दिन भर के उजले नजारों को रात्रि की काली चादर अपने में छुपाकर आँखों के सामने छा जाती है, तब मन की परतों में छुपा पाप साक्षात्कार होने लगता है, जिसके स्मरण मात्र से ही हृदय थरथराने लगता है।

उस समय ठीक ऐसी दशा माधुरी की भी थी। रात्रि की काली चादर को फैलते देखकर वह अपने मन को संभालने की चेष्टा कर रही थी। उसके मन में उठता गुबार और मस्तिष्क का विकार अपने सब बीते दिनों की वह पापयुक्त घड़ियाँ उजागर कर रहा था, जो उसे इन अंधेरी रातों में न जाने कब तक तड़पती रहती। उसे लगता कि कोई उसके मन को दृढ़ता से अपनी मुट्ठी में जकड़े हुए हैं और निर्दयता से कुचल देना चाहता है।

वह बीती भीगी रातें, झील के मदहोश किनारे, सरसराती हवा के तेज झोंके और उनमें बसी मादक सुगंध – एक-एक करके इस अंधेरे में जुगनू की भांति उसके मानस पटल पर चमकने लगी थी। उसकी नसें खिंची जा रही थी, नाड़ी थरथरा रही थी, होंठ कंपकंपा रहे थे और घबराहट के कारण माथे पर पसीने के कतरे जमा हो रहे थे।

अचानक उसे वासुदेव का ध्यान आया। मन को सहारा मिला और वह गुमसुम से अपने कमरे में आ गई।

रात अभी हुई ही थी। माधुरी पलंग पर लेटी वासुदेव के विषय में सोचती जा रही थी। अकेले में भय न  लगे, इस कारण उसने गंगा को अपने पास ही बिठा लिया और उससे बातें करने लगी। माधुरी के कान गंगा की बातों पर लगे थे और मन पूना में था।

रात का अभी पहला पहर ही था। बाहर हल्की सी बूंदा-बांदी हो रही थी। एकाएक फाटक पर खटका हुआ। कोई द्वार खटखटा रहा था। वह चौंककर उठ बैठी। गंगा बात करते-करते यूं रुक गई, मानो रिकॉर्ड पर से कोई सुई हटा ले। दोनों एक-दूसरे की ओर देखने लगीं।

“जरा देख तो कौन?” माधुरी ने गंगा से कहा। गंगा बाहर चली गई। उसने लपक के साथ की खिड़की खोली और नीचे झांककर देखा, जहाँ सहमी हुई गंगा ड्योढ़ी की ओर जा रही थी।

गंगा के पहुँचने से पहले ही चौकीदार ने फाटक खोल दिया था। माधुरी सांस रोके नीचे देख रही थी। उसके कानों में वासुदेव का स्वर पड़ा। वह कह रहा था, “नये अतिथि को भीतर ले आओ।”

माधुरी वापस बिस्तर पर आ बैठी। उसका पति आ गया था। शायद राजेंद्र और कुमुद भी साथ थे। राजेंद्र के विचार से ही वह सिहर उठी और सांस रोके उनकी पदचाप सुनने लगी। उसमें इतना साहस न था कि बाहर जाकर वह उन लोगों का स्वागत करती।

ज्यों ही वासुदेव पर्दा हटाकर भीतर आया, वह झट से खड़ी हो गई। दृष्टि मिली,  वासुदेव ने गंभीर मुँह पर मुस्कुराहट लाते हुए कहा, “माधुरी कैसी हो?”

“अच्छी हूं…आप आ गये?”

“लगता तो ऐसा ही है।”

“परदेश क्या गए कि बात करने का ढंग ही बदल गया।”

“क्यों?”

“अपने घर आकर भी प्रत्येक वस्तु को एक अपरिचित दृष्टि से देख रहे हैं।”

“लेकिन तुम्हें नहीं!”

“कैसे विश्वास करूं?”

“अपने मन से पूछो!”

“हटिये!”

उसने निकट ही खड़ी गंगा की ओर संकेत किया और फिर नजरें अपने पति की ओर लगा दी। माधुरी ने अपनी चोर निगाहों को थोड़ी दूर तक ले जाते हुए धीमे से पूछा, “कोई साथ भी है क्या?”

“हाँ! देखो तो किसे लाया हूँ।”

माधुरी ने द्वार पर देखा, वहाँ कोई न था। बोली, “क्या वह संग आए हैं?”

“कौन? राजी! नहीं वह नहीं आया।”

“तो क्या कुमुद अकेली आई है?”

“अब आप क्या आयेगी माधुरी!” वह एकाएक गंभीर हो गया।

“क्यों? क्या?” अनायास माधुरी ने पूछा और अपने पति के मुँह को देखने लगी। उसकी आँखों में आँसू देखकर माधुरी ने अपना प्रश्न फिर दोहराया।

“माधुरी! कुमुद तो भगवान को प्यारी हो गई।” वासुदेव का गला भर आया और उसने मुँह मोड़ लिया।

“क्या हुआ था उसे?”

उसी समय पर्दा हटाकर गंगा एक स्त्री को साथ लिए भीतर आई, जिसकी गोद में एक नन्हा सा बालक था – उसके प्रश्न का उत्तर!

स्त्री वेशभूषा से दासी प्रतीत हो रही थी।

“यह है राजी का बेटा, जो इस संसार में आते ही अपनी माँ को खो बैठा।” वासुदेव ने कहा। माधुरी की समझ में सब आ गया।

वासुदेव ने फिर कहा, “मेरे जाने से पूर्व ही वह इस लोक से जा चुकी थी और दो दिन का यह बालक राजेंद्र के लिए प्रश्न बनकर रह गया।”

“वह स्वयं नहीं आए क्या?”

“नहीं! इसे ही भेजा है तुम्हारे लिए। कह रहा था, माधुरी को छोड़कर कोई भी तो अपना नहीं जो इसे अपने बच्चे के समान पाल सके।”

आँखों में रुके हुए आँसू बरस पड़े। वह धीरे-धीरे उसका दासी की ओर बढ़ी, जिसकी गोद में बच्चा हाथ-पांव चला रहा था। बच्चा बड़ा ही प्यारा था। कुछ क्षण वह एकटक उसे देखती रही और फिर उसे अपनी बाहों में लेकर वक्ष से चिपका लिया।

भावना का बांध टूट पड़ा। ममत्व जागृत हो उठा। मुझे दीप फिर जल उठे। अंधेरे मन में फिर उजाला भर गया, जैसे काली घटा में सूर्य की किरण फूट पड़ी हो।

उसे अनुभव हुआ कि उसके जीवन के सबसे बड़े अभाव की पूर्ति हो गई हो। बालक को वक्ष से लगाए वह खो गई। उसे सुध तब आई, जब वासुदेव ने उसे छुआ और बाहों का सहारा देकर दूसरे कमरे में ले गया।

पति के साथ वह अंदर जा रही थी, तो उसने अनुभव किया जैसे मझधार में घिरी नाव को पतवार मिल गया हो और उसी का सहारा लिया वह तूफानी भंवर से मुक्त हो गई हो। अंधेरे मस्तिष्क में उभरते हुए विचित्र भाव और बीते दिनों की अधूरी रेखायें धीरे-धीरे मिलती जा रही थीं और वह फिर से पाताल से उभर कर आकाश को छूने लगी।

खुशियाँ झूम उठी। अधूरे सपने साकार हो गए और वह स्वतंत्र पंछी की भांति अनंत आकाश में विचरने लगी। उसी क्षण एक आवाज ने, जो उसके जीवन के पुराने वातावरण के लिए नई और अनोखी थी, उसे सजग कर दिया, जैसे किसी ने झंझोड़कर उसे सचेत कर दिया हो। वह स्वप्नों के संसार से निकलकर वास्तविकता को देखने लगी।

राजेंद्र का बेटा उसका अपना पुत्र रो रहा था। उसके रोने की आवाज और चीखें उसके कानों में यूं उतरी जैसे जीवन की सुरीली और मधुर तान। उसने उसे अपने वक्ष में और भी कसकर समेट लिया, जैसे उसने अपनी खोई जीवन निधि को फिर पा लिया हो और वह किसी नई मंजिल की ओर अपने पग बढ़ा रही हो।

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