Chapter 10 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda
Table of Contents
Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11
Prev | Next | All Chapters
रात ज्यों की त्यों थी। कभी-कभी धीमी से हवा का कोई झोंका पेड़ों के पत्तों को कुछ-कुछ गुदगुदा जाता और फिर वही मौन, वही सन्नाटा….रात आधी से अधिक बीत चुकी थी, किंतु भीतर वासुदेव के मन में एक विचित्र आग सुलग रही थी और उसके बुझने का कोई उपाय न था। तीन हृदय भस्म हो रहे थे।
राजेंद्र ने कमरे की खिड़की खोलकर बाहर झांका। घटा एक बार छंटकर फिर एकत्र हो गई थी। उसने असावधानी से गर्दन झटकी और हाथ में लिया हुआ पत्र लिफाफे में बंद कर दिया।
लिफाफा थाम कर उसने दूसरे हाथ में अपना सूटकेस उठाया। रात के मौन में ही उसने इस स्थान को त्यागने का निर्णय कर लिया था। वासुदेव और माधुरी का आमना सामना हो गया और यही वह चाहता था कि माधुरी जान जाये कि जिस पर्दे की ओट में वह यौवन का रास रचाना चाहती है, वासुदेव उससे अनभिज्ञ नहीं! उसकी कामना पूर्ति के लिए उसने स्वयं अपने हाथों अपने मन को मार दिया है।
वह धीरे-धीरे पांव उठाता कमरे से बाहर चला गया। आकाश पर घने बादलों के छाने से अंधेरा और गहरा हो चुका था। आहट को पांव में दबाए वह वासुदेव के कमरे तक पहुँचा। किवाड़ बंद थे, किंतु खुली हुई दरार से प्रतीत हो रहा था कि भीतर से चिटखनी नहीं लगी। वह क्षण भर के लिए वहाँ रुका और दरार से लिफाफा भीतर फेंककर तेजी से बरामदा पार करके आंगन में चला आया। फिर चुपके से वह ड्योढ़ी से होता हुआ बाहर निकल आया।
झील के किनारे पहुँचकर उसे यूं अनुभव हुआ, मानो वह पिंजरे से निकल बाहर आया हो और आज बड़े समय पश्चात उसने स्वतंत्रता की सांस ली हो। वह आते हुए वासुदेव से न मिल सका, इस बात का उसे दुख था; किंतु वह विवश था। अब इससे अधिक वह अपने मित्र के जीवन से खेलना न चाहता था।
उसने सूटकेस को नाव में रखा और एक छिछलती दृष्टि उस विशाल झील पर डाली। आज उसे जीवन बहुत तुच्छ दिखाई दे रहा था, बिल्कुल ऐसी नाव के समान जो बिना पतवारों के पानी के थपेड़ों के सहारे इधर से उधर हिचकोले खाती फिरती हो। अचानक उसे वासुदेव का ध्यान आया और वह उसकी बेबसी की कल्पना करके रो पड़ा। रात को मौन में यह आँसू किसी ने न देखे। आज वह नाटक करते हुए मंच से उठकर भाग आया था। उसके मन से एक भारी बोझ उतर चुका था।।
ज्यों ही उसने नांव का रस्सा खोलना आरंभ किया, उसे किसी के भागने कि आवाज़ आई। उसने गर्दन उठाकर देखा। कोई तेजी से भागता हुआ उसी की ओर आ रहा था। वह नाव छोड़कर उठ खड़ा हुआ और ध्यानपूर्वक आने वाले को देखने लगा। उसकी घबराहट बढ़ गई और वह सांस रोककर उत्सुकता से भागकर आने वाले की प्रतीक्षा करने लगा।
उसका अनुमान अब के ठीक न था। आने वाला उसका मित्र नहीं, बल्कि माधुरी थी, जो हवा की सी तेजी से उसकी ओर भागी चली आ रही थी। राजेंद्र के मस्तिष्क पर हथौड़े की सी चोट लगी और वह दूर ही से बोला, “माधुरी तुम!”
“हाँ मैं !” उसने हांफते हुए उत्तर दिया।
राजेंद्र ने एक कड़ी दृष्टि उस पर डाली। वह कपड़े बदलकर हाथ में अटैची लेकर आई थी। राजेंद्र को उसका निश्चय भांपते देने लगी। वह बोला –
“तुम्हें इस समय यूं ना आना चाहिए था।”
“इसलिए कि तुम रात के अंधेरे में यहाँ से भाग जाओ।”
“हाँ माधुरी! दिन के उजाले में अब मैं वासुदेव का सामना कर पाऊंगा।”
“और मैं?”
“तुम…तुम तो उसका जीवन हो। कोई व्यक्ति अपने जीवन को नहीं ठुकराता। भूल हो जाना तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं।”
“नहीं राजी! अब मेरा यहाँ रहना संभव नहीं। यदि तुमने भी मुझे ठुकरा दिया, तो मैं आत्महत्या कर लूंगी।”
“माधुरी! मैं विवश हूँ। तुम लौट जाओ, इसी में तुम्हारी भलाई है।”
“यह मैं सब समझती हूँ कि मेरी भलाई किसमें है? आप इतना शीघ्र क्यों बदल गये?”
“माधुरी! परिस्थिति कभी मानव को बहुत बदल देती है। भावना में आकर हम बड़ी-बड़ी भूले कर बैठते हैं। अभी संभल जायें, तो अच्छा है। मैं किसी के घर की बसंत लूटकर अपनी झोली नहीं भरना चाहता। यह बात मुझे आजीवन कोसती रहेगी।“
“तो क्या सब वचन भुलाकर, प्रेम से यूं विमुख होकर आप प्रसन्न रह सकेंगे?”
“माधुरी!” उसने कांपते भी स्वर में कहा और क्षण भर उसकी ओर चुपचाप देखते रहने के पश्चात फिर बोला, “परिस्थिति को समझो। देखो तो, हम ऐसी अथाह गहराई में गिरते जा रहे हैं, जहाँ से निकलना असंभव हो जायेगा।”
“इसकी मुझे कुछ भी चिंता नहीं। आप मेरे साथ हैं, तो मैं बड़े से बड़ा अपमान भी सह सकती हूँ।”
“किंतु ऐसा क्यों?”
“इसका उत्तर चाहते हो, तो मेरे मन में झांककर देखो। तुम्हारे सिवा यहाँ कोई दूसरा नहीं समा सकता।”
“इसका क्या विश्वास?” राजेंद्र ने उसके मुख से दृष्टि हटा ली और झील में देखने लगा। उसने अनुभव किया कि वह उसकी बात सुनकर तड़प उठी थी।
“तो आपने मुझसे क्या समझकर प्रेम किया था? यह सुनाने के लिये?” यह कहते हुए माधुरी के होंठ कांप रहे थे। इसमें क्रोध की झलक थी।
राजेंद्र ने एक कंकर उठाकर झील में फेंका और बोला –
“जो आज मेरी बनने के लिए अपना सब कुछ छोड़कर चली आई है, क्या उसके लिए यह संभव नहीं कि कल मुझसे बड़ी कोई और आकर्षण शक्ति उसे मुझे भी छोड़ देने पर विवश कर दें।”
“आप केवल मेरी परीक्षा लेने के लिए खेल खेल रहे थे?”
“कैसा खेल?”
“प्रेम का!”
“माधुरी !मैं अब जान पाया, यह प्रेम केवल कल्पना है और कुछ नहीं। टूटे हुए मन इसमें सहारा ढूंढते हैं, किंतु यह उन्हें कभी भी धोखा दे सकता है।”
“आपने पहले तो कभी ऐसे विचार प्रकट नहीं किये।”
“तब इसका ज्ञान ना था।”
“दो घड़ी उनके साथ बैठने से ज्ञान प्राप्त हो गया?
“तुमने ठीक जांचा। उसकी बेबसी ने ही मेरी आँखें खोल दी। तुम ही बताओ उसमें कौन सा ऐसा अभाव है कि उसे प्रेम न किया जा सके। आचरण में, शिष्टता में, यहाँ तक कि शारीरिक सौंदर्य में भी मुझसे बढ़कर है। किंतु आज तुम उसे ठुकरा के मेरे साथ भाग जाने को तैयार हो, प्रेम के लिए नहीं ऐश्वर्य के लिए, आनंद के लिए, वासनापूर्ति के लिए और कौन जाता है कि एक दिन तुम मुझे भी…”
“राजी!” उसने चिल्लाकर उसकी जुबान बंद करनी चाही। उसमें और सुनने का साहस न था। राजेंद्र चुप हो गया और वह भरी हुई आँखों से दूर शून्य में देखने लगी।
“हाँ माधुरी! एक दिन मुझे भी छोड़कर तुम किसी दूसरे के साथ भाग जाओगी।” उसने रुकते-रुकते कहा।
माधुरी की आँखों के सामने अंधेरा छा गया। उसकी बुद्धि ने काम करना छोड़ दिया। वह ऐसी सीमा पर खड़ी थी, जिसके दोनों और मृत्यु थी। क्या करें? क्या इतनी दूर आकर लौट जाना उसके लिए संभव था?
वह मुड़ी और राजेंद्र ने उसके मुख पर के बदलते हुए रंगों को निहारा। माधुरी की आँखों में आँसू छलके और फिर वही समा गये। उसने धरती पर रखी अटैची को हाथ में लिया और आस-पास दृष्टि दौड़ाने लगी।
“क्या सोच रही हो?” मौन भंग करते हुए राजेंद्र ने कहा।
“सोचने को रखा ही क्या है अब?”
“बहुत कुछ – दुनिया इतनी छोटी नहीं जितना कि तुम समझ रही हो।”
“दुनिया तो बहुत बड़ी है, किंतु मानव कितना तुच्छ – यह मैं आज ही जान पाई हूँ।” यह कहकर वह बिना उसकी ओर देखे झील के किनारे बढ़ चली। अभी वह कुछ दूर ही जा पाई थी कि राजेंद्र के स्वर ने उसे रोक दिया। वह उसके पास आया और बोला, “कहाँ जा रही हो?”
“जहाँ भाग्य ले जाये।”
“भाग्य अथवा यह उखड़े हुए पांव।”
“कुछ ही समझ लीजिये। बेबस व्यक्ति की मंजिल कहाँ है, वह स्वयं ही नहीं जानता।”
“तुम्हारे समान और भी तो कोई विवश है। वासुदेव का क्या होगा?”
“मुझे अभागिन के पास अब देने के लिए रखा है क्या है?”
“प्रेम!”
“प्रेम!” वह व्यंग्यात्मक स्वर में बोली, “अभी तो आप कह रहे थे कि प्रेम टूटे हुए हृदय का झूठा सहारा है। इस पर निर्भर रहना धोखा खाना है।”
“ठीक ही तो है!”
“बड़ी विचित्र बात है। एक वह है, जो मेरे जीवन को नीरस बना कर मेरी परीक्षा ले रहे हैं और एक आप है कि मेरे प्रेम का उपहास उड़ा रहे हैं।”
“नहीं माधुरी! मुझे समझने में भूल ना करो।”
“यदि भूल हो भी गई, तो क्या अंतर पड़ता है? जाइये? नाव तैयार है। अब आपका मेरा क्या संबंध है?” यह कहकर वह चल पड़ी।
राजेंद्र ने लपककर उसे पकड़ लिया और दोनों कंधों से पकड़कर झंझोड़ते हुए बोला –
“मेरी मानो, तो अब भी लौट जाओ।”
माधुरी ने उसकी बात का कोई उत्तर न दिया और क्रोध भरी दृष्टि से उसे देखते हुए झटके से अलग हो गई। उसके होंठ कुछ कहने को थरथरा रहे थे, पर शब्द गले में अटक गये। माधुरी ने आगे बढ़ना चाहा। राजेंद्र ने फिर उसे रोक लिया और बोला, “माधुरी! मैं जानता हूँ कि मैं तुम्हें नहीं रोक सकता। मैं यह भी जानता हूँ कि एक विवश और दुखी मानव की अंतिम मंजिल कहाँ होती है?”
“मेरा सौभाग्य है कि आपने मेरे निश्चय को भांप लिया।”
“देखो माधुरी! आकाश पर काली घटा छाई हुई है। कितनी भयानक है ये घटायें, किंतु जब बरसकर हल्की हो जायेंगी, तो आकाश निखर कर निर्मल हो जायेगा, मानो वहाँ कुछ था ही नहीं। मानव मन भी इसी आकाश की भांति है। इसमें भावना के अनेक तूफान आते हैं – दुख की कितनी बदलियाँ छा जाती हैं, कितनी ही घनघोर वृष्टि होती है, पर जितना भयानक तूफान, उतना ही निखार आता है। तुम्हारे पति तो इतने विशाल होते हैं कि उनके मन में कोई तूफान या घटा अधिक समय तक नहीं टिक सकती। वह तुम्हें कभी दुख नहीं दे सकते। माधुरी! मैं तुम्हें क्यों कर समझाऊं, जिसे तुम शत्रु समझकर छोड़ी जा रही हो, वह व्यक्ति वास्तव में देवता है। इसी झील के किनारे एक रात जानती हो उसने मुझसे क्या कहा था?”
“क्या?”
“उसने मुझसे कहा था – माधुरी तुमसे प्रेम करती है, इससे मुझे दुख नहीं प्रसन्नता ही है और मेरी यही इच्छा भी है कि जीवन में जो कुछ मैं उसे ना दे सका, वह प्रसन्नता तुम उसे दे दो।”
“उन्होंने हमें प्रेम करते कब देखा?”
“उस दिन जब वह कोचवान की मृत्यु के पश्चात शहर से लौटा था और गोल कमरे में बैठा अंधेरे में हमारी बातचीत सुन रहा था। तुम तो कॉफ़ी बनाने चल दी। तुम उसे देख ना पाई, पर मैंने उसे देख लिया।”
“आपने मुझसे यह कहा क्यों नहीं?”
“कैसे कहते? कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह भी बेबस था और मैं भी।”
माधुरी मौन थी और गहरी सोच में डूब गई। राजेंद्र ने उसे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा –
“माधुरी ! जीवन में कई रहस्य ऐसे होते हैं, जो व्यक्ति अपनी पत्नी से कहने से कतराता है और मित्र से कह डालता है।”
“क्या?” उसने उत्सुकतापूर्वक पूछा।
“मैंने वासुदेव को वचन दिया था कि उसका रहस्य किसी पर प्रकट न करूंगा, किंतु आज उसका वचन तोड़कर तुमसे कहे देता हूँ।”
“कहिए! मैं उनका रहस्य जाने को आतुर हो रही हूँ।”
“एक स्त्री नहीं, मित्र समझकर!’
“कहिए ना! आप रुक क्यों गये?”
“माधुरी…माधुरी…तुम्हारा पति नपुंसक है!”
राजेंद्र के मुख से यह शब्द सुनते ही उस पर एकाएक बिजली से गिरी। अटैची उसके हाथ से छूटकर धरती पर गिर गई और वह धम से नीचे बैठ है, मुख घुटनों में दबा लिया। राजेंद्र खड़ा उसे देखता रहा।
राजेंद्र उससे कुछ भी नहीं छुपाया। उसने उसे वासुदेव के बंदी हो जाने, कैद से भागने, गोली लगने, ऑपरेशन होने की सब घटनायें, जो उसने इसी झील के किनारे सुनी थी – एक-एक करके सब माधुरी को सुना दी। माधुरी सुनती रही और अपने आप में खो गई। उस यूं लग रहा था, मानो सैकड़ों विषैले नाग उसके शरीर से लिपटकर उसका खून चूस रहे हों। उसका मन चाहा कि वह जी भरकर रोये; किंतु उसके आँसू भी उसका साथ ना देना चाह रहे थे। उसे समझ में आ रहा था कि मन का बोझ कैसे हल्का करें।
अतीत का एक-एक चित्र उसकी आँखों में घूमने लगा। उसके पति कितने बेबस थे, कितने दुखी और वह स्वयं कितनी निर्दयी – उसने कभी उनके मन में झांककर उनकी पीड़ा को बांटने का प्रयत्न नहीं किया, बल्कि उसने उल्टे अपनी भावनाओं को उभारा और उनकी मान मर्यादा से खेलने को तैयार हो गई। कितना बड़ा पाप था, जिसका कोई प्रायश्चित नहीं।
सहसा वह राजेंद्र का स्वर सुनकर चौंक उठी। उसने सिर ऊपर उठाने का प्रयत्न किया, किंतु उसमें अब उस दर्पण को देखने का साहस न था, जिसमें उसे अपने पाप का प्रतिबिंब दिखाई दे। वह जा रहा था और उसे घर लौट जाने को कह रहा था। जब माधुरी ने घुटनों से अपना सिर उठाया, तो वह चुप हो गया। दोनों ने एक दूसरे को देखा। उसने विदा कही और वह चला गया।
माधुरी खोई खोई सी उसे जाते हुई देखती रही। उसने एक बार भी उसे रुक जाने को न कहा। राजेंद्र नाव में बैठा और चल दिया।
एकाएक माधुरी के हृदय में छिपा तूफान उबल पड़ा। वह फूट-फूट कर रो पड़ी। जाने वह कितनी देर तक बैठी रोती रही। आकाश पर जमी घटायें छंट रही थी – दूर क्षितिज में प्रभात का तारा सुबह का संदेश दे रहा था। रोने से उसका मन हल्का हो गया था, किंतु शरीर में हल्की-हल्की पीड़ा थी, थकान थी।
वह उठी, अटैची को थामा और झील को देखने लगी, जहाँ दूर-दूर तक केवल जल ही जल था। राजेंद्र जा चुका था। दूर, बहुत दूर, उसके जीवन से दूर, वह अब कभी लौट कर ना आयेगा। उसने आज उसे अपने अश्रु पोंछे और बिना किसी निश्चय के झील के किनारे किनारे चल पड़ी। उसे कुछ सोचना पड़ता था, वह क्या करें? कहाँ जाये? एक भटके हुए यात्री के समान अनजानी राह पर खो गई थी। उसी समय झील की लहरों ने जैसे उसके कानों में गुनगुनाहट सी भरी –
“माधुरी! मैं जानता हूँ मैं तुम्हें रोक नहीं सकता मैं यह भी जानता हूँ कि एक दुखी और बेबस व्यक्ति के अंतिम मंजिल क्या है? पर मेरी तुम से यही प्रार्थना है कि तुम लौट जाओ। तुम्हारे पति अब भी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
उसके बढ़ते हुए कदम पांव एकाएक रुक गए हैं। वह पीछे मुड़ी और घर की ओर तेज तेज पांव उठाकर चलने लगी।
घर वैसे ही मौन था, जैसे वह छोड़कर गई थी। किसी ने उसे आते हुए ना देखा था। अंधेरा धीरे-धीरे छंट रहा था।
दबे पांव अपने कमरे की ओर जाने लगी। वसुदेव का कमरा खुला था। उसने भी तर झांककर देखा। वह अपने बिस्तर पर न था। किसी विचार से वह एकाएक कांप गई और द्वार के भीतर खड़े होकर फिर उसने भली प्रकार देखा। वह बालकनी में कुर्सी पर बैठा झुटपुटे में झील को देख रहा था।
वह भीतर आ गई और धीरे-धीरे पांव रखती उसके पीछे जा खड़ी हुई। वह स्थिर बैठा मूर्तिवत कुछ सोच रहा था।
माधुरी बड़ी देर तक खड़ी उसे देखती रही। वह उसे क्षमा मांगने के लिए आई थी। परंत उसके सामने आने का साहस उसमें न था। वासुदेव एकटक दूर क्षितिज में देखे जा रहा था।
माधुरी में और धैर्य न रहा। उसने रोते हुए बाहें वासुदेव के गले में डाल दी। वह रोती जाती थी और कहती जाती थी –
“मेरे देवता! मुझे क्षमा कर दो। मैंने घोर पाप किया है, मेरे विश्वासघात किया है। मुझे इसका दंड दीजिये। मैं प्रसन्नतापूर्वक उसे स्वीकार करूंगी। किंतु आप मुझसे यूं रूठिए मत। यूं मौन न रहिये, मैं पागल हो जाऊंगी। मैं आपके पैर पड़ती हूँ, कुछ बोलिये! आपने इतने दिन मन की बात क्यों ना कहीं? यदि आप जीवन में इतना शांत रह सकते हैं, तो क्या मैं अपने देवता की बेबसी पर क्षणिक सुख निछावर ना कर सकती थी। मैं आपको उपहास का पात्र बनाऊंगी, यह आपने क्यों सोचा? यह मैंने आपको अब तक न पहचाना था, अब तक न समझा था।” एक ही सांस में रोते-रोते जाने वह क्या क्या कहती चली गई। वह सांस लेने को रुकी, तो उसने वासुदेव को देखा। वह अभी तक किसी गहरी सोच में खोया सा था, उसकी आँखों से आए हुए आँसू अभी तक उसके गालों पर जमे थे।
उसके हाथ से कागज का एक पुर्जा स्वयं ही छूटकर फर्श पर गिरा। माधुरी ने झट उसे उठा लिया और दिन के धीमे प्रकाश में पढ़ने लगी। लिखा था –
प्रिय मित्र,
तुम जब सुबह उठोगे, तो मुझे ना पाओगे क्योंकि मैं यहाँ से बहुत दूर जा चुका हूंगा। संभव है कि माधुरी भी ऐसा ही करें। इसलिए कि वह मेरे पांव की हर आहट सुनती रहती है और कभी भी तुम्हें छोड़कर मेरे पीछे आ सकती है। किंतु मित्र विश्वास रखो, मैं तुम्हारे मुख पर डाका डालकर कभी न भागूंगा बल्कि तुम्हारी अस्थाई गई हुई प्रसन्नता को हटाने का ही प्रयत्न करूंगा। जब से तुमने अपने मन का रहस्य मुझसे कहा है, मैं कई बार प्रयत्न कर चुका हूँ कि माधुरी से साफ-साफ कह दूं। किंतु मेरी जबान नहीं खुलती। तुम उसके जीवन साथी हो, मैं प्रार्थना करता हूँ कि तुम स्वयं ही उसे कह दो। मैं भला यह बात उससे क्यों कर कहूं, वह तो मेरी भाभी है।
तुम्हारा राजी
माधुरी के हृदय में पीड़ा उठी और अंग-अंग में फैल गई। उसने पत्र को उंगली में मरोड़ा और फर्श पर फेंक दिया। वासुदेव वैसे ही बिना उसकी ओर देखे बेसुध सा विचारों में डूबा हुआ बैठा रहा। पत्र फेंककर वह बाहर जाने के लिए मुड़ी। सहसा साड़ी का पल्लू कुर्सी में अटक गया। उसने एक बार मुड़कर पल्लू को छुड़ाया और फिर बाहर की ओर बढ़ी। एक ही पग चली होगी कि पल्लू फिर अटक गया किंतु अब के वह कुर्सी में न अटका था, बल्कि वासुदेव के हाथ में था। उसने मुड़कर देखा और वहीं रुक गई।
“कहाँ जा रही हो?” वासुदेव ने करुण स्वर में पूछा।
“कहीं भी! अब आपको यह अशुभ मुख नहीं दिखाऊंगी। मैं आपकी योग्य नहीं।” भर्राये हुए स्वर में उसने उत्तर दिया।
“तो मैं फिर किसके सहारे जिऊंगा।” हाथ में लिया आंचल छोड़कर वह उठ खड़ा हुआ। माधुरी ने मुड़कर वासुदेव की ओर देखा। उसकी आँखों में स्नेह था और दुख था, क्रोध न था। वह धीरे-धीरे हाथ फैलाए उसकी ओर बढ़े आ रहा था।
“आप!” थरथराते हुए होठों से उसने कहा और कुछ रुककर फिर बोली, “आपने…मुझे…क्षमा कर दिया।”
वासुदेव ने हाँ में सिर हिला दिया। उसकी आँखों में एक विशेष चमक थी और होठों पर छिपी मुस्कान नवजीवन का संदेश दे रही थी। वह रोते-रोते मुस्कुरा पड़ी। दोनों एक साथ एक-दूसरे की ओर बढ़े। वासुदेव ने उसे अपने बाहुपाश में ले लिया और बोला –
“माधुरी! राजी मेरा प्रिय मित्र है। मित्र जीवन में कभी धोखा नहीं देता। क्या तुम भी मेरे मित्र बन सकोगी?”
माधुरी ने अपना मुख उसके वक्ष में छिपा लिया। सिसकियाँ भरे स्वर में बोली, “हाँ!”
वासुदेव उसके पीठ को धीरे-धीरे सहलाने लगा, जैसे कोई प्रौढ़ किसी शिशु को प्यार करें। दोनों की आँखों में आँसू बह रहे थे, जिनमें छिपी पीड़ा घुलकर बह रही थी।
घटा छाई और बरसी – छंट गई और आकाश निखर गया। मन मैले हुए – धुले और धुल कर उजले हो गये। जीवन महान लक्ष्यों के आधार पर ही टिका है, क्षणिक भावनाओं पर नहीं।
Prev | Next | All Chapters
Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11
अन्य हिंदी उन्पयास :
~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास
~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास
~ देवदास शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास