Chapter 9 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda
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आकाश घटाटोप था। हवा बंद थी। पत्ता तक न हिलता था और सर्वत्र एक सन्नाटा था । राजेंद्र की आँखों में नींद न थी। उसकी सांस घुटी जा रही थी। वह बेचैनी से रहरहकर करवटें बदल रहा था।
काली भयानक रात किसी आने वाले तूफान की प्रतीक थी। उसकी आँखों के सामने वासुदेव का मुख फिर गया। वह कितना दुखी था। वह पर्दे के पीछे छिपा अपनी पत्नी को दूसरे से प्यार करते देखता रहा और हिला नहीं। विष का घूंट पी गया। कितना धैर्य है उसमें। वह उसके स्थान पर होता, तो अवश्य सामने आकर कुछ कर बैठता। वह अनोखा पति था, जो जानबूझकर अपने आप को कुएं में धकेल रहा था। यह कैसी आत्महत्या है। उसी समय उसे वासुदेव के यह शब्द याद आये, “राजी! तुम्हारा मुझ पर यह बड़ा भारी उपकार होगा। मैं नहीं चाहता कि वह किसी और के साथ भाग जाये और लोग मेरी हँसी उड़ायें, अपमान करें। इससे तो अच्छा होगा कि वह तुम्हारी हो रहे। मुझे प्रसन्नता ही होगी।”
यह विचार आते ही वह तड़प गया। आज वह बेबस था और इसलिए अपनी पत्नी से डरता था। वरना जो व्यक्ति एक मस्त घोड़े को वश में ला सकता है, वह क्या पत्नी पर अधिकार नहीं पा सकता। परंतु नहीं, यह कैसा विचार है और वह सच कहता है, प्रेम एक ढोंग है, जिसका आधार केवल वासना पर है। वह उसकी वासना पूर्ति नहीं कर सकता, वरना ऐसे पवित्र हृदय व्यक्ति को माधुरी कभी धोखा ना दे सकती। इन विचारों से उसे उलझन होने लगी। तकिये के नीचे से उसने सिगरेट की डिबिया निकाली और सुलगाकर पीने लगा। उसने खिड़की का पर्दा हटा दिया।
एकाएक उसे यूं लगा, जैसे कोई द्वार पर खड़ा उसे भीतर धकेलने का प्रयत्न कर रहा हो। पहले तो उसने कोई ध्यान ना दिया, किंतु फिर जब किसी ने किवाड़ खटखटाया, तो उठकर खड़ा हो गया। दबे स्वर में किसी ने उसका नाम लेकर पुकारा। वह माधुरी की आवाज थी, जो उसे किवाड़ खोलने के लिए कह रही थी।
राजेंद्र ने बत्ती जलानी चाही, किंतु फिर कुछ सोचकर रुक गया। कुछ देर खड़ा सुनता रहा और फिर उसने चिटकनी खोल दी। किवाड़ खुला और माधुरी भीतर आई। इसके पूर्व की राजेंद्र उस पर कोई प्रश्न करता, उसने तेजी से मुड़ते हुए किवाड़ बंद कर दिया । कमरे में फिर मौन सा छा गया और दोनों घबराये से एक दूसरे को देखने लगे।
“क्यों कुशल तो है?” राजेंद्र ने आश्चर्य से पूछा।
“जी! यूं ही चली आई।”
“यूं ही चली आई!” राजेंद्र ने उसका उत्तर दोहराया।
“जी! आप ही ने तो कहा था, प्रेम में कभी बड़े साहस से काम लेना पड़ता है।”
“किंतु इतनी अधीरता से नहीं।”
“अधीरता! तड़प तड़प जल मरने को तुम धैर्य कहते हो यही ना!”
उसका उत्तर सुनकर राजेंद्र चुप रहा। उसने अंधेरे में उसकी आँखों में एक विशेष चमक देखी। गुलाबी रंग की चमक, जो मनोभावना के बहुत उभरने पर ही उत्पन्न होती है। उसने धीरे से पूछा, “वासुदेव कहाँ है?”
“सो रहा है। आनंद की नींद!”
“ओह!” उखड़े हुए सांस में उसने कहा और माधुरी की अधखुली आँखों में झांकते हुए उसकी भरी-भरी नरम बाहों को हाथों में संभाला, जो उसको अपनी लपेट में ले लेने के लिए व्याकुल हो रही थी। वह असमंजस में था कि इस बढ़ते हुए तूफान को किस प्रकार रोके।
उसने अपने मन की दशा माधुरी पर प्रकट ना होने दी और उसके शरीर को अपनी बाहों में संभालते हुए बोला, “बड़ी गर्मी है किवाड़ खोल दूं।”
“ऊं हूं!” माधुरी ने उसे अलग हटकर खिड़की भी बंद कर दी। राजेंद्र का मन भीतर ही कांप सा गया। वह किवाड़ के पास लग कर खड़ा हो गया। उसका मन एक विचित्र दुविधा में था। बाढ़ सब बांध तोड़ चुकी थी। उसे रोकना व्यर्थ था और उसमें डूब जाना निर्लज्जता। उसकी समझ में कुछ ना आ रहा था कि वह क्या करें। माधुरी उसके पलंग पर लेट गई।
राजेंद्र ने बाहर का किवाड़ खोल कर अंधेरे में झांक कर देखा। दूर दीवार से लगी उसे एक छाया से चलती हुई दिखाई दी। उसका अनुमान ठीक ही था। वह वासुदेव था, जो माधुरी का पीछा करते हुए उसी ओर आ रहा था।
राजेंद्र के मन को आघात सा लगा। उसने झट किवाड़ बंद कर दिया और उसके साथ लगकर बाहर की आहट सुनने लगा। वह जानता था कि इतना कुछ कहने पर भी वासुदेव अवश्य उसका पीछा करेगा। पति चाहे कितना ही बेबस और निर्लज्ज अथवा उदार हृदय क्यों ना हो, अपनी आँखों से यह सहन करना सहज नहीं।
“कोई है क्या?” माधुरी ने उसे की वारसी में लगे देख धड़ उठाकर पूछा।
“कोई नहीं, केवल भ्रम।” राजेंद्र ने होठों को दबाते हुए उत्तर दिया।
वह सांत्वना की साहस लेकर फिर लेट गई। राजेंद्र उसकी बेकली को ठीक अनुभव कर रहा था। वह धीरे-धीरे उसके पास गया और बिखरे हुए बालों को समेटने लगा। उसके कान बाहर ही लगे हुए थे। वह फिर खिड़की के पास जा खड़ा हुआ और वासुदेव के पैरों की आहट सुनने लगा, जो खिड़की के पास आकर बंद हो गई थी। उसे विश्वास हो गया कि वह खिड़की के साथ लगकर उनकी बातें सुन रहा है। घबराहट में वह अपने हाथों की उंगलियाँ तोड़ने लगा।
एकाएक उसके शरीर को एक धक्का सा लगा और वह कांप गया। जब संभला, तो उसने माधुरी को पीठ से लगी पाया। उसकी नरम और भरी हुई बाहें पीछे से उसके वक्ष पर पहुँच गई थी। राजेंद्र ने उसे हटाया नहीं और उसके हाथों को अपनी हथेलियों में लेकर खड़ा रहा। उसके नरम और गर्म शरीर के स्पर्श से उसके अस्थिर मन को एक शांति से मिली।
“राजी!” माधुरी ने लंबी सांस खींचते हुए धीरे से कहा।
“हूं!”
“यूं खड़े क्या सोच रहे हो?”
“सोच रहा हूं कि नदी बढ़ी आ रही है। मैं प्यासा हूँ, बढ़ने का साहस नहीं, पांव रुक रुक जाते हैं।”
“क्यों राजी! जी भरकर प्यास मिटा लो। नदी तो सिर्फ तुम्हारे चरणों में लोट रही है।”
“किंतु इसके लिए तो झुकना पड़ेगा।”
“इतना भी ना झुकोगे क्या? यह तरंगे तुम्हारे होठों को चूमने के लिए व्याकुल हैं।”
“किंतु कब तक?” वह एकाएक मुड़ा और उसके गालों को अपने दोनों हाथों में लेकर बोला, “जब ये उतर जायेंगी, तो क्या होगा? वही प्यास, वही विवशता। बल्कि तड़प और भी बढ़ जायेगी।”
माधुरी उसके उत्तर पर विचार करने लगी। राजेंद्र ने लपककर खिड़की का पर्दा हटा दिया और तेजी से दोनों किवाड़ खोल दिये। एक परछाई झट पीछे हटी और दीवार से लग गई। पत्तों की सरसराहट और किसी के भागकर चलने ने सब भेद खोल दिया। खिड़की के शीशे में से वह भली-भांति वासुदेव को देख रहा था। उसको अपने इतना समीप पाकर राजेंद्र भय कुछ घट गया था। माधुरी की ओर मुड़ते हुए वह बोला, “इधर आ जाओ। देखो, हवा कितनी भली लगती है।
“इसे बंद ही रहने दीजिए।”
“क्यों?”
“कहीं कोई आ ना जाये।”
“तो क्या हुआ? एक दिन तो निडर बनना ही होगा।”
“आप सच कहते हैं, इस निश-दिन की तड़प, इस भय, इस प्यास, इन सबको समाप्त क्यों न कर डाले।”
“कैसे?” राजेंद्र ने इस शब्द पर बल देते हुए पूछा और चोर दृष्टि से शीशे में से वासुदेव को देखा।
“कहीं भाग चलें।” माधुरी ने राजेंद्र की आँखों में आँखें डाल कर कहा।
यह उत्तर सुनते ही राजेंद्र ने फिर वासुदेव की ओर देखा इसी समय अचानक आकाश पर चंद्रमा निकल आया। दोनों की दृष्टि एक साथ ऊपर को उठी। घटायें हटकर अलग हो गई थी और वातावरण ने निखर आया था। दोनों भली प्रकार एक दूसरे को देख रहे थे।
“यह चांद कहाँ से निकल आया?”
“यही तो प्रेम का साक्षी है।”
“तो राजी! विलंब क्यों? आज रात ही…”
“इतना शीघ्र?”
“अच्छा अवसर है। दोनों साथ हैं। चांद अभी छुप जायेगा। अंधेरे में नाव झील में डाल देंगे।”
“परंतु जायेंगे कहाँ?”
“कहीं भी! इतना बड़ा देश है।”
राजेंद्र में माधुरी की आँखों में देखा। आज वह प्रेम के लिए कड़े से कड़ा कष्ट झेलने को भी तैयार थी। उसने धीरे से पूछा, “तो तुम अपनी बात पर दृढ़ हो? चलोगी?”
“हाँ! आपको कोई शंका है क्या?”
“नहीं तुम पर शंका तो नहीं, अपने आप से भी इसी विश्वास उठ गया है। तुम सच कहती हो, इतना बड़ा देश है, कहीं भी जा छिपेंगे। किंतु धन भी तो चाहिए।”
“दो बरस तक आराम से रहने के लिए तो मेरे पास पर्याप्त है।”
“नहीं माधुरी! यह क्या थोड़ा है कि मैं तुम्हें अपने मित्र से छीन कर ले जाऊं। उसके धन को चुराकर में नहीं भागना चाहता।”
माधुरी चुप रही और हाथ बढ़ाकर खिड़की बंद करने का प्रयत्न करने लगी। राजेंद्र उसका हाथ पकड़ कर रोक लिया।
“क्यों?” उसके प्रश्न सूचक दृष्टि उठाते हुए पूछा।
“बंद हवा में मेरी सांस घुटने लगती है।”
“डरती हूँ कोई आ ना जाये।”
“कौन आयेगा? वासुदेव की अतिरिक्त यहाँ और कोई है ही कौन।”
“उन्हीं की बात तो कर रही थी।”
“उसे मत घबराओ। तुमने स्वयं ही तो कहा था कि वह पत्थर की मूर्ति है। उसमें भावना ही नहीं। वह केवल पशुओं को वश में करना जानता है। मानव हृदय की भाषा नहीं समझता।”
“नहीं राजी! मेरा अभिप्राय यह ना था। कहीं उन्होंने देख लिया, तो सब बनता हुआ काम बिगड़ जायेगा।”
“नहीं माधुरी यूं कहो कि बिगड़ता हुआ काम संवर जायेगा।”
“कैसे?*
“मैं चाहता हूँ कि वह हमारी बातें सुन ले और हमें यूं अंधेरे में प्रेम करते पकड़ ले।” उसने शीशे में वासुदेव की ओर ध्यान पूर्वक देखते हुए कहा।
“यह आप आज क्या कह रहे हैं?”
“ठीक ही कह रहा हूँ। मैं यह नहीं चाहता कि मैं उसकी पीठ में छुरा मारूं। मैं तो चाहता हूं कि वह स्वयं अपनी आँखों अपने प्रेम का अंत देख ले और हम दोनों को अपने हाथों विवशता के बंधनों से मुक्त कर दें।”
“ऐसा कभी हुआ है? उन्होंने देख लिया, तो हम कहीं के भी ना रहेंगे।”
“और जो यहाँ से भाग गए, तो कहाँ के रहेंगे?”
“मेरा अभिप्राय था कि मैं उनके सामने आने का कभी साहस न कर सकूंगी।”
“माधुरी!” टूटे हुए शब्दों में उसने कहा, “हमें प्रेम के लिए बड़ी से बड़ी आपत्ति का भी सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए, चाहे वह स्वयं वासुदेव ही क्यों ना हो।”
शब्द अभी राजेंद्र के मुँह पर ही थे कि वासुदेव अंधेरे से निकलकर खिड़की में आ गया और बिल्कुल उनके सामने आ खड़ा हुआ। उसके चेहरे पर दुख और माथे पर पसीना अंतर के उस मानसिक संघर्ष के साक्षी थे, जिससे उसे दो-चार होना पड़ा। माधुरी ने उसे देखा और चीख कर अलग हटके द्वार की ओर भागी। राजेंद्र ने लपक कर उसे पकड़ना चाहा, किंतु वह तेजी से बाहर निकल गई।
जाते-जाते उसने वासुदेव के यह शब्द भी सुन लिये, जो वह से कह रहा था, “तुम्हें अपने प्रेम के लिए मुझे बलपूर्वक मार्ग से हटाने का कष्ट ना करना पड़ेगा। मैं तो स्वयं ही हट जाऊंगा।”
और वह कुछ ना सुन सकी और सहमी हुई, पसीना-पसीना, धड़कते हुए मन से अपने कमरे में लौट आई। जाने दोनों में क्या झगड़ा हुआ? बात कहाँ तक पहुँची? किंतु उसने और कुछ भी न सुना और भीतर से कमरे का किवाड़ बंद कर पलंग पर जा गिरी। एक भय सा उसके मस्तिष्क पर छा गया। उसकी आँखों में वासुदेव का वह रूप फिर गया, जब वह घोड़े को चाबुकों से मार रहा था।
कमरे में अंधेरा था। क्षण भर में क्या हो गया, वह सोच भी न सकती थी। उसने अपना मुंह दोनों हाथों से ढक लिया और कंपकंपी को रोकने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगी। उसे यूं लग रहा था, जैसे अभी वासुदेव किवाड़ को तोड़कर भीतर आ जाएगा।
अचानक किवाड़ पर धमाका हुआ। वासुदेव ही था। उसने जोर से किवाड़ खटखटाया और फिर माधुरी का नाम लेकर पुकारा। उसमें ना तो उठने का बल था और ना इतना साहस ही कि उसके सामने आ सके। सांस रोके हाथ से मुँह छुपाए वह चुपचाप पड़ी रही।
वासुदेव कोई उत्तर न पाकर चला गया। फिर से मौन छा गया। रात वैसी ही अंधेरी थी। कहीं से कोई आवाज नहीं आ रही थी। किंतु उसे चैन ना था। उसके सोचने की शक्ति मर गई थी। वह पागल हो रही थी। मन ही मन में प्रार्थना कर रही थी कि कभी सवेरा ही ना हो और यह वह यूं ही रात के अंधेरे में छिपी बैठी रहे।
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