चैप्टर 3 खौफनाक इमारत : इब्ने सफ़ी का उपन्यास | Chapter 3 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

Chapter 3 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

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दूसरे दिन कैप्टन फैयाज़ ने इमरान को अपने घर बुलाया। हालांकि कई बार के अनुभव ने यह बात साबित कर दी थी इमरान वह नहीं है, जो ज़ाहिर करता है। ना वह अहमक है और ना खब्ती। लेकिन फिर भी फैयाज़ ने उसे मूड में लाने के लिए जज साहब की कानी लड़की को भी बुला लिया था। हालांकि वह इमरान की इस हरकत को भी मजाक ही समझा था, लेकिन फिर भी उसने सोचा कि थोड़ी तो तफरीह ही रहेगी। उसकी बीवी भी इमरान से अच्छी तरह परिचित थी और जब फैयाज़ ने उसे उसके इश्क की दास्तान सुनाई, तो हँसते-हँसते उसका बुरा हाल हो गया।

फैयाज़ उस वक्त अपने ड्राइंग रूम में बैठा इमरान का इंतज़ार कर रहा था। उसकी बीवी और जज साहब की एक आँख वाली लड़की राबिया भी मौजूद थी।

“अभी तक नहीं आये इमरान साहब!” फैयाज़ की बीवी ने कलाई पर बंधी हुई घड़ी की तरफ देखते हुए कहा।

“क्या वक्त है?” फैयाज़ ने पूछा।

“साढ़े सात!”

“बस दो मिनट बाद उस कमरे में होगा।” फैयाज़ मुस्कुरा कर बोला।

“क्यों यह कैसे?’

“बस उसकी हर बात अजीब होती है। वह इसी किस्म का वक्त तय करता है। उसने सात बजकर बत्तीस मिनट पर आने का वादा किया था। लिहाज़ा मेरा ख़याल है कि वह इस वक्त हमारे बंगले के करीब ही खड़ा अपनी घड़ी देख रहा होगा।”

“अजीब आदमी मालूम होते हैं।” राबिया ने कहा।

“अजीबतरीन कहिये। इंग्लैंड से साइंस में डायरेक्टरेट लेकर आया है….लेकिन उसकी हरकतें! वह भी देख लेंगी। इस सदी का सबसे अजीब आदमी है। लीजिये, शायद वही है।”

दरवाजे पर दस्तक हुई।

फैयाज़ उठकर आगे बढ़ा। दूसरे लम्हे में इमरान में ड्राइंग रूम में दाखिल हो रहा था।

औरतों को देख कर वो ज़रा झुका और फिर फैयाज़ से हाथ मिलाने लगा।

“शायद मुझे सबसे पहले यह कहना चाहिए कि आज मौसम बड़ा खुशगवार रहा।” इमरान बैठता हुआ बोला।

फैयाज़ की बीवी हँसने लगी और राबिया ने जल्दी से काले शीशे वाली ऐनक लगा ली।

“आप से मिलिये, आप मिस राबिया सलीम हैं। हमारे पड़ोसी जज साहब की साहबजादी हैं और आप मिस्टर अली इमरान, मेरे महकमे के डायरेक्टर जनरल रहमान साहब के साहबजादे।”

“बड़ी खुशी हुई।” इमरान मुस्कुरा कर बोला। फिर फैयाज़ से कहने लगा, “तुम हमेशा गुफ्तगू में गैर-ज़रूरी अल्फाज़ ठूंसते रहते हो, जो बहुत बुरे लगते हैं….रहमान साहब के साहबजादे। दोनों साहबों का टकराव बुरा लगता है। उसके बजाय रहमान साहब के जादे या सिर्फ रहमान जादा कह सकते हैं।”

“मैं लिटरेरी आदमी नहीं हूँ।” फैयाज़ मुस्कुरा कर बोला।

दोनों खवातीन भी मुस्कुरा रही थीं। फिर राबिया ने झुककर फैयाज़ की बीवी से कुछ कहा और वे दोनों उठकर ड्राइंग रूम से चली गई।

“बहुत बुरा हुआ।” इमरान बुरा सा मुँह बनाकर बोला।

“क्या? शायद वे बावर्ची खाने की तरफ गई हैं।” फैयाज़ ने कहा, “बावर्ची की मदद के लिए आज कोई नहीं है।”

“तो क्या तुमने उसे भी बुलाया है?”

“हाँ भाई क्यों ना बुलाता। मैंने सोचा कि इस बहाने से तुम्हारी मुलाकात भी हो जाये।”

“मगर मुझे बड़ी कोफ्त हो रही है।” इमरान ने कहा।

“क्यों?”

“आखिर उसे धूप का चश्मा क्यों लगाया है?”

“अपना नुक्स छुपाने के लिए।”

“सुनो मियां! दो आँखों वालियाँ मुझे बहुत मिल जायेंगी। यहाँ तो मामला सिर्फ इस आँख का है। हाय क्या चीज है…किसी तरह उसका चश्मा उतरवाओ। वरना मैं खाना खाये बगैर वापस चला जाऊंगा।”

“बको मत!”

“मैं चला।” इमरान उठता हुआ बोला।

“अजीब आदमी हो, बैठो।“ फैयाज़ ने उसे दोबारा बैठा दिया।

“चश्मा उतरवाओ, मैं इसका कायल नहीं कि महबूब सामने हो और अच्छी तरह दीदार भी नसीब न हो।”

“ज़रा आहिस्ता बोलो।” फैयाज़ ने कहा।

“मैं तो अभी उससे कहूंगा।”

“क्या कहोगे?” फैयाज़ बौखला कर बोला।

“यही जो तुम से कह रहा हूँ।”

“यार ख़ुदा के लिए..”

“क्या बुराई है इसमें?”

“मेरे सख्त गलती की।” फैयाज़ बड़बड़ाया।

“वाह…गलती तुम करो और भुगतू मैं। नहीं फैयाज़ साहब! मैं उससे कहूंगा कि बराहे-करम चश्मा उतार दीजिये। मुझे आपसे मरम्मत हो गई है…मरम्मत…शायद मैंने गलत लफ्ज़ इस्तेमाल किया है। बोलो भई! क्या होना चाहिए?”

“मोहब्बत!” फैयाज़ बुरा सा मुँह बनाकर बोला।

“जिओ! मोहब्बत हो गई है। तो वह इस पर क्या कहेगी?”

“चांटा मार देगी।” फैयाज़ झुंझला कर बोला।

“फ़िक्र ना करो, मैं चांटे को चांटे पर रोक लेने के आर्ट से बखूबी वाकिफ़ हूँ। तरीका वही होता है, जो तलवार पर तलवार रोकने का हुआ करता है।”

“यार ख़ुदा के लिए कोई हिमाकत ना कर बैठना।”

“अक्लमंदी की बात करना एक अहमक की खुली तौहीन है। अब बुलाओ न…दिल की जो हालत है, बयान पर भी सकता हूँ और नहीं भी कर सकता। वह क्या होता है जुदाई में….बोलो ना यार कौन सा लफ्ज़ है?”

“मैं नहीं जानता।” फैयाज़ झुंझला कर बोला।

“खैर होता होगा कुछ। डिक्शनरी में देख लूंगा। वैसे मेरा दिल धड़क रहा है, हाथ कांप रहे हैं। लेकिन हम दोनों के दरमियान धूप का चश्मा हायल है। मैं उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता।”

चंद लंबी खामोशी रही। इमरान मेज पर रखे हुए गुलदान को इस तरह घूरता रहा था, जैसे उसने उसे कोई सख्त बात कह दी हो।

“आज कुछ नई बातें मालूम हुई हैं।” फैयाज़ ने कहा।

“ज़रूर मालूम ही होंगी।” इमरान अहमकों की तरह सिर हिलाकर बोला।

“मगर नहीं! पहले मैं तुम्हें उन ज़ख्मों के बारे में बताऊं। तुम्हारा ख़याल सही निकला। जख्मों की गहराई बिल्कुल बराबर है।”

“क्या तुम ख्वाब देख रहे हो?” इमरान ने कहा।

“क्यों?”

“इन ज़ख्मों की बात कर रहे हो?”

“देखो इमरान में अहमक नहीं हूँ।”

“पता नहीं! जब तक तीन गवाह न पेश करो यकीन नहीं आ सकता।”

“क्या तुम कल वाली लाश भूल गये?”

“लाश! अरे हाँ याद आया और वह तीन ज़ख्म बराबर निकले…हा…”

“आप क्या कहते हो ।” फैयाज़ ने पूछा।

“संगो-आहनर बेनियाजे-गम नहीं, देख दीवारें दर से सर न मार।” इमरान ने गुनगुना कर तान मारी और मेज पर तबला बजाने लगा।

“तुम संजीदा नहीं हो सकते?” फैयाज़ उकताकर बेदिली से बोला।

“उसका चश्मा उतरवा देने का वादा करो, तो मैं संजीदगी से गुफ्तगू करने को तैयार हूँ।”

“कोशिश करूंगा बाबा। मैंने उसे नाहक बुलाया।”

“दूसरी बात यह कि खाने में कितनी देर है?”

“शायद आधा घंटा। वह एक नौकर बीमार हो गया है।”

“खैर! हना जज साहब से क्या बातें हुई?”

“वही बताने जा रहा था। कुंजी उनके पास मौजूद है और दूसरी बात यह है कि वह इमारत उन्हें विरासत में नहीं मिली थी।”

“फिर?” इमरान ध्यान और दिलचस्पी से सुन रहा था।

“वह दरअसल उनके एक दोस्त की मिल्कियत थी और उस दोस्त ने ही उसे खरीदा था। उनकी दोस्ती बहुत पुरानी थी, लेकिन रोजगार की फ़िक्र ने उन्हें एक दूसरे से जुदा कर दिया। आज से पाँच साल पहले अचानक जज साहब को उसका एक खत मिला, जो उसी इमारत से लिखा गया था। उसने लिखा था कि उसकी हालत बहुत खराब है और शायद वह ज़िन्दा ना रह सके। लिहाज़ा वह मरने से पहले उनसे बहुत ज़रूरी बात कहना चाहता है। तकरीबन पंद्रह साल बाद जज साहब को उस दोस्त के बारे में कुछ मालूम हुआ था। उनका वहाँ पहुँचना ज़रूरी था। बहरहाल वे वक्त पर पहुँच न सके। उनके दोस्त का इंतकाल हो चुका था। मालूम हुआ कि वहाँ तन्हा ही रहता था। हाँ, तो जज साहब को बाद में मालूम हुआ कि मरने वाले ने वह इमारत कानूनी तौर पर जज साहब के नाम कर दी थी। लेकिन यह ना मालूम हो सका कि वह उनसे क्या कहना चाहता था।”

इमरान थोड़ी देर तक कुछ सोचता रहा फिर बोला, “हाँ और इस कमरे के प्लास्टर के बारे में पूछा था?”

“जज साहब ने उससे ला-इल्मी ज़ाहिर की। अलबत्ता उन्होंने यह बताया कि उनके दोस्त की मौत इसी कमरे में हुई थी।”

“क़त्ल?” इमरान ने पूछा।

“नहीं कुदरती मौत। गाँव वालों के बयान के मुताबिक वह अरसा से बीमार था।”

“उसने इस इमारत को किस से खरीदा था?” इमरान ने पूछा।

“आखिर इससे क्या बहस? तुम इमारत के पीछे क्यों पड़ गए हो?”

“महबूबा यकचश्म के वालिद बुजुर्ग वार से यह भी पूछो।”

“जरा आहिस्ता! अजीब आदमी हो, अगर उसने सुन लिया तो!”

“सुनने दो। अभी मैं उससे अपने दिल की हालत बयां करूंगा।”

“यार इमरान ख़ुदा के लिये। कैसे आदमी हो तुम?”

“ऐसी बातें मत करो।” इमरान बोला, “जरा जज साहब से वह कुंजी मांग लाओ।“

“ओह! क्या अभी?”

“अभी और इसी वक्त!”

फैयाज़ उठकर चला दिया। उसके जाते ही वे दोनों खवातीन ड्राइंग रूम में दाखिल हुई।

“कहाँ गये?” फैयाज़ की बीवी ने पूछा।

“शराब पीने।” इमरान ने बड़ी संजीदगी से कहा।

“क्या?” फैयाज़ की बीवी मुँह फाड़ कर बोली। फिर हँसने लगी।

“खाना खाने से पहले हमेशा थोड़ी सी पीते हैं।” इमरान ने कहा।

“आपको गलतफ़हमी हुई है। वह एक टॉनिक है।”

“टॉनिक की खाली बोतल में शराब रखना मुश्किल नहीं!”

“लड़ाना चाहते हैं?” फैयाज़ की बीवी आप हँस पड़ी।

“क्या आपकी आँखों में कुछ तकलीफ है?” इमरान ने राबिया को संबोधित किया।

“जी..जी..जी नहीं।” राबिया नर्वस नज़र आने लगी।

“कुछ नहीं!” फैयाज़ की बीवी जल्दी से बोली, “आदत है। तेज रोशनी बर्दाश्त नहीं होती। इसलिए यह चश्मा..”

“ओह अच्छा!” इमरान बड़बड़ाया, “मैं अभी क्या सोच रहा था।“

“आप गलीबन यह सोच रहे थे कि फैयाज़ की बीवी बड़ी फ़ूहड़ है, अभी तक खाना भी तैयार ना हो सका।”

“नहीं यह बात नहीं है। मेरे साथ बहुत बड़ी मुसीबत यह है कि मैं बड़ी जल्दी भूल जाता हूँ। सोचते-सोचते भूल जाता हूँ कि क्या सोच रहा था। हो सकता है, मैं अभी यह भूल जाऊं कि आप कौन हैं और मैं कहाँ हूँ। मेरे घरवाले मुझे हर वक्त टोकते रहते हैं।”

“मुझे मालूम है।” फैयाज़ की बीवी मुस्कुराई।

“मतलब यह कि अगर मैं कोई हिमाकत कर बैंठू, तो बिला तकल्लुफ टोक दीजियेगा।”

अभी यह गुफ्तगू होगी रही थी कि फैयाज़ वापस आ गया।

“खाने में कितनी देर है?” उसने अपनी बीवी से पूछा।

“बस ज़रा सी!”

फैयाज़ ने कुंजी का कोई तज़किरा नहीं किया और इमरान के अंदाज़ से भी मालूम हो रहा था जैसे वह भूल ही गया हो कि उसने फैयाज़ को कहाँ भेजा था।

थोड़ी देर बाद खाना आ गया।

खाने के दौरान इमरान की आँखों से आँसू बह रहे थे।

सब ने देखा, लेकिन किसी ने नहीं पूछा। खुद फैयाज़, जो इमरान की रग-रग से वाकिफ़ होने का दावा रखता था, कुछ ना समझ सका। फैयाज़ की बीवी और राबिया तो बार-बार कनखियों से उसे देख रही थी। आँसू किसी तरह रुकने का नाम ही नहीं लेते थे। इमरान के अंदाज़ से ऐसा मालूम हो रहा था, जैसे उसे भी इन आँसुओं का इल्म न हो। आखिर फैयाज़ के बीवी से बर्दाश्त ना हो सका और वह पूछ ही बैठी –

“क्या किसी चीज में मिर्ची ज्यादा है?”

“जी नहीं! नहीं तो! “

“तो फिर यह आँसू क्यों बह रहे हैं?”

“आँसू…कहाँ?” इमरान अपने चेहरे पर हाथ फेरता हुआ बोला, “ल..ल..लाहौल विला कूवत। शायद वही बात हो। मुझे कतई एहसास नहीं हुआ।”

“क्या बात?” फैयाज़ ने पूछा।

“दरअसल मुर्ग मुसल्लम देखकर मुझे अपने अजीज़ की मौत याद आ जाती थी।”

“क्या मुर्ग मुसल्लम देखकर!” फैयाज़ की बीवी हैरत से बोली।

“जी हाँ!”

“भला मुर्ग मुसल्लम देखकर क्यों?”.

“दरअसल ज़ेहन में दोज़ख़ का तसव्वुर था। मुर्ग मुसल्लम देखकर आदमी के मुसलमान का ख़याल आ गया। मेरे उन अजीज़ का नाम असलम है। मुसलमान पर असलम आ गया…फिर उनकी मौत का ख़याल आया। फिर सोचा कि अगर वह दोज़ख़ में फेंके गये, तो असलम मुसलमान…मआज़ल्लाह।“

“अजीब आदमी हो!” फैयाज़ झुंझला कर बोला।

उसके साहब की लड़की राबिया बेतहाशा हँस रही थी।

“कब इंतकाल हुआ उनका।” फैयाज़ की बीवी ने पूछा।

“अभी तो नहीं हुआ।” इमरान ने सादगी से कहा और खाने में मशगूल हो गया।

“यार मुझे डर है कि कहीं तुम सच में पागल ना हो जाओ।”

“नहीं, जब तक कोकाकोला बाजार में मौजूद है, पागल नहीं हो सकता।”

“क्यों?” फैयाज़ की उससे पूछा।

“पता नहीं! बहरहाल महसूस यही करता हूँ।”

खाना खत्म हो जाने के बाद भी शायद जज साहब की लड़की वहाँ बैठना चाहती थी, लेकिन फैयाज़ की बीवी उसे किसी बहाने से उठा ले गई। शायद फैयाज़ ने इशारा कर दिया था। उसके जाते ही फैयाज़ ने इमरान को कुंजी पकड़ा दी और इमरान थोड़ी देर उस का जायज़ा लेते रहने के बाद बोला, “अभी हाल ही में इसकी एक नकल तैयार की गई है। इसके सुराख के अंदर मोम के ज़र्रे हैं, मोम का सांचा… समझते हो ना!”

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