चैप्टर 2 वापसी : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 2 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 2 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

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रात का पहला पहर बीत चुका था.

दिन के कोलाहल के बाद वातावरण पर रात की निस्तब्धता छाती जा रही थी. कुछ घरों में रोशनियाँ बुझ चुकी थी. कुछ की अभी जगमगा रही थी. सड़क पर इक्का-दुक्का राहगीर आ-जा रहे थे. ब्लैक आउट समाप्त हो गया था. बहुत दिनों बाद ऐसा प्रतीत हो रहा था कि शहर ने अपनी बंद आँखें खोली हैं. फिर सड़कों की बत्तियों पर अब भी स्याही पुती हुई थी, जिससे सड़क कुछ सोई-सोई सी लग रही थी.

सलमा घर के कम-काज से निबटकर, एकांत में बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थे. उस इस बात का खेद था कि उसके पत्र लिखने के बावजूद भी उसके पति मेजर रशीद अपनशादी की सालगिरह के दिन घर नहीं आये. उनकी शादी की यह पहली सालगिरह थी. यही दिन उसके लिए भरपूर ख़ुशियाँ लेकर आया था, लेकिन आज इसी दिन वह बिल्कुल अकेली है.

अचानक बाहर जीप की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ी. धड़कते दिल से लपककर उसने दरवाज़ा खोला. सामने मेजर रशीद की गाड़ी खड़ीं थी.

सलमा ने आगे बढ़कर व्याकुलता और प्रसन्नता मिश्रित स्वर में कहा – “आप आ गये.”

“क्यों यक़ीन नहीं आ रहा है?” मेजर रशीद ने मुस्कुराकर उसकी ओर बढ़ते हुए कहा.

“यक़ीन करने से डरती हूँ.”

“क्यों?”

“कहीं मेरी सौत फिर न बुला ले जाये. इस ज़ालिम ने तो आपको मुझसे बिलकुल ही छीन लिया.”

“अरे भई, अब तो जंग खत्म हो चुकी है, अब बेचारी को क्यों कोसती हो.” मेजर रशीद ने मुस्कुराते हुए कहा और फिर उसके पास जाकर धीरे से बोला, “क्या करूं, रात-दिन कैदियों के तबादले में लगा हुआ हूँ. एक लम्हे ही भी फ़ुर्सत नहीं मिलती. अब आया भी हूँ. तो खाली हाथ. इस मुबारक-दिन पर तुम्हारे लिए कोई तोहफ़ा भी नहीं ला सका.”

“आपसे बढ़कर मेरे लिए कौन सा तोहफ़ा हो सकता है. बस, आप आ गये, मुझे सबकुछ मिल गया.” सलमा ने प्यार भरी नज़रों से पति की ओर देखते हुए कहा और धीरे से सिमटकर उसकी बाहों में आ गई.

सलमा को यों अनुभव हुआ, जैसे कुछ क्षण के लिए वह स्वर्ग में आ पहुँची हो. पति की बाँहों की गर्मी से वह पिघली जा रही थी. कुछ देर तक आँखें बंद लिए हुए विभोर-सी वह उसके सीने से लगी रही. अचानक वह उछलकर पति से अलग हो गई और आँखें फाड़-फाड़कर जीप की ओर देखने लगी. जीप में से किसी के हल्केसे खखारने की आवाज़ आई थी. फिर उसने कोई छाया सी हिलती देखी. उसने घबराकर पति से पूछा, “आपके साथ और कौन है?”

“ओह…मैं भी कमाल का आदमी हूँ.” मेजर रशीद ने हल्के से ठहाके के साथ कहा – ‘तुमसे कोई मिलने आया और मैं भूल ही गया.” यह कहते हुए मेजर रशीद ने जीप गाड़ी की ओर मुँह करते हुए कैप्टन रणजीत को पुकारा.

एक अजनबी का नाम सुनकर पहले तो सलमा चौंकी और फिर जैसे ही रणजीत धीरे-धीरे सरकता हुआ अंधेरे से उजाले में आया कि उसके मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गई. अपने पति के हमशक्ल को सामने खड़ा देखकर वह अचरज भरी निगाहों से कभी इस अजनबी को और कभी अपने पति को देखने लगे. असीम आश्चर्य से उसके चेहरे का रंग बदलने लगा.

कुछ क्षण के लिए वह मूर्तिमान स्थिर सी खड़ी रह गई. रणजीत ने जैसे ही हाथ जोड़कर ‘भाभी नमस्ते’ कहा, वह एक जंगली बांस की तरह लहराई और ‘उइ आल्लाह’ कहते हुए अंदर की ओर भाग गई.

केजर रशीद ने पत्नी की इस भोली-भाली अदा पर के जोरदार ठहाका लगाया और रणजीत को साथ लिए ड्राइंग रूम में आते हुये बोला, “क्यों दोस्त, मैं कहता था न कि तुम्हारी भाभी तुम्हें देखकर दंग रह जायेंगी.”

“उन्हें अब आप ज्यादा परेशान मत कीजिये. साफ़-साफ़ बता दीजिये कि मैं कौन हूँ.”

“डोंट वरी….तुम आराम से बैठो, मैं अभी जाकर उसे समझा देता हूँ.”

मेजर रशीद रणजीत को सोफे पर बैठाकर सलमा के पास अंदर चला गया. रणजीत ने ध्यानपूर्वक चारों ओर दृष्टि घुमाकर कमरे की ओर देखा. छोटा सा सुंदर ड्राइंग रूम बड़े सलीके से सजाया गया था. वह मन ही मन सलमा के सलीके को सराहने लगा.

सलमा का दिल अभी तक धड़क रहा था.  वह इस बात को सोच-सोचकर लाज से पसीना-पसीना हुए जा रही थी कि एक अजनबी के सामने अपने पति से लिपट गई थी, क्या सोचता होगा वह…

इतने में अचानक पीछे से रशीद ने आकर उसकी पीठ पर हल्का-सा धप्प लगाते हुए कह, “तुम क्यों भाग खड़ी हुई?”

“और क्या करती? मुझे एक अजनबी के सामने बेपरदा कर दिया. कितनी बेशरमी की बात है.”

“तुम्हें क़ुदरत का अजीबोगरीब करिश्मा दिखाना चाहता था. हूबहू मेरी कॉपी मालूम होता है न.”

“कॉपी? मैं तो यह सोचकर कांप जाती हूँ कि अगर वह अकेला घर में आ जाता, तो मैं अंधेरे में…”

“हाँ-हाँ अंधेरे में क्या…” रशीद ने उसका चेहरा लाज से लाल होते देखकर मुस्कुराते हुए पूछा.

“कुछ नहीं.” सलमा ने माथे अपर बाल डाल लिए और झल्ला कर बोली, “आते ही बता दिया होता, तो आपका क्या बिगड़ जाता. आपने जानबूझकर उसके सामने मुझे शर्मिंदा किया. कौन है यह?”

“भारत का एक जंगी कैदी…कैप्टन रणजीत.”

“यहाँ क्यों ले आये?”

“मेरा कोई भाई नहीं है न! मैंने इसे अपना भाई बना लिया है.”

“सचमुच जुड़वा भाई मालूम होता है. लेकिन अगर भाग गया तो?”

“यह नामुमकिन है. दरअसल कुछ दूसरे क़ैदियों के साथ अपने अज़ीज़ों के नाम पैग़ाम देने के लिए इसे रेडियो-स्टेशन ले गया था. वापसी में इसे मैं साथ लेते आया. कल क़ैदियों का जो जत्था हिंदुस्तान जा रहा है, यह ही उसी के साथ चला जायेगा.”

“किसी बड़े अफ़सर ने उसे यहाँ देख लिया तो?”

“यह मेरे जिम्मेदारी है…और देखो आज की रात यह हमारा मेहमान है. इसकी खातिरदारी में कोई कमी न रहने पाये. ताकि जब यह हिंदुस्तान लौटे,तो हमारे वतन की ख़ुशबू भी अपने साथ ले जाये.”

“लेकिन नौकर तो जा चुका है. खाना कौन खिलायेगा इसे?”

“तुम जो हो.”

“बिलकुल ही बेपरदा हो जाऊं उसके सामने.”

“अपना देवर समझकर…मैं इज़ाज़त देता हूँ.”

“देवर’ के शब्द ने सलमा पर जादू का-सा असर किया. उसने होंठों पर भोली-भाली मुस्कराहट खेलने लग गई. उसने इस अजनबी अतिथि की रूचि और स्वाद के बारे में कई प्रश्न पूछ डाले.

मेजर रशीद ने ख़ुद गुशल करने के बाद रणजीत को भी गुशल के लिए कहा और उसके नहा चुकने के बाद दोनों खाने की मेज़ पर आ गये. उसने सामने स्वादिष्ट और सुगंधित खानों का ढेर लगा था. यह प्रबंध केवल अतिथि सत्कार के कारण ही नहीं था, बल्कि अपनी शादी की सालगिरह के उपलक्ष्य में सलमा ने आज पहले ही विशेष भोजन का प्रबंध कर रखा था. उसे आशा न थी कि उसने पति घर ज़रूर आयेंगे और हो सकता है कि किसी मित्र को भी साथ ले आयें.

अपने सामने नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन देखकर कैप्टन रणजीत सलमा की प्रशंसा किये बगैर नहीं रह सका. काफ़ी दिनों बाद आज उसे अच्छा खाना मिला था. लेकिन अचानक ही कुछ सोचकर उसकी आँखों में आँसू आते-आते रुक गये. रशीद ने उसकी भावनाओं को भांप लिया.

“क्यों कैप्टन, अचानक उदास क्यों हो गये?” रशीद ने पूछा.

“यों ही, घर की याद आ गई.” रणजीत ने बलपूर्वक मुस्कुराने का प्रयत्न किया.

“इसे भी अपना ही घर समझो…एक दोस्त का घर.”

“दोस्त ही समझकर तो यहाँ आया. एक ख़ास कशिश थी, जो मुझे यहाँ खींच ले आई, वरना दुश्मन के घर का नमक कौन खाता है.”

“अच्छा बिस्मिल्ला कीजिये.” सलमा ने उस दोनों की बातचीत लंबी होते देखकर कहा.

 रणजीत ने दृष्टि उठाकर सलमा की ओर देखा. जो अभी तक मेज़ पर खाने के डोंगे सजा रही थी. रणजीत ने कहा, “भाभी आप हमारा साथ नहीं देंगी? आज आपकी शादी की सालगिरह में हम तीनों एक साथ खाते, तो कितना अच्छा होता.”

“वंडरफुल…” रशीद उसकी बात सुनकर उछल पड़ा, “भई तुमने तो मेरे मुँह की बात छीन ली. अब तो सलमाँ को हमारे साथ बैठकर खाना ही पड़ेगा.”

सलमा ने बहाना बनाना चाहा, तो रणजीत ने कहने से हाथ खींच लिया और बोला, “आप साथ नहीं खायेंगी, तो मैं भी बिना खाये उठ जाऊंगा. मुझे देवर माना है, तो मेरे साथ खाने में आपको झिझक नहीं होनी चाहिए.”

विवश ह्होकर सलमा को भी साथ बैठना पड़ा. रणजीत तो जैसे खाने पर टूट पड़ा. हर ग्रास के साथ वह सलमा के बनाये हुए खाने की प्रशंसा कर रहा था, सलमा भी ख़ुशी से खिल उठी.

“मुझे क्या मालूम था कि आज ये आपको साथ ले आयेंगे.” सलमा ने पुलाव की प्लेट रणजीत की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘वर्ना मैं दो-चार चीज़ें और तैयार कर देती.”

“इतना क्या कम है. सच पूछो भाभी, जो मज़ा इस कहने में है, वह बड़ी से बड़ी पार्टियों में भी कभी नहीं मिला. काश, मैं फिर कभी आपकी सालगिरह में शरीक हो सकता.” रणजीत ने आत्मीयता भरे स्वर में कहा.

“कहाँ आप और कहाँ हम.” सलमा ने ठंडी सांस भरी और दुःख भरे स्वर में बोली, “ख़ुदा-ख़ुदा करके जबसे सीज़ फायर हुआ, तो जान में जान आई. हर वक़्त जान पर बनी हुई थी. दिन-रात तोपों के धमाके…हवाई जहाज की गड़गड़ाहट और खतरे के सायरन की आवाज़…न जाने इन लोगों को क्या हो गया है.”

“कुछ नहीं इंसान अपने हक़ के लिए लड़ता है.’

“कौन सा हक़…?” सलमा ने भोलेपन से पूछा.

“जो अब तक उसे नहीं मिला…और शायद वह जनता भी नहीं कि उसका हक़ है क्या?” रणजीत ने बोझिल आवाज़ में कहा.

रशीद ने विवाह को गंभीर रूप धारण करते हुए देखा, तो उसने दोनों की बात काटते हुए कहा, “बेहतर होगा, अगर हम थोड़ी देर के लिए अपने हक़ को भूलकर खाने के साथ इंसाफ़ करने.”

सलमा पति का संकेत समझ गई और बात का रुख बदलते हुए बोली, “कहिए क्या पैगाम दिया आपने अपने घरवालों के नाम?”

“बस खैर-खैरियत…” रणजीत ने ग्रास चबाते हुए उत्तर दिया.

“किसके नाम?”

“अपनी माँ ने नाम?’

“और आपके वालिद साहब…?”

“जब मैं माँ की गोद में ही था, तभी माँ को दुनिया में बेसहारा छोड़कर चले गए.”

“ओह! क्या हुआ था उन्हें?”

“पार्टीशन के वक़्त मार-धाड़ में मारे गये.”

“अरे कहाँ?”

“इसी सर जमीन पर, जिसे आप पाक़ कहते हैं.”

“ओह!” सलमा ने एक लंबी सांस ली और दुःख भरी आवाज़ में पूछा, “कितने भाई-बहन हैं आप?”

“बस अकेला हूँ.”

“लेकिन आपने रेडियो के प्रोग्राम में माँ के अलावा भी तो एक नाम लिया था.” मेजर रशीद ने बात-चीत में रूचि लेते हुए पूछा.

“वह मेरी प्रेमिका है.”

“कहाँ रहती हैं?” सलमा ने उत्सुकता से पूछा.

“दिल्ली में टेलीविज़न में काम करती है.”

“और आपकी माँ?”

“कुलू वादी के पास मनाली गाँव में.”

“क्या वह अकेली रहती हैं गाँव में?’

“जी हाँ, हम फौज़ियों की ज़िन्दगी खामाबदोशों जैसी है. आज यहाँ, कल वहाँ. माँ को साथ-साथ लिए कहाँ-कहाँ फिर सकता हूँ. और फिर माँ को कोई तकलीफ़ भी नहीं है. पास-पड़ोस के लोग बहुत ध्यान रखते हैं, बिलकुल रिश्तेदारों की तरह.”

“घर में बहू ले आइये, तो उनका बुढ़ापा संवर जायेगा.” सलमा ने मुस्कुराते हुए कहा.

सलमा की बात सुनकर रणजीत मुस्कुरा पड़ा और बोला – “आपके ख़यालात भी मेरी माँ से मिलते हैं. वह भी अक्सर यही कहा करती है.”

“तो फिर देर क्यों? उनकी ख़ुशी पूरी कर दीजिये.”

“हिम्मत नहीं होती. देखिये न, इसी जंग में अगर मैं मारा जाता या फिर हाथ-पैर ही गोला-बारूद से उड़ जाते तो…”

“अल्लाह न करे, आपको कुछ हो जाये.” सलमा ने जल्दी से उसकी बात काटकर कहा और फिर मुस्कुराकर बोली, “अब आप अपन वतन पहुँचते ही शादी कर लीजियेगा. लड़कियों को ज्यादा दिनों तक तरसना अच्छा नहीं होता भाईजान”

“बहुत अच्छा! लेकिन आप आयेंगी मेरी शादी में?”

“क्यों नहीं. आप बुलायें और हम न आयें.”

“चलिए ज़िन्दगी में एक भाई और भाभी की कमी थी, वह भी पूरी हो गई.” रणजीत ने कहा.

“लेकिन हमारी होने वाली भाभी का नाम तो अभी तक आपने बताया नहीं.” सलमा ने पूछा.

“पूनम.”

“वाह, कितना प्यारा नाम है…सूरत भी चाँद जैसी होगी.”

“इसका अंदाज़ा आप ख़ुद देखकर लगाइयेगा.”

“उनकी याद तो आती होगी?” सलमा ने फिर पूछा.

“यादों का सहारा लेकर ही तो इतने दिनों तक जी लिया हूँ.”

सलमा ने कनखियों से रणजीत को देखा. उसकी आँखों में मीठी यादों की परछाइयाँ तैरने लगी थीं. उसकी पलकें कुछ भीग गयी थीं. वह खाने में व्यस्त था, किंतु उसकी कल्पना न जाने कहाँ-कहाँ विचर रही थी.

कुछ देर के लिए कमरे में निस्तब्धता छा गई.

खाना समाप्त होते ही रशीद ने सिगरेट का डिब्बा उसकी ओर बढ़ाया.

“धन्यवाद! मैं सिगरेट नहीं पीता.” रणजीत ने कहा और फिर एकाएक न जाने मन में कौन-सा विचार उठा कि वह कुछ अधीर होकर मेजर रशीद से बोला, “एक गुज़ारिश है.”

“फ़रमाइये.” मेजर रशीद ने लाइटर से सिगरेट जलाते हुए कहा.

‘मेरे कागज़ात और जो चीज़ें आपके कब्जे में हैं, उनमें पूनम की तस्वीर और एक सिगरेट लाइटर भी है.”

“सिगरेट तो तुम पीते नहीं भाई, फिर यह सिगरेट लाइटर?” मेजर रशीद ने आश्चर्य से पूछा.

“दरअसल वह सिगरेट लाइटर नहीं, टेपरिकॉर्डर है.”

मेजर रशीद ने चौंककर उसकी ओर देखा, तो रणजीत ने झट उसकी घबराहट दूर करते हुए कहा, “घबराइए नहीं, यह रिकॉर्डर जासूसी के लिए नहीं है. दरअसल उसमें पूनम की आवाज़ भरी ह्हुई है, जिसे सुनकर मैं अपना जी बहला लिया करता था. वह आवाज़ और उसकी तस्वीर मेरे मन की शांति है. हो सके तो उसे लौटा दीजिएगा.”

मेजर रशीद ने संतोष की सांस ली और कहा, “मैं कोशिश करूंगा, अगर वे सब डिस्ट्रॉय नहीं कर दिए गए होंगे, तो ज़रूर आपको लौटा दिए जायेंगे.” यह कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ और रणजीत को साथ लेकर गेस्टरूम की ओर चला गया.

उनेक जाते ही सलमा ने जम्हाइयाँ लेते हुये जल्दी-जल्दी मेज़ से बर्तन समेटे और सोने के लिए अपने कमरे में चली गई.

दोनों दोस्त न जाने कितनी देर तक बैठे आपस में बातें करते रहे.  

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