चैप्टर 17 वापसी : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 17 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 17 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

Chapter 17 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

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रणजीत की माँ ने संदूक खोला और शादी ब्याह के कपड़े देखने लगी। इस समय उन्हें एक अनोखा आत्मिक सुख अनुभव हो रहा था। उन्होंने एक कीमती साड़ी खोली और मन ही मन कल्पना करने लगी कि पूनम इसे पहनकर कैसी लगेगी। उनकी आँखों के सामने दुल्हन बनी पूनम का मुखड़ा उभर आया और वह मुस्कुरा पड़ी। फिर उन्होंने फ्रॉक और दुपट्टे का जोड़ा उठाकर देखा और अनायास याद उन्हें तड़पा गई…उनकी दूसरी बहू जिसे उन्होंने साक्षात नहीं देखा था। माँ की आँखें भीग गई। अभी वह दुपट्टे से अपने आँसू पूछ ही रही थी कि बाहर गौरी की आवाज सुनकर चौंक पड़ी। गौरी भागते हुए अंदर आई और बोली, “पूनम भाभी आई है।”

यह सुनते ही माँ जैसे खुशी से पागल हो गई। वह तेजी से कमरे के बाहर में आई, जहाँ पूनम हाथ में अटैची लिए खड़ी थी। माँ को देखते ही पूनम ने आगे बढ़कर उनके चरण छू लिये। माँ ने उसे आशीर्वाद देते हुए उठाया और प्यार से गले लगाते हुए बोली, “अरे तुमने आने की खबर तक नहीं दी।”

“अचानक प्रोग्राम बन गया माँ जी।”

“तुम्हारे पिताजी अब कैसे हैं?”

“उसी तरह…पल में ठीक…पल में बीमार…अब आंटी को छोड़ कर आई हूँ उनके पास।” पूनम ने घर में इधर-उधर झांकते हुए कहा। गौरी उसकी व्याकुलता को भांप गई और झट उसके हाथ से अटैची लेती हुए बोली, “भैया तो बाग में गए हैं भाभी…मालूम होता तुम आ रही हो, तो कभी ना जाते।”

“हाँ पूनम! आज रणजीत ने मुझे काम पर नहीं जाने दिया। इस बार जो घर लौटा है, तो बिल्कुल ही बदला हुआ है। पहले मेरा इतना ध्यान नहीं रखता था, जितना अब रखने लगा है।” माँ ने स्नेह से कहा।

“हाँ भाभी!”  गौरी माँ की बात का समर्थन करती हुई बोली, “रात को अपने हाथ से भैया ने माँ जी के सिर में तेल डाला और बहुत देर तक उनका सिर दबाते रहे।”

“और बहू…इस बार बिना शादी किए मैं उसे वापस न जाने दूंगी। पहले तो वह हमेशा की तरह अब भी टालमटोल कर रहा था, लेकिन रात मैंने उसे सहमत कर ही लिया है। अगले महीने की 12 तारीख पक्की की है पुरोहित जी ने। उस दिन तेरी मांग में सिंदूर भर दिया जायेगा और मेरी एक बहुत बड़ी मनोकामना पूरी हो जायेगी।”

यह कहकर माँ पूनम को खींचती हुई अंदर वाले कमरे में ले गई, जहाँ शादी के कपड़े और गहने खुले रखे थे। उन्होंने एक-एक गहना और एक-एक जोड़ा उठाकर पूनम को दिखाया। माँ पूनम रणजीत की शादी का वर्णन कुछ इस भावुकता भरे ढंग से कर रही थी कि कई बार अनायास पूनम की आँखें भी छलछला उठी। उसने सोचा अगर माँ को यह मालूम हो गया कि जिसकी शादी का प्रबंध वह इतने चाव से कर रही है, वह उनका बेटा रणजीत नहीं बल्कि पाकिस्तानी जासूस है, तो उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ेगा। उनके सारे सपने टूट कर बिखर जायेंगे और क्या जाने वह उस आघात को सहन भी ना कर सके। यह सोचकर पूनम ने फैसला कर लिया कि वह माँ की खुशियों पर अचानक बिजली नहीं गिरायेगी। माँ की प्रसन्नता के लिए वह उन कपड़ों और गहनों की प्रशंसा करती रही।

माँ रणजीत को बुलाने के लिए जब गौरी को बाग में भेजने लगी, तो पूनम ने उसे रोकते हुए माँ से कहा, “उन्हें बुलाने की क्या ज़रूरत है? काम समाप्त होने पर आप ही आ जायेंगे।”

“भैया को आते-आते तो शाम हो जायेगी…तुम स्वयं ही बाग क्यों नहीं चल जाती भाभी?” गौरी ने मुस्कुराते हुए पूनम से कहा।

“हाँ पूनम! गौरी ठीक कहती है।” माँ ने गौरी की बात का समर्थन किया, “तुम चली जाओगी, तो दोपहर के खाने के लिए वह समय पर घर आ जायेगा।”

बाद में एक शेक सरीखे गोदाम में रशीद सेवों की पेटियाँ पैक करवा रहा था। कई मजदूर काम में जुटे हुए थे और इस बात पर हैरान थे कि आज से पहले रणजीत ने बाग में इतनी लगन से कभी काम नहीं किया था।

मीठे, रसीले और लाल सेवों का ढेर देखकर अचानक रशीद का भी जी ललचाया। उसने एक सेव उठाकर खाना शुरु कर दिया। ऐसे मीठे और स्वादिष्ट सेव उसने कश्मीर में भी नहीं खाये थे। तभी उसे माँ के कहे गए शब्द याद आ गए, “इन सेवों में मिठास मेरे पसीने से और रंगत मेरे खून से आती है।”

बाहर अचानक कुछ आहट हुई और रशीद सेव खाते-खाते रुक गया। उसने पलट कर देखा, तो शेक के बाहर खड़ी पूनम गुस्से में उसे घूर रही थी। रशीद के हाथ से सेव छूट कर नीचे गिर गया। पूनम की आँखों में छुपे तूफान का उसे कुछ आभास हो गया था। वह झट उठकर बाहर आते हुए बोला, “पूनम…तुम…” पूनम को छूने के लिए उसका बढ़ा हुआ हाथ वहीं रुक गया।

“रुक क्यों गये?” वह गुस्से में दांत पीसते हुई बोली।

“यूं ही…तुम्हें अचानक देख कर सकता सा हो गया हूँ।” रशीद ने मुस्कुराने का प्रयत्न करते हुए कहा।

“अचानक देखकर या डर के मारे?”

“डर….किस बात का डर?” उसने झिझकते हुए पूछा।

“अपने पापों का डर…अपने अपराधों का डर।”

“यह तुम क्या कर रही हो? कैसा पाप? कैसा अपराध?”

“किसी की भावनाओं से खेलना, किसी से विश्वासघात करना, प्रेमी का रूप धारण करके दूसरे की मंगेतर को अपने अपवित्र गंदे हाथों से छूना, बेटा बनकर किसी माँ की ममता को ठगना…यह सब पाप नहीं तो क्या है? बोलो जवाब दो!” वह गुस्से में जमीन पर पैर पटकती हुए बोली।

रशीद पूनम के मुँह से ये बातें सुनकर सचमुच घबरा गया था। अंतर की ग्लानि से वह पूनम से आँखें नहीं मिला पा रहा था। समझने में उसे देर नहीं लगी कि उसका सारा भेद पूनम पर खुल चुका है और इसकी जिम्मेदार रुखसाना है, जो उस रात अपना अपमान सहन न कर सकी थी…उसे पहले ही आशंका थी कि ऐसी स्थिति में वह औरत कुछ भी कर गुजरेगी। रशीद को चुप देकर पूनम ने तिलमिलाते हुए पूछा, “चुप क्यों हो गये?”

“तुमने मेरा भेद खोल कर मुझे मौन कर दिया है।”

“लेकिन तुमने ऐसा क्यों किया? किसी की भावनाओं से खेल कर तुम्हें क्या मिला?”

“अपने देश और कर्तव्य के लिए कभी-कभी इंसान को बहुत परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। ऐसी ही एक परीक्षा मेरे लिए तुम भी बन गई थी।”

“लेकिन तुम इस परीक्षा में सफल नहीं हो सके मेजर रशीद! तुम अपने ही बुने जाल में स्वयं फंस गये। जानते हो, अब मैं तुम्हारी पोल सबके सामने खोल कर रख दूंगी।”

“तुम ऐसा नहीं कर सकती पूनम।” वह उसकी आँखों में देखता हुआ बोला।

“क्यों? मुझे कौन रोकेगा?”

“तुम्हारा रणजीत!” रशीद मुस्कुरा उठा।

“क्या?” वह कुछ न समझते हुए बोली।

“हाँ पूनम! तुमने अगर मेरा भेद खोल कर मुझे गिरफ्तार करा दिया, तो तुम्हारा रणजीत ज़िन्दा नहीं लौट सकेगा।”

“क्या वह ज़िन्दा है?” अविश्वास से उसे देखते हुए पूनम ने पूछा। उसका दिल अनायास धड़क उठा था।

रशीद ने जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाया। उसके मन की शांति लौट आई थी। कुछ दिन मौन रखकर सिगरेट का एक कश लेकर वह बोला, “हाँ पूनम! मुझ पर विश्वास करो और निश्चिंत रहो। तुम्हारा रणजीत ज़िन्दा है।”

“लेकिन पुलिस वालों ने यह भेद रुखसाना से उगलवा लिया तो?” पूनम ने डरते डरते पूछा।

“पुलिस अब उसे कुछ नहीं उगलवा सकती।” रशीद ने सिगरेट का एक और कश लेकर गंभीरता से कहा।

“क्यों?”

“उसके कुछ बोलने से पहले हमारे रिंग वालों ने पुलिस के लॉक अप में उसे गोली का निशाना बना दिया है।”

उसके रूखे कठोर स्वर पर पूनम कांप उठी। वास्तव में वह खतरनाक पाकिस्तानी जासूस है, तो फिर उसे रणजीत से क्यों सहानुभूति होने लगी है…वह रणजीत को कभी आजाद नहीं करायेगा, बल्कि उल्टा उसके विरूद्ध कोई और जाल बुन रहा होगा। इस धमकी की आड़ में वह अपना जासूसी का काम पूरा करना चाहता है। इसी असमंजस में वह काफी देर तक खड़ी इस रहस्यमयी पाकिस्तानी जासूस को देखते रही। फिर अचानक दोनों हाथ से अपना चेहरा छुपा कर रोने लगी। रशीद ने आगे बढ़कर उससे कुछ कहना चाहा, लेकिन वह एक झटके से पलट कर भाग खड़ी हुई और बाग के बाहर जाने लगी।

रशीद ने लपक कर उसे रोकना चाहा, किंतु फिर कुछ सोच कर रुक गया। कुछ देर सिगरेट के लंबे-लंबे कश लेता वह से भागते देखता रहा और फिर सिगरेट बुझाकर शैक में घुस गया। उसे विश्वास था कि पूनम अब उसका भेद किसी से भी ना कह सकेगी, माँ से भी नहीं।

रात माँ पूनम रशीद को सामने बिठा कर अपने हाथ का बना खाना खिला रही थी। पूनम खिंची सी चुपचाप बैठी थी। रशीद ने माँ को आज दिन भर के कार्यवाही का ब्यौरा दिया और विश्वास दिलाया कि कल दोपहर तक वह सारा माल पैक करवा कर ट्रक पर लदवा देगा। माँ ने उसके काम की सराहना करते हैं प्यार से कहा, “चलो, अच्छा हुआ शादी से पहले तुमने अपनी जिम्मेदारियों को तो संभाल लिया।”

‘शादी’ का शब्द सुनकर पूनम अचानक यूं चमक उठी, जैसे किसी जहरीले कीड़े ने काट लिया हो। रशीद ने उसकी बेचैनी को झट भांप लिया और बाद बदलते माँ से बोला, “यह क्या माँ…तुम मुझे ही खिलाये जा रही हो, पूनम की थाली तो कब से खाली है।”

“अगला पराठा उसी का है।” माँ ने तवे पर पकते पराठे में घी छोड़ते हुए कहा और फिर पूनम से संबोधित होकर बोली, “क्या बात है पूनम यूं गुमसुम क्यों बैठी हो?”

“नहीं तो माँ जी!” पूनम जल्दी से बोली।

“शादी से पहले ही शरमाने लगी है माँ।” रशीद ने मुस्कुरा कर कहा।

“तुम चुप बैठो।” मैंने प्यार से डांटा और फिर पूछा, “और हाँ कितनी छुट्टी बाकी है तुम्हारी।”

“एक हफ्ता और..!’

“तो अगले महीने तो कैसे रहोगे?” माने गरमा गरम पराठा पूनम की प्लेट में डालते हुए पूछा।

“छुट्टी बढ़वानी होगी जाकर..!”

“तो एक काम करो…माल लद जाये, तो स्वयं उसे दिल्ली ले जाओ…छुट्टी बढ़वा लाओ और व्यापारी से माल के पैसे भी वसूल कर लाओ। अगर डाक चिट्ठी पर रहे, तो पैसे मिलते दो चार महीने यूं ही लग जायेंगे। मुझे शादी के लिए पैसे की अभी ज़रूरत है। भगवान ने चाहा तो बड़ी धूम से करूंगी मैं यह शादी।”

रशीद ने कनखियों से पूनम की ओर देखा। वह एक-एक और बड़ी मुश्किल से गले से उतार रही थी। वह भी उसके साथ इस नाटक-पात्री बनी हुई थी, जिसे सब कुछ जानते हुए भी गूंगी का अभिनय करना पड़ रहा था।

रात धीरे-धीरे रेंग रही थी।

रशीद बिस्तर पर लेटा अपने इस अनोखे जीवन के बारे में सोच रहा था। परिस्थितियाँ क्या खेल खेल रही थी। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। बिस्तर पर बेचैनी से करवटें बदलता हुआ वह सोच रहा था कि अब उसे नाटक शीघ्र समाप्त कर देना चाहिए।

उधर पूनम माँ के कमरे में पलंग पर लेटी विचारों के जाल में उलझी हुई थी। उसे बिल्कुल नींद नहीं आ रही थी। कभी वह रणजीत के बारे में सोचने लगती, तो कभी रशीद के बारे में। रशीद के साथ कश्मीर में बिताए चंद दिनों को याद कर के वह कांप उठी। कितना धोखा हुआ था उससे…बेचैनी से करवट लेकर उसने माँ की ओर देखा, जो गहरी नींद में खर्राटे भर रही थी। अपने बेटे को सुरक्षित जानकर कितने सुख की नींद सो रही थी वह। पूनम के मस्तिष्क पर तो हथौड़े से चल रहे थे। ऐसा लग रहा था कि नींद सदा के लिए रूठ गई है, आखिर उसने बिस्तर छोड़ दिया और बाहर वाले बरामदे में चली आई।

बाहर आते ही उसे एक झटका सा लगा। उसने देखा अंधेरे में बरामदे के दूसरे सिरे पर रशीद खड़ा सिगरेट फूंक रहा था। पूनम को देखकर उसने सिगरेट फर्श पर फेंककर पैर से मसल दिया और उसकी ओर बढ़ते हुए बोला, “क्यों नींद नहीं आ रही क्या?”

“जो चिंगारियाँ तुमने मेरे मस्तिष्क में भर दी हैं, उनकी तपन से भला नींद कैसे आ सकती है मुझे? लेकिन तुम…”

“मुझे भी नींद नहीं आ रही, सोचता हूँ कल चला जाऊंगा, तो माँ क्या सोचेगी?”

“यही कि उनका बेटा व्यापारियों से पैसा वसूल करने और छुट्टी बढ़वाने गया है।”

“वह तो जाने का एक बहाना है। रणजीत के आने में दो-चार दिन अधिक भी लग सकते हैं।”

“तो क्या है? तब तक माँ की सेवा करूंगी।” पूनम ने कहा और फिर शंका भरी दृष्टि से देख ती हुई बोली, “तुम्हें विश्वास है रणजीत सकुशल लौट सकेंगे?”

“सेंट परसेंट विश्वास है, क्योंकि वह ना आया, तो माँ के सारे सपने टूट कर बिखर जायेंगे।”

“लेकिन तुम्हें यह अचानक उनसे हमदर्दी क्यों हो गई?”

“उनसे नहीं, अपने आपसे। चेहरे जो एक जैसे हैं हमारे।”

“चेहरे में तो नहीं, लेकिन आत्माओं में तो जमीन आसमान का अंतर है।”

“चेहरों को पढ़ना और आत्मा में झांककर देखना बहुत मुश्किल है पूनम…तुम्हें तो केवल उसी दिन विश्वास होगा, जब तुम्हारा रणजीत तुमसे आन मिलेगा।” रशीद ने गुस्से में कहा।

पूनम ने झट बात बदलकर पूछा, “लेकिन तुम पाकिस्तान कैसे लौटोगे? सीमा पर तो बड़ी कड़ी निगरानी होती है।”

“मेरे आदमी ने सब प्रबंध कर लिया है। परसों रात की गाड़ी से अमृतसर से सिखों का एक टोला पंजा साहब की यात्रा के लिए जा रहा है। उसी टोली में एक नकली दाढ़ी वाला सिख भी होगा।”

“ओह तो तुम तो सिख बनोगे!”

“तो क्या हुआ? इस काम में हमें कई भेष धारण करने पड़ते हैं।” रशीद ने मुस्कुराते हुए कहा।

पूनम ने एक गहरी दृष्टि उसके चेहरे पर डाली। अंधेरे में वह कुछ और भी रहस्य मयी लग रहा था। कुछ देर वह उसे यूं ही चुपचाप देखती रही और फिर एक जम्हाई लेकर अपने कमरे में लौट आई। रशीद ने एक सिगरेट और सुलगा लिया और खड़े-खड़े न जाने कितनी रात गए तक विचारों के ताने-बाने बुनता रहा।

दूसरे दिन दोपहर को ट्रक पर माल लदवा कर जब रशीद जाने लगा, तो माँ, पूनम और गौरी सड़क तक उसे छोड़ने आई। रशीद ने माँ के चरण छूकर असास ली,  भगवान का प्रसाद चखा और पूनम को अपने लौटने तक वहीं रुकने का निर्देश देकर गौरी की ओर बढ़ा। उसने गौरी के सिर पर हाथ फेरा, तो वह कह उठी, “भैया! दिल्ली से मेरे लिए रंगीन चूड़ियाँ लेते आना।”

“आरी कांच के टुकड़े का क्या करेगी। अब तो सोने की चूड़ियाँ लेना इससे ब्याह पर।” माँ ने मुस्कुराते हुए कहा।

माल से लदा हुआ ट्रक पुलिया के पास खड़ा हुआ रशीद की प्रतीक्षा कर रहा था। माँ और गौरी पुलिया पर बैठ गई। लेकिन पूनम रशीद के साथ ट्रक तक चली आई। ट्रक में बैठने से पहले पूनम ने चुपके से अल्लाह खुदा हुआ उसका लॉकेट उसके हाथ में दे दिया।

“यह क्या?” रशीद ने आश्चर्य से पूछा।

“तुम्हारे दोस्त के निशानी।”

“लेकिन तुम्हारे ओम का क्या होगा? “

“वह मेरी ओर से रणजीत को दे देना। वापसी में उनकी रक्षा करेगा।” कहते-कहते पूनम की आवाज भर्रा गई और उसकी पलकों पर आँसू झिलमिलाने लगे।

रशीद उचक कर ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठ गया और ट्रक मनाली गाँव से रवाना हो गया। माँ से विदा होते हुए रशीद का दिल बोझिल थाम वह सोच रहा था माँ का प्यार जो जीवन में पहली बार उसे मिला है इतना संक्षिप्त होने पर भी कितना भरपूर था…अब यह प्यार उसे कभी नहीं मिल सकेगा। भाग्य सचमुच बड़ा बलवान है। खिड़की से गर्दन निकाले हर मोड़ पर वह माँ को देखता रहा। उसका जी चाह रहा था कि यह क्षण स्थिर हो जाये, सर्वकालिक हो जाये और वह माँ को इसी प्रकार देखते रहे। लेकिन ऐसा ना हुआ। जैसे ही ट्रक ढलान में उतरा, माँ उसकी आँखों से ओझल हो गई। उसके मस्तिष्क में बस एक अमिट छाप रह गई… ममता भरे माँके चेहरे की एक छवि रह गई, उसके कल्पना पट पर…दिल बहुत पत्थर रखने पर भी उसकी आँखों में आँसूछलक आए और वह उन बर्फीली घाटियों को देखता हुआ ठंडी आहें भरने लगा।

सड़क के साथ साथ तेज़ पानी की नदी बह रही थी। रशीद सोचने लगा कि वह भी इस नदी के जल के समान् है, जो इन घाटियों से एक बार गुजर कर फिर वापस नहीं आता।

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