चैप्टर 16 वापसी : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 16 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 16 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

Chapter 16 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5678| 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19

Prev | Next | All Chapters

दिन भर रशीद से बातें करने के बाद भी माँ का दिल नहीं भरा था। थकान के कारण रशीद को रात कुछ जल्दी नींद आने लगी थी, तो माँ ने कहा, “क्यों बेटा…इतनी जल्दी सो जाओगे?”

“हाँ माँ…आज तो तुमने मुझे दौड़ा-दौड़ा कर थका दिया। इस मौसी से मिलने जाओ. उस चाचा के यहाँ चाय पियो..? उस मामा के यहाँ खाओ…सारा बदन टूट रहा है।”

“समाज में रहकर तो यह सब कुछ करना ही पड़ता है बेटे…और फिर यही लोग तो तुम्हारे यहाँ न होने पर सहारा बनते हैं। कितना दु:ख बटाया है मेरा इन लोगों ने, तुम्हारे लड़ाई में चले जाने पर। अच्छा जाओ अपने कमरे में। मैं गौरी के हाथ दूध भिजवाती हूँ।”

रशीद अपने कमरे में आ गया और एक कुर्सी पर बैठकर गौरी के दूध लाने की प्रतीक्षा करने लगा। समय काटने के लिए वह मेज़ पर रखी रणजीत की पुस्तकें और दूसरी चीज़ें देखने लगा। ढेर से कप और शील्ड रखी थीं, जो रणजीत विभिन्न प्रतियोगिताओं में जीत कर लाया था। वह सोचने लगा कि रणजीत अवश्य स्कूल और कॉलेज में योग्य विद्यार्थी रहा होगा। मेज़ पर एक बड़े से फ्रेम में लगा रणजीत का वह फोटो भी था, जिसमें वह गाउन पहने बीए की डिग्री लेते समय ऐसी तस्वीर खिंचवाई थी।

रशीद फोटो देखता हुआ मेज़ पर रखी पुस्तकों को एक-एक कर देखने लगा। अचानक उसे पुस्तकों के बीच रखी रणजीत की डायरी मिल गई। उसने डायरी खोली और सरसरी तौर से दो चार पन्ने पढ़े। वहीं डायरी में रखे पूनम के दो पत्र भी थे। पत्र खोलकर पढ़ना ही चाहता था कि उसमें से पूनम की तस्वीर निकलकर जमीन पर गिर पड़ी। वह तस्वीर उठाने के लिए झुका ही था कि उससे पहले पीछे से एक और हाथ ने झुककर तस्वीर उठा ली। रशीद ने पलटकर देखा, उसके सामने हाथ में दूध का गिलास लिए माँ खड़ी मुस्कुरा रही थी। गौरी के स्थान पर वह स्वयं ही अपने बेटे को सोने से पहले एक बार और देखने चली आई थी। माँ ने दूध का गिलास मेज पर रख दिया और तस्वीर रशीद को थमा दी। रशीद झेंपकर रह गया और खिसियायी आवाज में बोला, “तुमने कष्ट क्यों किया माँ?”

“गौरी सो गई है। सोचा कच्ची नींद में अब उस बेचारी को क्यों जगाऊं।”

“पूनम कैसी है माँ?” पूनम की तस्वीर को डायरी में रखते हुए उसने पूछा।

“क्यों? क्या तुम्हें कश्मीर में नहीं मिली?” माँ ने मुस्कुराकर पूछा और रशीद की बौखलाहट पर हँसकर बोली, “भले ही बेटा मुझसे अपनी बातें छिपाये, लेकिन मेरी बहू कभी झूठ नहीं बोलती। वह सब बातें मुझे लिख देती है।”

“और क्या लिखा था उसने अपनी सास को? मेरी शिकायत तो ज़रूर की होगी।”

“उसने तो और कुछ नहीं लिखा था। हाँ उसकी आंटी ने लिखा था।”

“अच्छा क्या लिखा था?” रशीद ने उसकी बात काटते हुए कहा।

“वही शादी की मांग! पहले तो लड़ाई का बहाना था, इसके बाद तुम लापता हो गये, फिर कैद की खबर। लेकिन अब…अब तो अधिक नहीं टाला जा सकता।”

“ओह माँ…इतनी जल्दी क्या है?”

“तुम्हें जल्दी न होगी बेटे, लेकिन मुझे है। पूनम बिचारी का जीवन भी बड़ा कठिन गुज़रा है। पागल पिता की देखभाल में वह जीवन के हर सुख से वंचित होकर रह गई है। शादी हो जाये, तो जरा चैन की सांस लेगी।”

“लेकिन शादी के बाद पूनम मेरे साथ आ जायेगी…उसके डैडी को वहाँ कौन संभालेगा?”

“यह सोचना उनका काम है, हमारा नहीं बेटे। बस अब तू अधिक टालमटोल मत कर। अब मैं तेरा कोई बहाना नहीं सुनूंगी। मैंने पुरोहित से मुहूर्त भी निकलवा लिया है। अगले महीने की 18 तारीख का शुभ दिन निकला है। बस मैं अब और नहीं टालूंगी।”

“अरे नहीं माँ….इतनी जल्दी शादी का प्रबंध कैसे हो सकता है। क्या यह भी कोई गुड्डा गुड़िया का खेल है।” रशीद ने घबराकर बोला।

“यह मेरा काम है…तू चिंता न कर…सब प्रबंध हो जायेगा।”

रशीद ने बहस करना उचित न समझा। उसने सोचा, अगले महीने की 18 तारीख को तो अभी बहुत दिन हैं। इस बीच परिस्थितियाँ न जाने क्या करवट लेंगी। वह धीरे-धीरे दूध के घूंट पीने लगा। गिलास खाली करके जब उसने माँ को देखा, तो माँ आंचल से अपनी भीगी आँखें पोंछ रही थी।

“क्यों माँ तुम रो क्यों रही हो?” रशीद ने घबराकर पूछा।

“कुछ नहीं बेटा! ऐसे ही कुछ ध्यान आ गया था। तेरी शादी के अवसर पर मैंने क्या-क्या सोचा था। तू पाकिस्तान गया भी, तो मुझे खबर न हुई।” कहते हुए माँ ने ठंडी सांस ली।

“पाकिस्तान जाने की खबर न हुई। होती भी, तो तुम क्या करती?” रशीद ने उसे आश्चर्य से देखते हुए पूछा।

“तेरे शादी पर तेरे भाई को निमंत्रण भिजवाती।”

“मेरे भाई को…” रशीद का आश्चर्य और भी बढ़ गया।

“हाँ तेरे भाई को….जो आजकल पाकिस्तानी फौज में मेजर है।”

“क्या कह रही हो माँ?” वह कुर्सी छोड़कर खड़ा हो गया और माँ के दोनों कंधे पकड़कर झिंझोड़ता हुआ बोला, “बोलो माँ, कौन सा भाई? कैसा भाई?”

“तेरा सगा भाई, जिसे ज़िंदा रहने के लिए मुसलमान बनना पड़ा।” माँ ने सिसकते हुए कहा, “और इसकी जिम्मेदार मैं हूँ। इसलिए मैंने अब तक यह भेद सबसे, यहाँ तक कि तुझसे भी छुपाये रखा।” कहते-कहते माँ की आवाज से भर्रा गई और वह कुछ क्षण के लिए मौन हो गई।
“कौन सी बात? तुम चुप क्यों हो गई? वो कहाँ है? बोलो बताओ…जल्दी!” रशीद चिल्ला उठा। उसके मन में कई भ्रम उत्पन्न होने लगे थे और वह जल्दी से जल्दी इस पहेली को सुलझा देना चाहता था।

माँ ने ठंडी सांस ली और अपनी कहानी आरंभ की :

1947 में देश स्वतंत्र हुआ। हिंदुस्तान दो टुकड़ों में बंट गया और फिर अचानक इंसान शैतान बन गया। दोनों ओर खून की भयंकर होली खेली गई। बरसों से एक साथ पले, खेले कूदे, एक-दूसरे के सुख दुख के साथी एकाएक भयानक दुश्मन बन गए। मुसलमान हिंदुओं के और हिंदू मुसलमानों के लहू के प्यासे हो गये।

हमारा घराना लाहौर के संपन्न घरानों में से एक था। बहुत सुखी थे हम। दुख या चिंता कभी हमारे पास न फटकी और फिर एक दिन अचानक जैसे प्रलय आ गई। कुछ गुंडे बंदूक और तलवारें लिए हमारे घर में घुस आये। तेरे पिता और चाचा ने उनका मुकाबला किया, लेकिन निहत्थे क्या करते? कुछ ही देर में खून से नहाई उनकी लाश आंगन में पड़ी थी। मैं अपने दो मासूम जुड़वा बेटों को लेकर गली में खुलने वाले पिछले दरवाजे से भाग खड़ी हुई। दूर तक मेरे कान में बंदूक के धमाके और घर के दूसरे लोगों की चीखें गूंजती रहीं। लेकिन मैं अपने बच्चों के लिए तेजी से भागने लगी। अभी थोड़ी ही दूर गई थी कि अचानक एक गली से कुछ गुंडे निकल कर मेरे पीछे लग गये। उनके हाथों में हथियार थे। वह मोहल्ला मुसलमानों का था। मैं कुछ दूर तक तो बच्चों को घसीटती भागती रही, लेकिन जब गुंडे मेरे सिर पर पहुँच गये, तो मैं पास ही एक मस्जिद में घुस गई और झट किवाड़ बंद करके अंदर से कुंडी लगा दी।

गुंडे बाहर से किवाड़ पीट रहे थे। उनके शोर से पता चलता था कि उनकी संख्या प्रति क्षण बढ़ती जा रही है। मैं बच्चों को टांगों से लगाए थरथर कांप रही थी और वह इस प्रकार धक्के दिए जा रहे थे कि लगता था कि किवाड़ भी टूट जायेगा और मैं बच्चों समेत उसके नीचे दब जाऊंगी।

सहसा शोरगुल सुनकर मस्जिद के हुजरे से एक मौलाना बाहर निकले। उन्होंने मुझे दो बच्चों के साथ दरवाजे से लगी कांपते देखा, तो सारी बात समझ गए और तेजी से मेरी ओर लपके। उनका तेजस्वी चेहरा देखकर न जाने क्यों मेरे मन को ढांढस सी बंध गई। वह मेरे पास आये, तो मैं उनकी टांगों से लिपट कर रो पड़ी।

“भगवान के लिए मेरे बच्चों को बचा लीजिये मौलवी साहब।”

उन्होंने स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरा और सांत्वना देते हुए बोले – “घबराओ मत बहन! तुमने खुदा के घर पनाह ली है। तुम्हारा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।”

फिर वह मस्जिद का दरवाजा खोलकर गुंडों के सामने डट गए और उन्हें लताड़ा – “शर्म नहीं आती तुम्हें। एक बेसहाय औरत और उसके मासूम बच्चों को कत्ल करने चले हो। कैसे मुसलमान हो तुम? हुजूर का फरमान भी भूल गए…तुम्हारे पैगंबर ने बूढ़ों औरतों और बच्चों पर रहम करने की तालीम दी है।”

“हिंदुस्तान में हमारे बच्चों, औरतों और बड़ों पर रहम नहीं किया जा रहा है। हम भी नहीं छोड़ेंगे।” कोई गुंडा जोर से दहाड़ा और फिर सब चीख पड़े – “हाँ हाँ, हम भी वही करेंगे, जो हिंदुस्तान में हो रहा है।“

यह सुनकर मौलाना के चेहरे पर और भी तेज़ छा गया। उन्होंने भारी आवाज में कहना आरंभ किया – “हिंदुस्तान में अगर लोग गंदगी खाने लगेंगे, तो क्या तुम भी वही करोगे….बोलो….जवाब दो। अगर वहाँ बेगुनाहों पर जुल्म हो रहा है, तो उसका बदला खुदा लेगा। तुम अपने पाक जमीन पर बेगुनाहों का खून बहाकर जालिमों की सफ़ में क्यों खड़े होते हो? क्या तुम्हें अल्लाह और रसूल के फ़रमान का कोई पास नहीं रहा? क्या तुम सिर्फ नाम के मुसलमान रह गए हो? इस्लाम का नाम ऊँचा होता, जब हिंदुस्तान में मुसलमानों पर ढाये जाते जुल्मों के बावजूद पाकिस्तान में हिंदू अमन और चैन की ज़िन्दगी बसर करते।’

क्षण भर के लिए रुककर वह फिर बोले – “क्या तुम फतहे मक्का का वह वाक्या भूल गए, जब वहाँ के काफ़िरों की ज़िंदगियाँ रसूल अल्लाह की मुट्ठी में थी। ये वे लोग थे, जिन्होंने बेदर्दी से मुसलमानों को क़त्ल किया था और खुद रसूल पर जुल्म के पहाड़ तोड़े थे, उन्हें बार-बार खत्म करना चाहा था। हुजूर चाहते, तो एक इशारे में सब को मौत के घाट उतार देते। लेकिन जानते हो, हमारे पाक नबी ने क्या किया? उन्होंने ऐलान कर दिया कि इस्लाम के बड़े-बड़े दुश्मनों को माफ कर दिया जाता है और इसका नतीजा सब जानते हैं। मक्के की ज़मीन पर खून का एक कतरा भी नहीं टपका और बिना जबरदस्ती के इस्लाम के सब दुश्मन मुसलमान हो गए। यह थी इस्लाम की तालीम। इस तालीम ने दुनिया का दिल जीता था और आज इसी इस्लाम के नाम पर तुम जुल्म और बेरहमी से अपने अज़ीम मज़हब के नाम को बट्टा लगा रहे हो।“
फिर मौलाना मेरी ओर संकेत करते हुए बोले, “यह मजलूम औरत अपने दो मासूम बच्चों को लेकर खुदा की पनाह में आई है। इसकी हिफाजत की जिम्मेदारी मेरी है। कान खोल कर सुन लो, तुम मुझे मानकर इन्हें मारने के लिए मस्जिद में दाखिल हो सकते हो।“

उन्होंने उनकी बातें सुनकर गुंडे सन्नाटे में आ गये। कुछ देर तक उन्होंने आपस में खुसर फुसर की…फिर यह देखकर मैंने संतोष की सांस ली कि वे वहाँ से लौट गये।

मौलाना ने पलटकर दरवाजे की कुंडी लगा दी और हमें साथ लेकर अपने हुजरे में चले आए। शाम तक बच्चों समेत मैं हुजरे में बंद रही और रात के अंधेरे में वह मुझे मस्जिद के पिछवाड़े से अपने घर ले गए, जहाँ उनकी पत्नी ने मुझे सांत्वना दी…मेरे बच्चों को प्यार से खाना खिलाया। वह रात मैंने उन्हीं के घर में गुजारी। दूसरे दिन सुबह मौलाना ने मुझे अमृतसर भेजने का प्रबंध करा दिया। लेकिन मुझे अभी तक गुंडों का डर लगा हुआ था। कहीं वे रास्ते में मुझे और मेरे दोनों बच्चों को मार ना डाले। मैं तो खैर एक प्रकार से मर ही चुकी थी। इसलिए मुझे अपने मरने का डर नहीं था। लेकिन मैं कम से कम अपने पति की एक निशानी बाकी रखना चाहती थी। इसलिए मैंने अपना एक बच्चा मौलाना की पत्नी के हवाले कर दिया। उनकी कोई संतान न थी और उन्होंने बच्चे को स्वीकार कर लिया। मौलाना ने परिस्थितियाँ ठीक हो जाने पर मेरे बच्चे को लौटा देने का वचन दिया।”

मान क्षण भर के लिए सांस लेने के रुकी और फिर बोली, “मैं हिंदुस्तान चली आई और परिस्थितियों के ठीक होने की प्रतीक्षा करने लगी। लेकिन दोनों देशों की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ते ही चले गए। दंगे फसाद, आरोप और प्रत्यारोप से घृणा की दीवारें और ऊँची होती चली गई और मौलवी साहब अपना वचन न निभा सके। गुंडे मेरे बच्चे के कारण उनकी जान के दुश्मन हो गए थे और मेरे बच्चे के प्राण बचाने के लिए उन्होंने उसे मुस्लमान बनाकर उसका नाम रशीद रख दिया।”

“क्या?” रशीद एक झटके से यों पीछे हटा, जैसे किसी ने उसके सीने पर छुरा मार दिया हो। उसका सिर दीवार से टकरा गया और वह फटी-फटी आँखों से माँ को देखने लगा।

“हाँ बेटे!” माँ ने अपनी हिचकियों पर काबू पाने का प्रयत्न करते हुए कहा, “मौलाना उसका नाम रशीद रखकर उसे अपने बच्चे के समान पालने लगे। अब कोई उसे खून का प्यासा ना रहा…यद्यपि उसकी धमनियों में दौड़ने वाला लहू वही था।”

“बरसों ठोकरे खाने के बाद जब मेरे जीवन में थोड़ी स्थिरता आ गई और कड़ा परिश्रम करके मैंने अपने हालात सुधारे, तो इतनी देर हो चुकी थी कि मैं चाहती भी तो शायद मौलाना उसे मुझे लौटा न सकते। परमात्मा ने उन्हें संतान नहीं दी थी और उन्होंने उसे अपना सगा बेटा मान कर तन मन से प्यार किया था और वही उनका बेटा था। मैं इसे हरि इच्छा समझ कर चुप रह गई।“

माँ चुप हो गई। उसकी आँखों से टप-टप आँसू बहे जा रहे थे।

रशीद भावुकता में डूबा जैसे कोई फिल्म देख रहा था। उसके मस्तिष्क में आंधियाँ चल रही थीं…जैसे सृष्टि लड़खड़ा गई हो। माँ को चुप होते देखकर उसने कंपकपाती और कराहती हुई आवाज़ में पूछा, “लेकिन माँ…पाकिस्तान से आने के बाद तुम्हें अपने बच्चे के हालात कैसे मालूम होते रहे।”

“जानना चाहते हो!” माँ ने आंसू पोंछते हुए कहा, “मुझे एक साल पहले तक के अपने बच्चे के सारे हालत मालूम है।”

फिर माँ ने उठकर अलमारी में से एक एल्बम निकाला और उसे रशीद को दिखाती हुई बोली, “इसमें मेरे जीवन का वह भेद बंद है, जिसे मेरे जीते जी शायद कोई नहीं जान पाता, अगर आज मेरे मुसलमान बच्चे की याद ने मेरी ममता को पागल न कर दिया होता। बेटा रणजीत! मेरे दिल के दो टुकड़े हैं – एक से ‘अल्लाह अल्लाह’ की आवाज आती है, तो दूसरे से ‘राम-राम’ की। इन दोनों आवाज में मुझे कोई अंतर अनुभव नहीं होता, जैसे मेरे दोनों बच्चों की शक्ल सूरत में रत्ती भर भी अंतर नहीं है।”

और उसने एल्बम का पहला पन्ना खोलकर रशीद को दिखाते हुए कहा, “देख यह मेरे लाल का उस समय का फोटो है, जब उसका खतना करने के लिए से दूल्हा बनाया गया था।”

रशीद ने बेचैनी से झुक कर देखा – फोटो में नन्हा रशीद दूल्हा बना खड़ा था। माँ ने दूसरा पन्ना पलटते हुए कहा, “यह उस समय का फोटो है, जब उसने कुरान पढ़ना आरंभ किया था।”

रशीद ने ध्यान से देखा…फोटो में नन्हा रशीद मौलाना के सामने कुरान खोले बैठा था। माँ ने तीसरा पन्ना पलटा।

“यह तब का फोटो है, जब उसने बीए की डिग्री ली थी।”

रशीद ने बेचैन इस इस फोटो को भी देखा, जिसमें वह गाउन पर हाथ में डिग्री लिए खड़ा था।

“अब मेरे लाल का खास फोटो देखो।” माँ ने चौथा पन्ना पलटते हुए कहा, “यह उस समय का फोटो है, जब वह दूल्हा बना था।”

और रशीद अपनी शादी पर लिए गए फोटो को देखने लगा। माँ ने उसे धीरे से परे हटाते हुए कहा, “अरे…इसे क्या देखता है। अब जो तस्वीर मैं तुम्हे दिखाऊंगी, उसे देखकर तू खुशी से नाच उठेगा।” यह कहते हुए माँ ने पांचवां पन्ना पलट कर उसके सामने करते हुए बड़े स्नेह से कहा, “यह है मेरी बहू का फोटो।”

फोटो में सलमा जरी के काम वाले लाल जोड़े में दुल्हन बनी शर्माई बैठी थी। माँ ने उसे देखकर निहाल होते हुए कहा, “देख…देख कितनी सुंदर है तेरी भाभी! बिल्कुल चांद का टुकड़ा। इनका नाम है – सलमा!”

रशीद के मन मस्तिष्क को निरंतर इतनी तीव्र झटके लग रहे थे कि उसकी सुध बुध उड़ी जा रही थी। उसका सारा शरीर जैसे भूकंप की चपेट में आ गया हो। वह कांप रहा था…उसके सारे विचार, भावनाएं बिखर गई थी…मानो कोई ग्रह अपनी धुरी से अलग हो जाये…उसकी परिक्रमा की कोई दिशा न रहे। कुछ देर वह मूर्तिमान, स्थिर खड़ा रहा। फिर बड़ी मुश्किल से संभालते का प्रयत्न करते हुए उसने कहा, “ये तस्वीरें तुम्हारे पास कहाँ से आ गई…ये तो…!”

घबराहट में वह यह कहने जा रहा था कि यही तस्वीर उसके एल्बम में भी थी…लेकिन अचानक वह रुक गया। माँ अपनी बहू की तस्वीर देखने में मगन थी। उसे रशीद की इस घबराहट का ज़रा भी आभास ना हो पाया। माँ ने एल्बम से फोटो निकालकर रशीद को देते हुए कहा,

“ये हैं वह मौलाना जी, मेरी व्याकुल आत्मा की शांति के लिए ये तस्वीरें भेजते रहे हैं। ये मनुष्य नहीं देवता हैं। इन्हें नमस्कार करो बेटे। ऐसी महान आत्मा कभी-कभी जन्म लेती है।”

रशीद के हाथ में मौलाना नुरुद्दीन की तस्वीर थी, जिन्हें कुछ देर पहले तक वह अपने बाप समझता रहा था। अभी पिछले साल इनका देहांत हुआ था।

आज इस भेद से पर्दा उठ गया था कि वह उसके वास्तविक पिता नहीं थे। रशीद सोच रहा था क्या कोई दूसरे के बच्चे को इतना नि:स्वार्थ, ममतापूर्ण प्यार दे सकता है, जितना मौलाना ने उसे दिया था। उसे उनकी बेगम की शक्ल याद नहीं थी, क्योंकि वह उसके बचपन में ही स्वर्गवासी हो गई थी। मौलाना ने अपनी असीम स्नेह और प्यार से इस अभाव को रशीद को कभी अनुभव नहीं होने दिया। वह उसके लिए माँ-बाप दोनों बन गए थे। माँ ठीक ही कहती है…सचमुच वह इंसान नहीं देवता थे। इस देवता की महानता पर उनका सिर झुक गया और उसने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। फिर भीगी आँखों से माँ की ओर देखता हुए सोचने लगा…माँ भी तो किसी देवी से कम नहीं है, जिनके दिल में दो टुकड़े हैं… एक टुकड़े से ‘अल्लाह अल्लाह’ की आवाज आती है और दूसरे से ‘राम-राम’ की। उसे इन दोनों आवाज में कोई अंतर नहीं अनुभव होता। फिर उसकी कल्पना धारा रणजीत की ओर मुड़ गई…उसका हमशक्ल सगा भाई उसी के कारण पाकिस्तान की किसी जेल की तंग और अंधेरी कोठारी में पड़ा सिसक रहा होगा…तड़प रहा होगा। इस विचार से वह कांप उठा। उसने घबराकर माँ की ओर देखा। वह अभी तक प्यार से सलमा की तस्वीरें देखें जा रही थी।

“क्या देख रही हो माँ?” रशीद ने जैसे डरते-डरते पूछा।

“अपनी बहू को देख रही हूँ। इसे देखा मेरा जी नहीं भरता। तू पूनम को दुल्हन बना कर लायेगा, तो मैं उसे भी ऐसे ही कपड़े पहनाऊंगी और मेरा प्यारा बेटा रशीद…काश वह जानता उसकी अभागन माँ उसके लिए कितने वर्षों से तड़प रही है। उसकी ज़िन्दगी के लिए भगवान से कैसी-कैसी प्रार्थना की है। मैं जब तेरी सुरक्षा के लिए प्रार्थना करने मंदिर में जाती हूँ, तो उसकी रक्षा के लिए भी प्रार्थना करना कभी नहीं भूलती। वह भी फौज में नौकर है ना।”

माँ की आवाज भर्रा गई और उनकी आँखों से ममता के आँसू टपक पड़े । क्षण भर रुककर उन्होंने अपने आँसू पोंछे और बोली, “मुझे पता होता, तो पहले ही तुझे अपने जीवन का यह भेद बता देती। तू पाकिस्तान में तो पहुँच गया था। वहाँ अपने भाभी और भाई से किसी प्रकार मिल आता। खैर अब तो लड़ाई बंद हो ही गई है…भगवान ने चाहा तो दोनों देशों में आना-जाना भी शुरू हो जायेगा। ईश्वर करे मेरा बेटा वहाँ सकुशल हो…तू अपनी शादी में अपने भाई को ज़रूर बुलाना।

माँ का एक-एक शब्द रशीद के दिल को चीरता जा रहा था। वह अब तक उसे रणजीत समझे हुए थी। उसका जी चाह रहा था कि बच्चों के समान उसकी गोद में सिर रखकर फूट-फूट कर रोने लगे और उसे बता दे कि वही उसका बिछड़ा हुआ लाल है, जिसके लिए वह तड़प रही है। वही रणजीत का भाई है, जिसे वह उसकी शादी में बुलाना चाहती है। लेकिन वह कुछ भी न कह सका, यह कैसे जाने मजबूरी और बेबसी थी। वह निराशा भरी दृष्टि से माँ के भोले-भाले चेहरे को देखता रहा।

Prev | Next | All Chapters

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5678| 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19

पढ़ें अन्य हिंदी उपन्यास :

ज़िन्दगी गुलज़ार है ~ उमरा अहमद  

निर्मला ~ प्रेमचंद

अदल बदल ~ आचार्य चतुर सेन शास्त्री

काली घटा ~ गुलशन नंदा

Leave a Comment