चैप्टर 15 वापसी : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 15 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 15 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

Chapter 15 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

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दूसरे दिन सुबह जब पूनम होटल अकबर पहुँची, तो रशीद होटल छोड़कर जा चुका था। यह सूचना मिलते ही पूनम के दिल को भारी ठेस पहुँची और वह रिसेप्शन काउंटर पर ही खड़ी रह गई। इससे पहले कि वह रिसेप्शनिस्ट लड़की से कुछ और पूछती, उस लड़की ने स्वयं ही कहा, “आप ही मिस पूनम हैं?”

“जी…!” अपना नाम सुनकर पूनम आश्चर्य से उसे देखने लगी।

“आपके नाम कैप्टन रणजीत एक संदेश छोड़कर गए हैं।” लड़की ने कहा और मुस्कुराकर काउंटर की दराज़ से एक लिफ़ाफ़ा निकालकर पूनम को थमा दिया।

पूनम ने बेचैनी से लिफ़ाफ़ा खोला और काउंटर से परे हटकर रशीद का पत्र पढ़ने लगी। लिखा था –

“डियर पूनम!

रात जाने अचानक मुझे क्या हो गया…वास्तव में मेरी मानसिक स्थिति इन दिनों कुछ असंतुलित सी हो गई है। इसका कारण मैं नहीं जान सका…आशा करता हूँ, तुम मेरे अनुचित व्यवहार क्षमा कर दोगी।

मैं मनाली जा रहा हूँ माँ के पास। वहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा। आने की सूचना देना।

तुम्हारा रणजीत!”

पूनम ने इस संक्षिप्त पत्र को कई बार पढ़ा और रणजीत की मानसिक स्थिति के बारे में सोचने लगी। रात ही वह घंटों इसी विषय पर विचार करती रही थी…कहीं ऐसा तो नहीं कि लंबी कोर्टशिप के बाद रणजीत का दिल उससे ऊब गया हो और वह उसे स्थगित करने के लिए कोई ड्रामा खेल रहा हो…आखिर कौन सी मानसिक उलझन है, जो रणजीत को उससे दूर किए जा रहे हैं। इन्हीं विचारों में रशीद का पत्र हाथ में लिए वह खड़ी थी कि सहसा “हेलो” की सुरीली आवाज ने उसे चौंका दिया। उसने पलटकर देखा, तो रुखसाना गुलाबी रंग के सलवार सूट पर लहराती हुई सामने जीने से उतर रही थी। पूनम में जल्दी से पत्र मोड़कर बैग में डाल दिया। रुखसाना ने दूर ही से उसकी हरकत को देख लिया था। मुस्कुराते हुए पास आकर उसने पूनम से पूछा, “रणजीत का खत है क्या?”

“हाँ…उन्हीं का है…आज सवेरे वे चले गये।”

“जानती हूँ मैं…माँ से मिलने के लिए बहुत बेचैन था वह।”

“क्या तुमसे मिल कर गए हैं वे?”

“नहीं…लेकिन उसके दिल की कैफ़ियत मुझसे छिपी नहीं रहती।”

रुखसाना का यह वाक्य पूनम को कुछ अप्रिय लगा। उसके होंठ गुस्से से फड़फड़ा उठे, लेकिन झट ही वह संभल गई और आँखें झुकाकर कुछ सोचने लगी। उसे चुप देखकर रुखसाना ने पूछा, “क्या सोच रही हो?”

“यही कि तुम रणजीत के निकट न होते हुए भी उन्हें जितना समझती हो, मैं उतना निकट होते हुए भी नहीं समझ पाई।” पूनम ने अंधेरे में तीर फेंककर उसके दिल को टटोलना चाहा।

रुखसाना उसकी बात सुनकर कुछ देर चुप रही और फिर एक गहरी सांस लेकर कह उठी –

“क्या करूं…धंधा जो ऐसा ठहरा। कैबरे करते-करते मर्दों की नब्ज पहचानने लगी हूँ। मेरे इसी कमाल की वजह से तो पाकिस्तानी एजेंटों ने मुझसे जासूसी का काम लिया।”

“क्या?” पूनम आश्चर्य से उछल पड़ी और फटी-फटी आँखों से उसे देखती हुई बोली, “जासूसी क्या तुम भी जॉन के साथ…”

“हाँ…मैं भी इस काम में जॉन का हाथ बंटा रही थी।” रुखसाना ने बड़े ही शांत भाव से स्वीकार किया।

“तुम्हें शर्म नहीं आई अपने देश से द्रोह करते हुए।” पूनम ने गुस्से से कहा।

“कैसे आती? पैसे जो करारे मिलते थे।” वह निर्लज्जता से मुस्कुराई।

“धिक्कार है ऐसे पैसे पर। ज़िन्दगी में क्या पैसा ही सब कुछ है तुम्हारे लिये?”

“और क्या? लोग पैसे के लिए अपना ईमान बेच देते हैं, बीवी और बहनें तक बेच देते हैं। मैंने तो सिर्फ अपने ज़िस्म का सौदा किया है।”

“और यह सब कुछ खुलेआम कहते हुए तुम्हें डर नहीं लगता?”

“डर किसका?”

“कानून का!”

“कानून! वह साला तो कब का मेरे पीछे लगा हुआ है। मेरे और जॉन के वारंट निकल चुके हैं। जॉन तो खुदकुशी करके वहाँ पहुँच गया, जहाँ से पुलिस के फ़रिश्ते भी उसे गिरफ्तार नहीं कर सकते हैं। लेकिन मैं! मुझसे नहीं हो सकती खुदकुशी। मैं तो गिरफ्तार हो जाऊंगी और फिर कितनी शोहरत होगी मेरी। अखबारों में मेरा नाम आयेगा, तस्वीरें छपेंगी। एक सनसनी पैदा हो जायेगी इस खबर से…ओह!  ज़िन्दगी में सेंसेशन भी के दिलफरेब शै है डियर पूनम!”

पूनम ने अनुभव किया कि शायद रात के नशे का प्रभाव अब तक रुखसाना के दिमाग पर बाकी था। इस दशा में उसके पास रहकर मगज़ खपाना उसने उचित न समझा और उससे आज्ञा लेकर वहाँ से खिसकना चाहा, किंतु रुखसाना इतनी शीघ्र उसे छोड़ने वाली नहीं थी। इसलिए उसका हाथ पकड़ कर बोली, “दो घड़ी हमारे साथ न बैठोगी। दिल की बातें न सुनोगी?”

“ज़रा जल्दी में हूँ।”

“लेकिन रणजीत मिल जाता, तो तुम जल्दी में न होती।” उसने मुस्कुराकर कहा और पूनम को हाथ से पकड़कर खींच कर डायनिंग हॉल में ले गई। कोने की एक मेज़ पर बैठते हुए उसने पूनम से नाश्ते के लिए पूछा । पूनम के इंकार करने पर उसने अपने लिए लंबे-चौड़े नाश्ते का तथा पूनम के लिए एक कप कॉफ़ी का आर्डर दिया और फिर उससे संबोधित होकर बोली, “सच कितना कड़वा होता है पूनम डियर!”

“हाँ रुखसाना…ओह…सॉरी लिली!”

“नहीं नहीं…तुम मुझे रुखसाना ही कहो। लिली तो रात के अंधेरों के साथ ही मर जाती है।” रुखसाना ने कुछ दार्शनिक ढंग से कहा।

“तुम रणजीत को कब से जानती हो?” पूनम ने अचानक उससे पूछा।

“जबसे वह पाकिस्तान से लौटा है।”

“क्या वह भी जानते हैं कि तुम पाकिस्तान के लिए जासूसी करती थी।”

रुखसाना पूनम का प्रश्न सुनकर कुछ सोच में पड़ गई और थोड़ी देर मौन रहकर बोली, “सवाल बड़ा टेढ़ा है डियर!”

“लेकिन जवाब सीधा चाहिए मुझे।”

“क्यों?”

“शायद तुम्हारे इस उत्तर पर मेरे जीवन का बहुत कुछ निर्भर है।”

“मैंने कुछ देर पहले कहा था न कि सच बड़ा कड़वा होता है। सुनोगी तो बौखला जाओगी।”

पूनम कुछ कहना ही चाहती थी कि बैरा नाश्ते की ट्रे लिए आ गया। रुखसाना ने कॉफ़ी का कप पूनम की ओर सरका दिया और स्वयं चुपचाप नाश्ता करने लगी।

“तुम कुछ कहने जा रही थी।” उसे खामोश ने पूनम ने कहा।

“हाँ…मैं यह कहने वाली थी कि…” वह कुछ कहते-कहते रुक गई और फिर आमलेट का टुकड़ा पराठे के साथ मुँह में रखकर चबाती हुई पूनम की आँखों में आँखें डालकर बोली, “अगर मैं कहूं कि तुम्हारा रणजीत भी हमारा साथी है तो…”

पूनम जो कॉफ़ी का प्याला हाथ उठाकर घूंट लेते-लेते रुक गई थी, उसकी बात सुनकर यूं उछल पड़ी, जैसे उसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो और कॉफ़ी का प्याला उसके हाथ से छूटकर मेज़ पर गिर पड़ा। कॉफ़ी के छींटे उसकी साड़ी पर बिखर गते। रुखसाना ने झट उठकर नैपकिन से उसकी साड़ी साफ की और फिर जब उसने पूनम से दृष्टि मिलाई, तो पूनम उसे अविश्वास की दृष्टि से घूर रही थी। कुछ देर तक इसी भाव से वह उसे घूरती रही। फिर थोड़ा चिल्लाकर बोली,” यह झूठ है। वह कभी देशद्रोही नहीं हो सकते।”

“देशद्रोही था नहीं, लेकिन उसे बना दिया गया है।”

“किसने बनाया है?”

“दुश्मनों ने!”

“मुझे तो विश्वास नहीं होता।”

“तो क्या कहता है तुम्हारे विश्वास?”

“देश विद्रोह करने से पहले ही वह अपनी जान दे देंगे।”

“तुम्हारा विश्वास गलत है डियर! तुम्हारे प्यार को धोखा दिया गया है।”

“कैसा धोखा?”

“जिसे तुम रणजीत समझ रही हो, वह रणजीत नहीं है।”

“क्या बक रही हो तुम?” पूनम ने लगभग चीखते हुए कहा और फिर तेज नज़रों से उसे घूरते हुए बोल, “क्या इस समय भी तुम नशे में हो?”

“नहीं पूनम! कसम ले लो सुबह से एक बूंद भी चखी हो। मैं वह हकीकत बता रही हूँ, जो तुम्हें मालूम नहीं। लेकिन मैं उसके बारे में सब कुछ जानती हूँ।”

“तो कौन है वह?” पूनम ने बिफ़री हुई आवाज में पूछा।

“तुम्हारे प्रेमी का हमशक्ल रशीद…मेजर रशीद, जो रणजीत के भेष में हिंदुस्तान में घुसकर पाकिस्तान के लिए जासूसी कर रहा है।”

“रणजीत कहाँ है?” पूनम ने घबराकर पूछा।

“या तो दुश्मनों की कैद में है या मारा जा चुका होगा।”

“नहीं!” पूनम के मुँह से अनायास एक चीख निकल गई और आसपास बैठे लोग चौंककर आश्चर्य से उसे देखने लगे।

रुखसाना की बात सुनकर पूनम के दिल में जैसे किसी ने चाकू घोंप दिया हो। कुछ क्षण के लिए उसके दिल की हरकत जैसे रुक गई हो और मस्तिष्क में आंधियाँ सी चलने लगी…फिर धीरे-धीरे उसके सामने कल्पना पट पर रशीद से उसकी मुलाकातों की तस्वीरें उभरने लगी। कितनी ही असाधारण बातें…उसकी रणजीत से थोड़ी भिन्न भराई हुई आवाज, पूनम से पहले भेंट में उसका उखड़ा-उखड़ापन, देवी के मंदिर में जाते हुए उसकी हिचकिचाहट, रुखसाना के साथ रहस्यमयी मित्रता, ‘अल्लाह’ लिखे लॉकेट और ‘ओम’ लिखे लॉकेट की अदला-बदली पर उसका बिगड़ना…यह सब याद आते ही पूनम को रुखसाना की बात में कुछ सच्चाई दिखाई देने लगी। उसके दिल में जैसे हलचल सी मच गई…मस्तिष्क की नसें जैसे फटने लगी। अब वहाँ बैठना उसके लिए मुश्किल हो गया। एक झटके के साथ कुर्सी छोड़कर वह उठ खड़ी हुई और रुखसाना से बिना कुछ कहे बाहर की ओर लपकी। रुखसाना ने उसे पुकार कर रोकना चाहा, किंतु पूनम ने एक नहीं सुनी और पलक झपकते होटल से बाहर निकल गई।

 रुखसाना की होठों पर जीवन में शायद पहली बार एक पवित्र सी मुस्कुराहट उभरी। अपराध स्वीकार करने के बाद अपना अतीत उसे कुछ उजला-उजला सा अनुभव होने लगा। उसने रशीद से केवल अपने अपमान का बदला ही नहीं लिया था, बल्कि एक नारी होने के नाते उसे दूसरी नारी के आंचल को कलंकित होने से बचा लिया था। अपना मन हल्का करके वह शांति से नाश्ता करने लगी।

नाश्ता करते हुए रुखसाना की दृष्टि अचानक बाहर काउंटर की ओर चली गई। सीबीआई का एक अफ़सर मिलिट्री पुलिस के दो सिपाहियों के साथ काउंटर पर खड़ा कुछ पूछ रहा था। रुखसाना ने उसके मुँह से लिली का शब्द सुना और क्षण भर के लिए चौंक उठी, लेकिन दूसरे ही क्षण शांति से नाश्ते में व्यस्त हो गई।

दोनों सिपाहियों को बाहर ही छोड़कर अफ़सर डाइनिंग रूम में आया और चारों ओर देखकर रुखसाना की मेज के पास आकर बोला, “रुखसाना आप ही है ना?”

“जी..!” रुखसाना ने उससे आँखें मिलाते हुए बड़ी शांत मुद्रा में उत्तर दिया।

“मुझे आपसे कुछ ज़रूरी काम है।”

“जानती हूँ…मेरा वारंट है…लेकिन आप बैठिए न…कुछ चाय कॉफ़ी लीजिये।”

“नो थैंक यू!” अफ़सर ने खड़े-खड़े उत्तर दिया।

“तो मुझे नाश्ता खत्म करने की इज़ाजत दीजिये।”

“आफ़कोर्स…आफ़कोर्स!” अफ़सर ने कहा और कुर्सी खींचकर रुखसाना के सामने बैठ गया।

दिल्ली में जो कुछ हो रहा था, उन सब बातों से अनभिज्ञ रशीद मनाली जाने वाली सड़क पर प्राइवेट टैक्सी में बैठा भविष्य के प्लान बना रहा था। माँ से मिलने के बाद जल्दी से जल्दी वह सारे सैनिक भेद और महत्वपूर्ण नक्शे, जो उसने  बड़े परिश्रम से प्राणों पर खेलकर प्राप्त किए थे, पाकिस्तान पहुँचा देगा। इस काम के संपूर्ण हो जाने के बाद अगर वह गिरफ्तार भी हो गया, तो कोई चिंता नहीं, क्योंकि उसे मालूम था कि पाकिस्तान में कई खतरनाक हिंदुस्तानी जासूस पकड़े हुए कैद हैं… उसकी सरकार उनके बदले में उसे छुड़ा लेगी।

उसकी टैक्सी लगभग शाम के चार बजे मनाली पहुँची। अचानक घाटी की बर्फीली हवा से उसने शीत अनुभव किया और अटैची से स्वेटर निकाल कर पहन लिया। सड़क के दोनों ओर ऊँचे बर्फ से ढके पहाड़ खड़े थे और डूबते हुए सूरज की सुनहरी किरणों ने उनकी चोटियों को सोने के ताज पहना दिए थे। घाटी के छोटे-छोटे मकानों से धुएं की रेखायें सी उठकर वातावरण में छाये कोहरे में मिल रही थी। जिधर भी दृष्टि जाती, सेवों और दूसरे फलों से झूमते वृक्ष दिखाई देते। रशीद ने पहली बार घाटी के स्वर्ग को देखा था और वह इस सुंदर छटा की मोहिनी में खोया जा रहा था कि अचानक ड्राइवर ने टैक्सी अड्डे पर रोक दी। इस स्थान से आगे गाड़ियों को जाने की मनाही थी।

“बाजार आ गया साहब!”  ड्राइवर की आवाज ने रशीद को चौंका दिया। वह अपने अटैची लेकर गाड़ी से बाहर निकल आया और डिक्की में सामान रखवा कर उसने टैक्सी का किराया चुका दिया।

“राम-राम कप्तान साहब!” अचानक एक बूढ़ा आदमी उसके पास आकर हाथ जोड़ता हुआ बोला।

“राम-राम!” रशीद ने दबी आवाज में उत्तर दिया और सोचने लगा। लद्दूराम के बताये व्यक्तियों में यह कौन व्यक्ति विशेष था।

“अरे भैया…आपने पहचाना नहीं…मैं कालूराम हूँ।” बूढ़े ने रशीद को असमंजस में देखकर स्वयं उस की मुश्किल दूर कर दी।

“अरे हाँ कालूराम!” रशीद ने मुस्कुराते हुए कहा, “बहुत बदल गए हो इतने दिनों में। कहो अच्छे तो हो?”

“अच्छा हूँ कप्तान साहब! आप कहिये…आपका क्या हाल…मुझे तो आप बदले हुए दिखाई देते हैं।”

रशीद कालूराम के इस वाक्य पर कुछ चौंक पड़ा। कालूराम ने बात चालू रखते हुए कहा –

“पाकिस्तान से लौट इतने दिन हो गए और आप अब आ रहे हैं माँ से मिलने। आपकी बांट जोहते-जोहते आँखें पथरा गई हैं बेचारी की। कोई ऐसा दिन नहीं जाता, जब मैं दूध लेकर जाऊं और माँ जी आपकी बात न छेड़ दें।”

“हाँ कालूराम, फौज की नौकरी ही ऐसी है….छुट्टी ही नहीं मिल पाई। क्या अब भी तुम्हीं दूध देने जाते हो?” रशीद ने माँ और घर के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करने के लिए उसे बोलने पर उकसाते हुए पूछा।

“हाँ जाता हूँ…परंतु आपके जाने के बाद तो धंधा ही मारा गया। पहले मान जी दो लीटर दूध लेती थीं। अब एक पाव ही में गुजर कर लेती हैं।”

“अकेली है ना! इतना दूध लेकर क्या करेंगी।”

“अकेली क्यों है जी? वह ब्राह्मणों की बेटी गौरी जो है उनके साथ।”

गौरी का नाम सुनकर वह चौंका। उसके जासूस साथी ने भी घर में एक और लड़की के बारे में उसे लिखा था।

“तो ठीक है भैया! कल से तुम दी लीटर दूध दे जाया करना।” रशीद पास से गुजरते हुए एक और अजनबी के ‘नमस्ते’ का उत्तर देते बोला, “अब यह सामान तो किसी तरह पहुँचा दो।”

“लाओ मेरे सिर पर लाद दो।”

कालूराम ने सामान सिर पर उठा लिया और रशीद उसके पीछे पीछे चल पड़ा। इस समय कालूराम का मिल जाना बड़ा शुभ था क्योंकि रशीद उसके साथ बिना किसी कठिनाई के घर पहुँच सकता था।

रास्ते में बहुत से आते-जाते व्यक्तियों ने उसे पहचान कर प्रसन्नता से उसका अभिवादन किया। रशीद सबके अभिवादन का मुस्कुराकर उत्तर देता हुआ जल्दी से आगे बढ़ता गया। एक अच्छे पक्के मकान के दरवाज़े पर पहुँच कर कालूराम रुक गया। ‘सो यह है रणजीत जा घर!’ उसने सोचा और धड़कते दिल से अंदर प्रवेश करने लगा। यह उसकी परीक्षा की सबसे कड़ी मंज़िल थी।

उसने दहलीज पर पैर रखा भी नहीं था कि बारह तेरह वर्ष की एक उठती हुई बालिका खुशी से रणजीत भैया कहकर चीख पड़ी और उसे वहीं रोकती हुई बोली, ” अरे अरे ठहरो…पहले तेल तो छुआ लेने दी…माँ जी की पता चल गया, तो मेरी चोटी और जान एक कर देंगी।” यह कहकर वह तेल लाने अंदर चली गई।

रशीद की समझ में कुछ न आया कि यह तेल छुआना क्या होता है। उसे चुप देखकर कालूराम बोल उठा, “इन्हीं बातों से तो इसने माँ का दिल जीत लिया है और फिर वह भी इस अनाथ लड़की को अपनी औलाद के समान ही चाहती हैं।”

तभी गौरी एक छोटी कटोरी में सरसो का तेल लेकर आ गई और कुछ बूंदे रशीद के पैरों के पास टपका कर बोली, “बस, अब आ जाओ भैया…अंदर।”

“अरी गौरी! तू तो एकदम इतनी लंबी-चौड़ी हो गई।” रशीद ने घर के अंदर आते हुए कहा और फिर इधर-उधर देखते हुए बोला, “माँ कहाँ है?”

“मंदिर गई हैं। दोनों समय, देवी माता से आपकी सुरक्षा के लिए प्रार्थना करने जाती हैं। बस आती ही होंगी।” गौरी ने कहा और जल्दी-जल्दी पलंग का बिस्तर ठीक करती हुई बोली, “बैठो न भैया!”

रशीद चारपाई पर बैठता हुआ कालूराम से बोला, “अच्छा भैया! सामान रख दो…और हाँ…सुबह दो लीटर दूध लेकर आना।” उसने कालूराम की मुठ्ठी में दो रुपए रख दिए, जिन्हें पहले तो कालूराम ने लेने से इंकार किया, लेकिन रशीद के आग्रह पर लेकर चला गया।

कालूराम के चले जाने के बाद रशीद ने पूरे घर का जायज़ा लिया और गौरी से बोला, “हर चीज वैसी ही है, जैसी मैं छोड़ कर गया था।”

“और क्या भैया! मैंने तुम्हारी एक-एक चीज़ संभाल कर रखी है।”

“देखूं तो कैसे रखा तुमने मेरी चीज़ों को?” घर का इतिहास और भूगोल जानने का इससे सुंदर और कौन सा अवसर हो सकता था। गौरी के साथ वह एक-एक कमरे में जाकर हर चीज़ को ध्यानपूर्वक देखने लगा। रणजीत की पुस्तकें, उसके कॉलेज स्कूल में जीते हुए कप और दूसरी सब चीज़ें बड़े सलीके से सजी रखी थीं। रशीद ने गौरी के सलीके की प्रशंसा करते हुए कहा, “गौरी! तुमने हर चीजों किस सुंदर ढंग से वैसी की वैसी रखी गई। तुम बहुत सयानी लड़की हो।”

“हाँ भैया! तुम्हारी सब चीज़ें तो वैसी ही हैं, लेकिन माँ जी के चेहरे कि खिलन को मैं वैसे ही बचा कर न रख सकी। लड़ाई का एक एक दिन उनके चेहरे की रंगत छीनता चला गया और फिर जब तुम कैद हो गये, तो उनका चेहरा जैसे बिल्कुल वीरान हो गया।”

“घबराओ नहीं…अब मैं आ गया हूँ…माँ के चेहरे की खिलनन फिर लौट आयेगी।”

“अब तो वह एक ही चीज़ से लौट सकती है।” गौरी ने शरारत से मुस्कुराकर कहा।

“बस अब पूनम भाभी को बहू बनाकर के आओ। माँ जी के चेहरे पर ही क्या, सारे घर में बाहर आ जायेगी।”

तभी गौरी की दृष्टि दरवाज़े से बाहर एक स्वस्थ, परिश्रमी वृद्धा पर पड़ी और उसने झट रशीद का हाथ थामकर उसे अलमारी की आड़ में करते हुए धीरे से कहा, “भैया! इधर छिप जाओ।”

“छिप जाओ न भैया…ज़रा मज़ा आयेगा।”

रशीद झट अलमारी की ओट में खड़ा हो गया। माँ ने घर में दाखिल होते हुए कहा, “आरी गौरी! तू यहाँ खड़ी-खड़ी क्या कर रही है? अभी तक चूल्हा नहीं जलाया।“

“अभी जलाती हूँ माँ जी!” गौरी ने कुछ थकान का अभिनय करते हुए कहा।

“तू दिन-ब-दिन आलसी होती जा रही है। अच्छा चल तू आटा गूंध दे…खाना मैं बना लूंगी।”

“खाना बन जायेगा माँ जी। पहले आप यह बताइए कि देवी माता ने आपकी प्रार्थना सुनी कि नहीं।” गौरी ने माँ का ध्यान रणजीत की ओर मोड़ते हुए कहा।

“अरे, जब अपना बेटा ही नहीं आना चाहता, तो देवी माँ क्या उसे धकेल कर भेजेंगी।” माँ ने कुछ निराश होकर कहा।

“निराश मत हो माँ जी…फ़ौज की नौकरी ठहरी…जब छुट्टी मिलेगी, तुरंत आ जायेंगे।” गौरी ने एक्टिंग करते हुए कहा।

“चल हट…तू हमेशा उसका पक्ष लेती है। यह फ़ौज की नौकरी मेरी बैरन बन गई है…आ जाने दे रणजीत को। मैं उससे यह नौकरी ही छुड़वा दूंगी। अब युद्ध समाप्त हो गई है, तो उसे फौजी में रहने की क्या ज़रूरत है…बस हो चुकी बहुत देश भक्ति।” कहते हुए अचानक उसने दृष्टि आंगन में रखे रशीद के सामान पर पड़ी और चिल्लाकर बोली, “अरे! यह सामान किसका है?”

गौरी ने लपककर सामान में रखी टोकरी में से मिठाई का डिब्बा निकाला और उसमें से मावे एक लड्डू लेकर माँ के मुँह में देती हुई बोली, “पहले मुँह मीठा कर लीजिये…फिर बताती हूँ, कौन मेहमान आया है।”

माँ यह सुनते ही खुशी से कांपने लगी और भराई हुई आवाज़ में बोली, “अरे जल्दी बता??? कहीं मेरा रणजीत तो नहीं आ गया।”

तभी रशीद ने पीछे से आकर माँ की दोनों आँखें अपने हाथों से बंद कर दी और शरारत से मुस्कुराने लगा। माँ ने अपने हाथों से उसके दोनों हाथ टटोले और असीम खुशी से बोल उठी, “अरे यह तो मेरे लाल के हाथ हैं। इनसे मेरे बेटे की खुशबू आ रही है।” कहते हुए माँ ने धीरे से रशीद के दोनों हाथ अपनी आँखों पर से हटा दिए और पलटकर बोली –

“रणजीत मेरे लाल…आखिर तुझे अपनी माँ की याद आ ही गई।” और फिर दोनों हाथ रशीद की ओर फैला दिये।

रशीद ‘माँ’ कहकर उनसे लिपट गया और माँ की आँखों से खुशी के आँसुओं की झड़ी लग गई। उनके होंठ थरथराने लगे। वह कुछ कहना चाहती थी, लेकिन रोते हुए गले से आवाज नहीं निकल रही थी। उन्हें ऐसा अनुभव हो रहा था, जैसे जीवन में पहली बार अपने बच्चे को सीने से लगा रही थीं। वह निरंतर रशीद को चूमे जा रही थी। उनके आँसुओं से रशीद का चेहरा भीग गया था। उसने माँ का असीम प्यार नहीं देखा था। उसे प्रथम बार वास्तविक ममता की अनुभूति हुई थी। थोड़ी देर के लिए वह भूल गया कि यह उसकी नहीं रणजीत की माँ है।

आखिर माँ ने उसे अलग किया और उसका भीगा चेहरा अपने आंचल से साफ करने लगी। लेकिन अभी तक उनके हृदय में ममता का तूफान शांत नहीं हुआ था। वह अंदर ही अंदर कांपे पर जा रही थी। फिर बड़ी मुश्किल से अपने उमड़ते हुए भावों को नियंत्रित किया और बोली, “यह कैसी पागल ममता है। मुझे ऐसा जान पड़ता है, जैसे मैं जीवन में पहली बार तुमसे मिली हूँ। इतने बरसों बाद लौटकर आया है। अब तो माँ को छोड़कर कभी नहीं जायेगा।”

“हाँ माँ…तू कहेगी, तो नहीं जाऊंगा।” रशीद ने मुश्किल से अपने भावों को दबाते हुए कहा।

माँ बेटे की भावुकतापूर्ण भेंट देखकर गौरी का जी भर आया था और वह सिसक सिसक कर रो रही थी। अम ने उसे सिसकते देखा, तो बोली, “अरी पगली! तू क्यों रो रही है? चल जल्दी से भैया के लिए खाना तैयार कर दे। अच्छा ठहर…आज मैं खुद अपने बेटे के लिए खाना बनाऊंगी।”

“नहीं माँ, तुम कष्ट मत करो।” रशीद ने उसे रोकते हुए कहा।

“कष्ट कैसा बेटा…माँ को तो बेटे को खिलाने में आनंद मिलता है…छोड़ दे मुझे। हाँ पहले उठ…चल मेरे साथ।”

माँ रशीद को साथ लेकर घर के छोटे से मंदिर में आई, भगवान की मूर्ति को प्रसाद चढ़ाकर उन्होंने रशीद को चरणामृत दिया और भगवान के चरणों से भभूत लेकर उसके माथे पर लगाई।

न जाने क्यों आज रशीद को इन बातों में ज़रा भी आपत्ति ना हुई। उसने बड़ी श्रद्धा से माँ के हाथों से चरणामृत लेकर पिया, माथे पर भभूत लगाई और भगवान के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। शायद माँ के अथाह स्नेह ने उसके मन में खड़ी घृणा की दीवार ढहा दी थी…अब उसे मंदिर, मस्जिद, ओम और अल्लाह में कोई अंतर नहीं दिखाई दे रहा था।

अम ने अपने हाथों बनाए पराठे और सरसों का साग जब उसके सामने लाकर रखा, तो उनके सुगंध से बेचैन होकर वह खाने पर ऐसा टूटा, जैसे बहुत दिनों का भूखा हो। उसने माँ को भी खींचकर अपने साथ ही खाने पर बैठा लिया। जितनी देर तक वह खाना खाते रहे, गौरी उनके पास खड़ी उनकी बातें सुनती रही। रशीद को आज खाने में जो आनंद आया था, इतना आनंद उसने ऑफिसर्स मेस, बड़े-बड़े होटलों के बढ़िया खानों में भी कभी अनुभव नहीं किया था। उसने इतना खा लिया कि उसे नींद आने लगी। माँ ने गौरी से कहा, “जा जल्दी से बिस्तर लगा दे। नींद आ रही है मेरे बेटे को।”

थोड़ी देर में रशीद बिस्तर पर खर्राटे लेने लगा।

सुबह जब रशीद की आँख खुली, तो सूरज की किरणें खिड़की से उसके कमरे में झांक रही थी। वह उठकर सीधा माँ के कमरे में पहुँचा। लेकिन वहाँ माँ को न पाकर बाहर निकल आया और गौरी से पूछ बैठा, “माँ कहाँ है?”

“मंदिर के पीछे पुराने वाले बाग में गई हैं।”

मंदिर की वजह से बाग ढूंढने में रशीद को कोई दिक्कत नहीं हुई।

बाग में पहुँचकर उसने देखा, माँ कारिंदे के साथ फावड़े से बालियाँ साफ करके पेड़ों की जड़ों तक पानी पहुँचा रही थी। माँ ने फावड़ा उठाया ही था कि पीछे से रशीद ने उसका फावड़ा थाम लिया। माँ ने पलट कर देखा और फावड़ा छोड़कर बोली, “अरे बेटा तुम…तुम यहाँ क्यों आये?”

“माँ बाग में काम करें और बेटा घर में आराम…यह नहीं हो सकता।” रशीद ने बच्चों की तरह मुँह फुलाकर कहा था। फिर बोला, “यह काम तो कोई बस दूर कर देगा।”

“मजदूरों के भरोसे पर कोई काम होता है बेटा…जब तक बाग का स्वामी अपने पसीने से वृक्षों को न सींचे, फलों में रस और मिठास नहीं आती।” माँ ने  मुस्कुराकर कहा और लाल-लाल सेवों से लदे पेड़ों की ओर संकेत करके बोली, “इन सेवों को देख रहे हो…इनमें मेरे लहू की सुर्खी और मेरे पसीने का रस है…मेरे बागों के सेव सारे इलाके में सबसे प्रसिद्ध हैं। जब मैं फलों से लदे बाग को देखती हूँ, तो मेरा कलेजा गज भर का हो जाता है…मुझे ऐसा लगता है जैसे या बाग मेरा भरा पूरा परिवार है, जिसमें मेरे बच्चे, मेरे पोते पोते किलकारी मारते खेल कूद रहे हैं। बेटे…बस तू जल्दी से शादी कर ले, ताकि मेरा घर सचमुच इस बाग की तरह फूलों और फलों से भर जाये। उसमें सच में तेरे बच्चों की किलकारियाँ गूंजने लगे। बोल, अब मैं करूं शादी की तैयारी?”

“हो जायेगी शादी भी…इतनी जल्दी भी क्या है माँ?” रशीद ने माँ के हाथ से फावड़ा लेते हुए कहा और स्वयं पानी की नाली खोदने लगा।

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