चैप्टर 7 वापसी : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 7 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 7 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

Chapter 7 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

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कड़कड़ाते हुए घी में छांय से प्याज पड़ी और शुद्ध घी की महक रसोई में फैल गई।

सलमा पसीना पसीना होते हुए भी बड़ी लगन से खास लखनवी ढंग के पकवान बनाने में व्यस्त थी।

“हाय अल्लाह! आप तो पसीने से सराबोर हुई जा रही हैं बीबी। हटिये…मैं पका लूंगी।” नौकरानी नूरी ने सलमा के हाथ से कड़छी पकड़ते हुए कहा।

“नहीं नूरी…यह पंजाबी नहीं, लखनवी खाने हैं…ज़रा भी नमक मिर्च कम ज्यादा हो जाये, आग में कसर रह जाये, तो बिल्कुल बेमज़ा हो जाते हैं। मैंने लखनवी मुंत्तनजन और बिरयानी पकाना अपनी फूफी जान से सीखा था। लेकिन भाई…खुदा लगती बात यह है कि इतनी मेहनत के बाद भी उनके जैसा मुत्तंजन अब तक नहीं पका सकती। हालांकि खुदा झूठ ना बुलवाये, सैकड़ों बार मुत्तंजन पका चुकी हूँ, मगर वह बात कहाँ…!” सलमा ने मुँह पर आई बालों के लटों को बायें हाथ से सिर की ओर झटकते हुए कहा और फिर खाना पकाने में लग गई।

तभी दरवाजे पर एक तांगा आकर रुका और एक बड़े मियां खसखस से दाढ़ी रखे, शेरवानी और चौड़ी मुहरी का पायजामा पहने तांगे से उतरते दिखाई दिये। सलमा ने रसोई की खिड़की से देखा और “हाय अल्लाह अब्बा जान!” कहती हुई कड़छी नूरी के हाथ में थमाकर दरवाजे की ओर भागी। लेकिन इससे पहले कि वह उन्हें बाहर जाकर मिलती, उनके अब्बा जान मियां वसीम बेग स्वयं अपना थोड़ा सा सामान उठाये अंदर आ गये।

सलमा ने लपककर उनकी अटैची ले ली और ख़ुश होकर उनसे बोली – “अस्सलाम आलेकुम अब्बा जान…आप अचानक बगैर इत्तला कैसे आ गये?”

“अरे भाई, दम लेने दो…फिर बताता हूँ…क्या बला की गर्मी है यहाँ लाहौर में।” मिर्ज़ा साहब ने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा।

“अरे नूरी जल्दी से शरबत बना कर ले आ।” सलमा ने बाप को सोफे पर बैठा दिया और बोली – “अब्बा जान! यहाँ गर्मी पड़ती है, बहुत है।”

“गर्मी तो अपने लखनऊ में भी पड़ती थी…लेकिन उमस नहीं होती थी। यहाँ तो दम घुटता हुआ सा महसूस होता है।” यह कहते हुए मिर्ज़ा साहब ने शेरवानी उतार कर खूंटी पर टांग दी और संतोष से बैठकर बातें करने लगे।

इतने में नूरी शीशे के जग में शरबत रूहअफ़ज़ा ले आई।

“आहा..!” रूहअफ़ज़ा देखते ही मिर्ज़ा साहब की बांछे खिल गई। गिलास में जग से शरबत उड़ते हुए वह बोले – “रूहअफ़ज़ा को देखते ही दिलो-दिमाग में ताज़गी का अहसास होने लगता है। मैं तो डर रहा था कि कोई अंग्रेजी शरबत ना हो। अजब ना नामानूस सी खुशबू होती है उन शरबतों में।” यह कहते हुए उन्होंने एक और गिलास चढ़ा लिया।

“शरबत से ही पेट न भर लीजिये अब्बा जान…खाने का वक्त हो रहा है…फिर आप कहेंगे, बस भाई, आज खाना नहीं खाया जाता।” सलमा ने गिलास उनके हाथ से लेते हुए नूरी को संकेत किया कि बाकी बचा हुआ शरबत वापस ले जाये।

नूरी शरबत लेकर वापस चली गई, तो सलमा ने कहा -“बहुत दिनों बाद आये हैं आप, अब मैं दो हफ्ते से पहले आपको करांची वापस न जाने दूंगी।”

“दो हफ्ते..!” मिर्ज़ा साहब ने चौंकते हुए कहा – “अरे भाई मैं तो तुम्हें अपने साथ तुम्हारी फूफी जान के यहाँ ले जाने के लिए आया हूँ।”

“क्यों?” सलमा ने प्रश्नसूचक दृष्टि से देखते हुए पूछा।

“क्यों क्या….मैं हज के लिए रवाना होने ही वाला था कि रशीद मियां का खत पहुँचा कि वह किसी सरकारी काम पर बाहर जा रहा है और तुम पीछे घर में अकेली हो। इसलिए तुम्हें लेने चला आया। मालूम होता है, इस साल भी ख़ुदा को हज करवाना मंजूर नहीं है। लखनऊ में था, तभी से इरादे कर रहा हूँ और हर साल कोई ना कोई रुकावट आ पड़ती है। देखो कब बुलाते हैं सरकारे-दो-आलम अपने आस्ताने पर।” मिर्ज़ा साहब ने ठंडी सांस लेते हुए कहा।

सलमा जब बोल उठी – “आप हज करने चले जाइये। मेरी फ़िक्र न कीजिये।”

“तुम्हें अकेली छोड़कर?”

“अकेले क्यों? नूरी है…खानसामा है…और पास-पड़ोस वाले सभी हमदर्द हैं…मैं यहाँ बड़े आराम से रहूंगी। फूफीजान पर ख्वाह-म-ख्वाह बोझ पड़ेगा।”

“लाहौल विला कुव्वात! इसमें बोझ की क्या बात है? तुम्हारी अम्मी के मरने के बाद उन्होंने तुम्हें अपनी औलाद की तरह पाला है। तुम उन पर बोझ बन सकती हो?” मिर्ज़ा साहब ने कुछ गंभीर होकर कहा। फिर थोड़ा रुक कर बोले – “और फिर तुम तो आप उनकी सगी भतीजी हो। हम लखनऊ वाले तो अजनबी मेहमानों की खातिर तवाजो में जिस्मो जान एक कर देते हैं। मगर तुम क्या जानो जाने आलम पिया के लखनऊ की तहजीब को? तुमने तो पाकिस्तान म आँखें खोली है। अल्लाह अल्लाह क्या लोग थे, क्या शांति थी, क्या वजजा थी उनकी…मुँह खोलते थे, तो फूल झड़ते थे…दुश्मन को भी ‘आप’ ‘जनाब’ कहकर पुकारते थे। मज़ाल है कि कोई नमुनसिब हर्फ़ भी ज़बान से निकल जाये। बच्चे जवान बूढ़े सभी तहजीब और शांति के सांचे में ढले हुए थे हाय –

“वह सूरतें खुदाया किस देश बस्तियाँ हैं,

अब जिनके देखने को आँखें तसरतियाँ है।“

मिर्ज़ा साहब ने शेर पढ़कर एक गहरी सांस ली और सलमा सहानुभूति भरी दृष्टि से उनकी ओर देखती बोली – “अब्बा जान! आप लखनऊ को किसी वक्त भूलते भी हैं या हर वक्त उसी की याद में खोये रहते हैं?”

“बेटी! अपने वतन को कोई कभी नहीं भूलता और फिर लखनऊ जैसे वतन को…जहाँ का हर मोहल्ला-कूचाय वाहिष्ट से कम नहीं था… हर गोशा रश्के चमन था। हज़रत यूसुफ अलै-अस्सआलम मिस्र में बादशाही करते थे और कहते थे कि इस अजीब शहर से मेरा छोटा सा गाँव कितना बेहतर था…और मैं तो लखनऊ छोड़कर आया हूँ बेटी… अमनो-सुकून का गहवारा, शेरो अदब का गुलिस्तां, तहजीबो तमद्दन का मस्कन…और यहाँ आकर मुझे क्या मिला…आये दिन की अफ़रातफरी…हंगामे…शिया सुन्नी फसादात…सिंधी हिंदुस्तानी झगड़े…हुकूमतों की बार-बार तब्दीलियाँ….हिंद पाक जंगें…, बमबारी, तोपों की घन गरज…खून खराबा…सच पूछो तो ऊब गया हूँ। जी चाहता है कि पर लग जायें और मैं यहाँ से उड़कर फिर लखनऊ पहुँच जाऊं। ना यहाँ वह आबोहवा है न वह जौक शौक…हर चीज अजनबी-अजनबी सी लगती है।”

दोनों बाप बेटी कितनी देर तक बातचीत करते रहे, इसका उन्हें अनुमान ना हो सका। वह चौंक तब, जब नूरी ने आकर सूचना दी कि खाना तैयार हो गया है। सलमा उठते हुए बाप से बोली – “चलिए आज आपको लखनवी मुंत्तजन और बिरयानी खिलाती हूँ। आपको लखनऊ बहुत याद आ रहा है ना। इत्तेफाक़ से आज मेरा भी इन्हीं खानों के लिए जी चाहा। मुझे क्या मालूम था कि मेरे प्यारे अब्बा जान आ रहे हैं और मैं उनके लिए बना रही हूँ। चलिए हाथ मुँह धो लीजिए। तब तक नूरी खाना मेज पर लगा देगी।” और फिर वह बाप को बाथरूम की ओर ले जाती हुई ऊंची आवाज में नूरी से बोली – “अरी नूरी ज़रा जल्दी से मेज पर खाना लगा दे।”

नूरी ने जल्दी-जल्दी मेज पर खाना सजा दिया। मिर्ज़ा साहब जब हाथ मुँह धोकर मेज के सामने आये, तो खानों की सुगंध पर फड़क उठे और बोले – “सुभान अल्लाह! यह मेरे लखनऊ की खुशबू है…दुनिया वालों को यह खाने कहाँ नसीब?” और मेज़ पर बैठकर बिस्मिल्लाह कहकर खाने पर टूट पड़े। लेकिन फिर अचानक उन्हें कुछ ध्यान आया और हाथ रोकते हुए बोले – “अरे हाँ….तुम्हें पूछना ही भूल गया कि रशीद मियां खान और कितने दिन के लिए गए हैं। खत में तो उन्होंने कुछ लिखा ही नहीं था।”

सलमा ने उनकी बात का उत्तर देने से पहले क्षण भर के लिए सोचा और फिर बाप की प्लेट पर नींबू के अचार का एक टुकड़ा डालते हुए धीरे से बोली – “आप तो जानते हैं अब्बा जान…वह फौजी अफसर हैं और फौजी लोग अपनी बीवी तक को नहीं बताते कि वह कहाँ और क्यों जा रहे हैं, अल्लाह जाने इस वक्त कहाँ होंगे।”

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रशीद ने टैक्सी से झांककर देखा। पहाड़ी के आंचल में छोटे-छोटे सुंदर बंगले बिखरे हुए थे। उससे टैक्सी वाले को वहीं रुकने के लिए कहा और किराया चुकाकर  नीचे उतर पड़ा, फिर वह शाही चश्मे के टूरिस्ट लॉज की खोज में आगे चल पड़ा।

लॉज की दीवारों पर खुदे नंबरों को पड़ता हुआ वह नंबर चार की ओर बढ़ने लगा। उसके दिल की धड़कन बढ़ने लगी। किसी अज्ञात डर से उसके माथे पर पसीने की बूंदें उभर आई। विचारों में खोया वह वहाँ पहुँच गया। लॉज के अंदर जाने से पहले वह एक पल के लिए रुका और उसने जेब से पूनम की तस्वीर निकाल कर देखी। एक बार फिर वह विचार आप उसके मस्तिष्क में आया कि अगर पूनम के मन में उसके प्रति संदेह उत्पन्न हो गया, तो वह क्या करेगा। उसका शरीर कांप उठा।

दरवाजे के पास पहुँचकर उसने दस्तक दी। एक कश्मीरी खानसामा बाहर आया और इससे पहले कि वह उससे कुछ पूछता, वह खुद ही बोल पड़ा – “आप कप्तान साहब है न…कप्तान रणजीत?”

“हाँ!”

“मेम साहब तो कब से आपका इंतज़ार कर रही हैं।”

“कहाँ है पूनम?” रशीद ने अंदर आकर थरथराती आवाज में पूछा।

“वह सामने बगीचे में।” खानसामा ने उधर संकेत किया, जहाँ एक पेड़ के नीचे कुर्सी बिछाये एक सुंदर लड़की बैठी स्वेटर बन रही थी।

पूनम की तस्वीर को जीते जागते रूप में देखकर उसका दिल धड़कने लगा। उसने खानसामा से नज़र मिलाई, जिसके चेहरे पर एक शरारत भरी मुस्कुराहट छिपी हुई थी। रशीद झट पलटा और पूनम की ओर हो लिया।

पूनम के पास पहुँचकर वह ठिठक कर सोचने लगा कि उसे किस नाम से पुकारे। पता नहीं रणजीत उसको कैसे संबोधित करता था। मन ही मन यह निर्णय करके कि उसको पूनम ही कहकर पुकारना उचित होगा, वह आगे बढ़ा। घास पर सूखे पत्तों में हल्की-सी चरमराहट उत्पन्न हुई और पूनम ने झट पलट कर देखा। रणजीत को सामने देखकर बेचैनी से वह कुर्सी से उठी और स्वेटर उसके हाथों से नीचे गिर पड़ा। रशीद ने झुककर स्वेटर उठा लिया और पूनम की ओर बढ़ाता हुआ मुस्कुरा दिया। पूनम ने थरथराते होठों से पुकारा – “रणजीत!”

“हाँ पूनम… तुम्हारा रणजीत!” रशीद में अपने कोट का कॉलर ठीक करते हुए कहा।

“विश्वास नहीं हो रहा।” वह थोड़ा पास आते हुए बोली।

“किस बात का?”

“तुम मेरे सामने खड़े हो।” वह उसे सिर से पैर तक निहारते हुए बोली।

“तुम्हारी पूजा सफल हुई। जो दिये, तुमने मेरी प्रतीक्षा में जलाये थे, उनके प्रकाश के सहारे में तुम तक चला आया।”

“जाइए बातें ना बनाइए। आज दस दिन हो गए आपको ये हुये, मिलने तक नहीं आये।”

“खबर तो भिजवा दी थी ना!”

“इतनी कठोर प्रतीक्षा की कीमत केवल एक खबर से चुकाना चाहते हैं?”

“नहीं पूनम एक बंदी सिपाही जो दुश्मनों की दया से छूट कर आया हो, वह तुम्हारी प्रतीक्षा कीमत क्या चुका सकेगा!”

“यह कैसी बेतुकी बातें कर रहे हैं?”

“बेतुकी नहीं…वास्तविकता है। किसी से नज़र मिलाने को जी नहीं चाहता। क्या-क्या उम्मीदें लेकर गया था युद्ध में? कैसे-कैसे योजनायें बनाई थी, लेकिन सब।” कहते कहते रशीद का गला भर आया और वह आगे कुछ ना कह सका।

पूनम प्यार से उसे देखती है बोली – “युद्ध और प्रेम में तो वह होता ही है।”

“हाँ पूनम…हाँ…बस तुम्हारे प्रेम का सहारा था, जिसने मेरे विश्वास को मजबूत रखा…आशाओं के दिये नहीं बाद बुझने दिये। जब कभी उदास होता था, तुम्हें याद कर लेता था। तुम्हारी मधुर आवाज मेरी कैद के अंधेरों को उजालों में बदल देती थी।”

यह कहते हुए रशीद के पूनम का दिया हुआ सिगरेट लाइटर जेब से निकालकर ऑन कर दिया और पूनम की आवाज को उसके कानों तक ले गया। पूनम ने अपनी आवाज सुनने के बाद अचानक पूछ लिया – “लेकिन आपकी आवाज को क्या हुआ?”

रशीद क्षण भर के लिए इस प्रश्न पर घबरा गया, किंतु झट अपने आप को संभाल कर बोला – “कैद की कठोरता, खाना-पीना गले पर भी प्रभाव पड़ता है था। कितने दिनों तक तो बीमार रहा। अब तुम्हारे पास आया हूँ, सब ठीक हो जायेगा।”

“यहाँ कब तक रहना होगा?”

“एक महीना। तभी जाकर छुट्टी मिलेगी। हाँ पूनम…तुम माँ से भी मिलने गई कभी? कैसी है वह?”

“दो दिन की छुट्टी लेकर गई थी। बहुत दिनों से बुखार आ रहा था उन्हें। आपके आने की खबर सुनते ही अच्छी हो गई है। जानते हो, रेडियो पर तुम्हारा संदेश सुनकर वह कितनी खुश हुई। मंदिर में प्रसाद चढ़ाया, सारे मोहल्ले में मिठाई बांटी और तुम्हारे स्वागत के लिए सारे घर की सफाई करवाई। तब तुम्हारे आने की आस लगाये आँखें बिछाए बैठी हैं।”

“तब तो मेरे ना जाने से निराशा हुई होगी।”

“नहीं, बल्कि मुझे सांत्वना देती रही। किसी सरकारी काम में उलझ क्या होगा मेरा बेटा। आपने चिट्ठी तो लिख दी होगी?” पूनम ने रशीद का हाथ थामते हुए उसकी आँखों में झांका।

पल भर के लिए रसीद का दिल कांपा, लेकिन फिर उसने झट कहा – “नहीं पूनम! कुछ ऐसी व्यस्तता थी कि चिट्ठी भी नहीं लिख पाया। जब जाना होगा, तार दे दूंगा। अभी तो कुछ दिन छुट्टी मिलनी मुश्किल है।”

“क्यों? मैंने तो सुना है, जंगी कैदियों को लौट आने पर जल्दी छुट्टी मिल जाती है।”

“हाँ पूनम, तुम्हें ठीक सुना है। लेकिन मेरा केस कुछ अलग है।”

“वह क्यों?”

“अगले हफ्ते यहाँ यूएनओ और हमारे कुछ बड़े अफसरों की एक मीटिंग होने वाली है, जिसमें कुछ जंगी कैदियों से पूछताछ करेंगे। मुझे भी से रोक लिया गया है।”

“कहीं टाल तो नहीं रहे?” पूनम ने मुस्कुराकर पूछा।

“मैं भला ऐसा क्यों करूंगा? और फिर एक वचन भी तो दिया था।”

“क्या?”

“लड़ाई समाप्त होने पर दस दिन की छुट्टी लेकर हम एक साथ कश्मीर की सुंदर वादियों में रहेंगे।”

“ओह! तो याद है, वह वचन आपको!”

“इसी वचन को निभाने के लिए तो सुरक्षित, जीता जागता तुम्हारे सामने आ गया, वरना ना जाने कब किस दुश्मन की गोली का निशाना बन जाता।”

पूनम ने झट अपना हाथ उसके होठों पर रख दिया और बोली – “उई राम! कैसी बात जबान पर लाते हैं!”

पूनम की ठंडी उंगलियों ने रशीद के गर्म होठों को छुआ ही था कि उसके सारे शरीर में एक बिजली किसी लहर दौड़ गई। एक कंपन उसके बदन में हुई और एकटक वह उसे देखने लगा।

फिर जल्दी उसने अपनी भावनाओं को नियंत्रित किया और बात बदलने के लिए पूछ बैठा –

“तुम्हारी आंटी कहाँ है?”

“बाजार थक गई हैं। अभी लौट आयेंगी।”

“वे जानती है, मैं यहाँ हूँ?”

“हहाँ! इसलिए तो पापा को मना कर मुझे साथ लेकर यहाँ आई हैं।”

“पापा अब कैसे हैं?”

“दो-चार दिन ठीक रहते हैं, फिर वही दौरा…फिर ठीक…यही चक्कर रहता है। समझ में नहीं आता क्या करना चाहिए।”

“मेरी मानो तो उन्हें कुछ दिन के लिए किसी हिल स्टेशन पर ले जाओ।” रशीद ने कहा।

“असंभव! मैं तो एक दिन के लिए भी इस घर को नहीं छोड़ना चाहते।”

“दैट्स बेड लक! अच्छा पूनम अब मैं चलता हूँ।”

“अरे वाह!” पूनम न उसका हाथ पकड़ लिया – “यह क्या, अभी आये और अभी चल दिये। आंटी से नहीं मिलोगे?”

“फिर मिल लूंगा। असल में आज मुझे कमांडिंग ऑफिसर से मिलना है। अभी लंच से पहले वक्त लिया है।”

“फिर कब मिलेंगे?”

“जब तुम चाहो।”

“कल शाम?”

“ओके! लेकिन अबकी बार तुम्हें आना होगा।”

“कहाँ?”

“ओबेरॉय पैलेस होटल…शाम से रात के खाने तक तुम्हें मेरे साथ रहना होगा। जी भर कर बातें करेंगे।”

पूनम ने स्वीकृति में गर्दन हिला दी। इसके पहले की रशीद उससे जाने के लिए अनुमति लेकर उठ खड़ा होता, नौकर गरम-गरम कॉफी के दो प्याले ले आया। रशीद पूनम की आंटी की वापसी से पहले ही वहाँ से खिसक जाना चाहता था, लेकिन पूनम के आग्रह पर कॉफ़ी का प्याला लेकर पीने लगा।

जल्दी-जल्दी कॉपी के घूंट गले के नीचे उतारकर रशीद ने पूनम से विदाई ली और फिर टैक्सी की ओर बढ़ा। दरवाजे में खड़ी पूनम एकटक उसे देखने लगी। रणजीत की चाल में थोड़ी कंपन थी। पूनम को कुछ आश्चर्य हुआ, फिर ना जाने क्या सोचकर वह मुस्कुरा दी।

नौकर को कॉफी के खाली प्याले थमाकर ज्यों ही उसने फर्श पर पड़े उस अधूरे बुने हुए स्वेटर को बुनने के लिए उठाया, उसकी दृष्टि उन सूखे पत्तों के बीच जमकर रह गई, जहाँ कुछ देर पहले उसका रणजीत खड़ा था। पत्तों में आधी छिपी, कुछ सुनहरी की चमक रही थी। पूनम ने झुककर देखा। एक लॉकेट था, जिस पर उर्दू में अल्लाह खुदा हुआ था। पूनम आश्चर्यचकित उसे उठाकर देखने लगी। लेकिन इससे पहले कि वह लपककर रशीद से इस बारे में कुछ पूछती, रशीद की टैक्सी वहाँ से दूर जा चुकी थी।

यह लॉकेट पूनम के लिए पहेली बन के रह गया।

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