चैप्टर 14 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 14 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 14 Manorama Novel By Munshi Premchand

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हुक्काम के इशारों पर नाचने वाले गुरु सेवक सिंह ने जब चक्रधर को जेल के दंगे के इल्ज़ाम से बरी कर दिया, तो अधिकारी मंडल में सनसनी फ़ैल गई। गुरूसेवक सिंह से ऐसे फैसले की किसी को आशा न थीं। फ़ैसला क्या था, मान पत्र था, जिसका एक-एक शब्द वात्सल्य के रस में सराबोर था। जनता में धूम मच गई। ऐसे न्याय वीर और सत्यवादी प्राणी विरले ही होते हैं, सबके मुँह से यही बात निकलती थी। शहर के कितने ही आदमी तो गुरूसेवक के दर्शनों को आये और यह कहते हुए लौटे कि यह हाकिम नहीं, साक्षात् देवता हैं। अधिकारियों ने सोचा था, चक्रधर को चार पांच साल जेल में सड़ायेंगे, लेकिन अब तो खूंटा ही उखड़ गया, उछलें किस बिरते पर? चक्रधर इस इल्ज़ाम से बरी ही न हुए, बल्कि उनकी पहली सजा भी एक साल घटा दी गयी। मिस्टर जिम तो ऐसा जामे से बाहर हुए कि बस चलता, तो गुरुसेवक को गोली मार देते। और कुछ न कर सके, तो चक्रधर को तीसरे ही दिन आगरे भेज दिया। कर्मचारियों को सख्त ताकीद कर दी गई थी कि कोई कैदी उनसे बोलने तक न पाये, कोई उनके कमरे के द्वार तक भी न जाने पाये, यहाँ तक कि कर्मचारी भी उनसे न बोले। साल भर में दस साल की कैद का मज़ा चखाने की हिम्मत सोच निकाली थी। मज़ा यह कि इस धुन में चक्रधर को कोई काम भी न दिया। बस आठों पहर उसी चार हाथ लंबी और तीन हाथ चौड़ी कोठरी में पड़े रहो।

चक्रधर के विचार और भाव इतनी जल्दी बदलते रहते थे कि कभी उन्हें भ्रम होने लगता था कि मैं पागल तो नहीं हुआ जा रहा हूँ। अंत को उस अन्तर्द्वन्द में उनकी आत्मा ने विजय पाई। मन पर आत्मा का राज्य हो गया। मन अन्तर्जगत की सैर करने लगा। वह किसी समाधिस्थ योगी की भांति घंटों इस अंतरलोक में विचरते रहते। शारीरिक कष्टों से अब उन्हें विराग सा होने लगा। उनकी ओर ध्यान देना वह तुच्छ समझते थे। कभी-कभी वह गाते। मनोरंजन के लिए कई खेल निकाले। अंधेरे में अपनी लुटिया लुढ़का देते और उसे एक खोज में उठा लाने की चेष्टा करते। अगर उन्हें किसी चीज की ज़रूरत मालूम होती, तो वह प्रकाश था, इसलिए नहीं कि वह अंधकार से ऊब चुके थे; बल्कि इसलिए कि वह अपने मन में उमड़ने वाले भावों को लिखना चाहते थे। लिखने की सामग्रियों के लिए उनका मन तड़प कर रह जाता। धीरे-धीरे उन्हें प्रकार की भी ज़रूरत न रही। उन्हें ऐसा विश्वास होने लगा कि मैं अंधेरे में भी लिख सकता हूँ। लेकिन लिखने का सामान नहीं; बस यही एक ऐसी चीज थी, जिसके लिए वह कभी-कभी विकल हो जाते।

चक्रधर के पास कभी कभी एक बूढ़ा वार्डर भोजन लाया करता था। वह बहुत ही हँसमुख आदमी था। चक्रधर की प्रसन्न मुझ देखकर दो-चार बातें कर लेता था। उससे उन्हें बंधुत्व सा हो गया था। वह कई बार पूछ चुका था कि बाबूजी चरस तंबाखू की इच्छा हो, हमसे कहना। चक्रधर को ख़याल आया, क्यों न उससे एक पेंसिल और थोड़े से कागज़ के लिए कहूं। कई दिनों तक तो वह संकोच में पड़े रहे कि उससे कहूं या नहीं। आखिर एक दिन उनसे न रहा गया, पूछ ही बैठे – ‘क्यों जमादार यहाँ कहीं कागज़ पेंसिल न मिलेगी।‘

वार्डर ने सतर्क भाव से कहा – ‘मिलने को तो मिल जायेगा; पर किसी ने देख लिया तो?’

इस वाक्य ने चक्रधर को संभाल लिया। उनकी विवेक बुद्धि, जो क्षण भर के लिए मोह में फंस गई थी, जाग उठी। बोले – ‘नहीं, मैं यों ही पूछता था।‘

इसके बाद वार्डर ने फिर कई बार पूछा – ‘कहो तो पेंसिल कागज़ ला दूं? मगर चक्रधर ने हर दफ़ा यही कहा – ‘मुझे ज़रूरत नहीं।‘

बाबू यशोदानंदन को ज्यों ही मालूम हुआ कि चक्रधर आगरा जेल में आ गए हैं, वह उनसे मिलने की कई बार चेष्टा कर चुके थे; पर आज्ञा न मिलती थी। साधारणतः कैदियों को छठे महीने अपने घर के किसी प्राणी से मिलने की आज्ञा मिल जाती थी। चक्रधर के साथ इतनी रियायत भी न की गई थी, पर यशोदानंदन अवसर पड़ने कर खुशामद भी कर सकते थे। अपना सारा ज़ोर लगाकर अंत में उन्होंने आज्ञा प्राप्त कर ही ली – अपने लिए नहीं, अहिल्या के लिये। उस विरहिणी की दशा दिनों-दिन खराब होती जा रही थी। जबसे चक्रधर ने जेल में कदम रखा, उसी दिन से वह कैदियों की सी ज़िन्दगी बसर करने लगी। ईश्वर में पहले भी उसकी भक्ति कम न थी, अब तो उसकी धर्म-निष्ठा और बढ़ गई।

जब वह हाथ जोड़कर आँखें बंदकर के ईश्वर से प्रार्थना करती, तो उसे ऐसा मालूम होता कि चक्रधर स्वयं मेरे सामने खड़े हैं। उसे अनुभव होता था कि मेरी प्रार्थना उस मातृ स्नेह पूर्ण आंचल की भांति, जो बालक को ढक लेता है, चक्रधर की रक्षा करती रहती है।

जिस दिन अहिल्या को मालूम हुआ कि चक्रधर से मिलने की आज्ञा मिल गई है, उसे आनंद के बदले भय होने लगा। यह भी शंका होती थी कि कहीं मुझे उनके सामने जाते ही मूर्छा न आ जाये, कहीं मैं चिल्ला-चिल्लाकर रोने न लगूं।

प्रातः काल उसने उठकर स्नान किया और बड़ी देर तक बैठी वंदना करती रही। फिर यशोदानंदन जी के साथ गाड़ी में बैठ कर जेल चली गई।

जेल में पहुँचते ही एक औरत ने उसकी तलाशी ली और उसे पास के एक कमरे में ले गई। उसका कलेजा धड़क रहा था, उस स्त्री को अपने समीप बैठे देखकर उसे कुछ ढांढस हो रहा था, नहीं तो शायद वह चक्रधर को देखते ही उनके पैरों से लिपट जाती। सिर झुकाये बैठी थी कि चक्रधर दो चौकीदारों के साथ कमरे में आते। उनके सिर कर कनटोप था और देह पर आधी आस्तीन का कुर्ता; पर मुख पर आत्मबल की ज्योति झलक रही थी। उनका रंग पीला पड़ गया था। दाढ़ी के बाल बढ़े हुए थे और आँखें भीतर को घुसी हुई थीं; पर मुख पर एक हल्की मुस्कुराहट खेल रही थी। अहल्या उन्हें देखकर चौंक पड़ी, उसी आँखों से बे-अख्तियार आँसू निकल आये। शायद कहीं और देखती तो पहचान भी न सकती। घबरायी सी उठकर खड़ी हो गई। अब दो के दोनों खड़े हैं, दोनों के मन में हजारों बातें हैं, उद्वार-पर- उद्वार उठते हैं, दोनों एक-दूसरे को कनखियों से देखते हैं, पर किसी के मुँह से शब्द नहीं निकलता। अहिल्या सोचती है, क्या पूछे? इनका एक-एक अंग अपनी दशा आप सुना रहा है। चक्रधर भी यही सोचते हैं, क्या पूछूं उसका एक-एक अंग उसकी तपस्या और वेदना की कथा सुना रहा है।

इसी असमंजस और कंठावरोध की दशा में खड़े-खड़े दोनों को दस मिनट हो गये। यहाँ तक कि उस लेडी को उनकी दशा पर दया आयी, घड़ी देखकर बोली – ‘तुम लोग यों ही कब तक खड़े रहोगे? दस मिनट गुजर गये, केवल दस मिनट बाकी हैं।’

चक्रधर मानो समाधि से जाग उठे। बोले – ‘अहिल्या, तुम इतनी दुबली हो? बीमार हो क्या?’

अहिल्या ने सिसकियों को दबाकर कहा, “नहीं तो! मैं बिल्कुल अच्छी हूँ, आप अलबत्ता इतने दुबले हो गए हैं कि पहचाने नहीं जाते।‘

चक्रधर – ‘खैर! दुबले होने के तो कारण हैं; लेकिन तुम क्यों ऐसी घुली जा रही ही? कम से कम अपने को इतना तो बनाये रखो कि जब मैं छूटकर आऊं, तो मेरी कुछ मदद कर सको। अपने लिए नहीं, तो मेरे लिए तुम्हें अपनी रक्षा करनी चाहिए। बाबूजी तो कुशल से हैं?’

अहिल्या – ‘हाँ, आपको बराबर याद करते हैं, मेरे साथ वह भी आये हैं। पर यहाँ नहीं। आजकल स्वास्थ भी बिगड़ गया है; पर आराम न करने की उन्होंने कसम खा ली है। बूढ़े ख्वाजा महमूद से न जाने किस बात पर अनबन हो गई है। आपके चले जाने के बाद कई महीने तक खूब मेल रहा, लेकिन अब फिर वही हाल है।‘  

अहिल्या ने वे बातें महत्व की समझकर न कही; बल्कि इसलिए कि वह चक्रधर का ध्यान अपनी तरफ से हटा देना चाहती थी। चक्रधर विरक्त होकर बोले – ‘दोनों आदमी फिर धर्मांधता के चक्कर में पड़ गए होंगे। जब तक हम सच्चे धर्म का अर्थ न समझेंगे, हमारी यही दशा रहेगी। घर का तो कोई समाचार न मिला होगा?’

अहिल्या – ‘मिला क्यों नहीं, बाबूजी हाल ही में काशी गए थे। जगदीशपुर के राजा साहब ने आपके पिताजी को ६०/- मासिक बांध दिया है, आपकी माताजी रोया करती हैं। छोटी रानी साहिबा की आप के घर वालों पर विशेष कृपादृष्टि है।’

चक्रधर ने विस्मित होकर पूछा – ‘छोटी रानी साहिबा कौन?’

अहिल्या – ‘रानी मनोरमा, अभी थोड़े दिन हुए, राजा साहब का विवाह हुआ है।‘

चक्रधर – ‘यह तो बड़ी दिल्लगी हो गई, मनोरमा का विवाह विशाल सिंह के साथ! मुझे तो अब भी विश्वास नहीं आता। बाबूजी ने नाम बताने में गलती की होगी।‘

अहिल्या – ‘बाबूजी को स्वयं आश्चर्य हो रहा था। काशी में भी लोगों को बड़ा आश्चर्य है। मनोरमा ने अपनी खुशी से विवाह किया है, कोई दबाव न था। सुनती हूँ, राजा साहब बिल्कुल उसकी मुट्ठी में हैं। जो कुछ वह कहती है, वही होता है। बाबूजी चंदा मांगने गए थे, तो रानी जी ने ही पांच हजार दिये। बहुत प्रसन्न मालूम होती थीं।‘

सहसा लेडी ने कहा – ‘वक़्त पूरा हो गया।’

चक्रधर क्षण भर भी और न ठहरे। अहिल्या को तृष्णापूर्ण नेत्रों से देखते हुए चले गए। अहिल्या ने सजल नेत्रों से उन्हें प्रणाम किया और उनके जाते ही फूट-फूट कर रोने लगी।

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