चैप्टर 4 वापसी : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 4 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 4 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

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चूचू की मधुर ध्वनि से सलमा की बालकनी में झुका हुआ जामुन का वृक्ष जैसे जाग उठता। नन्ही-नन्ही चिड़िया की ये चहचहाट उसे बहुत प्रिय लगती। एक बार उन झुकी हुई शाखाओं द्वारा चोरों ने उसके घर में घुसने का प्रयत्न किया था, तो मेजर रशीद ने उसे कटवा देना चाहा था, परंतु सलमा ने उन शाखाओं काटने नहीं दिया था। बड़े भोलेपन से उसने पति से कहा था, “चोरों के डर से हम इन गरीब चिड़ियाओं का बसेरा क्यों उजाड़ें।सोचिए, कितनी बद्दुआयें देंगी। अब्बा जान कहते हैं, सुबह सिर्फ इंसान ही ख़ुदा को याद नहीं करते, बल्कि ये चरिंदे-परिंदे भी उसकी मदद करते हैं। यह चिड़िया भी अल्लाह का नाम लेती है और इससे घर में बरक़त होती है। इंशा अल्लाह हमारे घर में चोर कभी चोरी करने में कामयाब नहीं सकते।”

यही चिड़िया हर रोज चहककर उसे जगाती है। बस सवेरे उठते ही सबसे पहले मुट्ठी भर चावल लेकर बालकनी में डाल देती। चिड़िया जामुन की टहनियों से खुद आकर बालकनी में आती और दाना चुगने लगती है।

नीति की तरह आज भी, जब सुबह के अंधेरे में चिड़ियों की चहचहाहट उसके कानों में गूंजी, तो उसने आँखें बंद किए ही करवट ली और आदत के अनुसार पति की और अपना दांया हाथ बढ़ाया। लेकिन उसका पति वहाँ कहाँ था? सलमा ने चौंककर आँखें खोल दी और आश्चर्य से खाली बिस्तर को देखने लगी। फिर हड़बड़ा कर उठ बैठी और चारों ओर दृष्टि घुमाकर देखने लगी। मेजर रशीद कहीं सामने दिखाई नहीं दिया, उसने सोचा, इतना सवेरे तो वे स्वयं कभी बिस्तर नहीं छोड़ते, वही उन्हें उठाती थी और वह उठते ही चाय पीते थे…फिर अचानक यह सोचकर वह मुस्कुरा दी कि शायद वह रणजीत भाई के पास चले गए हों। यह विचार आते ही वह झट उठी और बिखरे बालों को हाथों से संवारती हुई, दोनों के लिए चाय बनाने रसोई घर में चली गई।

सलमा जब चाय की ट्रे लिए गेस्ट रूम में आई, तो उसने देखा कि कैप्टन रणजीत तो आइने के सामने बैठा दाढ़ी बना रहा था, किन्तु मेजर रशीद वहाँ नहीं थे। उसने गुड मॉर्निंग भाईजान कहते हुए ट्रे मेज पर जमा दी और कुछ विचलित स्वर में पूछा, “वह कहाँ गए?”

“अभी-अभी तो यहीं थे…शायद बाथरूम में होंगे।” रणजीत ने बिना उसकी ओर देखे हुए उत्तर दिया।

“आज आदत के खिलाफ़ वे बहुत सवेरे उठ गए…शायद आपकी वजह से।” सलमा ने कहा और प्याले में चाय उड़ेलने के लिए चायदानी से टोकोजी हटाते हुए बोली, “आप चाय पीजिए…ठंडी हो जायेगी।”

“नहीं नहीं। जल्दी क्या है…उन्हें उठ जाने दीजिए।” रणजीत ने दोबारा दाढ़ी पर साबुन लगते हुए कहा।

“वे बाथरूम में बहुत देर लगाते हैं।” सलमा ने टिकोजी एक ओर रख दी और कुछ रुककर बोली, “उनके लिए दोबारा बन जायेगी।”

“ओ. के. बना दीजिये।” रणजीत ने कहा।

“शहद के साथ लेंगे या शक्कर डालूं?” सलमा ने चम्मच उंगलियों में घुमाते हुए पूछा।

“शहद के साथ, बगैर दूध की।”

सलमा ने आश्चर्य से उसे देखा और प्याले में शहद डालते हुए बोली, “कुछ भी तो फर्क नहीं, आपमें और उनमें। आदतें भी दोनों की एक सी है।”

“हमशक्ल जो ठहरे…कौन-कौन सी आदतें मिलती हैं हमारी?”

“वह भी तो शहद के साथ बगैर दूध की चाय पीते हैं, आपकी तरफ ही मुस्कुराते है… बात करने का लहज़ा भी वही है।”

“और..?”

“कितनी ही बातें गिनाऊं…उन्हें भी फौजी ज़िन्दगी पसंद है…वह भी इतने ही कट्टर पाकिस्तानी हैं, जितने कट्टर हिन्दुस्तानी आप है…वतन की खातिर जान कुर्बान करना वे भी फ़क्र समझते हैं और आप भी..! उन्हें भी मार-धाड़ और लड़ाई पसंद है और आपको भी…हालांकि शक्ल-सूरत से आप दोनों कोमल दिल के, भोले-भाले फ़रिश्ते जैसे ही दिखाई देते हैं।”

सलमा ने चाय तैयार कर प्याला रणजीत की ओर बढ़ा दिया। रणजीत ने तौलिये से चेहरा साफ किया और उसके हाथ से प्याला लेते हुए बोला, “आपको क्या जंग पसंद नहीं है?”

“जंग..!” इस शब्द को दोहराते हुए सलमा ने एक झुरझुरी सी महसूस की। उफ्फ, जंग का नाम ही कितना भयानक है…कितनी सुहागिनें बेवा हो जाती हैं…कितनी माओं की कोख उजड़ जाती हैं, कितने मासूम बच्चे यतीम हो जाते हैं…कहते-कहते वह भावुक हो गई और फिर रणजीत से नज़रें मिलाते हुए बोली, “मगर आप तो जब किसी पाकिस्तानी सिपाही को मारते होंगे, तो बड़े ख़ुश होते होंगे। यह नहीं सोचते होंगे कि वह भी किसी माँ का लाल होगा, किसी बहन का भाई होगा और किसी सलमा का शौहर, जो तन्हा अपने घर में उसके इंतज़ार में आँखें बिछाये बैठी होगी।”

उसने ये सब बातें इतने करुण स्वर में कही थी कि रणजीत का भी जी भर गया , लेकिन उसने सलमा को चुप कराने के लिए कहा, “तो आप क्या आप समझती हैं कि आपके शौहर जब किसी हिंदुस्तानी सिपाही को मारते होंगे, तो उन्हें इसी तरह की ख़ुशी नहीं होती होगी।”

“यह मैंने कब कहा?” सलमा ने अपनी बात की व्याख्या करते हुए जल्दी से कहा, “फौजी चाहे पाकिस्तानी हो या हिंदुस्तानी…मैं दोनों को एक जैसा ही समझती हूँ। मेरे शौहर ने भी ना जाने कितनी माँओ कि कोख उजाड़ी होगी…कितनी सती सावित्री औरतों की मांग का सिंदूर पोंछा होगा।”

“तब तो रशीद भाई से आपका अक्सर झगड़ा हो जाता होगा।” रणजीत ने मुस्कुराकर पूछा।

“ना बाबा…यह तो आपके सामने अपने दिल की भड़ास निकाल दी। वह होते तो अब तक जंग और अमन तथा वतनपरस्ती व कौमी खिदमत पर एक लंबा चौड़ा लेक्चर झाड़ दिए होते। ‘अपने वतन के लिए हमें मरना चाहिए। भारत लाहौर को फतह करने के ख्वाब देखते हैं, तो हम दिल्ली के लाल किले पर अपना झंडा फहरायेंगे।’ जब कौम और वतन पर वे बोलते हैं, तो जोश से उनका चेहरा लाल भूबुका हो जाता है और मैं डर के मारे उनके सामने से भाग जाती हूँ। एक बार तो ऐसी भागी कि गलियारे के पायंचे में उलझकर गिर पड़ी और वह जोर से हँस पड़े।”

कैप्टन रणजीत अनायास ठहाका मारकर हँसने लगा और हँसते-हँसते दोहरा हो गया…फिर अचानक उसके पास आता हुआ प्यार से बोला, “कितनी प्यारी हो तुम सलमा!”

सलमा को अचानक बिजली का सा झटका लगा। उसने उसकी आँखों को पढ़ने का प्रयत्न किया और क्रोध भरी निगाहों से रणजीत को देखने लगी।

“क्या बात है सलमा?” कहता हुआ रणजीत फिर उसकी ओर बढ़ा।

“वहीं रुक जाइए रणजीत भाई।” सलमा ने गरज कर कहा।

“बार-बार भाई मत कहो मुझे वरना निकाह टूट जायेगा।” रणजीत ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “मैं तुम्हारा भाई नहीं शौहर हूँ मेजर रशीद!”

सलमा फूटी-फूटी आँखों से उसे देखने लगी। असीम आश्चर्य से अवाक वह एकटक उसे ताकती रह गई। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि वह व्यक्ति जिसे अब तक वह रणजीत समझकर बातें कर रही थी, असल में उसका पति मेजर रशीद है।

“यकीन नहीं आ रहा है?” मेजर रशीद ने मुस्कुराते हुए पूछा।”

“लेकिन आपकी मूँछे?” असमंजस में वह बड़बड़ाई।

“यह मेरे मूछों का जनाज़ा…!” मेजर रशीद ने मेज पर से अपने मूँछों के बालों का गुच्छा उठाकर पत्नी को दिखाया और मुस्कुराते हुए बोला, “अब तो यकीन आया तुम्हें?”

“हाय अल्लाह! तो आपने मुझे बेवकूफ बनाने के लिए मूँछे साफ कर दी।” सलमा ने झेंपते हुए कहा।

“तुम्हें नहीं…हिंदुस्तान को। अब मुझे पूरा यकीन हो गया है कि जब मेरी बीवी मुझे नहीं पहचान सकी, तो हिंदुस्तान में भला मुझे कौन पहचानेगा।” मेजर रशीद ने अपनी सफ़लता पर गर्व से छाती फुलाते हुए कहा।

“मैं समझी नहीं, रणजीत भाई कहाँ है?”

“उसे दोबारा कह दिया कि कैंप में पहुँचा दिया गया है।”

बात सलमा की समझ में आ गई, तो आश्चर्य से उसकी आँखें फट गई। उसने कुछ अप्रसन्न दृष्टि से पति को देखा और गंभीर होकर बोली, “अब समझी आपके इरादे। तो आप इसलिए उसे भाई बना कर लाये थे। आप उसकी आड़ में जासूसी करने हिंदुस्तान जायेंगे।”

“दैट इज़ करेक्ट…” मेजर रशीद ने मुस्कुरा कर कहा, “फौजी अफसर की बीवी को इतना तो इंटेलिजेंट होना ही चाहिए।”

“लेकिन यह तो धोखा हुआ।” सलमा ने मुँह बना कर कहा।

“मोहब्बत और जंग में सब कुछ जायज़ है।”

“लेकिन जंग तो खत्म हो चुकी है?”

“नहीं जंग खत्म नहीं हुई, रुक गई है। दुनिया की कोई जंग खत्म नहीं होती, रुक जाया करती है। दम लेने के लिए..दोबारा जंगी की तैयारियाँ करने के लिए…और जब तक की तैयारियाँ होती रहती है, गर्म जंग की तरह सर्द जंग होती रहती है। अभी हिंदुस्तान से हमारी सर्द जंग शुरू होगी…और जब तैयारियाँ पूरी हो जायेगी तो फिर गर्म जंग शुरू हो जायेगी।”

“और फिर खून की होली खेली जायेगी।” सलमा मैं दुखी और गंभीर मन से कहा, “हरे भरे खेतों में आग लगाई जायेगी…इंसान शैतान बन जाएयेगा।”

“मैंने कहा ना, मोहब्बत और जंग में सब कुछ जायज़ है।” मेजर रशीद ने त्यौरी चढ़ाकर कहा, फिर ऊँची आवाज में बोला, “दुनिया में जलजले आते हैं, तो सैकड़ों  इंसान मर जाते हैं…तूफान आते हैं तो सैकड़ों जहाज डूब जाते हैं….महामारी फैलती है तो अनगिनत आदमी मौत के मुँह में चले जाते हैं….तो फिर अगर मुल्क की हिफाज़त और कौम कि सरबुलंदी की खातिर लाख दो लाख जवान काम आ जायें,  तो कौन सी बड़ी बात है। ऐसे मौकों पर अगर वतन के जवान हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और तुम्हारी तरह अमन के राग अलापते रहे, तो सारी दुनिया बुजदिल और नामर्द कह-कहकर उनके मुँह पर थूकेगी।” यह कहते हुए आवेश थे मेजर रशीद का चेहरा लाल हो गया। सलमा ने पति की भावना का विचार करते पर विवाद करना उचित नहीं समझा और चुपचाप पलट कर अपने कमरे में जाने लगी।

मेजर रशीद ने झपट कर उसे रोका और बोला, “देखो सलमा! इस बात का इल्म हम दोनों के सिवाय किसी और को नहीं होना चाहिए…मुझे परसो सुबह कैदियों के इस जत्थे के साथ जाना होगा। मैं अभी नाश्ता करके कैंप में लौट जाऊंगा और फिर वापस आने पर ही तुम्हें मिलूंगा।”

सलमा चुपचाप उसे देखती रही. उसके जाने की खबर सुनकर उदास हो गई थी. उसकी आँखों की कोरों में आँसू झिलमिलाने लगे थे।

“अरे रोने लगी… तुम्हें तो हँसते हुए मुझे विदा कहना चाहिए।” मेजर रशीद ने सलनस को आलिंगन में ले लिया।

“मैं अकेली कैसे रहूंगी?” सलमा ने बुझे हुए मन से कहा।

“इसकी तो फ़िक्र ना करो…मैं तुम्हारे अब्बा जान को खत लिख दिया है…वह  करांची से आकर तुम्हें साथ ले जायेंगे। जब तक मैं वापस न लौटू, तुम मायके ही में रहना।”

“जी नहीं.. .मैं कहीं नहीं जाऊंगी। अपने ही घर में रहकर आपकी वापसी का इंतज़ार करूंगी। आपकी याद मेरे साथ रहेगी। मेरे लिए यही काफ़ी है।”

“खैर जैसा तुम मुनासिब समझो।” मेजर रशीद सिगरेट का एक जोरदार कश लेते हुए कहा…फिर सिगरेट को एश ट्रे में बुझा कर खड़े होते हुए बोला, “मैं नहाने जाता हूँ, तुम जल्दी से मेरे लिए नाश्ता तैयार कर दो। ” ये कहकर वह बिना सलमा की ओर देखे ही जल्दी से बाथरूम में घुस गया। सलमा ने निराश दृष्टि से बाथरूम के बंद होते हुए दरवाजे की ओर देखा और चिंता में डूबी बोझिल कदमों के साथ बाहर चली गई।

मेजर रशीद जाने की तैयारी पूरी करने के बाद खाने की मेज पर चला आया। उसके चेहरे पर गंभीरता छाई हुई थी। खाने पर दृष्टि डालकर उसने पास खड़ी सलमा की ओर देखा, जो आँखें झुकाए हुए चुनरी का सिरा उंगलियों में मरोड़ रही थी। उसने बलपूर्वक मुस्कुराने का प्रयत्न करते हुए सलमा से कहा, “आओ नाश्ता कर ले।”

“आप कीजिए…मैं बाद में कर लूंगी ।” सलमा ने बुझी आवाज में कहा।

“क्यों?” मेजर रशीद ने उसकी आँखों में देखते हुए पूछा।

“भूख नहीं है मुझे।”

“तो लो, मुझे भी भूख नहीं।” यह कहते हुए वह एक झटके से कुर्सी छोड़कर खड़ा हो गया।

“अरे रे..यह क्या! खुदा के लिए नाश्ता कर लीजिए, भूखे पेट घर से नहीं जाते।

“तो तुम्हें भी मेरे साथ खाना पड़ेगा।”

पति की हाठ के सामने सलमा की एक न चली। उसने अनमने मन से मिठाई का एक टुकड़ा उठाकर उंगली में दबा लिया। लेकिन इसके पहले कि वह उसे होठों तक ले जाती रशीद ने एक बड़ा सा कबाब उठाया और उसके मुँह में ठूंस दिया। वह थोड़ी कसमसाई…लेकिन ज्यों ही पति का हाथ गुदगुदी करने के लिए उसकी ओर बढ़ा, वो खिलखिला कर हँस पड़ी। यह सोच कर कि विदा होते समय के मन पर कोई बोझ न  हो, वह नाश्ते के लिए उसके साथ ही बैठ गई।

नाश्ता कर चुकने के बाद रशीद ने बड़े प्यार से सलमा देखा और हाथ से उसकी ठोड़ी को छूता हुआ बोला, “तो अब मैं जाऊं?”

“मैं आपको अपने फर्ज से कैसे रोक सकती हूँ?”

“तो अलविदा ना कहोगी…!” उसने सलमा को अपने निकट खींचते हुए कहा।

‘अलविदा’ शब्द सुनकर वह क्षण भर के लिए कंपकंपा गई, फिर डरती हुई बोली, “नहीं!”

“क्यों?” मेजर रशीद ने आश्चर्य से पूछा।

“मुझे इस लफ्ज़ से नफ़रत है। इससे जुदाई की बू आती है। अल्लाह करे, आप मुझसे कभी जुदा ना हो। जाइए, खुदा आपको सलामत रखे।”

“अच्छा खुदा हाफिज़।” मेजर रशीद ने भावना को काबू में करते हुए पत्नी को भींच कर गले से लगाया और झटके से पलट का तेजी से बाहर निकल गया।

सलमा एक फड़फड़ाते पक्षी के समान दरवाजे तक आकर रुक गई। उसके होंठ कंपकपी रहे थे और पलकों पर आँसू झिलमिला रहे थे।

कुछ क्षणों में उसके सरताज की जीप से ओझल हो गई तो उसे लगा, मानो ब्राह्मण एकाएक स्थिर हो गया हो…सृष्टि की गति रुक गई हो।

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