चैप्टर 9 वापसी : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 9 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 9 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

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रात आधी से अधिक बीत चुकी थी।

रशीद की आँखों में नींद का कहीं पता तक नहीं था। सोने के प्रयत्न में वह बार-बार करवटें बदल रहा था। उसके मस्तिष्क में चिंगारियाँ सी फूट रही थी। अंत में ऊबकर वह बिस्तर से उठ कर आराम कुर्सी पर बैठा और समय बिताने के लिए टेबलेट जलाकर कोई पत्रिका देखने लगा।

जैसे ही उसने पत्रिका खोली, उसकी दृष्टि अपनी हथेली के छालो पर पड़ गई, जो पूनम के आँचल में आग बुझाते समय पड़ गए थे। मरहम लगाने पर भी छालों में हल्की-हल्की जलन हो रही थी। जलन की मिठास से अचानक उसे याद आ गया कि ऐसे ही छाले उसकी हथेली पर पहले भी पड़ चुके थे। सलमा की पहली मुलाकात में भी ऐसे ही मोती उसकी हथेलियों पर डाल दिए थे।

पत्नी की याद आते ही उसका सारा शरीर जैसे किसी अज्ञात आग में झुलस किया….वह तड़प उठा। रात के उस गहन अंधेरे में उसकी कल्पना उसे दो वर्ष पहले की करांची में घटित घटना की तरफ ले गई। सलमा से उसकी पहली भेंट का दृश्य उसकी आँखों के सामने घूम गया।

कैसी छुट्टियों में अपने दोस्त असलम लखनवी से मिलने करांची गया हुआ था। उसे शेरो-शायरी में बिल्कुल रुचि ना थी और इसी कारण वह अपने शायर दोस्त का मज़ाक उड़ाया करता था। उसके विचार से शेर सुनना और सुनाना बेकार आदमियों का काम था। एक दिन वह ना जाने किस मूड में था कि असलम ने उसे फुसला ही लिया। उसने मिर्ज़ा वसीम भाई के मकान पर होने वाले मुशायरा का ज़िक्र इस सुंदरता से किया और उसकी ऐसी रंगीन तस्वीर खींची कि मन ना चाहते हुए भी रशीद उसके साथ मिर्ज़ा जी के घर की ओर चल पड़ा।

आज मिर्ज़ा जी साठवीं सालगिरह थी। इस उपलक्ष में उनके यहाँ एक विशेष मुशायरे का आयोजन किया गया था। असलम रशीद के साथ वहाँ पहुँचा, तो मुशायरा पूरे जोश पर था। ‘वाह वाह सुभान अल्लाह’  ‘माशा अल्लाह’ से सारा हॉल गूंज रहा था। उनकी ओर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया। वे चुपके से आगे जाकर बैठ गये।

मुशायरे के लिए एक छोटा सा मंच बना हुआ था। वास्तव में यह एक ऊँचा चबूतरा था, जिसके बीच में पतला रेशमी पर्दा डालकर उसे पुरुषों और स्त्रियों के लिए दो भागों में विभाजित कर दिया गया था। एनाउंसर जब किसी शायर के बाद शायरा का नाम पुकारता, तो रेशमी पर्दे के पीछे से खनकती हुई किसी नारी की आवाज आती – “मतला अर्ज़ करती हूँ…”

सब सुनने वालों की आँख एक साथ पर्दे पर जम कर रह जाती और कान स्वर व शब्दों का रस लेने के लिए एकाग्र हो जाते। फिर किसी सुंदर शायरा का शरीर पर्दे के पीछे ही इंद्रधनुष के समान उजागर होता, रसिक युवक दिल थाम कर बैठ जाते।

रशीद इस प्रकार के मुशायरे में पहली बार आया था। उसे यह सब एक सुहाना सपना सा लग रहा था। जब कोई शायारा तरन्नुम से अपनी ग़ज़ल सुनाती, तो वह विभोर सा हो जाता और सोचने लगता कि अब तक वह क्यों ऐसे रंगीन मनोरंजन से वंचित रहा।

कितने हसीन तखल्लुस चुने हैं इन शायराओं ने …सबा देहलवी, लैला लखनवी, तरन्नुम बरेलवी, तबस्सुम लाहौरी इत्यादि….उसने मन ही मन सोचा और चुपचाप बैठा गजलें सुनता रहा। अचानक एक शायर को दाद देते हुए असलम लखनवी ने रशीद को देखा और उसे मूर्तिमान बना चुपचाप देख कर टहूका देते हुए कहा, “अमां! तुम घुग्घू बने ख़ामोश क्यों बैठे हो? तुम भी दाद दो।“

और रशीद बेढंगेपन से हर शेर पर ‘वाह वाह सुभान अल्लाह इललला’ की रट लगाने लगा।

“ऊं हूं…इललला नहीं कहते सिर्फ सुभान अल्लाह कहो।” असलम ने उसे टोका।

और अब रशीद ऊँची आवाज में ‘सुभान अल्लाह सुभान अल्लाह’ की रट लगाने लगाने लगा। प्रायः शेर बाद में पढ़ा जाता और रशीद के मुँहह से ‘सुभान अल्लाह’ पहले निकल पड़ता। उसकी इस हरकत पर मुशायरे में एक जोरदार ठहाका हुआ। मिर्ज़ा साहब ने मुँह बनाकर रशीद की ओर देखते हुए कहा, ‘अगर आप दाद देना नहीं जानते, तो मेहरबानी फ़रमा कर ख़ामोश बैठे रहिये।”

“कौन साहब है यह? कोई नये जानवर मालूम होते हैं।” पर्दे के पीछे से हल्के-हल्के ठहाकों में मिली-जुली आवाजें सुनाई देने लगी। कुछ चंचल लड़कियाँ पर्दा हटा-हटा कर रशीद की ओर झांकने लगी।

“ए हे…क्या बांका जवान है।” सबा देहलवी ने झांककर कहा।

“मगर अक्ल से बिल्कुल कोरा मालूम होता है।” लैला लखनवी ने टिप्पणी की। इस पर महिलाओं में फिर एक ठहाका हुआ। तभी अनाउंसर की आवाज गूंजी – “खातून व हजरात! हमा तन हो जाइए। अब मैं मोहतरमा सलमा लखनवी से कुछ सुनाने के लिए अर्ज़ करता हूँ।”

सलमा का नाम सुनते ही लोग संभल कर बैठ गये। असलम रशीद के कान में  कहा –

“अब कोई उटपटांग हरकत ना कर बैठना। यह मिर्ज़ा साहब की साहबजादी हैं।”

“साहब! खूब गज़ल कहती है।” पास बैठे एक साहब ने विचार प्रकट किया।

“खाक कहती हैं….मिर्ज़ा साहब ग़ज़ल कह देते हैं और शोहरत वह कमा रही है। उनके कलाम में मिर्ज़ा साहब का रंग साफ झलकता है।”

तभी सलमा लखनवी की सुरीली आवाज हॉल में गूंज उठी, “मतला समाअत फरमाइए। शायद किसी काबिल हो। अर्ज़ किया है।”

“निगाहों को शराब आँखों को पैमाना बना डाला,

भिरे साकी वे हर महफिल को मयखाना बना डाला।”

“आ हा हा…हर महफिल को मयखाना बना डाला।” एक साहब इतनी जोर से दोहराया कि थोड़ी देर के लिए मुशायरे पर सन्नाटा छा गया और फिर दाद देने का ऐसा सिलसिला चला कि कई आवाजें एक साथ टकराकर खो गई।

सलमान लखनवी बार-बार शेर दोहराए जा रही थी और हर बार ‘मुकर्रर मुकर्रर’ का शोर होता। रशीद परदे की ओंट से सलमा के दैवीय सौंदर्य को निहार रहा था। जब भी वह कोई शेर पड़ती, तो उसका जी दाद देने को चाहता। लेकिन फिर वह यह सोचकर चुप रह जाता कि कहीं कोई अनुचित शब्द उसके मुँह से ना निकल जाये। फिर सलमा ने यह शेर पढ़ा –

“वह उनका नाज़ से बाहें गले में डाल कर कहना

बढ़िया है कहीं के मुझको दीवाना बना डाला।”

तो उससे ना रहा गया और वह अनायास ‘वाह वाह सुभान अल्लाह’ कहता हुआ खड़ा हो गया। मिर्ज़ा साहब ने घूरकर उसे देखा और असलम ने जल्दी से उसे खींचकर कुर्सी पर बैठा दिया। लेकिन उसकी दृष्टि निरंतर सलमा पर जमी हुई थी। सलमा भी हर थोड़ी देर बाद उसकी ओर देख लेती थी।

सलमा मत्ता पढ़कर जब अपने स्थान पर बैठ गई। रशीद को ऐसा अनुभव हुआ जैसे सृष्टि की गति रुक गई हो। उसके बाद भी काफ़ीदेर तक मुशायरा चलता रहा, किंतु रशीद को किसी के कलाम में दिलचस्पी ना रही। वह केवल जी भर कर एक बार सलमा को देख लेना चाहता था।

अचानक छत से लटके झाड़ से एक धमाके की आवाज हुई। एक बल्ब फटा और लोगों की चीख निकल गई। बिजली के शॉर्ट सर्किट से एक चिंगारी निकली और उस झाड़ में आग लग गई। किसी ने लपक कर मेन स्विच ऑफ कर दिया और सारी बत्तियाँ एक साथ बुझ गए।

अंधेरा होते ही पूरे हॉल में खलबली मच गई। बच निकलने के लिए ऐसा कोलाहल मचा कि दरवाजों से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। झाड़ में से अभी तक चिंगारियाँफूट रही थी, उन्हीं चिंगारिओं से मंच पर लगे रेशमी पर्दे में आग लग गई। जलते हुए पर्दे में से एक शोला सलमा की ओर लपका और उसके आंचल में आग लग गई। मिर्ज़ा साहब एकाएक चिल्ला उठे  – “बचाओ बचाओ मेरी सलमा को बचाओ। मेरी बच्ची को बचाओ।”

सलमा शोलों में झपटकी हुए भागी। इसके पहले की आग सलमा को पूरी तरह अपनी चपेट में ले लेती, रशीद अपने स्थान से चीते के समान उछलकर उसके सामने आ गया और तेजी से सलमा के जलते हुए दुपट्टे को खींचकर अपने हाथों से मसल-मसल कर आग बुझाने लगा।

दुपट्टे की आग तो बुझ गई, लेकिन जब रशीद और सलमा ने इतने पास एक दूसरे को देखा, तो दोनों के दिलों में चाहत की चिंगारियाँ सी भर गई। सलमा का उभरता हुआ यौवन घबराहट से पसीना-पसीना हुआ जा रहा था। दुपट्टे के बिना तो वह सचमुच कहर ढा रही थी। रशीद लोगों की परवाह न करते हुए स्थिर खड़ा उसे एकटक ताकता रहा। आखिर सलमा के थरथराते होठों से आवाज निकली – “शुक्रिया!”

इससे पहले की रशीद कोई उत्तर देता, मिर्ज़ा साहब चीखते-चिल्लाते वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने झट अपनी शेरवानी उतारकर बेटी के कंधों पर डाल दी और रशीद से लिपटते हुए बोले- “बरखुरदार! तुमने मेरी इकलौती बेटी की जान बचाई है। मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगा।”

“आप बुजुर्ग हैं, मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं। यह तो मेरा फ़र्ज़ था।” रशीद ने झुलसे हुए दुपट्टे को जमीन पर फेंकते हुए कहा और अपने जले हुए हाथों को देखने लगा।

“हाय अल्लाह! इनके तो हाथ बुरी तरह जल गए हैं। अब्बा जान! इन पर मरहम लगा दीजिये।” सलमा ने घबराकर कहा।

“देख क्या रही हो। जाओ जल्दी से मलहम की डिबिया मेरे अलमारी से उठा लाओ।” मिर्ज़ा साहब ने बेटी से कहा।

सलमा थोड़ी देर में मरहम की डिबिया ले आई। बाहर की भीड़ से बचाकर मिर्ज़ा साहब रशीद को अंदर वाली बैठक में ले आए और सलमा को उसके फफोलों पर मरहम लगाने को कहा। सलमा कुछ शरमाई, तो मिर्ज़ा साहब बोल उठे, “अरे भाई लगाओ लगाओ। शर्माने की क्या बात है? इस हंगामे में मेरा चश्मा कहीं खो गया, वरना मैं ही लगा देता।”

अब्बा की बात सुनकर सलमा ने निगाहें झुका ली और ख़ामोशी से रशीद के हाथों पर मरहम लगाने लगी। थोड़ी देर के लिए मिर्ज़ा साहब बाहर चले गए, तो वह रशीद की ओर देखती धीरे से बोली, “आपने खामखा अपने आप को परायी आग में जला लिया।”

“लेकिन मुझे इसका कोई गम नहीं!”

“क्यों?”

“इतनी दिलकश मुलाकात जो मयस्सर हो गई!”

तभी रशीद का दोस्त असलम उसे ढूंढता हुआ बैठक में आ गया। सलमा ने किसी और की उपस्थिति में वहाँ रुकना उचित न समझा और अनायास अंदर की ओर भाग गई। असलम में अर्थपूर्ण दृष्टि से पहले रशीद को और फिर उस भागते हुए सौंदर्य को देखा और कोई उपयुक्त व्यंग्य का तीर चलाने ही वाला था कि मिर्ज़ा जी को आते देख कर चुप रह गया। झट रशीद के हाथों पर फिर से मलहम लगाते हुए धीरे से बोला, “दोस्त फफोलों के निशान तो इस मलहम से मिट जायेंगे, लेकिन जो घाव तुम्हारे दिल पर लगा है, उसका मरहम कहाँ से लाओगे?”

रशीद याद की सुंदर वादी में ही खोया हुआ था कि अचानक दरवाजे पर किसी जीप गाड़ी की आवाज ने उसे चौंका दिया। कोई इतनी रात गए उससे मिलने क्यों आया है? यह सोचकर वह कुछ डर सा गया।

उसने झट लाइफ ऑफ कर दिया और आराम कुर्सी से उठकर दरवाजे पर चला आया। उसने दरवाजे का पर्दा हटाकर शीशे पर जमी धुंध को साफ किया और बाहर झांकने लगा। मेजर सिंधु की जीप गाड़ी को पहचानने में देर नहीं लगी, जिसमें से शाहबाज उतर कर अंदर की ओर आ रहा था। इतनी रात के शाहबाज को देख कर उसे आश्चर्य हुआ।

जैसे ही शाहबाज ने हौले से दरवाजे पर दस्तक दी, रशीद ने दोबारा कमरे की बत्ती जला दी और हाउस कोट पहनते हुए दरवाजा खोल दिया।

शाहबाज के अंदर आते ही रशीद को सैल्यूट किया और दाएं-बाएं देखता हुआ उसकी ओर बढ़ा। रशीद ने झट दरवाजा बंद करके पर्दा फैला दिया और पलटकर पूछा, “क्या बात है शाहबाज इतनी रात गये?”

“एक ज़रूरी काम से आया हूँ सर!”

“क्या काम है?”

“555 का पैगाम है सर…कल सुबह यूएनओ में रखे जाने वाले सवालों के बारे में यह मीटिंग होने वाली है। उसकी रिपोर्ट रात के पहले हेडक्वार्टर में पहुँचनी चाहिए। यह कहते हुए शाहबाज में जेब से एक पत्र निकालकर रशीद की ओर बढ़ा दिया।

रशीद ने पत्र खोलकर पढ़ा। यह कोड में लिखा हुआ कोई नोट था। नोट पढ़कर उसने शाहबाज को देखा और बोला फिर कहा, “वहाँ पहुँचाने के लिए हमें कहाँ जाना होगा?”

“कल रात 9:00 बजे रुखसाना आपको अपने साथ ले जायेगी, उस अड्डे पर।”

“ऐसी लेकिन तुमको इतनी रात के अपने अफसर कि जीप गाड़ी में नहीं आना चाहिए था।”

“आप इसकी फ़िक्र मत कीजिए साहब! सिंधु साहब से इज़ाजत ले ली थी….अपनी बीमार बीवी को देखने गाँव जा रहा हूँ….सुबह लौटूंगा।”

“तो जाओ…जल्दी से यहाँ से खिसक जाओ।” रशीद ने कहा और आगे बढ़ कर दरवाजा खोल दिया।

शाहबाद में रशीद को फिर सैल्यूट किया और जल्दी से बाहर निकल गया। रशीद ने एक बार फिर उस नोट को पढ़ा और कुछ सोचते में बिस्तर पर आ लेटा। इस समय उसके मन में एक नई चिंता उभर आई थी। जो समय हेड क्वार्टर में सिग्नल के लिए निश्चित किया था, उसी समय पूनम ने उसे अपने यहाँ खाने पर आमंत्रित कर रखा था। इसी असमंजस में बिस्तर पर करवटें लेते हुए उसने सारी रात गुज़ार दी।

दूसरे दिन जब पूनम और उसके आंटी कमला रात के खाने के लिए बेचैनी से उसकी प्रतीक्षा कर रही थी, तो रशीद का अर्दली पूनम के लिए एक संदेश लेकर आया। पूनम ने अर्दली के हाथ से पर्चा लेकर पढ़ा और उसके चेहरे की रंगत बदल गई। आंटी ने पास आकर जब उसकी चिंता का कारण जानना चाहा, तो उसने क्रोध भरे स्वर में बड़बड़ाते हुए आंटी को बताया कि रणजीत इस समय यहाँ नहीं पहुँच रहा। उसने किसी ज़रूरी काम का बहाना बनाकर खाने पर आने से इंकार कर दिया है।

“तुम्हारा रणजीत शायद मुझसे मिलने से घबराता है।” आंटी ने हँसते हुए कहा।

“नहीं आंटी! यह रुखा व्यवहार वे केवल आपके साथ ही नहीं, मेरे साथ भी करते हैं। जब से भी पाकिस्तान से लौटे हैं, जैसे अपने आप में नहीं है।”

“आप ठीक कहती है मेम साहब! रशीद का अर्दली बीच में बोला, “वह सचमुच अपने आप में नहीं है। रात में ठीक से सोते भी नहीं। न वक्त पर नाश्ता, ना खाना…सब कुछ छोड़कर ड्यूटी पर चले जाते हैं। अगर उन्हें कुछ कहे, तो फौरन बिगड़ जाते हैं।”

“खैर! आज बिगड़ें या बुरा माने, मैं अभी खींच कर लाती हूँ। देखती हूँ, कैसे नहीं आते।” कहते हुए पूनम बाहर जाने के लिए तैयार होने लगी।

“कोई फायदा नहीं जाने से मेम साहब।” अर्दली ने उन्हें रोकते हुए कहा।

“क्यों?”

“वे घर पर नहीं मिलेंगे। आठ बजे ही चले गए थे। कह गए थे रात को देर से लौटेंगे।”

पूनम अर्दली की बात सुनकर बुरी तरह झुंझला गई। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अपने दिल की भड़ास कैसे निकाले। उधर रुखसाना के साथ रशीद एक टैक्सी में बैठा बारामुला की सड़क पर जा रहा था।

कुछ देर बाद टैक्सी दो-चार गलियों में से घूमती हुई एक छोटे से गाँव के बाहर आ रुकी। सड़क के किनारे एक टीले पर छोटा सा मकान था। रुखसाना ने उस मकान की ओर संकेत करते हुए रशीद से कहा, “चलिए।’

“बड़ी उजाड़ रास्ता है। कहाँ चलना होगा?” रशीद के चारों ओर देखते हुए कहा।

“बस, उसी मकान तक। वही है पीर बाबा का मकान।” रुखसाना ने टैक्सी से उतरते हुए कहा।

“इस घटिया से मकान में वे रहते हैं?” रसीदें टूटे-फूटे मकान पर घृणा भरी दृष्टि डालते हुए कहा।

“तौबा कीजिए साहब तौबा…बहुत पहुँचे हुए बुजुर्ग है बाबा, उनकी शान में गुस्ताखी मत कीजिए। बड़े-बड़े लोगों की हिम्मत नहीं होती उनके सामने ज़बान खोलने की।” ड्राइवर ने डर से कांपते के बीच में कहा।

“अच्छा!” रशीद ने व्यंग्य से कहा।

“अजी हुजूर! आज नौ साल से वे चुप शाह का रोजा रखे हुए हैं। किसी से बात नहीं करते। लेकिन गरजमंद ऐसे ऐसे हैं कि टूट पड़ते हैं। जिनकी जानिब करम की नज़र उठ जाती है, उसकी बिगड़ी बन जाती है। आप बड़े खुशनसीब हैं, जो बाबा के अस्ताने पर हाजिर हो गए हैं।” ड्राइवर एक सांस में बोल गया।

“अच्छा तुम यही ठहरो, हम बाबा का नयाज हासिल करके आते हैं।” रशीद ने कहा और रुकसाना के साथ एक टीले पर चढ़ने लगा।

किले की चढ़ाई चढ़कर जब वे मकान के दरवाजे पर पहुँचे, तो अंदर काफ़ी चहल-पहल थी। दरवाजे के दाई और अंगूठी पर एक देग चढ़ी हुई थी, जिसमें कहवा उबल रहा था। देग के पास बैठा हुआ एक बूढ़ा आदमी छोटी-छोटी प्यालियों में कहवा डाल रहा था। कहवे के लिए बाबा के मुरीदों की एक लंबी पंक्ति लगी हुई थी। शायद यही बाबा का प्रसाद था। लोग बड़ी श्रद्धा से हाथ में प्यालियाँ लिए कहवा पी रहे थे। मकान के अंदर पहुँचने से पहले रशीद और रुकसाना हो गया प्रसाद लेना पड़ा। रशीद ने पहला घूंट पीते हुए बुरा सा मुँह बनाया। इतना बेस्वाद कहना उसने कभी नहीं पिया था। लेकिन बाबा का ध्यान करते हुए उसे पूरी प्याली पीनी पड़ी।

वापी का जब दोनों मकान के अंदर गए, तो वहाँ एक अजीब दृश्य दिखाई दिया। एक अधेड़ उम्र का स्वस्थ पीर चटाई पर गाँव तकिया लगाए बैठा था। लंबे खिचड़ी बाल और दाढ़ी तथा बड़ी-बड़ी लाल आँखों से उसका विशेष व्यक्तित्व झलक रहा था। उसके सामने मिट्टी के दो बड़े प्यालों में लौहबान सुलग रहा था और दाईं ओर एक बड़े बालों वाली पहाड़ी बकरी बंधी थी। हर आने वाले श्रद्धालुओं का पहला काम यह होता कि पास रखी टोकरी में से एक मुट्ठी घास लेकर बकरी को खिलाता। अगर बकरी घास खा लेती, तो बाबा उसे बैठने का संकेत कर देते। परंतु यदि बकरी घास ना खाती, तो बाबा क्रोध भरी आँखों से उस आदमी को देखते और वह घबराकर बाहर चला जाता।

तभी एक बूढ़ी औरत दाखिल हुई। उसने टोकरी से मुट्ठी भर खास लेकर बकरी की ओर बढ़ाई। बकरी ने खास खाने की जगह उछलकर बुढ़िया को टक्कर मारने चाही। बाबा का चेहरा सहसा गुस्से से लाल हो गया और उन्होंने बुढ़िया के मुँह पर थूक दिया। रशीद बाबा की इस घृणित हरकत पर कुछ कहना ही चाहता था, रुखसाना ने झट से चुप रहने का संकेत कर दिया।

रुखसाना और रशीद ने भी आगे बढ़कर बकरी को घास खिलाया। सौभाग्य से बकरी ने उनकी घास खा ली और दोनों पीर बाबा के पांव के पास जा बैठे।

कुछ देर तक आँखें बंद किए बाबा अंतर्ध्यान रहे। फिर अचानक आँखें खोल कर उन्होंने कागज का एक पुर्जा उठाकर उस पर पेंसिल से कुछ लिखा और वह पुर्जा रुखसाना की ओर फेंककर आँखें बंद कर ली। रुखसाना ने वह पुर्जा उठाया और बाबा के पांव छूकर रशीद के साथ बाहर चली आईं।

बाहर दरवाजे पर एक आदमी बैठा पुर्जे पढ़कर लोगों को बारी-बारी से बाबा के लिखी बात का मतलब समझा रहा था। जब रुखसाना ने अपना कागज पढ़वाने के लिए उसे दिया, तो उसने कागज पढ़कर एक गहरी दृष्टि दोनों पर डाल दी और फिर दरवाजे के पास अंदर ही एक अंधेरी गुफा की ओर संकेत करके उनसे बोला, “तुम्हें अंदर जाने का हुक्म है बाबा का।”

“वहाँ तो अंधेरा है।” रशीद ने चौक कर कहा।

“हाँ, इसी अंधेरे गार में तुम्हें जाना है। वहाँ बाबा की धुनी जल रही है। उस धुनी से राख लेकर माथे से लगाकर गार के दूसरे सिरे से बाहर निकल जाओ। जाओ तुम्हारी हर मुश्किल आसान हो जाएगी। इसी अंधेरे में तुम्हारी तकदीर का उजाला फूटेगा।”

रशीद और रुकसाना जब गुफा में प्रविष्ट हुए तो चारों ओर घोर अंधेरा था। रशीद एक स्थान पर लड़खड़ाने लगा, तो रुखसाना ने तुरंत सहारा देकर उसे संभाल लिया। थोड़ी दूर आगे एक बड़ी सी देग में धुनी जल रही थी। रुखसाना और रशीद ने उसमें से चुटकी भर राख उठाई और माथे पर लगा ली।

तभी अंधेरे में एक ओर जुगनू सा क्षणिक जलता बुझता प्रकाश दिखाई दिया। रुखसाना ने इस सिग्नल को समझ लिया और रशीद को लेकर उस ओर बढ़ी। यहाँ गुफा काफी चौड़ी थी। आगे सीढ़ियां थीं। दो-एक सीढ़ियाँ उतरकर उन्हें एक छोटा सा बल्ब जलता दिखाई दिया। यहाँ से सीढ़ियाँ मुड़ गई थी। कुछ देर इन्हीं चीजों से सावधानी पूर्वक चलने के बाद वे एक तहखाने में पहुँच गये।

उनके तहखाने में पहुँचते ही ‘चट’ की हल्की सी आवाज सुनाई दी और तहखाने में प्रकाश हो गया। वे एक बड़े से कमरे में खड़े थे। अभी रशीद तहखाने को देख रहा था कि जॉन उसके सामने आ खड़ा हुआ। जॉन ने मुस्कुराकर रशीद का स्वागत किया और दोनों को साथ लेकर उसी दरवाजे में लौट गया, जिससे अभी-अभी वह बाहर आया था। उनके दाखिल होते ही वह दरवाजा अपने आप बंद हो गया और अब उस ट्रांसमीटर रूम में थे, जो 555 का अड्डा था।

रशीद ने ध्यान से अड्डे को देखा। जॉन के अतिरिक्त वहाँ दो नकाबपोश लड़कियाँ और थी । जॉन ने मेजर रशीद से उनका परिचय कराया, “रजिया और परवीन!  हमारे अड्डे की बेहतरीन वर्कर्स?…दिनभर पीर साहब की खिदमत करती हैं और रात में अड्डे की इंचार्ज।”

“कहीं किसी को इस अड्डे पर शक ना हो जाये। यहाँ बहुत भीड़ जमा रहती है।” रशीद ने कुछ सोचते हुए कहा।

“नामुमकिन!” जॉन झट से बोला। पीर बाबा को यह लोग ख़ुदा का भेजा एक फ़रिश्ता समझते हैं। उन पर किसी ने शक की नज़र भी डाली, तो लोग एक हंगामा खड़ा कर देंगे।”

“लेकिन ख़ुद पीर साहब तो भरोसे के आदमी हैं ना?”

“मुल्क और कौम के सच्चे जानिसार…आजाद कश्मीर फौज के पुराने अफसर है। गोली लगने से एक टांग बेकार हो गई, तो हमारी खिदमत करने यहाँ चले आये।” रुखसाना ने पीर साहब का परिचय देते हुए रशीद से कहा।

तभी ट्रांसमीटर के सिग्नल लाइट हुई। जॉन ने सिग्नल से ओके कहा। उसका संकेत पाते ही रशीद उधर चला आया। रजिया और परवीन झट मशीन के पास आकर बैठ गई और टेप चला दिया।

रशीद सिग्नल द्वारा श्रीनगर और यूएनओ की सारी रिपोर्ट कोड शब्दों में हेडक्वार्टर पहुँचा दी और वहाँ से अगले दो सप्ताह के लिए अपने लिए आदेश ले लिये। उसने हेडक्वार्टर को यह भी संदेश दिया कि उसकी कुशलता का संदेश सलमा को पहुँचा दिया जाये।

सिग्नल बंद होने के साथ ही रशीद मुड़ा और उसने रजिया और परवीन को पूरे आदेश लिख लेने के लिए कहा। रुखसाना ने आगे बढ़कर रशीद को सिगरेट दिया और पूछा, “एनीथिंग स्पेशल।”

“”नथिंग! सब काम मेरे से सुपुर्द हुए हैं। शायद मुझे आजाद कश्मीर के बॉर्डर तक जाना पड़े।”

“कोई बात नहीं! सब इंतजाम हो जायेगा।” जॉन ने सिगरेट का लंबा कश खींचते हुए रशीद को सांत्वना दी और रुकसाना को दो कप कॉफी बनाने के लिए कहा।

रशीद और रुकसाना जब पीर बाबा के मकान से लौटे, तो टीले के नीचे टैक्सी वाला अभी तक खड़ा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। इसके पहले कि वह उनसे कुछ कहे रशीद ने मुस्कुराते हुए कहा, “तुमने तुम्हें ठीक ही कहा था, पीर बाबा इस दुनिया के इंसान मालूम नहीं होते, वे तो सचमुच आसमान से उतरे हुए फ़रिश्ता है।”

टैक्सी वाला उसकी बात सुनकर जैसे लंबी प्रतीक्षा का सारा कष्ट भूल गया। उसने मुस्कुराकर टैक्सी स्टार्ट की और श्रीनगर जाने वाली सड़क पर हो लिया।

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