चैप्टर 18 वापसी : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 18 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 18 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

Chapter 18 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

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आधी रात का समय होगा, जब ब्रिगेडियर उस्मान की टेलीफोन की घंटी एकाएक बज उठी। दिन भर के काम से थककर वह गहरी नींद सो रहे थे। निरंतर टन टन की आवाज से झुंझलाकर उन्होंने रिसीवर उठाया और कुछ झल्लाकर बोले, “हेलो! कौन? ओह कर्नल…क्या बात है?”

“मुआफ कीजिए सर…इतनी रात गए आप को जगाना पड़ा।” कर्नल रजा अली ने उधर से क्षमा याचना करते हुए कहा।

“कोई खास बात?”

“जी हाँ! अभी-अभी इत्तला मिली है कि मेजर रशीद खुफिया कैद खाने से हिंदुस्तानी कैदी कैप्टन रणजीत को निकाल ले गया है।”

“क्या? मेजर रशीद? लेकिन वह हिंदुस्तान से कब लौटा।” उस्मान ने आश्चर्य से पूछा।

“यही जानने के लिए तो मैंने आपको फोन किया है कि वह कब आया और किसकी इज़ाजत से इस कैदी को बाहर ले गया है।”

“मुआमला तश्वीशनाक मालूम होता है कर्नल…शायद उसने मेरी रियायतों का ग़लत इस्तेमाल करने की कोशिश की है। कहीं वह दुश्मनों से मिलकर वतन के साथ कोई गद्दारी तो नहीं कर रहा?”

“अगर आपका हुक्म हो तो वायरलेस पर…!”

“अभी नहीं…पहले हमें उसका मकसद मालूम करना होगा और तब तक हर कदम निहायत होशियारी से उठाना होगा। अगर बात बाहर निकल गई, तो हो सकता है कि यूएनओ के सामने हमारी पोजीशन गिर जाये।”

“तो क्या किया जाये सर?”

“तुम फौरन यहाँ चले आओ।”

कर्नल रजा अली को अपने घर आने का आदेश देकर ब्रिगेडियर उस्मान ने रिसीवर नीचे रखा और फिर उठाकर रशीद के घर का नंबर मिलाना चाहा, लेकिन झट कुछ सोचकर विचार बदल दिया। रिसीवर को क्रैडल पर रखकर मानसिक उलझन दूर करने के लिए वह अपने हाथों की उंगलियाँ मरोड़ने लगे। उन्हें अभी तक इस बात का विश्वास नहीं हो रहा था कि रशीद हिंदुस्तान से लौट आया है और ऐसा दायित्वहीन काम भी कर सकता है।

दूसरी ओर रशीद के दिल में जो तूफान मचा था, उसका अनुमान किसी को ना था। यहाँ तक कि स्वयं रणजीत, जिसे वह कैदखाने की कोठरी से निकाल लिए जा रहा था, उसके इरादों के बारे में कुछ नहीं जानता था। रणजीत को उसने जीप में लिटाकर अपने ओवर कोट से ढक रखा था और जीप बॉर्डर की ओर उड़ी जा रही थी। चेक पोस्ट पर थोड़ी देर के लिए उसकी गाड़ी रुकी, लेकिन फिर आगे बढ़ गई मेजर रशीद पर किसी को किसी प्रकार का संदेह नहीं हुआ।

थोड़ी देर बाद जीप गाड़ी सीमा के पास एक नहर के सुनसान किनारे पर पहुँचकर रुक गई। शायद यही रशीद की मंजिल थी। गाड़ी में बैठे बैठे रशीद ने इधर-उधर नज़र दौड़ाई…सर्वत्र सन्नाटा छाया हुआ था। हवा से पास के खेतों में अधपकी फसल जब लहराती, तो एक हल्की सी सनसनाहट उस सन्नाटे को तोड़ देती। वातावरण का भली-भांति निरीक्षण करके रशीद ने धीरे से कहा, “बाहर आ जाओ कैप्टन!”

रणजीत ने ओवर कोट हटाया और कूदकर जीप गाड़ी की फ्रंट सीट पर आ बैठा। रशीद ने झट अपने कोर्ट की जेब से कैप्टन रणजीत के कागजात और आईडेंटिटी कार्ड उसे देते हुए कहा,” अच्छा ख़ुदा हाफ़िज़!”

रणजीत ने आश्चर्य से अपने इस हमशक्ल को देखा, जिसकी आँखों में आज कुछ अनोखी चमक थी। वह टकटकी बांधे उसे देखे जा रहा था। कुछ देर बाद रशीद ने उसका कंधा थपथपाते हुए कहा, “जाओ दोस्त? यह नहर हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सरहद है। इसका एक ही किनारा हमारा है और दूसरा तुम्हारा। तुम एक अच्छे तैराक हो। एक छलांग लगाओ और तैरते हुए अपने किनारे तक पहुँच जाओ।”

“लेकिन क्या मैं पूछ सकता हूँ कि तुमने मेरे लिए इतना बड़ा खतरा क्यों मोल दिया?”

“हमारी सूरतें जो आपस में मिलती हैं।”

“मैं तो तब भी मिलती थी, जब तुम मुझे कैदखाने की कालकोठरी में डालकर मेरे देश में जासूसी करने चले गए थे।”

“वह मेरा फ़र्ज़ था और यह है उसकी तलाफी – मेरा प्रायश्चित।”

“प्रायश्चित?” रणजीत बड़बड़ाया।

“हाँ तुम अभी नहीं समझोगे। जाओ देर ना करो…किसी को खबर हो गई, तो मेरे साथ तुम भी कहीं के ना रहोगे। अब तक शायद अफ़सर हरकत में आ चुके होंगे।”

“फौजी कानून में अच्छी तरह समझता हूँ। मैं जानता हूँ मेरे यूं जाने के बाद तुम्हारा क्या होगा। लेकिन मैं यह जाने बिना नहीं जाऊंगा कि तुम मेरे लिए अपनी ज़िन्दगी को दांव पर क्यों लगा रहे हो?”

“देखो रणजीत! इस वक्त जिद करके मेरी तमाम कोशिशों पर पानी मत फेरो। ख़ुदा के लिए जाओ रणजीत…देर न करो। वहाँ पूनम तुम्हारा इंतज़ार कर रही है। माँ ने अगले महीने की 18 तारीख को तुम्हारी शादी तय कर रखी है।” रशीद ने जल्दी-जल्दी कुछ भावुक स्वर में कहा।

“लेकिन यह अचानक मेरी प्रेमिका से, मेरी माँ से और मुझसे तुम्हें इतनी दिलचस्पी क्यों पैदा हो गई? कल तक तो तुम मेरे देश के दुश्मन थे, आज दोस्त कैसे बन गये? अब तो यह जाने बिना मेरे लिए जाना नामुमकिन हो गया है।” रणजीत ने हठ करते हुए कहा।

“अच्छा…तुम जानना ही चाहते हो तो सुनो…हम दोनों का हमशक्ल होना इत्तिफ़ाकिया नहीं है रणजीत, हम दोनों जुड़वा भाई हैं।”

“क्या?” रणजीत को एक तीव्र झटका लगा।

“हाँ रणजीत…हम दोनों सगे भाई हैं।”

“नहीं, यह कैसे हो सकता है?” रणजीत चीख पड़ा और फटी-फटी आँखों से रशीद को घूरने लगा। यह रहस्य जानकर उसके पूरे शरीर में कंपकंपी सी दौड़ गई। एक भूचाल सा आ गया, जिसने उसे झकझोर कर रख दिया। अभी वह सकते में ही खड़ा था कि रशीद फिर बोला, “यह हकीकत है रणजीत! हम दोनों एक ही माँ के बेटे हैं, जो हिंदुस्तान के बंटवारे के वक्त एक दूसरे से बिछड़ गए थे। तुम माँ के साथ हिंदुस्तान चले गए और मुझे मुसलमान बनकर पाकिस्तान में रहना पड़ा। ज़िन्दगी का यह राज़ मैं तब ही जान सका, जब अपनी माँ से मिला।”

“तो क्या माँ तुम्हें पहचान गई?” रणजीत ने उसके चुप होते ही पूछा।

“नहीं बल्कि मुझे रणजीत ही समझ कर उसने यह राज उगल दिया। जानते हो माँ ने मेरे बचपन से लेकर शादी तक की तस्वीरों को सीने से लगा कर रखा हुआ है। माँ जो कि इन्हीं याद और मुस्तकबिल के सुनहरे सपनों के सहारे ही जी रही है…वह सपने जो शायद कभी पूरे न होंगे।”

“तो तुम मेरे भाई हो रशीद?”

“हाँ रणजीत…मेरे भाई…लेकिन अब तुम देर मत करो…जाओ…लेकिन जाने से पहले पहली और आखिरी बार मेरे सीने से लग जाओ, क्योंकि मैं जानता हूँ यह हमारी आखिरी मुलाकात है।” यह कहते हुए रशीद ने बड़ी भावुकता से रणजीत को गले से लगा लिया।

तभी दूर से कई जीप गाड़ियों की रोशनी चमकती दिखाई दीं। गाड़ियाँ अभी दूर थीं, किंतु वह नहर वाली सड़क पर ही बढ़ी जा रही थीं। रशीद कांप उठा और एक झटके से रणजीत को अपने आप से अलग करते हुए बोला, “जल्दी से कूद जाओ इस नहर में…जाओ जल्दी..!”

“लेकिन भैया तुम्हारा क्या होगा?” रणजीत उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला।

“मेरा ख़ुदा हाफ़िज़ है, माँ और पूनम भाभी से कह देना मुझे माफ़ कर दें।”

 यह कहते हुए रशीद की पलकें भीग गई, लेकिन उसे धैर्य से काम लिया और रणजीत को नहर की ओर ढकेलता हुआ बोला, “कूद जाओ।”

गाड़ियों की रोशनियाँ प्रतिक्षण निकट होते जा रही थीं और साथ ही रशीद के दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थीं। रणजीत ने एक बार फिर आगे आकर उससे गले मिलने का प्रयत्न किया, तो रशीद जल्दी से बोला, “तुम्हें माँ की कसम और आगे बढ़े तो? लौटो और कूद जाओ।”

नहर के पानी में छपाका हुआ। इस आवाज को सुनकर दूर से कहीं सिक्योरिटी फोर्स के सिपाहियों ने ललकारा। रशीद ने झट रिवाल्वर से हवा में एक फायर किया। फायर की आवाज सुनकर न जाने कहाँ से दो सिपाही दौड़ते हुए उसके पास आकर बोले, “क्या हुआ जनाब?”

“कुछ नहीं एक भेड़िया था…फायर होने से पहले ही पानी में कूद गया।”

रशीद ने यह कहकर नहर की ओर देखा, जिसके शीतल जल में गोता लगाकर तैरता हुआ रणजीत बहुत दूर निकल गया था। रशीद ने संतोष की सांस ली और एक सिगरेट सुलगाकर जीप गाड़ी में जा बैठा। फिर उसने गाड़ी स्टार्ट की और खेतों के बीच में कच्ची सड़क पर मोड़ दी। सिपाहियों ने उसे सेल्यूट किया और आश्चर्य से इस अफसर को देखने लगे, जो नहर की पक्की सड़क को छोड़कर गाड़ी को कच्चे रास्ते पर उतार ले गया था। उन्होंने क्षण भर के लिए एक-दूसरे को प्रश्न सूचक दृष्टि से देखा और फिर पलटकर रोशनी को चल पड़े, जो अब बहुत निकट आ गई थीं।

रशीद बिना रोशनी के ही कच्चे रास्ते पर गाड़ी बढ़ाता चला गया। लड़ाई में वह बॉर्डर के सब रास्तों की रैकी कर चुका था। इसलिए जीप चलाते हुए कोई उसे कोई कष्ट नहीं हुआ। थोड़ी ही देर में वह टेढ़े मेढे  रास्ते को पार करता हुआ फुल स्पीड से बहुत दूर निकल गया। उसे पूरा भरोसा था कि बात के उच्च सैनिक अधिकारियों तक पहुँचने से पहले ही वह अपनी सलमा के पास पहुँचच चुका होगा।

रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। सलमा अपने कमरे में बेखबर सो रही थी कि अचानक खट..खट…खट की आवाज ने उसे चौंका दिया। अभी नींद का प्रभाव पूर्ण रूप से उसके दिमाग से दूर नहीं हुआ था कि दस्तक की आवाज और तेज हो गई। वह चुपके से उठकर अंधेरे कमरे में टटोलती हुई बिजली के स्विच तक पहुँच गई। बाहर कोई ज़ोर-ज़ोर से किवाड़ खटखटा रहा था। इससे पहले कि सलमा स्विच ऑन कर के कमरे में प्रकाश करती, बाहर से किसी ने मुक्का मारकर दरवाजे का शीशा तोड़ दिया और हाथ अंदर डालकर चटकनी खोल दी। सलमा डर के मारे बत्ती जलाना भी भूल गई। फिर इससे पहले कि वह अपनी नौकरानी नूरी को जगाती, एक छाया बढ़कर उसके पास आई और उसके मुँह पर हाथ रखते हुए दबी आवाज में बोली, “मैं हूँ सलमा!”

सलमा ने रशीद की आवाज पहचान ली और दीवार की ओर हाथ बढ़ाकर उसने कमरे में प्रकाश करना चाहा, किंतु रशीद ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला, “नहीं अंधेरा ही रहने दो।”

“क्यों? क्या बात है? आप इस कदर घबराये हुए क्यों है? खैरियत तो है और आप आए कब?” सलमा ने घबराकर पूछा।

“आज ही आया हूँ।” यह कहकर रशीद ने एक सिगरेट सुलगा लिया।

“लेकिन इस तरह अंधेरे में…चोरों की तरह।” कहते हुए सलमा ने उसके पसीने से भरे चेहरे पर हाथ फेरा और कुछ रुक कर बोली, “कहाँ से भाग कर आ रहे हैं आप?”

“भागकर नहीं…भगा कर आ रहा हूँ।”

“भगा कर? किसको?”

“रणजीत को…जानती हो सलमा…वह मेरा भाई है…सगा भाई।”

“क्या बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं आप?” वह आश्चर्य से उसे देखती हुई बोली।

“यकीन करो मैं ठीक कह रहा हूँ। तुम हैरान थी ना कि दो अजनबी आदमियों की सूरत इतनी ज्यादा कैसे मिल सकती है। रणजीत अजनबी नहीं, मेरा जुड़वा भाई है। हिंदुस्तान के बंटवारे के वक्त हम दोनों भाई बिछड़ गए थे…ओह…आज मैं किस कदर खुश हूँ। अपने भाई को कैद से आजाद करके मेरे सीने से बहुत भारी बोझ हट गया है।”

“ओह…यह आपने क्या किया? कानून और वतन आप को कभी मुआफ़ नहीं करेंगे।”

“मैं जानता हूँ और यह भी कि इसकी सजा मुझे नहीं बल्कि तुम्हें मिलेगी…जिस औरत के हाथों की मेहंदी का रंग भी अभी फीका न पड़ा हो…जिसके कानों में अभी बाबुल के गीत गूंज रहे हो…जिसका अभी कोई ख्वाब पूरा न हुआ हो…मैं उसकी ज़िन्दगी को एक दर्द भरी चीख बनाकर छोड़े जा रहा हूँ…कितनी बड़ी नाइंसाफी होगी तुम्हारे साथ सलमा…कितनी बड़ी नाइंसाफी।”

“बस कीजिए…ख़ुदा के लिए बस कीजिये” वह एकाएक चिल्ला कर पलट पड़ी, तो रशीद ने आगे बढ़कर उसके दोनों हाथ थाम लिए और भराई हुई आवाज़ में बोला, “नहीं सलमा…मेरी ज़िन्दगी की मजबूरी को समझो और मुझसे वादा करो कि यह सबकुछ तुम एक फौजी अफ़सर की बहादुर बीवी की तरह बर्दाश्त कर लोगी।”

सलमा का मस्तिष्क इस अचानक के आघात ने जैसे निष्क्रिय कर दिया हो…इस समय वह सोचने की सब शक्ति खो चुकी थी।

तभी बाहर कुछ आवाज़ों ने उन्हें चौंका दिया। एक साथ कई जीप गाड़ियाँ उस मकान के सामने आकर रुकी और एक सैनिक दस्ते ने मकान को चारों ओर से घेर लिया।

“वह लोग आए गये।” रशीद ने बाहर जीप गाड़ियों के रुकने की आवाज सुनते ही कहा।

सलमा एकाएक रशीद से लिपट गई और रोआंसी आवाज में बोली, “नहीं नहीं…मैं उन्हें अंदर नहीं आने दूंगी…वह आपको गिरफ्तार नहीं कर सकते। देखिए आप खिड़की कूदकर पिछवाड़े से भाग जाइये।”

“पगली!” रशीद ने उसका सिर थपथपाकर कहा, “भागकर कहाँ जाऊंगा।” फिर वह उसे अपने से अलग करके कमरे की बत्ती जलाता हुआ बोला, “जाओ दरवाजा खोल दो…वरना लोग तोड़ डालेंगे।”

दरवाज़े पर निरंतर ज़ोर-ज़ोर से दस्तक हो रही थी। रशीद ने स्वयं जाकर किवाड़ खोल दिया। कर्नल रज़ा अली और कुछ दूसरे मिलिट्री अफसर बंदूक ताने सिपाहियों के साथ अंदर दाखिल हुए। सलमा भी पति के पीछे-पीछे बाहर आ गई थी। रशीद ने आँख के इशारे से उसे अंदर जाने को कहा, लेकिन सलमा को उस समय पर्दे का होश ही कहाँ था।

कर्नल रज़ा अली ने सिपाहियों को मकान की तलाशी का आदेश दिया, तो रशीद कह उठा, “जिसकी आपको तलाश है, वह यहाँ नहीं है।”

“तो कहाँ है वह कैदी?” रजा अली ने कड़ककर पूछा।

“अब तक वह बॉर्डर क्रॉस कर चुका होगा।”

“हूं…तो हमारा शक गलत नहीं था…तो तुमने दुश्मनों की साथ मिलकर अपने वतन से गद्दारी की है।”

“दुश्मनों से मिलकर नहीं कर्नल…अपने दिल से मजबूर होकर।”

“जानते हो तुमने कितना बड़ा गुनाह किया है…ख़ुदा और कानून तुम्हें कभी नहीं बख्शेंगे।”

“ख़ुदा के दरबार में जब हाज़िर हूंगा, तो इंसाफ़ हो ही जायेगा। लेकिन कानून के दरबार में जो भी सजा मिलेगी, उसे भुगतने को तैयार हूँ।”

“तुम जानते हो गद्दारी की सजा क्या होती है?”

“जानता हूँ”

“इसके बावजूद भी…”

“जी हाँ इसके बावजूद भी मैंने यह गद्दारी की है।”

कर्नल रज़ा अली रशीद के बेझिझक और चटक उत्तर को सुनकर गुस्से से आपे से बाहर हो गया और सिपाहियों की ओर मुड़कर बोला, “गिरफ्तार कर लो इसे…”

सलमा जो अब तक चुपचाप डर से सहमी हुई खड़ी थी, कर्नल रज़ा का हुक्म सुनकर दौड़कर उन सबके सामने ही पति से लिपट गई और चिल्लाई, “नहीं नहीं… इन्हें कोई गिरफ्तार नहीं कर सकता…इन्होंने मुल्क से कोई गद्दारी नहीं की…इन्होंने तो अपने खून की मदद की है। अपने भाई को बचाया है, अपनी माँ के सपनों को हकीक़त में बदलने की कोशिश की है।”

सलमा की बात किसी की समझ में नहीं आई। उसकी पीड़ा का किसी ने अनुमान नहीं लगाया और उसकी आँखों के सामने उसके पति को मिलिट्री पुलिस के सिपाहियों ने पकड़ लिया। सलमा रशीद के पांव में गिरकर फूट-फूट कर रोने लगी और फिर वहीं बेहोश हो गई। फिर जब उसे होश आया, तो उसका सरताज, उसका प्रीतम उसके पास नहीं था, केवल उसके अंतिम शब्द सलमा के कानों में गूंज रहे थे – “मेरे पास वक्त कम है सलमा, वादा करो कि यह सबकुछ तुम एक फ़ौजी की बहादुर बीवी की तरह बर्दाश्त कर लोगी।”

मनाली की हरी-भरी सुंदरवादी को सूरज की सुनहरी किरणों ने नहलाना आरंभ किया ही था कि रणजीत थके कदमों से अपने घर के आंगन में दाखिल हुआ। वह डरते-डरते कदम बढ़ाता हुआ इधर-उधर झांक रहा था। इस समय घर में कोई नहीं था। केवल माँ अपने कमरे में बने छोटे से मंदिर में बाल गोपाल की पूजा में लीन थी

रणजीत के दिल में अचानक माँ का सामना करने का साहस न हो रहा था।

तभी पूनम गौरी के साथ बाहर से आई। आहट पाकर आंगन में खड़े रणजीत ने सहसा पलट कर देखा और पूनम के दिल को एक तीव्र झटका लगा। यह तो उसका रणजीत था…हां रणजीत ही था…लेकिन कितना बदला हुआ। मैले-कुचैले कपड़े, बढ़ी हुई दाढ़ी, कमजोर बदन, सुते हुए चेहरे पर अंदर धंसी हुई आँखें जैसे वह महीनों का बीमार रहा हो। पूनम के मुँह से अनायास एक दर्द भरी चीख निकल गई। रणजीत धीरे-धीरे पांव बढ़ाता उसकी ओर बढ़ा। दोनों थोड़े अंतर पर मूर्तिमान एक-दूसरे को एकटक देखते रहे और फिर अचानक पूनम झपटकर उसके सीने से जा लगी और फूट-फूट कर रोने लगी।

गौरी जो अभी तक खड़ी थी, संदेह से रणजीत को देखे जा रही थी ‘माँजी माँजी’ चिल्लाती अंदर की ओर भाग गई।

रणजीत के सीने से लगी पूनम की दृष्टि अचानक उसके गले में लटके ‘ओम’ के लॉकेट में पड़ी, तो आँसू पोंछते हुए वह कह उठी, “तो दुश्मन ने अपना वचन निभा ही दिया।”

“उसे दुश्मन न कहो पूनम…वह तुम्हारा देवर है…मेरा हमशक्ल जुड़वा भाई।” रणजीत ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा।

“क्या?” असीम आश्चर्य से वह उछल पड़ी।

रणजीत उसे पूरी बात बताना ही चाहता था कि उसी समय गौरी के साथ माँ अंदर आई और बेटे की उजड़ी हुई थी दशा को देखती हुई पास आकर कांपती आवाज़ में बोली, “यह क्या हालत बना रखी है तूने…मेरे लाल…यह मैले कपड़े…बढ़ी हुई दाढ़ी… बीमार सूरत…तेरी तबीयत तो ठीक है ना!”

“हाँ माँ!”

“फिर यह हुलिया क्या बना रखा है तूने? चार छः दिन में इतना बदल गया है!”

“चार छः दिन में नहीं माँ…चार छह महीनों में कहो…मैं तो आज ही पाकिस्तान से लौटा हूँ।”

“क्या कह रहा है रे! इतने दिन मेरे पास रहकर तो तू गया था दिल्ली, व्यापारियों से रूपये वसूल करने और अपनी छुट्टी बढ़वाने।”

“नहीं वह मैं नहीं था माँ।”

“फिर कौन था वह? क्या पागल समझता है मुझे?”

“नहीं माँ…वह जो इतने दिन तुम्हारे साथ रहा तुम्हारा बेटा रशीद था।”

माँ ने अविश्वास की नज़रों उसे देखा, तो रणजीत ने भर्रायी आवाज में संक्षेप में उसे बता दिया कि किस प्रकार रणजीत बनकर रशीद हिंदुस्तान में आया और फिर अपने जीवन का भेद जानने के बाद किस तरह उसने पाकिस्तान पहुँचकर अपने प्राणों पर खेलकर भाई को कैसे रिहाई दिला कर भेजा है।

माँ आश्चर्य से मुँह खोले उसकी बातें सुन रही थी और फिर जैसे ही वह चुप हुआ, वह एकाएक किसी कटे हुए पेड़ के समान लहराई और गिरने ही वाली थी कि रणजीत ने बढ़कर उसे थाम लिया। बेटे की बाहों में पागलों के समान वह बड़बड़ाने लगी, “हे भगवान! यह कैसा न्याय है तेरा? मेरा बेटा बरसों बाद मुझे मिला भी, तो मैं उसे जी भर के सीने से लगा न सकी…उससे बातें ना कर सकी…भाग्य की एक यह कैसी दीवार है, जिसे मेरी ममता भी न ढा सकी। मुझे अपने बेटे के पास ले चलो… अभी ले चलो अपने रशीद के पास मुझे…नहीं तो मेरा दम घुट जायेगा।”

माँ रणजीत के हाथों से फिसल कर बाहर जाने के लिए मचलने लगी। रणजीत पूनम उसे संभालने का प्रयत्न करने लगे। इसी दीवानगी की हालत वह चकराकर बेटे की बाहों में बेहोश हो गई।

गौरी जल्दी से पानी लाने के लिए भागी। रणजीत ने झट माँ को गोद में उठाकर पलंग पर लिटा दिया और उसी के दुपट्टे से उसके चेहरे का पसीना पोंछने लगा।

पूनम पास ही खड़ी किसी गहरी सोच में डूबी थी। शायद वह ज़िन्दगी के इस विचित्र नाटक के बारे में सोच रही थी।

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