चैप्टर 10 वापसी : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 10 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 10 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

Chapter 10 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda

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पूनम की आंटी ने ज्यों ही धुली हुई साड़ी सुबह की चमकती धूप में रस्सी पर फैलाई, वह अपने सामने किसी अजनबी को देखकर इकाई ठिठक गई। फौजी वर्दी पहने हुए उस अजनबी को पहचानने मैं उन्हें जरा भी देर न लगी। उनकी भांजी पूनम के मंगेतर रणजीत के सिवा यह नौजवान अफसर और कौन हो सकता था? उसका स्वागत करने के लिए उपयुक्त शब्द खोज ही रही थी कि उसने हाथ जोड़कर मुस्कुराते हुए अपना परिचय दिया –

“आदि नमस्ते मैं रणजीत हूँ!”

“आओ आओ! मैं पहचान गई हूँ। आज सुबह-सुबह कैसे आ गये?”

“कल रात की गुस्ताखी के लिए माफ़ी मांगने आया हूँ आपसे।”

“अरे माफ़ी कैसी? मैं तो समझ गई थी कि किसी जरूरी काम में उलझ गए होगे। फौज की ड्यूटी कब आ पड़े, कौन जानता है?”

“लेकिन मेरे अर्दली ने बताया था कि आप मुझसे नाराज हैं, आप समझती हैं मैं आपके सामने नहीं आना चाहता।”

“नहीं बेटा! वह तो यों ही पूनम बिगड़ बैठी थी, तो उसका गुस्सा ठंडा करने के लिए कह दिया था। अंदर आ जाओ, यहाँ पर खड़े क्यों हो गये।”

यह कहकर आंटी सिर को आँचल से ढकते हुए रशीद को लेकर कमरे में चली गई।

रशीद बड़ी घनिष्टता से कुर्सी खींचकर जलती हुई अंगीठी के सामने बैठ गया। उसके बैठते ही आंटी ने पूछा, “क्या लोगे चाय या कॉफी?”

“चाय तो लूंगा ही, लेकिन खाली नहीं, कुछ नाश्ते के साथ!”

“हाँ हाँ क्यों नहीं?” आंटी खुश होती हुई बोली, “लगता है, आज तुम्हें अवकाश है।” फिर ऊँची आवाज से अपने कश्मीरी नौकर को पुकारा, जिसका नाम भी ‘कश्मीरी’ था।

रशीद ने इधर-उधर झांक कर पूनम की आहट लेना चाही और आंटी से बोला, “आंटी आज पूरे दिन की छुट्टी ले रखी है। सोचा आप का गिला मिटा डालूं। आप ही के हाथों बना नाश्ता खाऊं, इसलिए सवेरे आ गया।”

तभी कश्मीरी अंदर आया और आंटी ने उसे प्याज काट के अंडे फेंकने का आदेश दिया और कहा कि नाश्ता वह स्वयं आकर तैयार करेंगी। रशीद आंटी की ओर देख कर मुस्कुराया और अंगीठी में जलती हुई लकड़ियाँ ठीक करता हुआ बोला, “बाहर तो गजब की ठंडक है।”

“धूप निकलने के बाद यहाँ प्रातः हवाओं में शीत बढ़ जाती है।”

“कुछ भी हो जाड़े का अपना अलग ही मजा होता है!”

रशीद की बात सुनकर आंटी ने लपक कर अलमारी से बादाम, किशमिश और चिलगोजा की प्लेट निकाली और रशीद की ओर बढ़ाती हुई बोली, “लो थोड़ा सूखा मेवा खाओ। मैं अभी नाश्ता तैयार करके लाती हूँ।”

“आप क्यों कष्ट कर रही हैं, कश्मीरी बना लेगा।”

“नहीं बेटा! यह कैसे हो सकता है? अभी तो तुम कह रहे थे, आंटी के हाथ का बना नाश्ता खाओगे।”

रशीद मुस्कुराकर चुप हो गया। जब आंटी अंदर चली गई, तो सूखे मेवे खाता हुआ वह थोड़े-थोड़े समय बाद दाएं-बाएं तांक-झांक करने लगा कि शायद पूनम कहीं दिखाई दे जाये। वास्तव में आंटी को किचन में भेजने का उसका यही उद्देश्य था कि पूनम से अकेले में बातें करने का अवसर मिल जायेगा। लेकिन उसने तो जैसे बाहर न आने का आने की सौगंध खा रखी थी। उसकी प्रतीक्षा में रशीद बादाम की गिरियाँ और किशमिश खाता रहा।

जब बहुत देर तक पूनम बाहर न आई, तो वह समझ गया कि रात उसके ना आने के कारण वह उसे रूठी हुई है और शायद अंदर बैठकर उसके धैर्य की परीक्षा ले रही है। रशीद ने भी ठान लिया कि आज वह यहीं डाटा रहेगा, आंटी के हाथ का बना नाश्ता खायेगा, लंच करेगा, फिर डिनर! देखेगा कि कब तक पूनम उससे रूठी रहती है।

थोड़ी देर में कमला आंटी एक ट्रे उठाई हुई आ पहुँची और अंगीठी के सामने तिपाई खिसकाकर रशीद के आगे अंडों से तैयार किया हुआ नाश्ता और ढेर सारे फल रख दिये। उनके पीछे चाय की ट्रे उठा कश्मीरी अंदर आया और उसने चाय तिपाई पर टिका दी।

नाश्ता आ जाने पर रशीद दाएं-बाएं झांकता हुआ कुछ बेचैन दिखाई देने लगा। आंटी उसके सामने बैठती बोली, “क्या सोच रहे हो? नाश्ता ठंडा हो रहा है।”

यह कहकर वो चाय की प्याली में चीनी डालकर चाय उड़ेलने लगी। रशीद खिसियाता हुआ बोला, “ओह! तो क्या मुझे अकेले ही खाना होगा। आप नाश्ता न करेंगी।”

“नहीं आज मेरा मंगल का उपवास है।” आंटी ने चाय की प्याली उसे थमाते हुए कहा।

“लेकिन पूनम तो साथ दे सकती है।” रशीद ने आखिर अपनी उत्सुकता व्यक्त कर ही दी।

“ज़रूर साथ देती, लेकिन वह तो चली गई!”

“कहाँ?” वह बौखला आ गया और चाय की प्याली उसके हाथों से गिरते-गिरते बची।

“घबराओ नहीं, वह दिल्ली नहीं बाजार गई है, शॉपिंग के लिये।” आंटी उसकी बौखलाहट पर हँसते हुए बोली।

“आपने तो मुझे डरा ही दिया था।” रशीद झेंप गया और फिर जल्दी-जल्दी चाय का घूंट भरते हुए पूछ बैठा, “कब तक लौटेगी?”

“दोपहर तक। वास्तव में हम लोग कल दिल्ली जा रहे हैं। इसलिए आज का पूरा दिन पूनम ने शॉपिंग के लिए रखा है।”

“लेकिन यह इतनी जल्दी लौटने का प्रोग्राम कैसे बन गया?”

“पूनम के डैडी का तार आया है, उनकी तबीयत कुछ अच्छी नहीं है।”

रशीद चुप हो गया। आंटी ने आमलेट की प्लेट उसके आगे बढ़ा कर प्लेट में थोड़ी सास उड़ेल दी। रशीद कुछ सोचता वह चुपचाप खाने लगा। चाय की दूसरी प्याली बनाकर उसके सामने रखते हुए आंटी ने अनुभव किया कि पूनम के घर में ना होने से वह कुछ बुझ सा गया था।

उसका दिल बहलाने की आंटी ने इधर-उधर की कई बातें की, किंतु रशीद कुछ खोया सा ही रहा। नाश्ता कर चुकने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और जाने की आज्ञा चाही।

“पूनम की प्रतीक्षा ना करोगे।” आंटी ने उसे रोकने का आग्रह करते हुए कहा।

“मैं उसे रास्ते में ही मिल लूंगा।”

“रास्ते में उसे कहाँ ढूंढोगे?”

“श्रीनगर का बाजार तो चौक के आस पास ही है…वहीँ ढूंढ लूंगा। क्या खरीदने गई है वह?”

“तब तो वह ज़रूर मिल जायेगी। “

“यही कुछ अखरोट की लकड़ी का सामान, कुछ कपड़े, ड्राई फ्रूट्स!”

रशीद ने आंटी का धन्यवाद किया और कष्ट के लिए क्षमा मांग कर बाहर निकल आया।

श्रीनगर की प्रायः सभी बड़ी दुकानें चौक के इर्द-गिर्द ही है। दस-बारह दुकानों में घूमने से ही श्रीनगर आए हुए सभी लोग मिल सकते हैं। रशीदी चौक के पास आकर पूनम को एक दुकान में ढूंढने लगा।

कपूर सिंह के स्टोर के काउंटर पर रेशमी साड़ियों का एक ढेर लगा था और वहाँ का सेल्समैन हर साड़ी की प्रशंसा में जमीन आसमान के कुलाबे मिला रहा था, लेकिन पूनम का दिल किसी साड़ी पर न ठहर रहा था।

फिर अचानक उसे एक सफेद सिल्क की साड़ी पसंद आ गई, जिस पर नीले रंग की रेशम से कढ़ाई की गई थी। वह अपने ढंग की एक ही साड़ी थी। पूनम को वह साड़ी टटोलते हुए देखकर सेल्समैन पूनम की मनोदशा को ताड़ दिया और बढ़ा-चढ़ाकर उस साड़ी की प्रशंसा करने लगा। पूनम ने बिना उसकी ओर देखकर पूछा, “क्या दाम है इसका?”

“चार सौ चालीस मेम साहब!” सेल्समैन ने उत्तर दिया।

उसने साड़ी वहीं छोड़ दी और जाने के लिए पलटी। इससे पहले कि सेल्समैन ग्राहक को रिझाने का आखिरी प्रयास करता, एक आवाज ने पूनम के कदमों को जैसे वहीं रोक दिया।

“यह साड़ी पैक कर दो।”

यह आवाज रशीद की थी, जो पूनम को खोजते-खोजते यहाँ तक चला आया था। अचानक उसे वहाँ देखकर पूनम चकित रह गई। सेल्समेन ने दोनों की दृष्टि में कुछ और उखड़ापन सा पाकर रशीद को याद दिलाने के लिए साड़ी की कीमत दोहरायी।

“हाँ हाँ भाई सुन लिया – चार सौ चालीस। कहा न  पैक कर दो।” रशीद ने बिना उसकी ओर देखे हुए कहा।

“लेकिन मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए।” पूनम जल्दी से बोली।

“पर मुझे यह चाहिए।” रशीद ने अपने हाथ में पकड़ी छड़ी को उंगली से नाचते हुए कहा और फिर सेल्समैन से संबोधित होकर बोल, “हरी अप!”

सेल्समैन ने झट साड़ी पैक कर दी और बिल काट कर रशीद को थमा दिया। पूनम अभी तक चुप खड़ी थी। रशीद को बिल चुकाते देखकर वह कंधे झटक कर दुकान से बाहर जाने लगी।

“पूनम!” रशीद ने लपक कर उसका रास्ता रोक लिया।

“क्या है ?” पूनम ने रुखाई से पीछे देखते हुए पूछा।

“मुझे माँ के लिए एक शाल और साड़ी लेनी है।” रशीद ने नम्रता से कहा।

“तो ले लीजिये।”

“माँ की पसंद क्या है? उसे क्या अच्छा लगेगा? तुम ही बता सकती हो।” यह कहता हुआ रशीद काउंटर की ओर मुड़ा और यूं ही नीले रंग की एक साड़ी को छूता हुआ बोला, “यह रंग कैसा लगेगा माँ को?”

“यह भी कोई रंग है उनके पहनने का।” वह तुनक कर बोली।

“तो यह कैसा रहेगा?” उसने गुलाबी रंग की साड़ी को हाथ लगाते हुए पूछा।

पूनम ने माथे पर बल डालकर उसे यों देखा, जैसे कह रही हो कि उसकी पसंद बिल्कुल व्यर्थ है और फिर दूसरे काउंटर पर जाकर चंद साड़ियों में से एक सफेद रंग की साड़ी माँ के लिए पसंद कर ली। फिर शालों वाले काउंटर पर जाकर एक सफेद ऊनी शॉल चुन दी। रशीद ने दोनों को पैक करा कर मूल्य चुका दिया।

इसके पहले की पहले रशीद पूनम का धन्यवाद करता, वह दुकान से बाहर जा चुकी थी। रशीद भी जल्दी-जल्दी पैकेट संभाल कर बाहर निकल आया। लेकिन पूनम तब तक तेज-तेज पाने उठाती हुई फ्रूट की दुकान में जा घुसी थी। रशीद बाजार में खड़ा इधर-उधर दृष्टि घुमाकर उसे ढूंढता रहा और वह फ्रूट की दुकान के कोने में छिप कर खिड़की से उसकी बेचैनी देख कर मुस्कुराती रही। वह कुछ देर तक वहीं खड़ी रही, लेकिन रशीद ने भी शायद निश्चय कर लिया था कि जब तक वह उसे ना मिल जायेगी, वह भी वहाँ से नहीं हिलेगा।

कुछ देर बाद पूनम ने फ्रूट खरीद लिये और छोटी सी एक टोकरी लिए बिना रशीद की ओर देखे एक ओर चल पड़ी। रशीद ने उसे दुकान से निकलते देख लिया और तेजी से आकर उसके साथ कदम मिलाकर चलने लगा। पूनम को उसका साथ चलना अच्छा लग रहा था, परंतु उसके चेहरे से बनावटी क्रोध झलक रहा था। रशीद ने दो-एक बार उससे बात करना चाहा, लेकिन कोई उत्तर ना पाकर और उसकी नाराजगी का अनुभव करके वह चुप रहा। पूनम बाजार छोड़कर उस सड़क पर हो ली, जो कश्मीर एंपोरियम की ओर जाती थी।

“पूनम ! आखिर रूखाई क्यों?” अंत में रशीद से न रहा गया।

“यह अपने दिल से पूछिये।”  पूनम ने बिना उसकी ओर देखे उत्तर दिया।

“मैं अपनी भूल मानता हूँ, जो कल रात में आ सका। वास्तव में…”

“मैं आप की विवशता और बहाने सब समझती हूँ।” रशीद की बात काटते हुए उसने कहा और फिर पल भर चुप रहकर रूंधी हुई आवाज़ में बोली, “आप नहीं जानते, कल रात आप की वजह से मुझे कितना शर्मिंदा होना पड़ा।”

“मैं जानता हूँ। मेरे अर्दली ने मुझसे सब कुछ कह दिया था।”

“इस पर भी आपने मेरी प्रार्थना को कोई महत्व नहीं दिया। कितनी निराश नहीं मैं!”

“मुझे खेद है पूनम! इसके बारे में मैंने सुबह ही जाकर तुम्हारी आंटी से क्षमा मांग ली।”

रशीद की बात सुनकर पूनम में चौंक कर उसे देखा। दृष्टि मिलते ही रशीद अपनी बात आगे बढ़ाता हुए बोला, “हाँ हाँ! उनका सारा क्रोध पिघल गया है। मैंने उन्हीं के हाथ का बनाया नाश्ता किया और काफ़ी देर तक गपशप कर के यहाँ आया हूँ।”

“बाजार क्या करने आये थे आप?”

“तुम्हें ढूंढने…विश्वास ना हो, तो आंटी से पूछ लेना। यह तो अच्छा हुआ इसी बहाने माँ के कपड़े ले लिये, वरना कब से प्रोग्राम बन ही नहीं रहा था।”

“और वह साड़ी किसके लिए ली है?”

“अपनी होने वाली पत्नी के लिये।”

“झूठ!” वह उसी गंभीरता से बोली, “मैं देख रही हूँ, जबसे पाकिस्तान से लौटे हैं, बहुत चतुर हो गए हैं आप!”

“नहीं पूनम! युद्ध और गोला बारूद के अंधेरों से निकलने के बाद उजाले में हर चीज अनोखी लगने लगती है। अपने पराये की भी पहचान नहीं रही। कुछ अजीब सा हो गया है दिमाग।” रशीद ने बनते हुए कहा।

“मुझमें क्या अंतर मिला आपको?”

“पहले प्यार की बातें अधिक करती थी। अब बात-बात पर गुस्सा करने लगी हो।”

रशीद मैं यह बात इतने भोलेपन से कही कि ना चाहते भी पूनम मुस्कुरा दी और रशीद की आँखों में आँखें डालती हुई बोली, “तो क्या आप चाहते हैं कि मैं फिर से अधिक प्यार की बातें करने लगूं।”

“अंधा क्या चाहे दो ऑंखें।” रशीद ने शरारत का ढंग अपनाते हुए कहा।

“उसका एक ही ढंग है।”  पूनम ने आँखें झुका कर कहा, “माँ से कहकर शादी की तारीख निश्चित करा लो।”

पूनम की इस बात में रशीद को चौंका दिया। वह कभी सोच भी नहीं सकता था कि वह बातों-बातों में अचानक उसके सामने इतनी बड़ी समस्या रख देगी। स्थिर खड़ा रुमाल से माथे पर पसीने की बूंदों को पोंछने लगा और उन लाज भरी आँखों को देखने लगा, जो मन की बात कहकर जमीन गड़ी जा रही थी। कुछ क्षण अनोखा मौन रहा, फिर रशीद ने पूछा, “तुम कल जा रही हो?”

“हाँ! दोपहर की फ्लाइट से। डैडी का तार आया है।”

“मैं जानता हूँ। आज ने बताया था।”

“आप छुट्टी पर कब आ रहे हैं?”

“अगले महीने। माँ को पत्र लिख डालूंगा।”

“क्या?” पूनम ने प्रश्न सूचक दृष्टि से उसे देखा।

“तुम्हारे मन की बात। यही कि अब तुम से अधिक प्रतीक्षा नहीं होती।”

“उं हूं यू नहीं!”

“तो फिर कैसे?”

“लिखियेगा, अब हम दोनों से प्रतीक्षा नहीं होती।” वह मुस्कुराकर बोली।

रशीद उसकी बात पर अनायास हँस दिया और फिर अपनी हँसी रोकते हुए साड़ी का पैकेट उसकी ओर बढ़ाते बोला, “यह लो इस भेंट का साधारण सा उपहार।”

पूनम ने कृतज्ञता भरी दृष्टि से उसे देखा और पैकेट स्वीकार करते हुए बोली, “थैंक यू!”

“अब कहाँ चलना होगा?” रशीद ने पूछा।

“कुछ शॉपिंग और बाकी है। फिर प्रोग्राम यह है कि अगर मैं बारह बजे तक घर नहीं पहुँची, तो आंटी कश्मीर एंपोरियम के पास मुझसे आकर मिलेंगी और फिर हम लोग उनकी किसी सहेली के यहाँ खाना खायेंगी ।”

“तो मैं चलूं…जीप गाड़ी चौक में पार्क कर रखी है।”

“फिर कब मिलियेगा।”

“कल दोपहर को एयरपोर्ट पर!”

“रात को आ जाइए ना।” उसने अनुनय करते हुए कहा।

“नहीं, पूनम सॉरी! आज ऑफिसर्स मेस में एक ऑफिसर का सेंड ऑफ है। जल्दी नहीं निकल सकूंगा।”

“पार्टी में औरतें भी तो आ सकती है ना?”

“हाँ हाँ क्यों नहीं?”

“बस तो ठीक है! मैं आपसे मिलने वहीं आ रही हूँ।” पूनम ने बिना किसी झिझक के कहा और बाय-बाय कहती हुई इंपोरियम की ओर चली गई।

रशीद चुपचाप खड़ा उसे देखता रहा और जब वह आँखों से ओझल हो गई, तो उसने ख़ुदा का शुक्र किया कि आज सचमुच मैस में सेंड ऑफ था और उसने हर रोज की तरह पूनम से झूठा बहाना नहीं किया था। वह  मुस्कुराता हुए जीप गाड़ी के बढ़ने लगा।

उसी शाम जब वह घर लौटा, तो रणजीत का घनिष्ट दोस्त गुरनाम पहले से ही वहाँ विराजमान था। उसे अचानक वहाँ देखकर रशीद ने आश्चर्य से कहा, “ओ गुरनाम! तू कब आया?”

“दोपहर की बस से।”

“आने की सूचना तो दे दी होती।”

“अरे यार को खबर दूं कि मैं आ रहा हूँ। यह मेरी आदत नहीं। मैं तो बोरिया बिस्तर उठाकर बस अचानक ही आ धमकता हूँ।”

“यह तो तुमने अच्छा किया और सुनाओ कैसे हो?” रशीद मुस्कुरा कर बोला।

“अरे यार क्या पूछते हो…जंग के बाद तो हमारी ढिबरी टाइट करके रख दी है सरकार ने। जानते हो इतने दिनों में छः ड्यूटियाँ बदल चुका हूँ। अब जाकर कहीं आराम मिला है।”

“अब किस ड्यूटी पर हो?” रशीद ने यों हो सरसरी ढंग से पूछा।

“दुश्मन के जासूसों का पता लगाने की ड्यूटी।” गुरनाम में सोफे पर पहलू बदलते हुए कहा और थोड़ा रुककर बोला, “इसी संबंध में यहाँ आया हूँ।”

गुरनाम की बात सुनते ही रशीद के मस्तिष्क को झटका सा लगा। लेकिन उसने झट अपने आप को संभालते हुए बात का विषय बदल दिया और अर्दली को पुकार कर गुरनाम के रहने और खाने का प्रबंध करने के लिए कहा।

“रणजीत यार! खाने की क्या जल्दी है? जरा पीने का प्रबंध कर दो, ताकि रात को गपशप का मजा आ जाये।”

“आज रात मेरा तो खाना मैस में है। कर्नल चौधरी को सेंड ऑफ दिया जा रहा है।”

“अरे वह कर्नल चौधरी जो जंग से पहले हमारे सी.ओ. था।”

“नहीं गुरनाम, यह वह चौधरी नहीं।”

“तो क्या हुआ! हम इस पार्टी में आयेंगे। तेरे गेस्ट बनकर। अफसरों से जान पहचान करने का अच्छा अवसर मिल जायेगा।”

“ठीक है!” रशीद ने धीरे से कहा और गुरनाम ने सोफे पर पहलू बदलते हुए अर्दली को चाय लाने के लिए कह दिया।

रशीद ने कमरे में बिखरे हुए सामान को देखकर अर्दली से गुरनाम का सामान ले जा कर दूसरे कमरे में टिकाने को कहा।

“तो कितने बजे चलना होगा?” गुरनाम ने अपने ठाठे को संभालते हुए पूछा।

“यही कोई आठ बजे!”

“तो समझो खालसा साढ़े सात बजे तैयार!”

थोड़ी देर में अर्दली चाय की बड़ी ट्रे ले आया और रशीद गुरनाम के लिए चाय बनाने लगा। गुरनाम ने तिरछी नजर से देखते पूछा, “पूनम मिली क्या?”

“मिली!” रशीद ने प्याली में चाय डालते भी धीरे से कहा।

“शादी की कोई तारीख ठहरी?”

“नहीं! पर शायद जल्द ठहर जायेगी।”

“सुना है तू माँसे मिलने भी नहीं गया।”

“तुझसे किसने कहा?”

“तेरी माँ की चिट्ठी ने। तेरा पता उसी से तो मंगवाया था।”

“हाँ गुरनाम छुट्टी ना मिल सकी। अगले महीने जाऊंगा।”

“छुट्टी नहीं मिली!” गुरनाम ने उसकी नकल उतारते हुए व्यंग्य से कहा, “अच्छा बहाना गड़ा है। अबे तू कैसा बेटा है, जो अभी तक माँ से नहीं मिला। जा मैं तुझसे नहीं बोलता।”

“नहीं गुरनाम, तू मेरी मजबूरी को नहीं समझता। “

“खूब समझता हूँ। प्रेमिका से मिलने में कोई मजबूरी नहीं थी।” गुरनाम ने कटाक्ष किया।

“अरे भाई! मैं उससे मिलने कहाँ गया था। वह स्वयं ही मुझसे मिलने आई।” रशीद ने अपनी सफाई देते हुए कहा।

“पूनम यहाँ चली आई।” गुरनाम ने मुस्कुराते पूछा, “सच कह रहा है तू?” उसके स्वर से लगता था कि उसे दोस्त की बात का विश्वास नहीं आ रहा था।

“क्यों इसमें आश्चर्य की क्या बात है?”

“आश्चर्य नहीं दोस्त! तेरे सौभाग्य पर ईर्ष्या कर रहा हूँ। तुझे अपना वचन निभाने का अवसर आप ही मिल गया।”

“कैसा वचन?”

“यही कि लड़ाई समाप्त हो जाने पर इन्हीं वादियों में उसके साथ दस दिन बिता सकेगा।”

“ओह! तो ब तक याद है तुझे वह बात!”

“हाँ दोस्त! उस वचन के बाद पूनम ने जो कुछ कहा था, उसी आवाज को तो सिगरेट लाइटर में सुन-सुन केर आप जीता था और हम सबको सुना कर बोर करता था।”

“वह कल जा रही है।”

“क्या पूनम अभी तक यही है।” गुरनाम उछल पड़ा।

“हाँ और आज पार्टी में भी आ रही है।”

“ओह! तब तो हम भी दर्शन कर लेंगे।”

“लेकिन देखना कोई अशिष्टता!”

“अरे जा! हमें शिष्टता सिखाता है।” गुरनाम ने उसकी बात काट दी और फिर बोला, “अरे हम तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार कर ले, लेकिन औरतों की हमेशा इज्जत करते हैं।”

तभी अर्दली ने आकर गुरनाम को बताया कि उसके स्नान के लिए पानी तैयार है। गुरनाम ने जल्दी जल्दी लंबे घूंट लेकर चाय की प्याली खाली कर दी और एक डकार लेते हुए बोला, “लेकिन पार्टी में एक बात का ध्यान रहे रणजीत!”

“क्या?”

“लोगों से मेरा परिचय कराते समय यही बताना कि मैं छुट्टी पर हूँ, ड्यूटी पर नहीं!”

“अबे तो क्या अपनी तरह मुझे भी बुद्धू समझता है।”

“नहीं यार सावधानी के लिए कह रहा था। क्या करें ड्यूटी ही ऐसी है। तेरे यहाँ तो मैं दोस्ती निभाने के लिए आ गया। वरना मुझे होटल में ठहरने का आर्डर है।”

रशीद कुछ सोचने लगा। फिर कुछ दिन मौन रहकर सरसरी ढंग से गुरनाम से पूछ बैठा, “तुम्हें यहाँ रहते क्या करना होगा।”

“लोगों से मेलजोल बढ़ाना। भारतीय अफसरों और यूएनओ के पर्यवेक्षकों पर दृष्टि रखना।”

“इससे क्या मिलेगा?”

“उस ‘रिंग’ का पता, जो दुश्मनों के लिए कश्मीर में जासूसी कर रहा है।”

“कोई सुराग तो मिला होगा?”

“केवल इतना कि उस रिंग का कोड नंबर है 555!” गुरनाम में बहुत धीरे से कहा और अपना साफा खोलता हुआ गुसल घर की ओर चला गया।

555 का नंबर सुनकर रशीद के मस्तिष्क को जैसे बिजली का झटका लगा और वह कुछ क्षण के लिए स्थिर सा रह गया। उसे यूं अनुभव हुआ जैसे कि से भयानक शक्ति ने से जकड़ लिया हो और वह कोशिश करने पर भी उसकी पकड़ से निकलना पा रहा हो।

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