चैप्टर 4 अदल बदल : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 4 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 4 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

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साढ़े आठ बज चुके थे। मास्टर हरप्रसाद अपनी दस वर्ष की पुत्री प्रभा के साथ बातचीत करके उसका मन बहला रहे थे। ऊपर से वे प्रसन्न अवश्य दिख रहे थे, परन्तु भीतर से उनका मन खिन्न और उदास हो रहा था। इधर दिन-दिनभर जो उनकी पत्नी मायादेवी घर से गायब रहने लगी थी। यह उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। उनके समुद्र के समान शांत और गंभीर हृदय में भी तूफान के लक्षण प्रकट हो रहे थे। फिर भी पिता-पुत्री प्रेम से बातचीत कर रहे थे।

प्रभा ने कहा – ‘पिताजी आज आप मुझे कमरे में टंगी तस्वीरों में इन महापुरुषों को महिमा समझाइये।’

मास्टर ने प्रेम की दृष्टि से पुत्री की ओर देखा और फिर दीवार पर लगी बुद्ध की बड़ी-सी तस्वीर की ओर उंगली उठाकर कहा – ‘यह हैं भगवान बुद्ध, जिन्होंने राज-सुख त्याग कठोर संयम व्रत लिया, और विश्व को अहिंसा का संदेश दिया। उन्होंने मूक प्राणियों की ऐसी भलाई की कि आधी दुनिया इनके चरणों में झुक गई।’

फिर उन्होंने शंकराचार्य की मूर्ति की ओर संकेत करके कहा – ‘ये शंकर हैं, जिन्होंने ब्रह्म-पद पाया, संसार को मायाजाल से छुड़ाया, थोड़ी ही अवस्था में इन्होंने उत्तर से दक्षिण तक नये हिन्दू धर्म की स्थापना की।

मास्टर बड़ी देर तक उस मूर्ति की ओर एक टक देखते रहे, फिर उन्होंने प्रताप, शिवाजी की ओर संकेत करके कहा – ‘ये वीरशिरोमणि प्रताप हैं, जिन्होंने पच्चीस वर्ष वन में दुःख पाये, पर शत्रु को सिर नहीं झुकाया। ये शिवाजी हैं, जिन्होंने हिन्दुओं की मर्यादा रखी, इन्होंने ऐसी तलवार चलाई कि दक्षिण में इनकी दुहाई फिर गई।’ अंत में उन्होंने स्वामी दयानंद की ओर देखकर कहा – ‘ये स्वामी दयानंद हैं, जिन्होंने वेदों का उद्धार किया, सोते हुए हिन्दू धर्म को, सत्य का शंख फूंककर जगा दिया।’

फिर मास्टरजी ने गांधीजी के चित्र की ओर उंगली उठाकर कहा – ‘और ये…’

प्रभा ने उतावली से कहा – ‘बापू हैं, मैं जानती हूँ।’

‘हाँ, जिन्होंने भारत की दासता की बेड़ियाँ काटी, प्रेम की गंगा भारत में बहाई, हमें जीवन दिया और अपना जीवन बलिदान किया। जो विश्व-क्रांति के पिता-अहिंसा के पुजारी और सत्य के प्रतीक थे।’

बड़ी देर तक मास्टरजी दीवार पर लगी हुई उन महापुरुषों की तस्वीरों की प्रशंसा करते रहे। फिर उन्होंने कहा – ‘पुत्री, जो कोई इन महापुरुषों के पदचिन्हों पर चलेगा, उसका जीवन धन्य हो जाएगा।’

प्रभा ने कहा – ‘पिताजी मैं बड़ी होकर इन महापुरुषों की शिक्षाओं पर चलूंगी।’

मास्टरजी ने पुत्री की पीठ पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा – ‘पुत्री, ये सब हमारे देश के पूज्य पुरुष हैं, उनकी नित्य पूजा-सेवा करना बालकों का धर्म है।’

पिता-पुत्री इस प्रकार वार्तालाप में मग्न थे कि मायादेवी ने झपटते हुए घर में प्रवेश किया। सीधी अपने कमरे में चली गई।

प्रभा ने प्रसन्न मुद्रा से कहा – ‘पिताजी! माताजी आ गई।’

मास्टरजी ने सहज स्वर में कहा – ‘इतनी देर कर दी। बेचारी प्रभा भूखी बैठी है, कहती है, माताजी के साथ ही खाऊंगी।’

बालिका ने कहा – ‘माताजी, अभी पिताजी ने भी तो भोजन नहीं किया है। आओ, हमको भोजन दो।’

मायादेवी इस समय श्रृंगार-टेबल के सामने बैठकर जल्दी-जल्दी होंठों पर लिपिस्टिक फेर रही थी, उसने वहीं से कहा – ‘मुझे फुर्सत नहीं है।’

माता का यह रूखा जवाब सुनकर भूखी पुत्री पिता की ओर देखने लगी।

मास्टरजी ने कहा – ‘खाना खा लो प्रभा की माँ।’

‘मैं तो खा आई हूँ।’ फिर उसने दो-तीन साड़ियाँ उलट-पुलट करते हुए पति की ओर देखकर पूछा – ‘ज़रा देखो तो, कौन-सी ठीक जंचेगी।’

परन्तु मास्टर ने थोड़ा क्रुद्ध होकर कहा – ‘ये साड़ियाँ इस वक्त क्यों देखी जा रही हैं ?

‘मुझे जाना है।’ माया ने जल्दी-जल्दी हाथ चलाते हुए कहा।

मास्टर ने कहा – ‘यह घर से बाहर जाने का समय नहीं है, बाहर से आकर आराम करने का समय है।’

‘भाई, तुमने तो नाक में दम कर दिया। मुझे जाना है। आज आजाद महिला-सघ में डांस है, जानते तो हो, मेरे न होने से वहाँ कैसा बावैला मच जायेगा।’

‘तो दिन-दिन भर घर से बाहर रहना काफी न था, अब रात-रात भर भी घर से बाहर रहना होगा?’

‘पिंजरे में बंद पंछी की तरह रहना मुझे पसंद नहीं है।’

‘परन्तु नारी धर्म का निर्वाह घर ही में होता है। घर के बाहर पुरुष का संसार है। घर के बाहर स्त्री, पुरुष की छाया की भांति अनुगामिनी होकर चल सकती है, और घर के भीतर पुरुष पुरुषत्व धर्म को त्यागकर रह सकता है। यह हमारी युग-युग की पुरानी गृहस्थ-मर्यादा है।’ मास्टरजी ने आवेश में आकर कहा।

किन्तु माया दूसरे ही मूड में थी। उसने नाक-भौं सिकोड़कर कहा – ‘इस सड़ी-गली मर्यादा के दिन लद गए। अब स्वतंत्रता के सूर्य ने सबको समान अधिकार दिए हैं, अब आप नारी को बांधकर नहीं रख सकते।‘

‘बांधकर रखने की बात नहीं। नारी का कार्यक्षेत्र घर है, पुरुष का घर से बाहर। पुरुष अपने पुरुषार्थ से सुख-संपत्ति ढो-ढो-कर लाता है, नारी उसे सजाकर उपभोग के योग्य बनाती है पुरुष का काम प्रकट है। स्त्री का मुप्त है। पुरुष संचय करता है, स्त्री प्रेम दिखाकर उसे पुरस्कृत करती है। पुरुष संसार के झंझटों का बोझ ढो-ढोकर थका-मांदा जब घर आता है, तो स्त्री प्रेम की वर्षा करके उसकी थकान दूर करती है। पुरुष का धर्म कठोर है, स्त्री का धर्म कोमल और दयनीय है। इसीलिए नारी का स्थान प्यार है और वहीं रहकर वह पुरुषों पर अमृत की वर्षा कर सकती है।‘

‘और यदि स्त्री भी घर के बाहर अपना कर्मक्षेत्र बनाए तो?’

‘तो यह उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। संसार के झंझटों का झंझावात उसके रूप-रस को सुखाकर उसे नीरस बनाडालेगा। घर से बाहर का कठिन संसार पुरुष के मस्तिष्क और बलवान भुजाओं से ही जीता जा सकता है, स्त्री के कोमल बाहुपाश और भावुक हृदय से नहीं।’

‘युग-युग से नारी को पुरुष ने घर के बंधन में डालकर कमजोर बना दिया है, अब वे भी पुरुष के समान बल संचित कर घर के बाहर के संसार में विचरण करेंगी।’ मायादेवी ने उपेक्षा से पति की ओर देखते हुए कहा।

किन्तु मास्टरजी ने सहज शांत भाव से कहा – ‘तब उनमें से पुरुष को उत्साहित करने का जादू उड़नछू हो जाएगा। उनके जिस स्निग्ध स्नेह-रस का पान कर पुरुष मस्त हो जाता है, वह रूप खत्म हो जाएगा। उनके पवित्र आंचल की बायु से पुरुषों की कायरता को नष्ट कर डालने के सामर्थ्य का लोप हो जाएगा। पुरुषों का घर सूना हो जाएगा। नारी का ध्रुव भंग हो जायेगा।’

‘यों क्यों नहीं कहते कि नारी के स्वतंत्र होने से प्रलय हो जायेगी।’ मायादेवी ने तिनककर कहा।

अवश्य हो जाएगी। जैसे पृथ्वी अपने ध्रुव पर स्थिर होकर घूमती है, उसी प्रकार घर के केंद्र में स्त्री को स्थापित करके ही संसार-चक्र घूमता है। स्त्री घर की लक्ष्मी है। समाज उन्हीं पर अवलंबित है। स्त्री केंद्र से विचलित हुई तो समाज भी छिन्न-भिन्न हो जायेगा।’

‘ऐसा नहीं हो सकता। जैसे पुरुष स्वतंत्र भाव से घूम-फिर-कर घर लौट आता है, वैसे स्त्री भी लौट आ सकती है।’

‘नहीं आ सकती। पुरुष देखना और जानना चाहता है, अपनाना नहीं। क्योंकि उसमें केवल ज्ञान है। परन्तु स्त्री वस्तु-संसर्ग में आकर उससे लिप्त हो जाती है, क्योंकि उसमें निष्ठा है।’

‘क्यों?’

‘क्योंकि नारी की प्रतिष्ठा प्राणों में है, पुरुष की विचारों में। नारी समाज का हृदय है, पुरुष समाज का मस्तिष्क। इसलिए नारी सक्रिय है, और पुरुष निष्क्रिय है? नारी केंद्रमुखी शक्ति है, और पुरुष केंद्रविमुख है। इसी से नारी को केंद्र बनाकर पुरुष-संघ बना है जो नारी के चारों ओर चक्कर काटता रहता है।

‘पर जीवन की सामग्री पर नारी का अधिकार है, पुरुष का नहीं।’

‘हां, किन्तु नारी की इसी शक्ति ने नारी को पुरुषों से बांध रखा है।’

‘परन्तु अब नारी बंधनमुक्त होकर रहेगी।’

‘तो वह स्वयं नष्ट होकर संसार को और समाज के संगठन को भी नष्ट कर देगी।’

‘ये सब पुरुषों के स्वार्थ की बातें हैं।’

‘यह वह सत्य है, जिसमें नर और नारी के दो रूप होने के भेद छिपे हैं। नर नर है, नारी नारी है।’

‘परन्तु नर-नारी दोनों समान हैं।’

‘समान नहीं हैं, दोनों मिलकर एक इकाई हैं। न पुरुष अकेला एक है, न स्त्री अकेली एक है। दोनों आधे हैं, दोनों मिलकर एक हैं।’

‘ऐसा नहीं है।’

‘ऐसा ही है। स्त्री पुरुष की भूखी है, पुरुष स्त्री का भूखा है, दोनों में दोनों की कमी है। दोनों एक-दूसरे को आत्मदान देकर जब एक होते हैं, तब वे पूर्ण इकाई बनते हैं।’

‘स्त्रियों को भी अधिकार है।’

‘जब स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर एक इकाई हुए, तो पृथक अधिकार कहाँ रहे?’

‘वे रहेंगे, हम उन्हें प्राप्त करेंगी।’

‘अथवा जो प्राप्त हैं उन्हें भी खोयेंगी?’

बातचीत हो रही थी और मायादेवी का श्रृंगार भी हो रहा था। अब कंघी-चोटी से लैस होकर उन्होंने कहा – ‘अच्छा, मैं जाती हूँ।’

‘यह ठीक नहीं है प्रभा की माँ।’

‘वापस आने पर मैं तुम्हारे उपदेश सुनूंगी, परन्तु अब तो समय बिलकुल नहीं है।’

मायादेवी तेजी से चल दी। उन्होंने उलटकर पुत्री और पति की ओर देखा भी नहीं।

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अन्य हिंदी उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ गबन मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ चंद्रकांता देवकी नंदन खत्री का उपन्यास

 

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