चैप्टर 19 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 19 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 19 Manorama Novel By Munshi Premchand

Chapter 19 Manorama Novel By Munshi Premchand

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | | | || | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20

PrevNext | All Chapters

राजा विशाल सिंह ने इधर कई साल से राजकाज छोड़ रखा था। मुंशी वज्रधर और दीवान साहब की चढ़ बनी थी। प्रजा के सुख दुख की चिंता अगर किसी को थी, तो मनोरमा को थी। राजा साहब के सत्य और न्याय का उत्साह ठंडा पड़ गया था। मनोरमा को पाकर उन्हें किसी चीज की सुधि न थी, लेकिन इस बालक ने आकर राजा साहब के जीवन में एक नए उत्साह का संचार कर दिया। अब तक उनके जीवन का कोई लक्ष्य न था। मन में प्रश्न होता था कि किसके लिए करूं? अब जीवन का लक्ष्य मिल गया था। फिर वह राज काज से क्यों विरक्त रहते? मुंशीजी अब तक तो दीवान साहब से मिल कर अपना स्वार्थ साधते रहते थे; पर अब वह हर किसी को गिनने लगे थे। ऐसा मालूम होता था कि अब वही राजा हैं। दीवान साहब अगर मनोरमा के पिता थे, तो मुंशीजी राजकुमार के दादा थे। फिर दोनों में कौन दबता? कर्मचारियों पर कभी ऐसी फटकारें न पड़ी थीं। मुंशीजी को देखते ही बेचारे थर-थर कांपने लगते थे। अगर कोई अमला उनके हुक्म की तामील करने में देर करता, तो जामे से बाहर हो जाते। बात पीछे करते, निकालने की धमकी पहले देते।

सुनने वालों को ये बात ज़रूर बुरी मालूम होती थी। चक्रधर के कानों में कभी ये बात पड़ जाती, तो यह जमीन में गड़ से जाते थे। वह आजकल मुंशीजी से बहुत कम बोलते थे। अपने घर भी केवल एक बार गए थे। वहाँ माता की बातें सुनकर उनकी फिर आने की इच्छा न होती थी। मित्रों से मिलना जुलना उन्होंने बहुत कम कर दिया था। वास्तव में यहाँ का जीवन उनके लिए असह्य हो गया था। वह फिर अपने शांति कुटीर को लौट जाना चाहते थे। यहाँ आए दिन कोई न कोई बड़ी बात हो ही जाती थी, जो दिन भर उनके चित्त को व्यग्र करने को काफ़ी होती थीं। कहीं कर्मचारियों में जूती पैजार होती थी, कहीं गरीब आसामियों पर डांट-फटकार, कहीं रनिवास में रगड़-झगड़ होती थी, तो कहीं इलाकों में दंगा फसाद। उन्हें स्वयं कभी कर्मचारियों को तम्बीह करनी पड़ती। इस बार उन्हें विवश होकर नौकरों को मारना भी पड़ा था। सबसे कठिन समस्या यही थी कि उनके पुराने सिद्धांत भंग होते चले जाते थे। वह बहुत चेष्टा करते थे कि मुँह से कोई अशिष्ट शब्द न निकले, पर प्रायः नित्य ही ऐसे अवसर पड़ते थे कि उन्हें विवश होकर दंड नीति का आश्रय लेना ही पड़ता था।

लेकिन अहिल्या इस जीवन का चरम सुख भोग रही थी। बहुत दिनों तक दुख भोगने के बाद उसे यह सुख मिला था और वह उनमें मग्न थी। अपने पुराने दिन उसे बहुत जल्दी भूल गए और उनकी याद दिलाने से उसे दुख होता था। उसका रहन साहब सबकुछ बहुत बदल गया था। वह अच्छी खासी अमीरजादी बन गई थी।

अब चक्रधर अहिल्या से अपने मन की बातें कभी न कहते थे। यह संपदा उसका सर्वनाश किए डालती थी। क्या अहिल्या यह दुख विलास छोड़ कर मेरे साथ चलने को राजी होगी। उन्हें शंका होती थी कि कहीं वह इस प्रस्ताव को हँसी में न उड़ा दे या मुझे रुकने पर मजबूर न करे। इसी प्रकार के प्रश्न चक्रधर के मन में उठते रहते थे और वह किसी भांति अपने कर्तव्य का निश्चय न कर पाते थे। केवल एक बात निश्चित थी – वह इन बंधनों में पड़कर अपना जीवन नष्ट न करना चाहते थे। संपत्ति पर अपने सिद्धांतों को भेंट न कर सकते थे।

एक दिन चक्रधर मोटर पर हवा खाने निकले। गर्मी के दिन थे। जी बेचैन था। हवा लगी, तो देहात की ओर जाने का की चाहा। बढ़ते ही गए, यहाँ तक कि अंधेरा हो गया। शोफर को साथ न लिया था। ज्यों ज्यों आगे बढ़ते थे, सड़कें खराब आती जाती थीं। सहसा उन्हें रास्ते में एक बड़ा सांड दिखाई दिया। उन्होंने बहुत शोर मचाया, पर सांड न हटा। जब समीप आने पर भी सांड राह में ही खड़ा रहा, तो उन्होंने कतराकर निकल जाना चाहा। पर सांड सिर झुकाये ‘फों-फ़ों’ करता फिर सामने आ खड़ा हुआ। चक्रधर छड़ी हाथ में लेकर उतरे कि उसे भगा दें, पर वह भागने के बदले उनके पीछे दौड़ा। कुशल यह हुई कि सड़क के किनारे एक पेड़ मिल गया। जी छोड़ कर भागे और छड़ी फेंक पेड़ की एक शाखा पकड़ कर लटक गए। सांड एक मिनट तक तो पेड़ से टक्कर लेता रहा; पर जब चक्रधर न मिले, तो वह मोटर के पास चला आया और उसे सींगों से पीछे की ओर ठेलता हुआ दौड़ा। कुछ दूर के बाद मोटर सड़क से हटकर एक वृक्ष से टकरा गई। अब सांड पूंछ उठा उठा कर कितना ही जोर मारता है, पीछे हट-हट कर उसमें टक्करें मारता है, पर वह जगह से नहीं हिलती। तब उसने बगल में जाकर इतनी ज़ोर से टक्कर लगाई कि मोटर उलट गई। फिर भी सांड ने उसका पिंड न छोड़ा। कभी उसके पहियों से टक्कर लेता, कभी पीछे की ओर ज़ोर लगाता। मोटर के पहिए फट गये, कई पुर्जे टूट गये, पर सांड बराबर उस पर आघात किया जाता था।

सांड ने जब देखा कि शत्रु की धज्जियाँ उड़ गई और अब वह शायद फिर न उठ सके, तो डकारता हुए एक तरफ को चला गया। तब चक्रधर नीचे को उतरे और मोटर के समीप जाकर देखा, तो वह उल्टी पड़ी हुई थी। जब तक सीधी न हो जाये, तब तक कैसे पता चले कि क्या-क्या चीजें टूट गई और अब वह चलने योग्य है या नहीं। अकेले मोटर को सीधी करना एक आदमी का काम न था। पूर्व की ओर थोड़ी ही दूर पर एक गाँव था। चक्रधर उसी तरफ चले। वह बहुत छोटा सा पुरवा था। किसान लोग अभी थोड़ी ही देर पहले ऊख की सिंचाई करके आए थे। कोई बैलों को पानी सानी दे रहा था, कोई खाने जा रहा था, कोई गाय दुह रहा था। सहसा चक्रधर ने जाकर पूछा – ‘यह कौन सा गाँव है?’

एक आदमी ने जवाब दिया – ‘भैसोर!’

चक्रधर – ‘किसका गाँव है?’

किसान – ‘महाराज का! कहीं से आते हो।’

चक्रधर – ‘हम महाराज के यहाँ से ही आते हैं। वह बदमाश सांड किसका है, जो इस वक़्त सड़क पर घूमा करता है।’

किसान – ‘यह तो नहीं जानते जनाब, पर उसके मारे नाको दम है।’

चक्रधर ने सांड के आक्रमण का ज़िक्र करके कहा – ‘तुम लोग मेरे साथ चलकर मोटर को उठा दो।’

इस पर दूसरा किसान अपने द्वार से बोला – ‘सरकार! भला रात को मोटर उठाकर क्या कीजियेगा? वह चलने लायक तो होगी नहीं।’

चक्रधर – ‘तो तुम लोगों को उसे ठेलकर ले चलना होगा।’

पहला किसान – ‘सरकार रात भर यहीं ठहरें, सवेरे चलेंगे। न चलने लायक होगी, तो गाड़ी पर लादकर पहुँचा देंगे।’

चक्रधर ने झल्लाकर कहा – ‘कैसी बातें करते हो जी! मैं रात भर यहाँ पड़ा रहूंगा। तुम लोगों को इसी वक़्त चलना होगा।’

चक्रधर को उन आदमियों में से कोई न पहचानता था। समझे, राजाओं के यहाँ सभी तरह के लोग आते-जाते हैं, होंगे कोई। फिर वे सभी जाति से ठाकुर थे और ठाकुर से सहायता के नाम पर जो काम चाहे ले लो, बेगार के नाम पर उनकी त्योरियाँ बदल जाती हैं।

किसान ने कहा – ‘साहब! इस बखत तो हमारा जाना न होगा। अगर बेगार चाहते हो, तो वह उत्तर की ओर दूसरा गाँव है, वहाँ चले जाइये। बहुत चमार मिल जायेंगे।’

यह कहकर वह घर में जाने लगा।

चक्रधर को ऐसा क्रोध आया कि उसके हाथ पकड़कर घसीट लूं और ठोकर मारते हुए के चलूं, मगर उन्होंने जब्त करते हुए कहा – ‘मैं सीधे से कहता हूँ, तो तुम लोग उड़नघाईयाँ बताते हो। अभी कोई चपरासी आकर दो घुड़कियाँ जमा देता, तो सारा गाँव भेड़ की भांति उसके पीछे चला जाता।’

किसान वहीं खड़ा हो गया और बोला – ‘सिपाही क्यों घुड़कियां जमायेगा, कोई चोर हैं। हमारी खुशी, नहीं जाते। आपको जो करना है, कर लीजियेगा।’

चक्रधर से जब्त न हो सका। छड़ी हाथ में थी ही, वह बाज़ की तरह किसान पर टूट पड़े और धक्का देकर कहा – ‘चलता है या जमाऊं दो चार हाथ। तुम लात के आदमी भला बात से क्यों मानने लगे?’

चक्रधर कसरती आदमी थे। किसान धक्का खाकर गिर पड़ा। यों वह भी करारा आदमी था। उलझ पड़ता, तो चक्रधर आसानी से उसे न गिरा सकते, पर यह रौब में आ गया। सोचा, कोई हकीम है, नहीं तो उसकी हिम्मत न पड़ती कि हाथ उठाए। संभलकर उठने लगा। चक्रधर ने समझा शायद यह उठकर मुझ पर वार करेगा। लपककर फिर एक धक्का दिया। सहसा सामने वाले घर से एक आदमी लालटेन लेकर निकल आया और चक्रधर को देखकर बोला – ‘अरे भगत जी! तुमने यह भेष कबसे धारण किया। मुझे पहचानते हो, हम भी तुम्हारे साथ जेल में थे।’

चक्रधर उसे तुरंत पहचान गये। यह उनका जेल का साथी धन्ना सिंह था। चक्रधर का सारा क्रोध हवा हो गया। लजाते हुए बोले, “क्या तुम्हारा घर इसी गाँव में है धन्ना!”

धन्ना सिंह – ‘हाँ साहब! यह आदमी जिसे आप ठोकरें मार रहे हैं, मेरा सगा भाई है। खाना खा रहा था। खाना खाकर जब तक उठे, तब तक तो गरमा ही गये। तुम्हारा मिजाज़ इतना कड़ा कबसे हो गया। कहां तो दरोगा को बचाने के लिए अपनी छाती पर संगीन रोक ली थी, कहां आज ज़रा सी बात पर इतने तेज पड़ गये। ‘

चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। वे अपनी सफ़ाई में एक शब्द भी न बोल सके। उनके जीवन की सारी कमाई, जो उन्होंने न जाने कौन-कौन से कष्ट सहकर बटोरी थी, यहीं लुट गई।

धन्ना सिंह ने अपने भाई को हाथ पकड़ कर बैठाना चाहा, तो वह ज़ोर से ‘हाय हाय’ कहके चिल्ला उठा। दूसरी बार गिरते समय उसका दाहिना हाथ उखड़ गया था। धन्ना सिंह ने समझा उसका हाथ टूट है। चक्रधर के प्रति उसकी रही सही भक्ति भी गायब हो गई। उनकी ओर आरक्त नेत्रों से देखकर बोला – ‘सरकार आपने तो इनका हाथ ही तोड़ दिया। (ओंठ चबाकर) क्या करें अपने द्वार पर आए हो और कुछ पुरानी बातों का खयाल है, नहीं तो इस समय क्रोध ऐसा आ रहा है कि इसी तरह तुम्हारे हाथ भी तोड़ दूं। अभी जाकर महाराज के द्वार पर फरियाद करें, तो तुम खड़े खड़े बंध जाओ। बाबू चक्रधर सिंह का नाम तो तुमने सुना होगा, अब किसी सरकारी आदमी की मजाल नहीं कि बेगार के सकें, तुम बेचारे किस गिनती में हो। तुम्हारे ही उपदेश में मेरी पुरानी आदत छूट गई। गांजा और चरस तभी छोड़ दिया, जुएं के बगीचे नहीं जाता। जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोड़ डाले, अब वह टूटी हुई पड़ी है। मुझे तो तुमने यह उपदेश दिया और आप लगे गरीबों को कुचलने। मन्ना सिंह ने इतना ही न कहा था कि रात को यहीं ठहर जाओ, सवेरे हम तुम्हारी मोटर को पहुँचा देंगे। इसमें क्या बुराई थी।’

चक्रधर ने ग्लानि वेदना से व्यथित स्वर में कहा – ‘धन्ना सिंह! मैं बहुत लज्जित हूं। मुझे क्षमा करो। जो दंड चाहे, दो; मैं सिर झुकाये हुए हूँ, ज़रा भी सिर न हटाऊंगा, एक शब्द भी मुँह से न निकालूंगा।’

यह कहते कहते उनका गला फंस गया। धन्ना सिंह भी गदगद हो गया। बोला – ‘अरे भगत जी! ऐसी बातें न कहो। भैया, भाई का नाता बड़ा गहरा होता है। भाई चाहे अपना शत्रु भी हो, लेकिन कौन आदमी है, जो भाई को मार खाते देखकर क्रोध को रोक सके। मुझे अपना वैसा ही दास समझो, जैसा जेल में समझते थे। तुम्हारी मोटर कहाँ है? चलो मैं उठाए देता हूँ, हुक्म हो तो गाड़ी जोत दूं।’

चक्रधर ने रोककर कहा – ‘जब तक इसका हाथ अच्छा न हो जायेगा, तब तक मैं कहीं न जाऊंगा धन्ना सिंह। हाँ, कोई ऐसा आदमी मिले जो यहाँ से जगदीशपुर जा सके, तो उसे मेरी चिट्ठी दे दो।’

धन्ना सिंह – ‘जगदीशपुर में तुम्हारा कौन है भैया? क्या रियासत में नौकर हो गए हो?’

चक्रधर – ‘नौकर नहीं हूँ। मैं मुंशी वज्रधर का बेटा हूँ।’

धन्ना सिंह ने विस्मृत होकर कहा – ‘सरकार ही बाबू चक्रधर सिंह हैं। धन्य भाग थे कि सरकार के आज दरसन हो गये।’

इतना कहते हुए वह दौड़कर घर में गया और एक चारपाई लाकर द्वार पर डाल दी। फिर लपककर गाँव में खबर दे आया। एक क्षण में गाँव के सब आदमी आकर चक्रधर को नजरें देने लगे। चारों ओर हलचल सी मच गई। सबके सब उनके यश गाने लगे। जबसे सरकार आए हैं, हमारे दिन फिर गए हैं। आपका शील स्वभाव जैसा सुनते थे, वैसा ही पाया। आप साक्षात भगवान हैं।

धन्ना सिंह – ‘मैंने तो पहचाना ही नहीं था। क्रोध में जाने क्या क्या बक गया।’

दूसरा ठाकुर बोला – ‘सरकार अपने को खोल देते, तो हम मोटर को कंधे पर लादकर ले चलते।’

चक्रधर को इन ठकुरसुहाती बातों में जरा भी आनंद न आता था। उन्हें उन पर दया आ रही थी। वही प्राणी, जिन्हें उन्होंने अपने कोप का लक्ष्य बनाया था, उनके शौर्य और शक्ति की प्रशंसा कर रहा था। अपमान को निगल जाना चरित्र पतन की अंतिम सीमा है। और यही खुशामद सुनकर हम लट्टू हो जाते हैं। जिस वस्तु से घृणा होनी चाहिए। हम उस पर फूल नहीं समाते। चक्रधर को अब आश्चर्य हो रहा था कि मुझे इतना क्रोध आया कैसे? आज उन्हें अनुभव हुआ कि रियासत की बू कितनी गुप्त और अलक्षित रूप से उनमें समाती जा रही है, कितने गुप्त और अलक्षित रूप से उनकी मनुष्यता, चरित्र और सिद्धांत का ह्रास हो रहा है।

चक्रधर को रात भर नींद न आई। उन्हें बार बार पश्चाताप होता था कि मैं क्रोध के आवेग में क्यों आ गया? जीवन में यह पहला ही अवसर था, जब उन्होंने एक निर्बल प्राणी पर हाथ उठाया था। जिसका समस्त जीवन दीन जनों की सहायता में गुजरा हो, उसकी यह कायापलट नैतिक पतन से कम नहीं थी।

चक्रधर तो इस विचार में पड़े हुए थे। अहिल्या अपने सजे हुए शयनगार में मखमली गद्दों पर लेटी अंगड़ाइयाँ ले रही थी। जब चक्रधर ने कमरे में कदम रखा, तो अहिल्या त्योरियाँ चढ़ाकर बोली – ‘अब तो रात रात भर आपके दर्शन नहीं होते।’

चक्रधर – ‘तुम्हें कुछ खबर भी है। आधे घंटे तक तुम्हें जगाता रहा, जब तुम न जागी, तो चला गया। यहाँ आकर तुम सोने में कुशल हो गई हो।’

अहिल्या – ‘क्या मैं सचमुच बहुत सोती हूँ?’

चक्रधर – ‘अच्छा अभी तुम्हें उस पर संदेह भी है। घड़ी में देखो। आठ बज गए हैं। तुम पांच बजे उठकर घर का धंधा करने लगती थी।’

अहिल्या – ‘तब की बात जाने दो। अब उतने सवेरे उठने की जरूरत ही क्या है?’

चक्रधर – ‘तो क्या तुम उम्र भर यहाँ मेहमानी खाओगी?’

अहिल्या ने विस्मित होकर कहा – ‘इसका क्या मतलब?’

चक्रधर – ‘इसका मतलब यही है कि हमें यहाँ आए बहुत दिन गुजर गए हैं। अब अपने घर चलना चाहिए।’

अहिल्या – ‘अपना घर कहाँ है?’

चक्रधर – ‘अपना घर वही है, जहाँ अपने हाथों की कमाई है। ससुराल की रोटियाँ बहुत खा चुका। खाने में तो वह बहुत मीठी मालूम होती हैं, पर उससे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। इतने ही दिनों में हम दोनों कुछ में कुछ हो गये। यहाँ कुछ दिन और रहा, तो कम से कम मैं तो कहीं का न रहूंगा। कल मैंने एक गरीब किसान को मारते मारते अधमरा कर दिया। उसका कसूर केवल इतना था कि वह मेरे साथ आने को राज़ी न होता था।’

अहिल्या – ‘यह कोई बात नहीं। गंवारों के उज्जड़पन पर क्रोध आ ही जाता है। मैं यहाँ दिन भर लौंडियों पर झल्लाती रहती हूँ। मगर मुझे तो कभी ये खयाल ही नहीं आया कि घर छोड़कर भाग जाऊं।’

चक्रधर – ‘तुम्हारा घर है। तुम रह सकती हो। लेकिन मैंने तो जाने का निश्चय कर लिया है।’

अहिल्या ने अभिमान से सिर उठाकर कहा – ‘तुम न रहोगे, तो मुझे यहाँ रहकर क्या लेना है। मेरे राज़ पाट तो तुम हो। जब तुम ही न रहोगे, तो अकेले पड़ी-पड़ी मैं क्या करूंगी? जब चाहे चलो, हाँ पिताजी से पूछ लो। उनसे बिना पूछे जाना तो उचित नहीं। मगर एक बात अवश्य कहूंगी। हम लोगों के जाते ही यहाँ का सारा कारोबार चौपट हो जायेगा। रियासत रेजबार हो जायेगी और एक दिन बेचारे लल्लू को ये सब पापड़ बेलने पड़ेंगे।’

चक्रधर समझ गए कि मैं आग्रह करूं, तो यह मेरे साथ जाने को राज़ी हो जायेगी। जब ऐश्वर्य और पतिप्रेम दो में से एक को लेने और दूसरे को त्याग देने की समस्या पड़ जायेगी, तो अहिल्या किस ओर झुकेगी, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं था; लेकिन वह उसे कठोर घोर संकट में डालना उचित न समझते थे। आग्रह से विवश हो कर यह उनके साथ चली ही गई, तो क्या! जब उसे कोई कष्ट होगा, तो मन ही मन झुंझलायेगी और बात बात पर कुढ़ेगी और लल्लू को यहाँ छोड़ना ही पड़ेगा। मनोरमा उसे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ सकती। राजा साहब तो उसके वियोग में प्राण त्याग दें। पुत्र को छोड़ कर अहिल्या कभी जाने को तैयार न होगी और हो भी गई, तो बहुत जल्द लौट आयेगी।

चक्रधर बड़ी देर तक इन्हीं विचारों में मग्न बैठे रहे। अंत में उन्होंने बिना किसी से कहे सुने चले जाने का संकल्प किया। इसके सिवाय गला छुड़ाने का कोई उपाय न सूझता था।

चक्रधर ने अपने कमरे में जाकर दो-चार कपड़े और किताबें समेटकर रख दीं। कुछ इतना ही सामान था, जिसे एक आदमी आसानी से हाथ में लटकाए लिए जा सकता था। उन्होंने रात को चुपके से बकुचा उठाकर ले जाने का निश्चय किया।

यात्रा की तैयारी करके और अपने मन को अच्छी तरह समझाकर चक्रधर अपने शयनागार में सोने का बहाना करने लगे। वह चाहते थे कि यह से जाए, तो मैं अपना बाकुचा उठाऊं और लंबा हो जाऊं। मगर निंद्रा विलासिनी अहिल्या की आँखों से आज नींद कोसों दूर थी। वह कोई न कोई प्रसंग छेड़कर बातें करती जाती थीं। यहाँ तक कि जब आधी रात से अधिक बीत गई, तो चक्रधर ने कहा – ‘भई, अब मुझे सोने दो। आज तुम्हारी नींद कहाँ भाग गई?’

उन्होंने चादर ओढ़ ली और मुँह फेर लिया। गर्मी के दिन थे। कमरे में पंखा चल रहा था। फिर भी गर्मी मालूम होती थी। रोज किवाड़ खुले रहते थे। जब अहिल्या को विश्वास हो गया कि चक्रधर दो गए, तो उसने दरवाजे अंदर से बंद कर दिए और बिजली की बत्ती ठंडी करके सोई। आज वह न जाने क्यों इतनी सावधान हो गई थी। पगली! जाने वालों को किसने रोका है।

 रात बीत चुकी थी। अहिल्या को नींद आते देर न लगी। चक्रधर का प्रेम कातर हृदय अहिल्या के यों सावधान होने पर एक बार विचलित हो उठा। वे अपने आंसुओं के वेग को न रोक सके। यह सोचकर उनका कलेजा फटा जाता था कि जब प्रातःकाल वह मुझे न पायेगी, तो क्या दशा होगी।

चारों ओर सन्नाटा छाया था। सारा राज भवन शांति में विलीन हो रहा था। चक्रधर ने उठकर द्वारों को टटोलना शुरू किया। पर ऐसा दिशा भ्रम हो गया था कि द्वारों का ज्ञान न हुआ। आखिर उन्होंने दीवारों को टटोल टटोलकर बिजली का बटन खोज निकाला और बत्ती जला दी। चुपके से बाहर के कमरे में आए, अपना हैंडबैग निकाला और बाहर निकले।

बाहर आकर चक्रधर ने राजभवन की ओर देखा। असंख्य खिड़कियों और दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखाई दे रहा था। उन्हें वह दिव्य भवन सहस्त्र नेत्रों वाले पिशाच की भक्ति जान पड़ा, जिसने उनका सर्वनाश कर दिया था। वह कदम बढ़ाते हुए आगे चले। वह दिन निकलते के पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे कि फिर कोई उन्हें पा ना सके। दिन निकलने में अब बहुत देर न थी। तारों की ज्योति मंद हो चली। चक्रधर ने और तेजी से कदम बढ़ाया।

सहसा उन्हें सड़क के किनारे एक कुएं के पास का कई आदमी बैठे दिखाई दिए। उनके बीच में एक लाश हुई थी। कई आदमी लकड़ी के कुंदे लिए पीछे आ रहे थे। चक्रधर पूछना चाहते थे –  कौन मर गया है? धन्ना सिंह की आवाज पहचान कर वह सड़क पर ही ठिठक गए। इसने पहचान लिया तो बड़ी मुश्किल होगी।

धन्ना सिंह कह रहा था, ‘कजा आ गई, तो कोई क्या कर डाक्टर है? बाबू जी के हाथ में कोई डंडा भी तो न था। दो चार घूंसे मारे होंगे और क्या। मगर उस दिन से फिर उठा नहीं।’

दूसरे आदमी ने कहा – ‘ठांव-कुठांव की बात है। मन्ना भाई को कुठांव चोट लग गई।’

धन्ना सिंह – ‘बाबूजी सुनेंगे, तो उन्हें बहुत रंज होगा। जेल में हम लोग उन्हें भगत जी कहा करते थे।’

एक बूढ़ा आदमी बोला – ‘भैया, जेल की बात दूसरी थी। तब दयावान रहे होंगे। राज पाकर दयावान रहें, तो जाने।’

धन्ना सिंह – ‘बाबा! वह राज पाकर फूल उठने वाले आदमी नहीं। तुमने देखा, यहाँ से जाते ही जाते माफी दिला दी।’

बूढ़ा – ‘अरे पागल! जान का बदला कभी माफ़ी से चुकता है। तुम बाबूजी को दयावान कहते हो, मैं तो उन्हें सौ हत्यारों का एक हत्यारा कहता हूँ। राजा हैं, इससे बचे जाते हैं। दूसरा होता, तो फांसी पर लटकाया जाता।’

चक्रधर वहाँ एक क्षण भी और खड़े न रह सके। उन आदमियों के सामने जाने की हिम्मत न रही।

पांच साल गुजर गये। पर चक्रधर का कुछ पता नहीं। फिर यही गर्मी के दिन हैं। दिन को लू चलती है, रात को अंगारे बरसते हैं। मगर अहिल्या को न अब पंखे की जरूरत है न खस की टट्टियों की। उस वियोगिनी को अब रोने के सिवाय दूसरा काम नहीं है। वह अपने को बार-बार देख करती है कि वह चक्रधर के साथ क्यों न चली गई।

शंखधर उनसे पूछता रहता है – ‘अम्मा बापू जी कब आयेंगे? वह क्यों चले गए अम्मा जी?’ रानी अम्मा कहती हैं – वह आदमी नहीं देवता हैं। फिर तो लोग उनकी पूजा करते होंगे। अहिल्या के पास इन प्रश्नों का उत्तर रोने के सिवाय का कुछ नहीं था। शंखधर कभी-कभी अकेले बैठकर रोता है। कभी-कभी अकेले सोचा करता है पिताजी कैसे आयेंगे?

शंकधर का जी अपने पिता की कीर्ति सुनने से कभी न भरता। मैं रोज अपनी दादी के पास जाता है और उनकी गोद में बैठा हुआ घंटों उनकी बातें सुना करता है। निर्मला दिन भर उनकी राह देखा करती है। उसे देखते ही निहाल हो जाती है। शंखधर ही अब उसके जीवन का आधार है। अहिल्या का मुँह भी अब वह नहीं देखना चाहती।

मुंशीजी का रियासत की तरफ से एक हजार रूपये वजीफा मिलता है। राजा साहब ने उन्हें रियासत के कामों से मुक्त कर दिया है। इसीलिए मुंशीजी अब अधिकांश घर पर ही रहते हैं। शराब की मात्रा तो धन के साथ नहीं बढ़ी बल्कि और घट गई है। लेकिन संगीत प्रेम बढ़ गया है। उनके लिए सबसे आनंद का समय वह होता है, जब वह शंखधर को गोद में लिए मोहल्ले भर के बालकों को पैसे बांटने लगते हैं। इससे बड़ी खुशी की वह कल्पना ही नहीं कर सकते।

एक दिन शंखधर नौ बजे ही पहुँचा। निर्मला उस समय स्नान करके तो उसी को जल चढ़ा रही थी। जब जल चढ़ाकर आई तो शंखधर ने पूछा – ‘दादी जी! तुम पूजा क्यों करती हो?’

निर्मला लेशन कदर को गोद में लेकर कहा – ‘बेटा भगवान से मनाती हूँ कि मेरी मनोकामना पूरी करें।’

शंखधर – ‘भगवान सबके मन की बात जानते हैं।’

निर्मला – ‘हाँ बेटा भगवान सब कुछ जानते हैं।’

दूसरे दिन प्रात काल शंकधर ने स्नान किया। लेकिन स्नान करके वह जलपान करने ना आया। न जाने कहाँ चला गया। अहिल्या इधर-उधर देखने लगी, कहाँ चला गया। मनोरमा के पास आकर देखा, वहाँ भी न था। अपने कमरे में भी ना था, छत पर भी ना था। दोनों रमणियां घबराई कि स्नान करके कहाँ चला गया। लौंडिया से भी पूछा तो उन सबों ने कहा हमने तो उन्हें नहाकर आते देखा। फिर कहाँ चले गए, यह हमें मालूम नहीं। चारों ओर होने लगी। दोनों बगीचे की ओर दौड़ी गई। वह भी वह न दिखाई दिया। ऐसा बगीचे के पल्ले सिरे पर, जहाँ दिन में भी सन्नाटा रहता है, उसकी झलक दिखाई दी। दोनों चुपके-चुपके वहाँ गई और एक पेड़ की आड़ में खड़ी होकर देखने लगी। शंकर तुलसी के चबूतरे के सामने आसन मारे आंखें बंद किए ध्यान सा लगाए बैठा था। उसके सामने कुछ फूल पड़े हुए थे। एक क्षण के लिए उसने आँखें खोली, तुलसी के चबूतरे कि कई बार परिक्रमा की और तुलसी की वंदना करके धीरे से उठा। दोनों महिलायें ओट से निकलकर उसके सामने खड़ी हो गई। शंखधर उन्हें देखकर कुछ लज्जित सा हो गया और बिना कुछ बोले आगे बढ़ा।

मनोरमा – ‘वहाँ क्या करते थे बेटा?’

शंखधर – ‘कुछ तो नहीं। ऐसे ही घूमता था।’

मनोरमा – ‘नहीं, कुछ तो कर रहे थे।’

शंकधर – ‘जाइए आप से क्या मतलब?’

अहिल्या – ‘तुम्हें ना बतायेंगे…मैं इसकी अम्मा हूँ…मुझे बता देगा। मेरा लाल मेरी कोई बात नहीं टालता। हाँ बेटे, बताओ क्या कर रहे थे? मेरे कान में कह दो। मैं किसी से न कहूंगी।’

शंखधर ने आँखों में आँसू भरकर कहा – ‘कुछ नहीं, मैं बाबूजी के जल्दी से लौट आने की प्रार्थना कर रहा था। भगवान पूजा करने से सबकी मनोकामना पूरी करते हैं।’

सरल बालक की है पितृभक्ति और श्रद्धा देखकर दोनों महिलायें रोने लगी। इस बेचारे को कितना दुख है।

शंखधर ने फिर पूछा – ‘क्यों माँ तुम बाबूजी के पास कोई चिट्ठी क्यों नहीं लिखती?’

अहिल्या ने कहा – ‘कहाँ लिखूं बेटा? उनका पता भी तो नहीं जानती।’

PrevNext | All Chapters

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | | | || | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20

Read Munshi Premchand Novel In Hindi :

प्रेमा ~ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

निर्मला ~ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

प्रतिज्ञा ~ मुंशीप्रेमचंद का उपन्यास

गबन ~ मुंशीप्रेमचंद का उपन्यास

Leave a Comment