चैप्टर 7 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 7 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 7 Manorama Novel By Munshi Premchand

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सभी लोग बड़े कुतूहल से आने वालों को देख रहे थे। कोई दस-बारह मिनट में वह विशाल सिंह के घर के सामने आ पहुँचे। आगे-आगे दो घोड़ों पर मुंशी वज्रधर और ठाकुर हरसेवक सिंह थे।। पीछे कोई पच्चीस-तीस आदमी साफ-सुथरे कपड़े पहने चले आते थे। मकान के सामने पहुँचते ही दोनों सवार घोड़ों से उतर पड़े और हाथ बांधे हुए कुंवर साहब के सामने आकर खड़े हो गये। मुंशी जी की सर-धज निराली थी। सिर पर एक शमला था, देह पर एक नीचा आबा। ठाकुर साहब भी हिंदुस्तानी लिबास में थे। मुंशीजी खुशी से मुस्कुराते थे, पर ठाकुर साहब का मुख मलिन था।

ठाकुर साहब बोले – “दीनबंधु, हम सब आपके सेवक आपकी सेवा में यह शुभ सूचना देने के लिए हाजिर हुए हैं कि महारानी ने राज्य से विरक्त होकर तीर्थ यात्रा को प्रस्थान किया है और अब हमें श्रीमान की छत्रछाया के नीचे आश्रय लेने का वह स्वर्ण अवसर प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम सदा ईश्वर से प्रार्थना करते रहते थे। यह पत्र है, जो महारानी ने श्रीमान के नाम लिख रखा था।“

कुंवर साहब ने एक ही निगाह में उससे आध्योपांत पढ़ लिया और उनके मुँह पर मंद हास्य की आभा झलकने लगी। पत्र जेब में रखते हुए बोले – “यद्यपि महारानी की तीर्थ यात्रा का समाचार जानकर मुझे अत्यंत खेद हो रहा है, लेकिन इस बात का सच्चा आनंद भी है कि उन्होंने निवृत्त मार्ग पर पग रखा। मेरी ईश्वर से यही विनय है कि उसने मेरी गर्दन पर जो कर्तव्य भार रखा है, उसे संभालने की मुझे शक्ति दे और प्रजा के प्रति मेरा जो धर्म है, उसके पालन करने की भी शक्ति प्रदान करें।“

इतने में कृष्ण के जन्म का मुहूर्त पहुँचा। सारी महफिल खड़ी हो गई और सभी उस्तादों ने एक स्वर में मंगलवार शुरू किया। साजों के मेले ने समा बांध दिया। केवल दो ही प्राणी ऐसे थे, जिन्हें इस समय भी चिंता घेरे हुए थे। एक को यह चिंता लगी हुई थी कि देखो, कल क्या मुसीबत आती है। दूसरे को यह फिक्र थी कि इस दुष्ट से क्यों कर पुरानी कसर निकाल लूं। चक्रधर अब तक तो लज्जा से मुँह छुपाए बाहर खड़े थे, मंगल गान समाप्त होते ही आकर प्रसाद बांटने लगे। किसी ने मोहनभोग का थाल उठाया, तो किसी ने फलों का। कोई पंचामृत बांटने लगा। हरबोंग सा मच गया।

कुंवर साहब ने मौका पाया, तो उठे और मुंशी वज्रधर को इशारे से बुला दालान में ले जाकर पूछने लगे – “दीवान साहब ने तो मौका पाकर हाथ साफ किए होंगे।“

वज्रधर – “मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं देखी। बेचारे दिनभर सामान की जांच पड़ताल करते रहे। घर तक ना गये।“

विशाल सिंह – “यह सब तो आपके कहने से किया। आप ना होते, न जाने क्या गजब ढा दें। आपको पुरानी क्या मालूम नहीं। इसने मुझ पर बड़े-बड़े जुल्म किए हैं। इसी के कारण मुझे जगदीश को छोड़ना पड़ा। बस चला होता, तो इसने मुझे कतल करा दिया होता।“

वज्रधर – “गुस्ताखी माफ कीजिएगा। आपका बस चलता, तो क्या रानी जी की जान बच जाती, या दीवान साहब ज़िन्दा रहते? उन पिछली बातों को भूल जाइये। भगवान ने आज आप को ऊँचा रुतबा दिया है। अब आपको उदार होना चाहिए। मैंने ठाकुर साहब के मुँह से एक भी बात ऐसी नहीं सुनी, जिससे यह हो कि वह आपसे कोई अदावत रखते हैं।“

विशाल सिंह ने कुछ लज्जित होकर कहा – “मैंने निश्चय कर लिया था कि सबसे पहला वार इन्हीं पर करूंगा; लेकिन आपकी बातों ने मेरा विचार पलट दिया। आप भी उन्हें समझा दीजिएगा कि मेरी तरफ से कोई शंका न रखें।“

यह कहकर कुंवर साहब घर में गये। सबसे पहले रोहिणी के कमरे में कदम रखा। पति की निष्ठुरता ने आज उसकी मदांध आँखें खोल दी थी।

कुंवर साहब ने कमरे में कदम रखते ही कहा – “रोहिणी! ईश्वर ने आज हमारी अभिलाषा पूरी की।“

रोहिणी – “तब तो घर में रहना और भी मुश्किल हो जायेगा। जब कुछ न था, तभी मिज़ाज ना मिलता था। अब तो आकाश पर चढ़ जायेगा। काहे को कोई जीने पायेगा?”

विशाल सिंह ने दु:खित होकर कहा – “प्रिये! यह इन बातों का समय नहीं है। ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने हमारी विनती सुन ली।“

रोहिणी – “जब आप अपना कोई रहा ही नहीं, तो राजपाट लेकर क्या चाटूंगी?”

विशाल सिंह को क्रोध आया; लेकिन इस भय से कि बात बढ़ जायेगी, कुछ बोले नहीं। वहाँ से वसुमति के पास पहुँचे। वह मुँह लपेटे पड़ी हुई थी। जगा कर बोले – “क्या सोती हो, उठो खुशखबरी सुनायें।“

वसुमति – “पटरानी को सुना ही आये, मैं सुनकर क्या करूंगी? अब तक जो बात मन में थी, वह तुमने खोल दी, तो यहाँ बचा हुआ सत्तू खाने वाले पाहुने नहीं हैं।“

विशाल सिंह दु:खी होकर बोले – “वह बात नहीं है वसुमति! तुम जानबूझकर नादान बनती हो। मैं इधर ही आ रहा था, ईश्वर से कहता हूँ। उसका कमरा अंधेरा देख कर चला गया; देखो क्या बात है।“

वसुमति – “मुझसे बातें ना बनाओ, समझ गये। जो एक औरत को काबू में नहीं रख सकता, वह रियासत का भार क्या संभालेगा?”

यह कहकर वह उठी और झल्लाई हुई छत पर चली गई। विशाल सिंह कुछ देर उदास खड़े रहे, तब रामप्रिया के कमरे में प्रवेश किया। वह चिराग के सामने बैठी कुछ लिख रही थी। पति की आहट पाकर सिर उठाया, तो आँख में आँसू भरे हुए थे।

विशाल सिंह ने चौंक कर पूछा – “क्या बात है प्रिये? तुम क्यों रो रही हो? मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने आया हूँ।“

रामप्रिया ने आँसू पोंछते हुए कहा – “सुन चुकी हूँ, मगर आप उसे खुशखबरी कैसे कहते हैं? मेरी प्यारी बहन सदा के लिए संसार से चली गई, क्या यह खुशखबरी है? दुखिया ने संसार का कुछ सुख ना देखा। उसका तो जन्म ही व्यर्थ हुआ। रोते-रोते उम्र बीत गई।“

यह कहते-कहते रामप्रिया सिसक-सिसक कर रोने लगी। विशाल सिंह को उसका रोना बुरा मालूम हुआ। बाहर आकर महफिल में बैठ गए। मेंडूखां सितार बजा रहे थे। सारी महफिल तन्मय हो रही थी। जो लोग फिजूल का गाना ना सुन सके थे, वे भी इस वक्त सिर घुमाते और झूमते नज़र आ रहे थे। किंतु इस आनंद और सुधा के अनंत प्रवाह में एक प्राणी हृदय की ताप से विकल हो रहा था, वह राजा विशाल सिंह थे। सारी बारात हँसती थी, दूल्हा रो रहा था।

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