Chapter 18 Manorama Novel By Munshi Premchand
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सार्वजनिक काम करने के लिए कहीं भी क्षेत्र की कमी नहीं, बस मन में नि:स्वार्थ सेवा का भाव होना चाहिए। चक्रधर अभी प्रयाग में अच्छी तरह जमने भी ना पाये थे कि चारों ओर से उनके लिए खींचतान होने लगी। थोड़े दिनों में भी नेताओं की श्रेणी में आने लगे। उन्हें देश का अनुराग था, काम करने का उत्साह था और संगठन करने की योग्यता थी। सारे शहर में एक भी ऐसा प्राणी न था, जो उनकी तरह निष्पृह हो। और लोग अपना फालतू समय ही सेवा भाव के लिए दे सकते थे। द्रव्योपार्जन का मुख्य उद्देश्य था। चक्रधर को इस काम के सिवा और कोई फिक्र न थी। उन्होंने शहर के निकास पर एक छोटा सा मकान किराये पर ले लिया था और बड़ी किफ़ायत से गुजर करते थे। वहाँ रुपये का नित्य भाव रहता था। चक्रधर को अब ज्ञात होने लगा कि गृहस्थी में पड़कर कुछ न कुछ स्थायी आमदनी होनी ही चाहिए। अपने लिए उन्हें कोई चिंता न थी। लेकिन अहिल्या को वे दरिद्रता की चिंता में न डालना चाहते थे।
अगर चक्रधर को अपना ही घर संभालना होता, तो शायद उन्हें बहुत कष्ट न होता। क्योंकि उनके लिए एक बहुत अच्छे होते थे और दो चार समाचार पत्रों में लिखकर में अपनी ज़रूरत भर को पैदा कर लेते थे। पर मुंशी वज्रधर के तकाजों के कारण उनकी नाक में दम था। चक्रधर को बार-बार तंग करते और उन्हें विवश होकर पिता की सहायता करनी पड़ती।
अगहन का महीना था। खासी सर्दी पड़ रही थी, मगर चक्रधर जाड़े के कपड़े न बनवा पाये थे। अहिल्या के पास तो पुराने कपड़े थे, पर चक्रधर के पुराने कपड़े मुंशीजी के मारे बचने ही न पाते। या खुद पहन डालते या किसी को दे देते। वैसे फिक्र में थे कि कहीं से रुपये आ जाये, तो एक कंबल ले लूं। आज बड़े इंतज़ार के बाद लखनऊ की एक पत्रिका के कार्यालय से ₹25 का मनी ऑर्डर आया था और वे अहिल्या के पास बैठे कपड़ों का प्रोग्राम बना रहे थे।
इतने में डाकिये ने पुकारा। चक्रधर ने जाकर पत्र ले लिया और उसे पढ़ते हुए अंदर आए। अहिल्या ने पूछा – ‘लालाजी का खत है ना? लोग अच्छी तरह है ना?’
चक्रधर – ‘मेरे आते ही न जाने उन लोगों पर क्या साढ़ेसाती सवार हो गई कि जब देखो एक न एक विपत्ति सवार ही रहती है। बाबूजी को खांसी आ रही है। रानी साहिबा के यहाँ से अब वजीफा नहीं मिलता है। लिखा है इस वक्त पचास रूपये अवश्य भेजो।’
अहिल्या – ‘क्या अम्मा जी बहुत बीमार हैं?’
चक्रधर – ‘हाँ लिखा तो है।’
अहिल्या – ‘तो जाकर देख ही क्यों न आओ।’
चक्रधर – ‘मुझे बाबूजी पर बड़ा क्रोध आता है। व्यर्थ मुझे तंग करते हैं। अम्मा की बीमारी तो महज बहाना है। सरासर बहाना।’
अहिल्या – ‘ये बहाना हो या सच, ये पच्चीस रुपये भेज दीजिये। बाकी के लिए लिख दो कि कोई फिक्र करके जल्दी भेज दूंगा। तुम्हारी तकदीर में इन वर्ष जड़ावल नहीं लिखा है।’
पूस का महीना लग गया। जोरों की सर्दी पड़ने लगी। स्नान करते समय ऐसा मालूम होता था कि पानी काट खायेगा। पर अभी तक चक्रधर जड़ावल न बनवा सके। एक दिन बादल हो आये और ठंडी हवा बहने लगी। सर्दी के मारे चक्रधर को नींद न आती थी। एक बार उन्होंने अहिल्या की ओर देखा। वह हाथ पैर सिकोड़े, चादर सिर से ओढ़े, एक गठरी की तरह पड़ी हुई थी। उसका स्नेह करुण हृदय रो पड़ा। उनकी अंतरात्मा सहस्त्रों जिव्हाओं से उनका तिरस्कार करने लगी। मेरी लोक सेवा केवल भ्रम है। कोरा प्रसाद। जब तू इस रमणी की रक्षा नहीं कर सकता, जो तुझ पर प्राण तक अर्पण कर सकती है, तो तू जनता का उपकार क्या करेगा।
दूसरे दिन वे नाश्ता करते ही कहीं बाहर न गये, अपने कमरे में ही कुछ लिखते पढ़ते रहे। शाम को सात बजते बजते वे फिर लौट आये और कुछ लिखते रहे। आज से यही उनका नियम हो गया। नौकरी तो वह कर न सकते थे। चित्त को इससे घृणा होती थीं, लेकिन अधिकांश समय पुस्तकें और लेख लिखने में बिताते। उनकी विद्या और बुद्धि अब सेवा के अधीन न रही, स्वार्थ के अधीन हो गई। पहले ऊपर की खेती करते थे, जहाँ न धन था न कीर्ति अब धन भी मिलता था और कीर्ति भी। पत्रों के संपादक उनके आग्रह करके लेख लिखवाते थे। लोग इन लेखों को बड़े चाव से पढ़ते थे। भाषा अलंकृत होती थीं, भाव भी सुंदर। दर्शन में उन्हें विशेष रुचि थी। उनके लेख भी अधिकांश दार्शनिक होते थे।
पर चक्रधर को अब अपने कृत्यों पर गर्व न था। उन्हें काफ़ी धन मिलता था। योरोप और अमेरिका के पत्रों में भी उनके लेख छपते थे। समाज में उनकर आदर भी कम न था। पर सेवा कार्य से को संतोष और शांति मिलती थी, अब वह मयस्सर न थी। अपने दीन, दुखी और पीड़ित बंधुओं की सेवा करने आई जो गौरव युक्त आनंद मिलता था, अब वह सभ्य समाज की दावतों में प्राप्त न होता था। मगर अहिल्या सुखी थी। अब वह सरल बालिका नहीं, गौरवशाली युवती थी – गृह प्रबंध में कुशल, पति सेवा में प्रवीण, उदार, दयालु और नीति चतुर। मजाल न था कि नौकर उसकी आँख बचाकर एक पैसा भी खा जाये। उसकी सभी अभिलाषायें पूरी होती जाती थीं। ईश्वर ने उसे एक सुंदर बालक भी दे दिया। रही सही कसर नहीं पूरी हो गई।
इस प्रकार पांच साल गुजर गये।
एक दिन काशी के राजा विशाल सिंह का तार आया। लिखा था – ‘मनोरमा बहुत बीमार है। तुरंत आइये। बचने की आशा कम ही है।’
अहिल्या – ‘यह हो क्या गया है? अभी तो लालाजी ने लिखा था कि यहाँ सब कुशल है।’
चक्रधर – ‘क्या कहा जाये? कुछ नहीं, यह सब गृह कलह का फल है। मनोरमा ने राजा साहब से विवाह करके बड़ी भूल की। सौतों ने तानों से छेद-छेद कर उसकी जान ले ली।’
अहिल्या – ‘कहो तो मैं भी चलूं। देखने को जी चाहता है। उसका शील और स्नेह कभी न भूलेगा।’
चक्रधर – ‘योगेन्द्र बाबू को साथ लेते चलें। इनसे अच्छा यहाँ तो कोई डॉक्टर नहीं है।’
दस बजते-बजते ये लोग यहाँ से डाक पर चले। अहिल्या खिड़की के पावस का मनोरम दृश्य देखती थी। चक्रधर व्यग्र हो होकर घड़ी देखते थे कि पहुँचने में कितनी देर है और मुन्नू खिड़की से कूद पड़ने को ज़ोर लगा रहा था।
चक्रधर जब जगदीशपुर पहुँचे, तो रात के आठ बज गए थे। राजभवन के द्वार पर हजारों आदमियों की भीड़ थी। अन्नदान दिया जा रहा था। और कंगले एक पर एक टूट पड़ते थे।
अहिल्या पति के पीछे खड़ी थी। मुन्नू उसकी गोद में बैठा बड़े कौतूहल से दोनों आदमियों का रोना देख रहा था।
अभी दोनों आदमियों में कोई बात भी न होने पाई थी कि राजा साहब दौड़ते हुए भीतर से आते हुए दिखाई पड़े। सूरत से नैराश्य और चिंता झलक रही थी। शरीर भी दुर्बल था। आते ही आते उन्होंने चक्रधर को गले से लगा कर पूछा – ‘मेरा तार कब मिल गया था?’
चक्रधर – ‘कोई आठ बजे मिला होगा। पढ़ते ही मेरे होश उड़ गये। अब रानी जी की क्या हालत हैं?’
राजा – ‘वह तो अपनी आँखों से देखोगे, मैं क्या कहूं। अब भगवान ही का भरोसा है। अहा! यह शंखधर महाशय हैं।’
यह कहकर उन्होंने बालक को गोद में के लिए और स्नेहपूर्ण नेत्रों से देखकर बोले – ‘मेरी सुखदा बिल्कुल ऐसी ही थी। ऐसा जान पड़ता है, यह उसका छोटा भाई है। उसकी सूरत अभी तक मेरी आँखों में है। मुख से बिल्कुल ऐसी ही थी।’
अंदर जाकर। चक्रधर ने मनोरमा को देखा। वह मोटे गद्दों में ऐसे समा गई थी कि मालूम होता था कि पलंग खाली हो है, केवल चादर पड़ी हुई है। चक्रधर की आहट पाकर उसने मुँह चादर से निकाला। दीपक के क्षीण प्रकाश में किसी दुर्बल की आह! असहाय नेत्रों से वह आकाश की ओर ताक रही थी।
राजा साहब ने आहिस्ता से कहा – ‘नोरा! तुम्हारे बाबूजी आ गये।’
मनोरमा ने तकिये का सहारा लेकर कहा – ‘मेरे धन्य भाग्य! आइए बाबूजी आपके दर्शन भी हो गए। तार न जाता, तो आप क्यों आते।’
चक्रधर – ‘मुझे तो बिल्कुल खबर ही न थी। तार पहुँचने पर हाल मालूम हुआ।’
मनोरमा (बालक को देखकर) – ‘अच्छा! अहिल्या देवी भी ऐसी हैं। ज़रा यहाँ तो लाना अहिल्या। इसे छाती से लगा लूं।’
राजा – ‘इसकी सूरत सुखदा से बहुत मिलती है नोरा! बिल्कुल उसका छोटा भाई मालूम होता है।’
सुखदा का नाम सुनकर अहिल्या पहले भी चौंकी थी। अबकी वही शब्द सुनकर फिर चौंकी। बाल स्मृति किसी भूले हुए स्वप्न की भांति चेतना क्षेत्र में आ गई। उसने घूंघट की आड़ से राजा साहब की ओर देखा। उसे अपने स्मृति पट पर ऐसा ही आकार खिंचा हुए मालूम पड़ा।
बालक को स्पर्श करते ही मनोरमा के जर्जर में एक स्फूर्ति सी दौड़ गई। मानो किसी ने बुझते हुए दीपक की बत्ती उकसा दी हो। बालक को छाती से लगाए हुए उसे अपूर्व आनंद मिल रहा था। मानो बरसों से तृशित कंठ को शीतल जल मिल गया हो और उसकी प्यास न बुझती हो। वह बालक को लिए उठ बैठी और बोली – ‘अहिल्या, मैं यह लाल अब तुम्हें न दूंगी। तुमने इतने दिनों तक मेरी सुध न ली, ये उसी की सजा है।’
राजा साहब ने मनोरमा को संभालते हुए कहा – ‘लेट जाओ। देह में हवा लग रही है। क्या करती हो?’
किंतु मनोरमा बालक को लिए हुए कमरे से बाहर निकल गई। राजा साहब भी उसके पीछे-पीछे दौड़े कि कहीं वह गिर न पड़े। कमरे में केवल चक्रधर और अहिल्या रह गए। अहिल्या धीरे से बोली – ‘मुझे अब याद आ रहा है कि मेरा नाम सुखदा था। जब मैं बहुत छोटी थी, तो लोग मुझे सुखदा कहते थे।’
चक्रधर ने कहा – ‘चुपचाप बैठो। तुम इतनी भाग्यवान नहीं हो। राजा साहब की सुखदा कहीं खोई नहीं, मर गई होगी।’
राजा साहब इसी वक़्त बालक को लेकर मनोरमा के साथ कमरे में आए। चक्रधर के अंतिम शब्द उनके कान में पड़ गये। बोले – ‘नहीं बाबूजी, मेरी सुखदा मरी नहीं, त्रिवेणी के मेले में गई थी। आज से बीस साल हुए, जब मैं पत्नी के साथ त्रिवेणी स्नान के लिए प्रयाग गया था। वहीं सुखदा खो गई थी। उस समय कोई चार साल की रही होगी। बहुत ढूंढा, पर कुछ पता नहीं चला। उसकी माता उसके वियोग में स्वर्ग सिधारी। मैं भी बरसों तक पागल सा बना रहा। अंत में सब्र करके बैठा रहा।‘
अहिल्या ने सामने आकर नि:संकोच भाव से कहा – ‘मैं भी तो त्रिवेणी के स्नान में खो गई थी। आगरा की सेवा समिति वालों ने मुझे कहीं रोते पाया और मुझे आगरा ले गए। बाबू यशोदा नंदन ने मेरा पालन पोषण किया।’
राजा – ‘तुम्हारी क्या उम्र होगी बेटी?’
अहिल्या – ‘चौबीसवां लगा है।’
राजा – ‘तुम्हें अपने घर की कुछ याद है। तुम्हारे द्वारे किसका पेड़ था?’
अहिल्या – ‘शायद बरगद का पेड़ था। मुझे याद आता है कि मैं उसके गोदे चुनकर खाया करती थी।’
राजा – ‘अच्छा तुम्हारी माता कैसी थी? कुछ याद आता है!’
अहिल्या – ‘हाँ, याद क्यों नहीं आता। उनका सांवला रंग था, दुबली पतली लेकिन बहुत लंबी थी। दिन भर पान खाती रहती थी।’
राजा – ‘घर में कौन-कौन लोग थे?’
अहिल्या – ‘मेरी एक बुढ़िया दादी थी, जो मुझे गोद में लेकर कहानी सुनाया करती थी। एक नौकर था, जिसके कंधे पर मैं रोज़ सवार हुआ करती थी। द्वार पर एक बड़ा सा घोड़ा बंधा रहता था। मेरे द्वार पर एक कुआं था और पिछवाड़े एक बुढ़िया चमारिन का मकान था।’
राजा ने सजल नेत्र होकर कहा – ‘बस बस बेटी आ, तुझे छाती से लगा लूं। मैं बालक को देखते ही ताड़ गया था। मेरी सुखदा मिल गई। मेरी सुखदा मिल गई।’
चक्रधर – ‘अभी शोर न कीजिए। संभव है आपको भ्रम हो रहा हो।’
राजा – ‘ज़रा सा भी नहीं, जरा सा भी नहीं। मेरी सुखदा यही है। इसने जितनी बातें बताई, सब ठीक है। मुझे लेश मात्र भी संदेह नहीं। आह! आज तेरी माता होती, तो उसे कितना आनंद होता। क्या लीला है भगवान की। मेरी सुखदा घर बैठे ही मेरी गोद में आ गई। ज़रा सी थी, बड़ी होकर आई। अरे! मेरा शोक संताप हरने को एक बालक भी लाई। आओ भैया चक्रधर, तुम्हें छाती से लगा लूं। आज तक तुम मेरे मित्र थे, आज से पुत्र हो। याद है, मैंने तुम्हें जेल भिजवाया था। नोरा, ईश्वर की लीला देखी, सुखदा घर में थी और मैं उसके नाम को रो बैठा। अब मेरी अभिलाषा पूरी हो गई। जिस बात की आधा तक मिट गई थी, वह आज पूरी हो गई।’
यह कहते हुए राजा साहब उसी आवेश से दीवान खाने में जा पहुँचे। द्वार पर अभी तक कंगालों की भीड़ लगी हुई थी। दो चार अमले अभी तक बैठे दफ्तर में काम कर रहे थे। राजा साहब ने बच्चे को कंधे पर बिठाकर उच्च स्वर में कहा – ‘मित्रों! यह देखो, ईश्वर की असीम कृपा से मेरा नवासा घर बैठे मेरे पास आ गया। तुम लोग जानते हो कि बीस साल हुए, मेरी पुत्री सुखदा त्रिवेणी के स्नान में को गई थी। वही सुखदा आज मुझे मिल गई और यह बालक उसी का पुत्र है। आज से तुम लोग इसे अपना युवराज समझो। मेरे बाद यही मेरी रियासत का स्वामी होगा। गार्ड से कह दो, अपने युवराज को सलामी दे। नौबत खाने में कह दो, नौबत बजे। आज के सातवें दिन राजकुमार का अभिषेक होगा। अभी से उसकी तैयारी शुरू करो।’
यह हुक्म देकर राजा साहब ठाकुर द्वारे में का पहुँचे। वहाँ इस समय ठाकुर जी के भोग की तैयारियाँ हो रही थी। साधु संतों की मंडली जमा थी।
पुजारी जी ने कहा – ‘भगवान राजकुंवर को चिरंजीव करे।’
राजा ने अपनी हीरे की अंगूठी उसे दे दी। एक बाबाजी को इसी आशीर्वाद के लिए सौ बीघे जमीन मिल गई। ठाकुर द्वारे से जब वह घर आये, तो देखा कि चक्रधर आसन पर बैठे भोजन कर रहे हैं और मनोरमा सामने खड़े खाना परोस रही है। उसके मुख मंडल पर हार्दिक उल्लास की जानती झलक रही थी। कोई यह अनुमान भी न कर सकता था कि यह वही मनोरमा है, जो अभी कुछ देर पहले मृत्यु शैया पर पड़ी हुई थी।
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