चैप्टर 11 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 11 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 11 Manorama Novel By Munshi Premchand

Chapter 11 Manorama Novel By Munshi Premchand

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संध्या हो गई है। ऐसी उमस है कि सांस लेना मुश्किल है और जेल के कोठरियों में यह उमस और भी असह्य हो गई है। एक भी खिड़की नहीं, एक भी जंगला नहीं। उस पर मच्छरों का निरंतर गान कानों के परदे फाड़े डालता है।

यहीं एक कोठी में चक्रधर को भी स्थान दिया गया है। स्वाधीनता की देवी अपने सच्चे सेवकों को यही पद प्रदान करती है।

वह सोच रहे हैं कि भीषण उत्पात क्यों हुआ? हमने कभी भूलकर भी किसी से यह प्रेरणा नहीं की। फिर लोगों के मन में यह बात कैसे समायी? उन्हें यही उत्तर मिल रहा है कि यह हमारी नीयत का नतीजा है। हमारी शांति शिक्षा की तह में द्वेष छिपा हुआ था। हम भूल गए थे कि संगठित शक्ति आग्रहमय होती है। अत्याचार से उत्तेजित हो जाती है। अगर हमारी नीयत साफ़ होती, तो जनता के मन में कभी राजाओं पर चढ़ दौड़ने का आवेश न होता; लेकिन क्या जनता राजाओं के कैंप की तरफ ना जाती है, तो पुलिस उन्हें बिना रोक-टोक अपने घर जाने देती? कभी नहीं! सवार के लिए घोड़े का अड़ जाना या बिगड़ जाना एक बात है। जो छेड़-छेड़ कर लड़ना चाहे, उससे कोई क्यों कर बचे? फिर अगर प्रजा अत्याचार का विरोध न करें, उसके संगठन से फायदा ही क्या? इसलिए तो उसे सारे उपदेश दिए जाते हैं। कठिन समस्या है। या तो प्रजा को उनके हाल पर छोड़ दूं। उन पर कितने भी जुल्म हो, उनके निकट न जाऊं या ऐसे उपद्रव के लिए तैयार रहूं। राज्य पशु बल का प्रत्यक्ष रूप है। वह साधु नहीं है, जिसका बल धर्म है; वह विद्वान नहीं है जिसका बल तर्क है। वह सिपाही है, जो डंडे के ज़ोर से अपना स्वार्थ सिद्ध कर आता है। इसके सिवा उनके पास कोई दूसरा साधन ही नहीं।

यह सोचते-सोचते उन्हें अपना ख़याल आया। मैं तो कोई आंदोलन नहीं कर रहा था। किसी को भड़का नहीं रहा था। जिन लोगों की प्राण रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, वहीं मेरे साथ यह सब लोग कर रहे हैं। इतना भी नहीं देख सकते कि जनता पर किसी का असर हो। उनकी इच्छा इसके सिवा और क्या है कि सभी आदमी अपनी-अपनी आँख बंद कर रखें। उन्हें अपने आगे पीछे दायें-बायें देखने का हक नहीं। अगर सेवा करना पाप है, तो यह पाप तो मैं उस वक्त करता रहूंगा, जब तक प्राण रहेंगे। जेल की क्या चिंता? सेवा करने के लिए सभी जगह मौके हैं। जेल में तो और भी ज्यादा। लालाजी को दुख होगा, अम्मा जी रोयेंगी; लेकिन मेरी मजबूरी है। जब बाहर भी जवान और हाथ पांव बांधे ही जायेंगे, तो जैसे जेल वैसे बाहर। वह भी जेल ही है। हाँ, ज़रा उसका विस्तार अधिक है। मैं किसी तरह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता।
वह इसी सोच-विचार में पड़े हुए थे कि एकाएक मुंशी वज्रधर कमरे में दाखिल हुये। उनकी देह पर पुरानी अचकन थी, जिसका मैल उसके असली रंग को छिपा हुआ था। नीचे एक पतलून था, जो कमरबंद न होने के कारण खिसककर इतना नीचा हो गया था कि घुटनों के नीचे एक झोला सा पड़ गया था। संसार में कपड़े से ज्यादा बेवफ़ा और कोई वस्तु नहीं होती।

तहसीलदार साहब चक्रधर के पास जाकर बोले – “क्या करते हो बेटा? यहाँ तो बड़ा अंधेरा है। चलो बाहर इक्का खड़ा है, बैठ लो! इधर ही से साहब के बंगले पर होते चलेंगे। जो कुछ वह कहें, लिख देना। बात ही कौन सी है? हमें कौन किसी से लड़ाई करनी है। कल ही से दौड़ लगा रहा हों। बारे आज दोपहर को जाकर सीधा हुआ। पहले बहुत यों-त्यों करता रहा, लेकिन मैंने पिंड न छोड़ा। या वहाँ न चलना हो, तो यहीं एक हलफ़नामा लिख दो। देर करने से क्या फ़ायदा? तुम्हारी अम्मा रो-रो कर जान दे रही है।

चक्रधर ने सिर नीचा करके कहा – “अभी तो मैंने कुछ निश्चित नहीं किया। सोच कर जवाब दूंगा। आप नाहक इतने हैरान हुये।“

वज्रधर – “कैसी बातें करते हो बेटा? यहाँ नाक कटी जा रही है, घर से निकलना मुश्किल हो गया है और तुम कहते हो सोचकर जवाब दूंगा। इसमें सोचने की बात ही क्या है? चलो, हलफ़नामा लिख दो। घर में कल से आग नहीं जली।“

चक्रधर – “मेरी आत्मा किसी तरह अपने पांव में बेड़ियां डालने पर राजी नहीं होती।“

चक्रधर जब प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करने को राजी न हुए, तो मुंशीजी निराश होकर बोले – “अच्छा बेटा लो अब कुछ ना कहेंगे। मैं तो जानता था कि तुम जन्म से ज़िद्दी हो। मेरी एक न सुनोगे। इसलिए आता ही ना था, लेकिन तुम्हारे माता ने मुझे कुरेद-कुरेद कर भेजा। कह दूंगा, नहीं आता। जितना रोना हो, रो लो।“

कठोर से कठोर हृदय में भी मातृस्नेह की कोमल स्मृतियाँ संचित होती है। चक्रधर कातर हो कर बोले – “आप माताजी को समझाते रहियेगा। कह दीजियेगा, मुझे ज़रा भी तकलीफ़ नहीं है।“

वज्रधर ने इतने दिनों तक यों ही तहसीलदारी न की थी, ताड़ गये कि अबकी निशाना ठीक पड़ा है। बेपरवाही से बोले – “मुझे क्या गरज पड़ी है कि किसी के लिए झूठ बोलूं। जो आँखों से देख रहा हूँ, वही कहूंगा। रोयेगी, रोये; रोना तो उसकी तकदीर ही में लिखा है। जब से तुम आए हो, एक घूंट पानी तक मुँह में नहीं डाला। इसी तरह दो-चार दिन और रही, तो प्राण निकल जायेंगे।“

चक्रधर करुणा से विहल हो गये। बिना कुछ कहे मुंशीजी के साथ दफ्तर की ओर चले। मुंशीजी के चेहरे की झुर्रियाँ एक क्षण के लिए मिट गई। चक्रधर को गले लगाकर बोले – “जीते रहो बेटा तुमने मेरी बात मान ली। इससे बढ़कर और क्या ख़ुशी की बात होगी।”

दोनों आदमी दफ्तर में आये, तो जेलर ने कहा – “क्या आप इकरारनामा लिख रहे हैं? निकल गई सारी शोखी। इसी पर इतनी दूने की लेते थे।”

चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। मन की अस्थिरता पर लज्जित हो गये। जाति सेवकों से सभी दृढ़ता की आशा रखते हैं, सभी उसे आदर्श पर बलिदान होते देखना चाहते हैं। जातीयता के क्षेत्र में आते उसके गुणों की परीक्षा अत्यंत कठोर नियमों से होने लगती है और दोषों की सूक्ष्म नियमों से। परले सिरे का कुचरित्र मनुष्य भी साधु वेश रखने वालों से ऊँचे आदर्शों पर चलने की आशा रखता है; और उन्हें आदर्शों से गिरते देखकर उनका तिरस्कार करने में आशा रखता है।

जेलर द्वारा कही गई बातों ने चक्रधर आँखें खोल दी। तुरंत उत्तर दिया – ” मैं ज़रा वह प्रतिज्ञा पत्र देखना चाहता हूँ।”

चक्रधर ने कागज को सरसरी तौर से देखकर कहा – “इसमें तो मेरे लिए कोई जगह ही नहीं रही। घर पर कैदी ही बना रहूंगा। जब कैद ही होना है, तो कैदखाना क्या बुरा है? अब या तो अदालत से बरी होकर आऊंगा या सजा के दिन काटकर।“

यह कहकर चक्रधर अपनी कोठरी में चले आये।

एक सप्ताह के बाद मिस्टर जिम के इजलास में मुकदमा चलने लगा।

अदालत में रोज खासी भीड़ हो जाती। वे सब मजदूर, जिन्होंने हड़ताल की थी एक बार चक्रधर के दर्शनों को आ जाते। शहर में हजारों आदमी आ पहुँचते थे। कभी-कभी राजा विशाल सिंह भी आकर दर्शकों की गैलरी में बैठ जाते हैं। लेकिन और कोई आये ना आये, किंतु मनोरमा रोज ठीक दस बजे कचहरी में आ जाती और अदालत के उठने तक अपनी जगह पर मूर्ति की भांति बैठी रहती। उसके मुँह पर दृढ़ संकल्प, विशाल करुणा, अलौकिक धैर्य और गहरी चिंता का फीका रंग छाया हुआ था।

संध्या का समय था। आज पूरे पंद्रह दिनों की कार्रवाई के बाद मिस्टर जिम में दो साल की कैद का फैसला सुनाया था। यह कम से कम सजा थी, जो उस धारा के अनुसार दी जा सकती थी।

चद्दर हँस-हँसकर मित्रों से विदा हो रहे थे। उनकी आँखों में जल भरा हुआ था। मजदूरों का दल इजलास के द्वार पर खड़ा हो जय-जय का शोर मचा रहा था। कुछ स्त्रियाँ खड़ी रो रही थीं।

सहसा मनोरमा आकर चक्रधर के सम्मुख खड़ी हो गई। उसके हाथ में फूलों का एक हार था। वह उसने उनके गले में डाल दिया और बोली – “अदालत ने तो आप को सजा दे दी, पर इतने आदमियों में एक भी ऐसा ना होगा, जिसके दिल में आप से सौ गुना प्रेम ना हो गया हो। आपने हमें सच्चे साहस, सच्चे आत्मबल और सच्चे कर्तव्य का रास्ता दिखा दिया। जाइए, जिस काम का बीड़ा उठाया है, उसे पूरा कीजिये। हमारी शुभकामनायें आपके साथ हैं।”

चक्रधर ने केवल दबी आँखों से मनोरमा को देखा, कुछ बोल न सके। उसे शर्म आ रही थी कि लोग दिल में क्या ख़याल कर रहे होंगे।

सामने राजा विशाल सिंह, दीवान साहब, ठाकुर गुरु हरसेवक और मुंशी वज्रधर खड़े थे। बरामदे में हजारों आदमियों की भीड़ थी। धन्यवाद के शब्द उनकी ज़बान पर आकर रुक गये। वह दिखाना चाहते थे कि मनोरमा की वीरभक्ति उसकी बालक्रीड़ा मात्र है।

एक क्षण में सिपाहियों ने चक्रधर को बंद गाड़ी में बिठा दिया और जेल की ओर ले चले।

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