चैप्टर 8 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 8 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 8 Manorama Novel By Munshi Premchand

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दूसरी वर्षा भी आधी से ज्यादा बीत गई; लेकिन चक्रधर ने माता-पिता से अहिल्या का वृतांत गुप्त रखा। जब मुंशी जी पूछे – ‘वहां क्या बात कर आये? आखिर यशोदा नंदन को ब्याह करना है या नहीं? ना करना हो तो साफ-साफ कह दे। करना हो तो उसकी तैयारी करें’ तो चक्रधर कुछ इधर-उधर की बातें करके टाल जाते।

उधर यशोदा नंदन बार-बार लिखते – ‘तुमने मुंशी जी से सलाह की या नहीं? अगर तुम्हें उनसे कहते शर्म आती हो, तो मैं ही आकर कहूं। आखिर इस तरह कब तक समय टालोगे? अहिल्या तुम्हारे सिवाय और किसी से विवाह ना करेगी।’

चक्रधर इन पत्रों के जवाब में भी यही लिखते कि मैं खुद फिक्र में हूँ। ज्यों ही मौका मिला, जिक्र करूंगा। मुझे विश्वास है कि पिताजी राजी हो जायेंगे।

जन्माष्टमी के उत्सव के बाद मुंशीजी घर आये, तो उनके हौसले बढ़े हुए थे। राजा साहब के साथ ही साथ उनके सौभाग्य का सूर्य उदय होता हुआ ही मालूम होता था। अब अपने ही शहर के किसी रईस के घर चक्रधर की शादी कर सकते थे। लेकिन मुंशी यशोदा नंदन को वचन दे चुके थे, इसलिए उनसे एक बार पूछ लेना उचित था। अगर उनकी तरफ से ज़रा भी विलंब हो, तो साफ कह देना चाहते थे कि मुझे आपके यहाँ विवाह करना मंजूर नहीं।

यों दिल में निश्चय करके एक दिन भोजन करते समय उन्होंने चक्रधर से कहा – ‘मुंशी यशोदा नंदन भी कुछ उलजूलूल आदमी है। अभी तक कानों में तेल डाले हुए बैठे हैं।‘

चक्रधर – ‘उनकी तरफ से तो देर नहीं है। वह तो मेरे खत का इंतज़ार कर रहे हैं।‘

वज्रधर – ‘मैं तो तैयार हूँ। लेकिन अगर उन्हें कुछ पशोपेश हो, तो मैं उन्हें मजबूर नहीं करना चाहता। यहाँ एक से एक आदमी मुँह खोले हुए हैं। आज उन्हें लिख दो कि या तो इसी जाड़े में शादी कर दें या कहीं और बातचीत करें।‘

चक्रधर ने देखा कि अवसर आ गया है। आज बात ही कर लेना चाहिए। बोले – ‘पशोपेश जो कुछ होगा, आप ही की तरफ से होगा। बात यह है कि वह कन्या मुंशी यशोदा नंदन की पुत्री नहीं है।‘

वज्रधर – ‘पुत्री नहीं है। वह तो लड़की बताते थे। खैर पुत्री न होगी, भतीजी होगी, भांजी होगी, नातिन होगी, बहन होगी। मुझे आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से?’

चक्रधर – ‘वह लड़की उन्हें किसी मेले में मिली थी। तब उसकी उम्र तीन-चार बरस की थी। उन्हें उस पर दया आ गई। घर लाकर पाला, पढ़ाया लिखाया।‘

वज्रधर (स्त्री से) – ‘कितना दगाबाज आदमी है! क्या अभी तक लड़की के माँ-बाप का पता नहीं चला?’

चक्रधर – ‘जी नहीं! मुंशी जी ने उनका पता लगाने की बड़ी चेष्टा की, पर कोई फल न निकला।‘

वज्रधर – ‘अच्छा तो यह किस्सा है। बड़ा झूठा आदमी है, बना हुआ मक्कार।‘

निर्मला – ‘तुम साफ-साफ लिख दो, मुझे नहीं करना है। बस!’

वज्रधर – ‘मैं तुमसे तो सलाह नहीं पूछता हूँ। मैं खुद जानता हूँ, ऐसे धोखेबाजों के साथ कैसे पेश आना चाहिए।‘

खाना खाकर दोनों आदमी उठे, तो मुंशी जी ने कहा – ‘कलम दवात लाओ। मैं इसी वक्त यशोदा नंदन को खत लिख दूं। बिरादरी का वास्ता ना होता, तो हर्जाने का दावा कर देता।‘

चक्रधर आरक्त और संकोच रूद्ध कंठ से बोले – ‘मैं तो वचन दे आया था।‘

वज्रधर – ‘तो यह क्यों नहीं कहते कि तुमने सब कुछ आप ही आप तय कर लिया है। तुमने लड़की सुंदर देखी, रीझ गये। मगर याद रखो, स्त्री में सुंदरता ही सबसे बड़ा गुण नहीं है। मैं तुम्हें हरगिज़ यह शादी न करने दूंगा।‘

चक्रधर – ‘मेरा ख़याल है कि स्त्री हो या पुरुष, गुण और स्वभाव ही उसमें मुख्य वस्तु है। इसके सिवा और सभी बातें गौण हैं।‘

वज्रधर – ‘तुम्हारे सिर नई रोशनी का भूत तो नहीं सवार हुआ था। एकाएक यह क्या कायापलट हो गई?’

चक्रधर – ‘मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा तो यही है कि आप लोगों की सेवा करता जाऊं। आपकी मर्जी के खिलाफ कोई काम ना करूं। लेकिन सिद्धांत के विषय में मजबूर हूँ।‘

वज्रधर – ‘सेवा करना तो नहीं चाहते, मुँह में कालिख लगाना चाहते हो। मगर याद रखो, तुमने यह विवाह किया तो अच्छा न होगा। ईश्वर वह दिन न लाए कि मैं अपने कुल में कलंक लगते देखूं।‘

चक्रधर – ‘तो मेरा भी यही निश्चय है कि मैं और कहीं विवाह न करूंगा।‘

यह कहते हुए चक्रधर बाहर चले आए और बाबू यशोदा नंदन को एक पत्र लिखकर सारा किस्सा बयान किया। उसके अंतिम शब्द यह थे – ‘पिताजी राजी नहीं होते और यद्यपि मैं सिद्धांत के विषय में उनसे दबना नहीं चाहता, लेकिन उनसे अलग रहने और बुढ़ापे में उन्हें इतना बड़ा सदमा पहुँचाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं बहुत लज्जित होकर आपसे क्षमा चाहता हूँ। अगर ईश्वर की यही इच्छा है, तो मैं जीवन पर्यंत अविवाहित ही रहूंगा। लेकिन यह असंभव है कि कहीं और विवाह कर लूं।’

इसके बाद उन्होंने दूसरा अहिल्या के नाम लिखा। उसके अंतिम शब्द ये थे – ‘मैं अपने माता-पिता का वैसा ही भक्त हूँ, जैसा कोई और बेटा हो सकता है। किंतु यदि इस भक्ति और आत्मा की स्वाधीनता में विरोध आ पड़े, तो मुझे आत्मा की रक्षा में जरा भी संकोच ना होगा। अगर मुझे भय न होता कि माताजी अवज्ञा से रो-रोकर प्राण दे देंगे और पिताजी देश विदेश मारे मारे फिरेंगे, तो मैं ऐसा है यह अहस्य यातना न सहता। लेकिन मैं सब कुछ तुम्हारे ही फैसले पर छोड़ता हूँ। केवल इतनी ही आशा करता हूँ कि मुझ पर दया करो।’

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