चैप्टर 20 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 20 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 20 Manorama Novel By Munshi Premchand

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इधर कुछ दिनों से लौंगी तीर्थ करने चली गई। गुरुसेवक सिंह की वजह से उसके मन में यह धर्मोत्साह हुआ था। जबसे वह गई थी, दीवान साहब दीवाने हो गए थे। यहाँ तक कि गुरुसेवक सिंह को भी कभी-कभी यह मानना पड़ता था कि लौंगी का घर में होना पिताजी की रक्षा के लिए ज़रूरी है। घर में अब कोई नौकर एक सप्ताह से ज्यादा न टिकता था। कितने ही पहली फटकार में छोड़कर भागते थे। शराब की मात्रा नहीं दिनों-दिन बढ़ती जाती थी, जिससे भय होता था कि कोई भयंकर रोग न खड़ा हो जाये। भोजन अब वह बहुत थोड़ा करते थे। लौंगी दिन भर में दो-चार सेर उनके पेट में भर दिया करती थी, आधा पाव के लगभग घी भी किसी तरह पहुँचा दिया करती थी। इस कला में वह निपुण थी। पति की सेवा का अमर सिद्धांत, जो चालीस साल की सेवा के उपरांत भोजन को योजना ही पर विशेष आग्रह करता है, सदैव उसकी आँखों के सामने रहता था। ठाकुर साहब अब लौंगी की सूरत भी नहीं देखना चाहते थे। इसी आशय के पत्र उनको लिखा करते थे। हर एक पत्र में वह अपने स्वास्थ्य का विवरण अवश्य किया करते थे। उनकी पाचन शक्ति अब बहुत अच्छी हो गई थी। रुधिर के बढ़ जाने से जितने रोग उत्पन्न होते थे, उनकी अब कोई संभावना न थी।

दीवान साहब की पाचन शक्ति अब अच्छी हो गई थी, पर विचार शक्ति तो ज़रूर क्षीण हो गई थी। निश्चय करने की अब उनमें कोई सामर्थ्य न थी। ऐसी ऐसी गलतियाँ करते थे कि राजा साहब को उनका बहुत लिहाज करने पर भी ऐतराज़ करना पड़ता था। वह कार्यदक्षता, वह तत्परता, वह विचारशीलता, जिन्होंने उन्हें चपरासी से दीवान बनाया था, अब उनका साथ छोड़ गई थी। गुरुसेवक को भी अब मालूम होने लगा था कि पिता की आड़ में कोई दूसरी ही शक्ति रियासत का संचालन करती थी।

एक दिन उन्होंने पिताजी से कहा – ‘लौंगी कब तक घर आयेगी?’

दीवान साहब ने उदासीनता से कहा – ‘उसका दिल जाने। यहाँ आने की तो खास ज़रूरत नहीं मालूम होती। अच्छा है, अपनी कमी का प्रायश्चित ही कर ले। यहाँ आकर क्या करेगी?’

उसी दिन भाई बहन में भी इसी विषय में बातें हुई। मनोरमा ने कहा – ‘भैया, क्या तुमने लौंगी अम्मा को भुला ही दिया। दादाजी की दशा देख रहे हो कि नहीं। सूखकर कांटा हो गए हैं। जब से अम्मा का स्वर्गवास हुआ, दादाजी ने अपने को उसके हाथों बेच दिया। लौंगी ने न संभाला होता, तो अम्मा जी के शोक में दादाजी प्राण दे देते। मैंने किसी विवाहिता स्त्री में इतनी पति भक्ति नहीं देखी। दादाजी को बचाना चाहते हो, तो लौंगी अम्मा को ले आओ।’

गुरुसेवक – ‘मेरा जाना तो बहुत मुश्किल है नोरा।’

मनोरमा – ‘क्यों? क्या इसमें आपका अपमान होगा?’

गुरुसेवक – ‘वह समझेगी, आखिर इन्हीं की तो गरज पड़ी। आकर और सिर चढ़ जाएगी। उसका मिजाज़ और भी आसमान पर जा पहुँचेगा।’

मनोरमा – ‘अच्छी बात है, तुम न जाओ। मगर मेरे जाने में तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है।’

गुरुसेवक – ‘तुम जाओगी।’

मनोरमा – ‘क्यों मैं क्या हूँ? क्या मैं भूल गई हूँ कि लौंगी अम्मा ही ने मुझे गोद में लेकर पाला है। जब मैं बीमार पड़ी थी, तो रात की रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थी। क्या मैं इन बातों को भूल सकती हूँ? माता के ऋण से उऋण होना चाहे संभव हो, उसके ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती, चाहे ऐसे-ऐसे दस जन्म लूं।’

गुरु सेवक लज्जित हुये। घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ ओढे पड़े हुए हैं। पूछा – ‘आपका जी कैसा है?’

दीवान साहब की लाल आँखें बड़ी हुई थी। बोले – ‘कुछ नहीं ज़रा सर्दी लग रही है।’

गुरु सेवक – ‘आपकी इच्छा हो, तो मैं ज़रा लौंगी को बुला ले आऊं?’

हर सेवक – ‘तुम? तुम उसे बुलाने क्या जाओगे? कोई ज़रूरत नहीं, उसका जी चाहे चाहे आए ना आए। हुंह! उसे बुलाने जाओगे। ऐसी कहाँ की अमीरजादी है।’

दूसरे दिन दीवान साहब को ज्वर हो आया। गुरुसेवक ने तापमान लगाकर देखा, जो ज्वर 104 डिग्री का था। घबराकर डॉक्टर को बुलाया। मनोरमा यह खबर पाते ही दौड़ी आई। उसने आते ही आते गुरु सेवक से कहा – ‘मैंने आपसे कल ही कहा था, जाकर लौंगी अम्मा को बुला लाइए! लेकिन आप न गए। अब तक तो आप हरिद्वार से लौटते होते। अब भी मौका है। मैं इन की देखभाल करती रहूंगी, तुम इसी गाड़ी से चले जाओ और उनके साथ लाओ। वह इनकी बीमारी की खबर सुनकर एक क्षण भी न रूकेंगी। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही हैं।’

दीवान साहब मनोरमा को देखकर बोले – ‘आओ नोरा, मुझे तो आज ज्वर आ गया। गुरु सेवक कह रहा था कि तुम लौंगी को बुलाने जा रही हो। बेटी इसमें तुम्हारा अपमान है। भला दुनिया क्या कहेगी? सोचो, कितनी बदनामी की बात है।’

मनोरमा – ‘दुनिया जो चाहे काहे मैंने भैया जी को भेज दिया है।’

हर सेवक – ‘यह तुमने क्या किया? लौंगी कभी न आयेगी।’

मनोरमा – ‘आयेंगी क्यों नहीं? न आयेंगी, तो मैं खुद जाकर उन्हें मना लाऊंगी।’

हर सेवक – ‘तुम उसे मनाने जाओगे। रानी मनोरमा एक कहारिन को मनाने जायेगी?’

मनोरमा – ‘मनोरमा कहारिन लौंगी का दूध पीकर बड़ी न होती, तो आज रानी मनोरमा कैसे होती?’

हसीबा का मुरझाया चेहरा खिल उठा, बुझी हुई आँखें जगमगा उठी। प्रसन्नमुख होकर बोले – ‘नोरा तुम सचमुच दया की देवी हो। देखो, लौंगी आये और मैं न रहूं, तो उसकी खबर लेती रहना। उसने बड़ी सेवा की है। मैं कभी उसके एहसानों का बदला नहीं चुका सकता। गुरु सेवक उसे सतायेगा, उसे घर से निकालेगा, लेकिन तुम उस दुखिया की रक्षा करना। मैं चाहता तो अपनी सारी संपत्ति उसके नाम लिख सकता हूँ। लेकिन लौंगी कुछ न लेगी। वह दुष्ट मेरी जायदाद का एक पैसा भी न छुयेगी। वह अपने गहने पाते भी काम पड़ने पर इस घर के लिए लगा देगी। कोई उससे आदर के साथ बोले और उसे लूट ले। बस वह सम्मान चाहती है। वह घर की स्वामिनी बनकर भूखों मर जायेगी लेकिन दासी के बनकर सोने का एक कौर भी न छुयेगी। नोरा जिस दिन से वह गई है, मैं कुछ और ही हो गया हूँ। जान पड़ता है मेरी आत्मा ही कहीं चली गई है। तुम्हें अपने बचपन की याद आती है नोरा?’

मनोरमा – ‘बहुत पहले की बातें तो नहीं याद हैं। लेकिन लौंगी अम्मा का मुझे गोद में खिलाना ज़रूर याद है। अपनी बीमारी भी याद आती है, जब लौंगी अम्मा मुझे पंखा झला करती थी।’

हर सेवक ने अवरुद्ध कंठ से कहा – ‘उससे पहले की बात है नोरा, उस समय हर सेवक तीन बरस का था और तुम्हें तुम्हारी माता साल भर का छोड़कर चल बसी थी। मैं पागल हो गया था। यही जी में आता था कि आत्महत्या कर लूं। उस दशा में इस लौंगी ने ही मेरी रक्षा की। उसकी सेवा ने मुझे मुग्ध कर दिया। उसे तुम लोगों पर प्राण धरता देखकर मुझे उस पर प्रेम हो गया। तुम्हारी माता भी तुम लोगों का पालन इतना तन्मय होकर न कर सकती थी। गुरु सेवक को न जाने कौन सा रोग हो गया था। खून के दस्त आते थे और तिल-तिल कर। इसके बचने की कोई आशा न थी। गलकर कांटा हो गया था। यह लौंगी ही थी, जिसने उसे मौत के मुँह से निकाल लिया। और आज गुरु सेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लौंगी मेरे धन के लोभ से मुझे घेरे हुए है। मूर्ख नहीं सोचता कि लौंगी जिस समय उसका पज्जर गोद में लेकर रोया करती थी, उस समय धन कहाँ था। सच पूछो, तो यहाँ लक्ष्मी भी लौंगी के समय ही आई। क्यों नोरा, मेरे साथ कौन खड़ा है? कोई बाहरी आदमी है। कह दो, यहाँ से जाये।’

मनोरमा – ‘यहाँ तो मेरे सिवा कोई नहीं है। आपको कोई कष्ट हो रहा है? डॉक्टर को बुलाऊं।’

हर सेवक – ‘मेरी दवा लौंगी के पास है। उस सती का कैसा प्रताप था। जब तक पढ़ाई मेरे सिर में दर्द ना हुआ। मेरी मूर्खता देखो कि जब उसने तीर्थ यात्रा की बात कही, तब मेरे मुँह से एक बार भी न निकला कि तुम मुझे किस पर छोड़कर जाती हो। अगर मैं यह कह सकता, तो वह मुझे छोड़कर कभी न जाती।’

यह कहकर दीवान साहब फिर चौंक पड़े और द्वार की ओर आशंकित नेत्रों से देखकर बोले – ‘ये कौन अंदर आया नोरा? ये कौन लोग मुझे घेरे हुए हैं। मुझे कुछ नहीं हुआ। लेटा हुआ बातें कर रहा हूँ।’

मनोरमा ने धड़कते हुए हृदय से उमड़ने वाले आँसुओं को दबाकर पूछा – ‘क्या आपका जी घबरा रहा है?’

हर सेवक – ‘वह कुछ नहीं था नोरा। मैंने अपने जीवन में अच्छे काम कम किये, बुरे काम ज्यादा किये। अच्छे काम जितने किये, वे लौंगी ने किये हैं। बुरे काम जितने भी किये, वे मेरे हैं। उन दंड का भागी मैं हूँ। लौंगी के कहने पर चलता, तो आज मेरी आत्मा शांत होती।’

मनोरमा आँसुओं के वेग को रोके हुए थी। उसे उस चिर-परिचित स्थान पर आज एक विचित्र शंका जा आभास हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य प्रकाश कुछ क्षीण हो गया। मानो संध्या हो गई। दीवान साहब के मुख की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ती थी।

दीवान साहब छत की ओर टकटकी लगाए हुए थे। मानो उनकी दृष्टि अंत के उस पार पहुँचच जाना चाहती हो। सहसा उन्होंने क्षीण स्वर में पुकारा – ‘नोरा!’

मनोरमा ने उनकी ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा – ‘खड़ी हूँ दादाजी!’

दीवान – ‘ज़रा कलम दवात लेकर मेरे समीप आ जाओ। कोई और तो यहाँ नहीं है, मेरा दान पत्र लिख दो। गुरुसेवक की लौंगी से न पटेगी। मेरे पीछे उसे बहुत कष्ट होगा। मैं अपनी सब जायदाद लौंगी को देता हूँ। जायदाद के लोभ में गुरुसेवक उससे दबेगा। तुम यह लिख को और तुम्हीं इसकी साक्षी देना। यह वसीयत तुम अपने ही पास रखना।‘

मनोरमा अंदर जाकर रोने लगी। आँसुओं का वेग अब उसके रोके न रूका।

थोड़ी देर में राजा साहब आ पहुँचे। अहिल्या भी उनके साथ थी। मुंशी वज्रधर को भी उड़ती हुई खबर मिली। दौड़े आये। रियासत के सैकड़ों कर्मचारी जमा हो गये। डॉक्टर भी आ पहुँचा। किंतु दीवान साहब ने आँख न खोली। अचेत पड़े हुए थे, किंतु आँसुओं की धार बह-बहकर गालों पर आ रही थी।

एकाएक द्वार पर एक बग्गी आकर रूकी और उसमें से एक स्त्री उतरकर घर में दाखिल हुई। शोर मच गया – ‘आ गई…आ गई।‘ यह लौंगी थी।

लौंगी आज ही हरिद्वार से चली थी। गुरुसेवक से उसकी भेंट न हुई थी। इतने आदमियों को जमा देखकर उसका ह्रदय दहल उठा। उसके कमरे में आते ही और लोग हट गए। केवल मनोरमा, उसकी भाभी और अहिल्या रह गये। लौंगी ने दीवान साहब के सिर पर हाथ रखकर भर्राई हुई आवाज़ में कहा – ‘प्राण नाथ! क्या मुझे छोड़कर चले जाओगे?’

दीवान साहब की आँखें खुल गई। उन आँखों में कितनी अपार वेदना थी, किंतु कितना प्रेम।

उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर कहा – ‘लौंगी और पहले क्यों न आई?’

लौंगी ने दोनों फैले हुए हाथ के बीच अपना सिर रख दिया और अंतिम प्रेमालिंगन के आनंद में विहवल हो गई। आज उसे मालूम हुआ कि जिस के चरणों में मैंने अपने को समर्पित किया था, वह अंत तक मेरा रहा। यह शोकमय कल्पना भी कितनी मधुर और शांतिदायिनी थी।

वह इसी विस्मृती की दशा में थी कि मनोरमा का रोना सुनकर चौंक पड़ी। दीवान साहब के मुख की ओर देखा। तब उसने स्वामी के चरणों पर सिर रख दिया और फूट-फूट कर रोने लगी। एक क्षण में सारे घर में कोहराम मच गया।

ठाकुर हरसेवक सिंह का क्रियाकर्म हो जाने के बाद एक दिन लौंगी ने अपना कपड़ा लत्ता बांधना शुरू किया। उसके पास रुपये-पैसे जो कुछ भी थे, सब गुरुसेवक को सौंपकर बोली – ‘भैया मैं अब किसी गाँव में जाकर रहूंगी। उस घर में अब रहा नहीं जाता।’

वास्तव में  लौंगी से अब इस घर में रहा नहीं जाता था। घर की एक-एक चीज उसे काटने को दौड़ती थी। पच्चीस वर्ष तक इस घर की स्वामिनी बनी रहने के बाद वह किसी की आश्रिता न बन सकती थी। वैध्तव के शोक के साथ यह भाव कि मैं किसी दूसरे की रोटियों पर पड़ी हूँ, उसके लिए असह्य था। हालांकि गुरुसेवक पहले से अब कहीं ज्यादा उसका लिहाज करते थे और कोई ऐसी बातें न होने देते थे, जिससे उसे रंज हो। फिर भी कभी-कभी ऐसी बातें हो ही जाती थी, जो उसकी पराधीनता की याद दिला देती थी। इसलिए अब वह यहाँ से जाकर किसी देहात में जाकर रहना चाहती थी। आखिर जब ठाकुर साहब ने उसके नाम कुछ नहीं लिखा, उसे दूध में मक्खी की भांति निकाल फेंका, तो वह यहाँ क्यों पड़ी दूसरों का मुँह क्यों जोहे। उसे अब टूटे-फूटे झोपड़े और एक टुकड़ा रोटी के सिवाय कुछ नहीं चाहिए।

गुरुसेवक ने कहा – ‘आखिर सुने तो, कहाँ जाने का विचार कर रही हो।’

लौंगी  – ‘जहाँ भगवान के जाये, वहाँ चली जाऊंगी। कोई नैहर या दूसरी ससुराल है, जो उसका नाम बता दूं।’

गुरुसेवक – ‘सोचती हो, तुम चली जाओगी, तो मेरी कितनी बदनामी होगी। दुनिया यही कहेगी कि इससे एक बेवा का पालन न हो सका। मेरे लिए कहीं मुँह दिखाने की भी जगह न रहेगी। तुम्हें उस घर में जो शिकायत हो, मुझसे कहो; जिस बात की ज़रूरत हो, मुझे बतला दो। अगर मेरी तरफ से उसमें ज़रा भी कोर-कसर देखो, तो तुम्हें अख्तियार है, जो चाहे करना। यों मैं कभी जाने न दूंगा।’

लौंगी – ‘क्या बांधकर रखोगे?’

गुरुसेवक – ‘हाँ बांधकर रखेंगे।’

अगर उम्र भर में लौंगी को गुरुसेवक की कोई बात पसंद आई, तो वह यही दुराग्रह पूर्ण वाक्य था। लौंगी का हृदय पुलकित हो गया। इस वाक्य में उसे आत्मीयता जान पड़ी। उसने तेज आवाज़ में कहा – ‘बांधकर क्यों रखोगे? क्या तुम्हारी बेसाही हूँ?’

गुरुसेवक – ‘हाँ बेसाही हो। मैंने नहीं बेसाहा, मगर मेरे बाप ने तो बेसाहा है। बेसाही न होती, तो तीस साल यहाँ रहती कैसे? मैं तुम्हारे पैर तोड़कर रख दूंगा। क्या तुम अपने मन की हो कि जो चाहोगी करोगी और जहाँ चाहोगी जाओगी और कोई कुछ न बोलेगा। तुम्हारे नाम के साथ मेरी और मेरे पूज्य पिताजी की इज्जत बंधी हुई है।’

लौंगी के जी में आया कि गुरुसेवक के चरणों पर सिर रख कर रोऊं और छाती से लगाकर कहूं – ‘बेटा मैंने तो तुझे गोद में खिलाया है, तुझे छोड़कर भला मैं कहाँ  जा सकती हूँ? लेकिन उसने क्रुद्ध भाव से कहा – ‘ये तो अच्छी दिल्लगी है। यह मुझे बांधकर रखेंगे।’

गुरुसेवक तो झल्लाए हुए भाव से बाहर चले गए और लौंगी अपने कमरे में जाकर खूब रोई। गुरुसेवक किसी महरी से क्या कह सकते थे कि हम तुम्हें बांध कर रखेंगे। कभी नहीं; लेकिन अपनी स्त्री से वह यह बात कह सकते हैं। क्योंकि उसके साथ उसकी इज्जत बंधी हुई है। थोड़ी देर बाद भाव उठकर एक महरी से बोला – ‘सुनती है रे! मेरे सिर में दर्द हो रहा है। ज़रा कर दबा दें।’

सहसा मनोरमा ने कमरे में प्रवेश किया और लौंगी को सिर में तेल डलवाते  देखकर बोली – ‘कैसा जी है अम्मा? सिर में दर्द है क्या?’

लौंगी – ‘नहीं बेटा! जी तो अच्छा है। आओ बैठो।’

मनोरमा ने महरी से कहा – ‘तुम जाओ। मैं दबाये देती हूँ।’

महरी चली गई। मनोरमा सिर दबाने बैठी तो लौंगी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली – ‘नहीं बेटा! तुम रहने दो। दर्द नहीं था। यों ही बुला लिया था। कोई देखे, तो कहे बुढ़िया पगला गई है। रानी से सिर दबवाती है।’

मनोरमा ने सिर दबाते हुए कहा – ‘रानी जहाँ हूं, वहाँ हूँ। यहाँ तो तुम्हारी गोद में खिलाई हुई नोरा हूँ। आज तो भैया जी यहाँ से जाकर तुम्हारे ऊपर खूब बिगड़ते रहे। मैं उसकी टांग तोड़ दूंगा, गर्दन काट दूंगा। कितना पूछा – कुछ बताओ तो, बात क्या है। पर गुस्से में कुछ सुने ही न। भाई हैं, तो क्या? उनका यह अन्याय मुझसे नहीं देखा जाता। दादाजी उनकी नीयत को पहले ही ताड़ गए थे। मैंने तुमसे अब तक नहीं कहा था अम्माजी, मगर आज उनकी बातें सुनकर कहती हूँ, दादाजी ने अपनी सारी जायदाद तुम्हारे नाम लिख दी है।’

लौंगी पर इस सूचना का ज़रा भी असर न हुआ। किसी प्रकार का उल्लास, प्रफुल्लता या गर्व उसके चेहरे पर न दिखाई दिया। वह उदासीन भाव से चारपाई पर पड़ी रही।

मनोरमा ने फिर कहा – ‘मेरे पास उनकी लिखवाई हुई वसीयत रखी हुई है। और मुझी को उन्होंने उसका साक्षी बनाया है। जब यह महाशय वसीयत देखेंगे, तो आँखें खुलेंगी।’

लौंगी ने गंभीर स्वर में कहा – ‘नोरा तुम यह वसीयत नामा उन्हीं को जाकर दे दो। तुम्हारे दादाजी ने व्यर्थ ही वसीयत लिखवाई। मैं उनकी जायदाद की भूखी नहीं थी। उनके प्रेम की भूखी थी। और ईश्वर की साक्षी देकर कहती हूँ बेटी कि इस विषय में मेरे जैसा भाग्य बहुत कम स्त्रियों का होगा। मैं उनका प्रेमधन पाकर ही संतुष्ट हूँ। इसके सिवाय मुझे और किसी धन की इच्छा नहीं है। गुरुसेवक को मैंने गोद में खिलाया है, उसे पाला पोसा है। वह मेरे स्वामी का बेटा है। उसका हक मैं किस तरह छीन सकती हूँ। उसके सामने की थाली किस तरह खींच सकती हूँ। वह फाड़कर फेंक दी। वह कागज लिखकर उन्होंने अपने साथ और गुरुसेवक के साथ अन्याय किया है। गुरुसेवक अपने बाप का बेटा है, तो मुझे आदर से रखेगा। वह मुझे माने न माने, मैं उसे अपना ही समझती हूँ। तुम बैठी मेरा सिर दबा रही हो, क्या धन में इतना सुख मिल सकता है। गुरुसेवक के मुँह से अम्मा सुनकर मुझे वह खुशी होगी, जो संसार की रानी बनकर भी नहीं हो सकती। तुम उनसे इतना ही कह देना।’

यह कहते कहते लौंगी की आँखें सजल हो गई। मनोरमा उसकी ओर प्रेम, श्रद्धा, गर्व और आश्चर्य से ताक रही थी, मानो वह कोई देवी हो।

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