चैप्टर 10 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 10 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 10 Manorama Novel By Munshi Premchand

Chapter 10 Manorama Novel By Munshi Premchand

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गद्दी के कई दिन पहले ही से मेहमानों का आना शुरू हो गया और तीन दिन बाकी ही थे कि सारा कैंप भर गया। दीवान साहब ने कैंप में ही बाजार लगवा दिया था, वही रसद पानी का भी इंतज़ाम था। राजा साहब स्वयं मेहमानों की खातिरदारी करते रहते थे; किंतु जमघट बहुत बड़ा था। आठों पहर हरबोंग सा मचा रहता था।

मेहमानों के आदर सत्कार की तो धूम थी और वह मजदूर, जो छाती फाड़-फाड़ कर काम कर रहे थे, भूखों मरते थे। काम लेने को सब थे, मगर भोजन को पूछने वाला कोई ना था। चमार पहर रात से घास छीलने जाते, मेहतर पहर रात से सफाई करने लगते, कहार पहर रात से पानी खींचना शुरू करते, मगर कोई उनका पुरसाहाल न था। चपरासी बात-बात पर उन्हें गालियाँ सुनाते, क्योंकि उन्हें दूसरे पर अपना गुस्सा उतारने का मौका मिल जाता। बेगारों से न सहा जाता था इसलिए कि उनकी आतें जलती थी। दिन भर धूप में जलते, रात भर क्षुधा की आग में। असंतोष बढ़ता जाता था। ना जाने कब सब के सब जान पर खेल जायें, हड़ताल कर दें।

संध्या का समय था। तिलक का मुहूर्त निकट आ गया था। हवन की तैयारी हो रही थी। सिपाहियों को वर्दी पहनकर खड़े हो जाने की आज्ञा दे दी गई थी कि सहसा मजदूरों के बाड़े से रोने चिल्लाने की आवाजें आने लगी। किसी कैंप में घास न थी और ठाकुर हर सेवक हंटर लिए चमारों को पीट रहे थे। मुंशी वज्रधर की आँखें मारे क्रोध के लाल हो रही थीं।

चौधरी ने हाथ बांधकर कहा – “हुजूर घास तो रात ही को पहुँचा दी गई थी। हाँ, इस बेला अभी नहीं पहुँची। आधे आदमी तो मांदे पड़े हुए हैं।“

मुंशी – “बदमाश! झूठ बोलता है, अभी पोलो खेल होगा, घोड़े बिना खाये कैसे दौड़ेंगे?”

एक युवक ने कहा – हम लोग तो बिना खाये आठ दिन से घास ढो रहे हैं, घोड़े क्या बिना खाये एक दिन भी न दौड़ेंगे?”

चौधरी डंडा लेकर युवक को मारने दौड़ा, पर उसके पहले ही ठाकुर साहब ने झटपट से चार-पाँच हंटर सड़ाप-सड़ाप लगा दी। नंगी देह, चमड़ी फट गई, खून निकल आया।

चौधरी ने ठाकुर साहब और युवक के बीच में खड़े होकर कहा – “हुजूर क्या मार ही डालेंगे? लड़का है, कुछ अनुचित मुँह से निकल जाये, तो क्षमा करनी चाहिए। राजा को दयावान होना चाहिए।“

ठाकुर साहब आपे से बाहर हो रहे थे। एक चमार का यह हौसला कि उनके सामने मुँह खोल सके। वही हंटर तानकर चौधरी को जमाया। बूढ़ा आदमी, उस पर कई दिन का भूखा, खड़ा भी मुश्किल से हो सकता था। हंटर पड़ते ही जमीन पर गिर पड़ा। बाड़े में हलचल पड़ गई। हजारों आदमी जमा हो गये। कितने ही चमारों ने मारे डर के खुरपी और रस्सी उठा ली थी और घास छीलने जा रहे थे। चौधरी पर हंटर पढ़ते देखा, तो रस्सी खुरपी फेंक दी और आकर चौधरी को उठाने लगे।

ठाकुर साहब ने तड़पकर कहा – “तुम सब अभी एक घंटे में घास लाओ। नहीं तो एक-एक की हड्डी तोड़ दी जायेगी।“

एक चमार बोला – “हम यहाँ काम करने आए हैं, जान देने नहीं आए हैं। एक तो भूखों मरें, दूसरा लात ख़ायें। हमारा जन्म इसलिए थोड़ी हुआ है। जिसे चाहे काम कराइये, हम घर जाते हैं।“

मुंशी – “जिसने बाड़े के बाहर कदम रखा, उसकी शामत आई। तोप पर उड़ा दूंगा।“

लेकिन चमारों के सिर पर भूत सवार था। बूढ़े चौधरी को उठाकर सब के सब एक गोल में बाड़े के द्वार की ओर चले। सिपाहियों की कवायद हो रही थी। ठाकुर साहब ने खबर भेजी और बात की बात में उन सबों ने आकर बड़े का द्वार रोक लिया। सभी कैंपों में खलबली पड़ गई। तरह-तरह की अफ़वाहें उड़ने लगीं। राजा साहब अपने खेमे में तिलक के भड़कीले सजीले वस्त्र धारण कर रहे थे। यह खबर सुनी, तो तिलमिला गये। क्रोध से बावले होकर वह अपनी बंदूक लिए खेमे से निकल आये और कई आदमियों के साथ बाड़े के द्वार पर जा पहुँचे।

चौधरी इतनी देर में झाड़ पोंछकर उस बैठा था। राजा साहब को देखते ही रोकर बोला – “दुहाई है महाराज की। सरकार, बड़ा अंधेर हो रहा है। गरीब लोग मारे जाते हैं।“

राजा – “तुम सब पहले बाड़े के द्वार से हट जाओ। फिर जो कुछ कहना है, मुझसे कहो। अगर किसी ने बाड़े के बाहर पांव रखा, तो जान से मारा जायेगा।“

चौधरी – “सरकार ने हमको काम करने के लिए बुलाया है कि जान लेने के लिये?”

राजा – “काम न करोगे, तो जान ली जायेगी।“

चौधरी – “काम तो आपका करें, खाने किसके घर जायें।“

राजा – “क्या बेहूदा बातें करता है? चुप रहो! सब के सब मुझे बदनाम करना चाहते हो। तुम नीच हो और नीच लातों के बगैर सीधा नहीं होता।“

चौधरी – “क्या अब हमारी पीठ पर कोई नहीं कि मार खाते रहें और मुँह न खोलें? अब तो सेवा समिति हमारी पीठ पर है। क्या वह कुछ भी न्याय न करेगी?”

राजा – “अच्छा! तो तुझे सेवा समिति वालों का घमंड है।“

चौधरी – “है, वह हमारी रक्षा करती है। तो क्यों न उसका घमंड करें?”

राजा साहब होंठ चबाने लगे – “तो यह समिति वालों की कारस्तानी है। चक्रधर मेरे हाथ कपट-चाल चल रहे हैं। चक्रधर! जिसका बाप मेरी खुशामद की रोटियाँ खाता है। देखता हूँ, वह मेरा क्या कर लेता है? इन मूर्खों के सिर से यह घमंड निकाली देना चाहिए। यह जहरीले कीड़े फैल गए, तो आफ़त मचा देंगे।“

चौधरी तो ये बातें कर रहा था, उधर बाड़े में घोर कोलाहल मचा हुआ था। सरकारी आदमी की सूरत देखकर जिनके प्राण पखेरू उड़ जाते थे, वे इस समय नि:शंक हो निर्भय बंदूकों के सामने मरने को तैयार खड़े थे। द्वार से निकलने का रास्ता न पाकर कुछ आदमी ने बाड़े की लकड़ियाँ और रस्सियाँ काट डाली और हजारों आदमी उधर से भड़-भड़ाकर निकल पड़े, मानो कोई उमड़ी हुई नदी बांध तोड़ कर निकल पड़े। उसी वक्त एक और से सशस्त्र पुलिस के जवान और दूसरी ओर से चक्रधर, समिति के कई युवकों के साथ आते हुए दिखाई दिये।

उन्हें देखते ही हड़तालियों में जान सी पड़ गई, जैसे अबोध बालक अपनी माता को देखकर शेर हो जाये। हजारों आदमियों ने घेर लिया ‘भैया आ गए भैया आ गए’ की ध्वनि से आकाश गूंज उठा।

चक्रधर ने ऊँची आवाज से कहा – “क्यों भाईयों! तुम मुझे अपना मित्र समझते हो या शत्रु?”

चौधरी – “भैया यह भी कोई पूछने की बात है? तुम  हमारे मालिक हो, स्वामी हो, सहारा हो।“

चक्रधर इस भीड़ से निकलकर सीधे राजा साहब के पास गए और बोले – “महाराज मैं आपसे कुछ विनय करना चाहता हूँ।“

राजा साहब ने त्योरियाँ बदलकर कहा –  “मैं इसमें कुछ नहीं सुनना चाहता।“

चक्रधर – “आप कुछ ना सुनेंगे, तो पछतायेंगे।“

राजा – “मैं इन सबों को गोली मार दूंगा।“

चक्रधर – “दिन प्रजा के रक्त से राजतिलक लगाना किसी राजा के लिए मंगलकारी नहीं होता। प्रजा का आशीर्वाद ही राज्य की सबसे बड़ी शक्ति है, मैं आपका शुभचिंतक हूँ। इसलिए आपकी सेवा में आया हूँ। यह सारा तूफान अयोग्य कर्मचारियों का खड़ा किया हुआ है। यह सभी आदमी इस वक्त झल्लाये हुए हैं। गोली चलाकर आप उनके प्राण ले सकते हैं, लेकिन उनका रक्त केवल इसी बाड़े में ना सूखेगा, यह सारा विस्तृत कैंप उस रक्त से सींच जायेगा। उसकी लहरों के झोंके से यह विशाल मंडप उखड़ जायेगा और यह आकाश में फहराती हुई ध्वजा भूमि पर गिर पड़ेगी। सारी सियासत में हा-हाकार मच जायेगा।“

राजा साहब अपने टेक पर अड़ना चाहते थे, किंतु इस समय उनका दिल कांप उठा। बोले – “इन लोगों को अगर कोई शिकायत थी, तो इन्हें आकर मुझसे कहना चाहिए था। मुझसे ना कह कर इन लोगों ने हेकड़ी करनी शुरू की, रात घोड़ों को घास नहीं दी और इस समय भागे जाते हैं। मैं यह घोर अपमान नहीं सह सकता।“

चक्रधर – “आपने इन लोगों को अपने पास आने का अवसर कब दिया? आपको मालूम है कि इन गरीबों को एक सप्ताह से कुछ भोजन नहीं मिला!”

राजा – “यह आप क्या कहते हैं? मैंने सख्त ताकीद कर दी थी कि हर एक मजदूर को इच्छा पूर्ण भोजन दिया जाये। क्यों दीवान साहब क्या बात है?”

हर सेवक – “धर्मावतार, आप इन महाशय की बातों में ना आइये। यह सारी आग इन्हीं की लगाई हुई है।“

मुंशी – “दीनबंधु यह लड़का बिल्कुल नासमझ है। दूसरों ने जो कुछ कह दिया, उसे सच समझ लेता है।“

राजा – “मैं इसकी पूछताछ करूंगा।“

हर सेवक – “हुजूर, इन्हीं लोगों ने आदमियों को उभारकर सरकश बना दिया है। यह लोग सब से कहते फिरते हैं कि किसी को तुम्हारे ऊपर राज्य करने का अधिकार नहीं है, किसी को तुमसे बेगार लेने का अधिकार नहीं। जमीन के मालिक तुम हो। जो जमीन से बीज उगाये, वही उसका मालिक है। राजा तो तुम्हारा गुलाम है।“

राजा – “बहुत ठीक कहते हैं। वास्तव में मैं प्रजा का गुलाम हूँ, बल्कि उसके गुलाम का गुलाम हूँ।“

हर सेवक – “हुजूर मैं इन लोगों की बातें कहाँ तक कहूं। कहते हैं, राजा को इतने बड़े महल में रहने का कोई हक नहीं। उसका संसार में कोई काम ही नहीं।“

राजा – “बहुत ही ठीक कहते हैं। आखिर मैं पड़े-पड़े खाने के सिवा और करता क्या हूँ?”

चक्रधर ने झुंझलाकर कहा – “मैंने प्रजा को उनके अधिकार अवश्य समझाये हैं, लेकिन यह कभी नहीं कहा कि राजा को संसार में रहने का कोई हक नहीं क्योंकि मैं जानता हूँ कि जिस दिन राजाओं की ज़रूरत न रहेगी, उस दिन उनका अंत हो जायेगा।“

राजा – “मैं तो बुरा नहीं मानता। आपने कोई ऐसी बात नहीं कही, जो और लोग न कहते हों।“

चक्रधर को मालूम हुआ कि राजा साहब मुझे बना रहे हैं। गर्म होकर बोले – “अगर आपके ये भाव सच्चे होते, तो प्रजा पर यह विपत्ति ही न आती। राजाओं की यह पुरानी नीति है कि प्रजा का मन मीठी-मीठी बातों से भरें और अपने कर्मचारियों को मनमाने अत्याचार करने दें। वह राजा, जिसके कानों तक प्रजा की पुकार ने पहुँचने पाये, आदर्श नहीं कहा जा सकता।“

राजा – “किसी तरह नहीं। उसे गोली मार देनी चाहिए। जीता चुनवा देना चाहिए। प्रजा का गुलाम है कि दिल्लगी।“

चक्रधर यह व्यंग्य न सह सके। उनकी स्वाभाविक शक्ति ने उनका साथ छोड़ दिया। चेहरा तमतमा उठा। बोले – “जिस आदर्श के सामने आपको सिर झुकाना चाहिए, उसका मजाक उड़ाना आपको शोभा नहीं देता। मैंने कभी अनुमान ने किया था कि आपके वचन और कर्म में इतनी जल्द इतना बड़ा भेद हो जायेगा।“

क्रोध ने अब अपना यथार्थ रूप धारण किया। राजा साहब अभी तक व्यंग्य से चक्रधर को परास्त करना चाहते थे, लेकिन जब चक्रधर के वार मर्मस्थल पर पड़ने लगे, तो उन्हें भी अपने शस्त्र निकालने पड़े। डपट कर बोले – “अच्छा बाबू जी! अब अपनी जबान बंद करो। मैं प्रजा का गुलाम नहीं हूँ। प्रजा मेरे पैरों की धूल है। मुझे अधिकार है कि मैं उसके साथ जैसा उचित समझूं, वैसा सलूक करूं। किसी को हमारे और हमारे प्रजा के बीच में बोलने का हक नहीं है। आप अब कृपा करके यहाँसे चले जाइये और फिर कभी मेरे सियासत में कदम न रखियेगा। वरना शायद आपको पछताना पड़े चाहिए। जाइये।“

मुंशी वज्रधर की छाती धक-धक करने लगी। चक्रधर को हाथों से पीछे हटाकर बोले – “हुजूर की कृपा दृष्टि से इसे शोख कर दिया है। अभी तक बड़े आदमियों के सामने बैठने का मौका तो मिला नहीं। बात करने की तमीज कहाँ से आये।“

लेकिन चक्रधर भी जवान आदमी थे। उस पर सिद्धांतों के पक्के, आदर्शों पर मिटने वाले, अधिकार और प्रभुत्व के जानी दुश्मन। वह राजा साहब के उद्दंड शब्दों से जरा भी भयभीत ना हुए। तने हुए सामने आए और बोले – “आपको अपने मुख से यह शब्द निकालते हुए शर्म आनी चाहिए थी। आप प्रजा पर अपने को अर्पण कर देना चाहते थे। आप कहते थे, मैं प्रजा को अपने पास बेरोक-टोक आने दूंगा, उनके लिए मेरे द्वार हरदम खुले रहेंगे। आप कहते थे – मेरे कर्मचारी उनकी ओर टेढ़ी निगाह से भी देखेंगे, तो उनकी शामत आ जायेगी। वे सारी बातें क्या आपको भूल गई? और इतनी जल्द? अभी तो बहुत दिन नहीं गुजरे। अब आप कहते हैं, प्रजा मेरे पैरों की धूल है।“

राजा साहब कहाँ तक तो क्रोध से उन्मुक्त हो रहे थे, कहाँ यह लगती हुई बात सुनकर रो पड़े। क्रोध निरुत्तर होकर पानी हो जाता है। मगर एक ही क्षण में राजा सचेत हो गये। प्रभुता ने आँसुओं को दबा दिया। अकड़ कर बोले – “मैं कहता हूँ यहाँ से चले जाओ।“

चक्रधर – “जब तक आप इन आदमियों को जाने न देंगे, मैं नहीं जा सकता।“

राजा – “मेरे आदमियों से तुम्हें कोई सरोकार नहीं है। उनमें से अगर एक भी हिला, तो उनकी लाश जमीन पर होगी।“

चक्रधर – “तो मेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि उन्हें यहाँ से हटा ले जाऊं।“

यह क्या-क्या चक्रधर मजदूरों की ओर चले। राजा साहब जानते थे कि इनका इशारा पाते ही सारे मजदूर हवा हो जायेंगे, फिर सशस्त्र सेना भी उन्हें रोक न सकेगी। तिलमिलाकर बंदूक लिए हुए चक्रधर के पीछे दौड़े और ऐसे जोर से उस पर कुंदा चलाया कि सिर पर लगता, तो शायद वही ठंडे हो जाते। मगर कुशल हुई। कुंदा पीछे में लगा और उसके झोंके से चक्रधर कई हाथ दूर जा गिरे। उनका जमीन पर गिरना था कि पाँच हाजर आदमी बाड़े को तोड़कर सशस्त्र सिपाहियों को चीरते बाहर निकल आये और नरेशों की कैंप की ओर चले। रास्ते में जो कर्मचारी मिला, उसे पीटा। मालूम होता था, कैंप में लूट मच गई है। दुकानदार अपनी दुकानें समेटने लगे, दर्शकगण अपनी धोतियाँ संभालकर भागने लगे। चारों तरफ भगदड़ पड़ गई। जितने बेफिक्रे, शोहदे, लुच्चे तमाशा देखने आये थे, वे सब उपद्रवकारियों में मिल गये। यहाँ तक कि नरेशों के कैंप तक पहुँचते-पहुँचते उनकी संख्या दूनी हो गई।

राजा – “रईस अपनी वासनाओं के सिवा किसी के गुलाम नहीं होते। वक्त की गुलामी भी उन्हें पसंद नहीं। वह किसी नियम को अपनी स्वेच्छा में बाधा नहीं डालने देते। फिर उनको इसकी क्या परवाह कि सुबह है या शाम। कोई मीठी नींद के मजे लेता था, कोई गाना सुनता था, कोई स्नान ध्यान में मग्न था और लोग तिलक मंडप जाने की तैयारियाँ कर रहे थे। कहीं भंग घुटती थी, कहीं कवित्त चर्चा हो रही थी और कहीं नाच हो रहा था। कोई नाश्ता कर रहा था और कोई लेटा नौकरों से चंपी करा रहा था। उत्तरदायित्व विहीन स्वतंत्रता अपनी विविध लीलायें दिखा रही थी। अगर उपद्रवी इस कैंप में पहुँच जाते, तो महाअनर्थ हो जाता। न जाने कितने राजवंशों का अंत हो जाता, किंतु राजाओं की रक्षा उनका इकबाल करता है। अंग्रेजी कैंप में दस-बारह आदमी अभी शिकार खेलकर लौटे थे। उन्होंने जो यह हंगामा सुना, तो बाहर निकल आये और जनता पर अंधाधुंध बंदूके छोड़ने लगे। पहले तो उत्तेजित जनता ने बंदूकों की परवाह न की, उसे अपनी संख्या का बल था।

चिंता उत्तेजित होकर आदर्शवादी हो जाती है।

गोलियों की पहली बाढ़ आई। कई आदमी गिर गये।

चौधरी – “देखो भाई घबराना नहीं। जो गिरता है, उसे गिरने दो। आज ही तो दिल के हौसले निकले हैं। जय हनुमान जी की।“

एक मजदूर – “बढ़े आओ बढ़े आओ। अब मार लिया है आज ही तो…”

उसकी मुझे पूरी बात भी ना निकलने पाई थी कि गोलियों की दूसरी बाढ़ आई और कई आदमियों के साथ दोनों नेताओं का काम तमाम कर गई। एक क्षण के लिए सबके पैर रुक गये। जो जहाँ था, वहीं खड़ा रहा। समस्या थी कि आगे जायें या पीछे। सहसा एक युवक ने कहा – “मारो रुक क्यों गये? सामने पहुँचकर हिम्मत छोड़ देते हो। बढ़े चलो। जय दुर्गा माई की।“

अंग्रेजी कैंप से फिर गोलियों की बाढ़ आई थी और कई आदमियों के साथ यह आदमी पर गिर गया और उसके गिरते ही सारे समूह में खलबली पड़ गई। अभी तक इन लोगों को यह ना मालूम था कि गोलियाँ किधर से आ रही है। समझ रहे थे कि इसी कैंप से आती होंगी। अब शिकारी लोग बढ़ आए थे और साफ नजर आ रहे थे।

एक चमार बोला – “साहब लोग गोली चला रहे हैं। चलो उन्हीं सबों को पथें। मुर्गी के अंडे खा-खाकर खूब मोटाए हुए हैं।“

सभी अंग्रेजी कैंप की तरफ मुड़े और एक ही हल्ले में अंग्रेजी कैंप के फाटक तक आप पहुँचे। अंग्रेज योद्धा अभी तक तो मोर्चे पर खड़े बंदूकें छोड़ रहे थे, लेकिन इस भयंकर दल को सामने देखकर उनके औसान जाते रहे। दो-चार तो भागे, तीन-चार मूर्छा खाकर गिर पड़े। केवल पाँच फौजी अफसर अपनी जगह पर डटे रहे। उन्हें बचने की कोई आशा न थी, इसी निराशा ने उन्हें अदम्य साहस प्रदान किया था। सामने पहुँचकर लोगों ने आगे बढ़कर पत्थर चलाने शुरू किये। यहाँ तक कि अंग्रेज चोट खाकर गिर पड़े। एक का सिर फट गया, दूसरे की बांह टूट गई थी। केवल तीन आदमी रह गए थे और वही इन आदमियों को रोक रखने के लिए काफ़ी थे। लेकिन उनके पास भी कारतूस ना रह गए थे। इधर हड़तालियों के हौसले बढ़ते जाते थे। शिकार अब बेदम होकर गिरना चाहता था। मुँह से लार टपक रही थी।

सहसा एक आदमी पीछे से भीड़ को चीरता, बेतहाशा दौड़ता हुआ आकर – “बस बस क्या करते हो? ईश्वर के लिए हाथ रोको। क्या गजब करते हो?”

लोगों ने चकित होकर देखा, तो चक्रधर थे। सैकड़ों आदमी उन्मुक्त होकर उनकी ओर दौड़े और उन्हें घेर लिया। जय जय कार की ध्वनि से आकाश गूंजने लगा।

एक मजदूर ने कहा – “हमें अपने एक सौ भाइयों के खून का बदला लेना है।“

चक्रधर ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर कहा – “कोई एक कदम आगे ना बढ़े। खबरदार।“

मजदूर – “यारों, बस एक हल्ला और।“

चक्रधर – “हम फिर कहते हैं, अब एक कदम भी आगे ना उठे।“

जिला के मजिस्ट्रेट मिस्टर जिम ने कहा – “बाबू साहब खुदा के लिए हमें बचाइये।“

फौज की कप्तान मिस्टर सिम बोले – “हम हमेशा आपको दुआ देगा। हम सरकार से आपका सिफारिश करेगा।“

एक मजदूर – “हमारे एक सौ जवान भून डाले, तब आप कहाँ थे ? यारों क्या खड़े हो? बाबू जी का क्या बिगड़ा है? मारे तो हम गए हैं ना। मारो बढ़ के।“

चक्रधर ने उपद्रवियों के सामने खड़े होकर कहा – “अगर तुम्हें खून की ऐसी प्यास है, तो मैं हाजिर हूँ। मेरी लाश को पैरों से कुचल कर तभी तुम आगे बढ़ सकते हो।“

 मजदूर – “भैया हट जाओ। हमने बहुत मार खाई है, बहुत सताए गए हैं। इस वक्त दिल की आग बुझा लेने दो।“

चक्रधर – “मेरा लहू इस ज्वाला को शांत करने के लिए काफ़ी नहीं है?”

मजदूर – “भैया तुम शांत-शांत बका करते हो, लेकिन उसका फल क्या होता है? हमें जो चाहता है, मारता है; जो चाहता है, पीसता है; तो क्या हमी शांत बैठे रहें? शांत रहने से तो और भी हमारे दुर्गति होती है। हमें शांत रहना मत सिखाओ। हमें मरना सिखाओ, तभी हमारा उद्धार कर सकोगे।“

चक्रधर – “अगर अपनी आत्मा की हत्या करके हमारा उद्धार भी होता हो, तो हम आत्मा की हत्या न करेंगे । संसार को मनुष्य ने नहीं बनाया है, ईश्वर ने बनाया है। भगवान ने उद्धार के जो उपाय बताये हैं, उनसे काम लो और ईश्वर पर भरोसा रखो।“

मजदूर – “हमारी फांसी तो हो ही जायेगी। तुम माफी तो ना दिला सकोगे।“

मिस्टर जिम – “हम किसी को सजा न देंगे।“

चक्रधर – “इनाम मिले या फांसी, इसकी क्या परवाह? अभी तक तुम्हारा दामन खून के छींटे से पाक है, उसे पाक रखो। ईश्वर की निगाह में तुम निर्दोष हो। अब अपने को कलंकित मत करो, जाओ।“

मजदूर – “अपने भाइयों का खून कभी हमारे सिर से न उतरेगा। लेकिन तुम्हारी यही मर्जी है, लौट जाते हैं। आखिर फांसी पर तो चढ़ना ही है।“

एक्शन में सारा कैंप साफ हो गया। एक भी मजदूर न रह गया।

आदमियों के जाते ही वे लोग भी इनके साथ हो लिये, जो पहले लूट के लालच में चले आए थे। जिस तरह पानी आ जाने से कोई मेंला उठ जाता है, ग्राहक, दुकानदार और दुकानें सब न जाने कहाँ लुप्त हो जाती है, उसी भांति एक क्षण में सारे कैंप में सन्नाटा छा गया। केवल तिलक मंडप पर अभी तक आग की ज्वाला निकल रही थी। राजा साहब और उनके साथ के कुछ गिने गिने आदमी उसके सामने चुपचाप खड़े मानो किसी मृतक की दाह क्रिया कर रहे हों।

अंधेरा छा गया था। घायलों की कराहने की आवाजें आ रही थी। चक्रधर और उसके साथ के युवक उन्हें सावधानी से उठा-उठा कर एक वृक्ष के नीचे जमा कर रहे थे। कई आदमी तो उठाते उठाते सुरलोक सिधारे। कुछ सेवक उन्हें ले जाने की फिक्र करने लगे।

एकाएक के सिपाहियों ने आकर चक्रधर को पकड़ लिया और अंग्रेजी कैंप की तरफ ले चले। पूछा तो मालूम हुआ कि जिम साहब का यह हुक्म है।

वहाँ कचहरी लगी हुई थी। सशस्त्र पुलिस के सिपाही ,जिन्हें अब लूट से फुर्सत मिल चुकी थी, द्वार पर संगीने चढ़ाये खड़े थे। अंदर मिस्टर जिम और मिस्टर सिम रौद्र रूप धारण किए सिगार पी रहे थे, मानो क्रोधाग्नि मुँह से निकल रही हो। राजा साहब मिस्टर जिम के बगल में बैठे थे। दीवान साहब क्रोध से आँखें लाल किए मेज पर हाथ रखे हुए कुछ कह रहे थे और मुंशी वज्रधर हाथ बांधे एक कोने में खड़े।

चक्रधर को देखते ही मिस्टर जिम ने कहा – “राजा साहब कहता है कि यह सब तुम्हारी शरारत है।“

चक्रधर आवेश में आकर बोले – “अगर राजा साहब, आपका ऐसा विचार है, तो इसका मुझे दुख है। हम लोग जनता में जागृति अवश्य फैलाते हैं और उनमें शिक्षा का प्रचार करते हैं, उन्हें स्वार्थांध अमलों के फंदों से बचाने का उपाय करते हैं और उन्हें अपने आत्मसम्मान की रक्षा करने का उपदेश दे देते हैं । हम चाहते हैं कि मनुष्य बने और मनुष्य की भांति संसार में रहें। वे स्वार्थ के दास बनकर कर्मचारियों की खुशामद ना करें , भयवश अपमान और अत्याचार ना सहे। अगर इसे कोई भड़काना समझता है, तो समझे। हम तो इसे अपना कर्तव्य समझते हैं।“

जिम – “तुम्हारे उपदेश का यह नतीजा देकर कौन कह सकता है कि तुम उन्हें नहीं भड़काता।“

चक्रधर – “यहाँ उन आदमियों पर अत्याचार हो रहा था और उन्हें यहाँ से चले जाने का या काम न करने का अधिकार था। अगर उन्हें शांति के साथ चले जाने दिया जाता, तो यह नौबत कभी ना आती।“

राजा – “हमें परंपरा से बेगार लेने का अधिकार है और उसे हम नहीं छोड़ सकते। आप असामियों को बेगार देने से मना करते हैं और आज के हत्याकांड का सारा भार आपके ऊपर है।“

चक्रधर –  “कोई अन्याय केवल इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि लोग उसे परंपरा से सहते आए हैं।“

जिम – “हम तुम्हारे ऊपर बगावत का मुकदमा चलाएगा तुम डेंजरस (खतरनाक) आदमी है।“

राजा – “हुजूर मैं इनके साथ को सख्ती नहीं करना चाहता। केवल यह प्रतिज्ञा लिखवाना चाहता हूँ कि यह अथवा इनके सरकारी लोग मेरी रियासत में न जायें।“

चक्रधर – “मैं यह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता। दीनों पर अत्याचार होते देखकर दूर खड़े रहना वह दशा है, जो हम किसी तरह नहीं सह सकते।“

मिस्टर जिम ने सब इंस्पेक्टर से कहा – “इनको हवालात में रखो। कल इजलाश पर पेश करो।“

वज्रधर ने आगे बढ़कर जिनके पैरों पर पगड़ी रख दी और बोले – “हुजूर! यह गुलाम का लड़का है। हुजूर, इसकी जांबख्शी करें।“

मिस्टर जिम – “तहसीलदार साहब यह तुम्हारा लड़का है? तुमने उसको घर से निकाल क्यों नहीं दिया? सरकार तुमको इसलिए पेंशन नहीं देता कि तुम बागियों को पाले। हम तुम्हारा पेंशन बंद कर देगा।“

राजा – “बाबू चक्रधर! अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। आप प्रतिज्ञा लिखकर शौक से घर जा सकते हैं। मैं आपको तंग नहीं करना चाहता था। इतना ही चाहता हूँ कि फिर हंगामे  न खड़े हो।“

चक्रधर – “राजा साहब क्षमा कीजियेगा, जब तक असंतोष के कारण दूर न होंगे, ऐसी दुर्घटनायें होंगी और फिर होंगी। मुझे आप पकड़ सकते हैं, कैद कर सकते हैं। इससे चाहे आपको शांति हो; पर वह असंतोष अणुमात्र भी कम ना होगा, जिससे प्रजा का जीवन असह्य हो गया है। असंतोष को भड़का कर प्रजा को शांत नहीं कर सकते। हाँ, कायर बना सकते हैं। अगर आप उन्हें कर्महीन, बुद्धिहीन, पुरुषार्थहीन मनुष्य का तन धारण करने वाले सियार और सूअर बनाना चाहते हैं, तो बनाइये;  पर इससे न आपकी कीर्ति होगी, ईश्वर प्रसन्न होंगे और न स्वयं आपकी आत्मा ही तुष्ट होगी।“

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