चैप्टर 9 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 9 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 9 Manorama Novel By Munshi Premchand

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मुद्दत के बाद जगदीशपुर के भाग जगे, कार्तिक लगते ही एक ओर राजभवन की मरम्मत होने लगी और दूसरी ओर गद्दी के उत्सव की तैयारियाँ शुरू हुई।

राजा साहब ताकीद करते रहे थे कि प्रजा पर ज़रा भी सख्ती ना होने पाए। दीवान साहब से उन्होंने ज़ोर देकर कह दिया था कि बिना पूरी मजदूरी दिए किसी से काम ना लीजिए; लेकिन यह उनकी शक्ति से बाहर था कि आठों पहर बैठे रहें। उनके पास अगर कोई शिकायत पहुँचती, तो कदाचित वह राज्य कर्मचारियों को फाड़ खाते, लेकिन प्रजा सहनशील होती है, जब तक प्याला भर ना जाये, वह जुबान नहीं खोलती। फिर गद्दी के उत्सव में थोड़ा बहुत कष्ट होना स्वभाविक समझकर और कोई भी ना बोलता था।

तीन महीने तक सारी रियासत के बढ़ई, मिस्त्री, दर्जी, चमार, कहार सब दिल तोड़ कर काम करते रहे। चक्रधर को रोज खबरें मिलती रहती थी कि प्रजा पर बड़े-बड़े अत्याचार हो रहे हैं; लेकिन वे राजा साहब से शिकायत करके उन्हें असमंजस में ना डालना चाहते थे। अक्सर खुद जाकर मजदूरों और कारीगरों को समझाते थे। इस तरह तीन महीने गुजर गये। राजभवन का कलेवर नया हो गया। सारे कस्बे  में रोशनी की फाटक बन गए, तिलकोत्सव का विशाल पंडाल तैयार हो गया।

लेकिन अब तक बहुत कुछ काम बेगार से चल रहा था। मजदूरों को भोजन मात्र मिल जाता था। अब नगद रुपये की ज़रूरत सामने आ रही थी। राजाओं का आदर सत्कार और अंग्रेज हुक्काम की दावत तावजा तो बेकार में न हो सकती थी। खर्च का तखमीना पाँच लाख से ऊपर था। खजाने में झंझी कौड़ी न थी। असामियों से छमाही लगान पहले ही वसूल किया जा चुका था। मुहूर्त आता जाता था और कुछ निश्चय ना होता था। यहाँ तक कि केवल पंद्रह दिन और रह गये।

संध्या का समय था। राजा साहब उस्ताद मेंडूखां के साथ बैठे सितार का अभ्यास कर रहे थे कि दीवान साहब और मुंशीजी आकर खड़े हो गये।

विशाल सिंह ने पूछा – ‘कोई ज़रूरी काम है?’

ठाकुर – ‘हुजूर उत्सव को आप केवल एक सप्ताह रह गया है और अभी तक रुपए की कोई सबील नहीं हो सकी। अगर आज्ञा हो, तो किसी बैंक से पाँच लाख कर ले लिया जाये।‘

राजा – ‘हरगिज़ नहीं।‘

दीवान – ‘तो असामियों पर हाल पीछे दस रुपये चंदा लगा दिया जाये।‘

राजा – ‘मैं अपनी तिलकोत्सव के लिए असामियों के ऊपर जुल्म न करूंगा। इससे तो कहीं अच्छा है कि उत्सव ही ना हो।‘

दीवान – ‘महाराज रियासतों में प्रथा है। सब असामी खुशी से देंगे। किसी को आपत्ति ना होगी।‘

मुंशी – ‘गाते बजाते आयेंगे और दे जायेंगे।‘

राजा – ‘अगर आप लोगों का विचार है कि किसी को कष्ट ना होगा और लोग खुशी से मदद देंगे, तो आप अपनी जिम्मेदारी पर वह काम कर सकते हैं। मेरे कानों तक शिकायत ना आये।‘

दीवान – ‘हुजूर! शिकायत तो थोड़ी-बहुत हर हाल में होती ही है। इससे बचना असंभव है। राजा और प्रजा का संबंध ही ऐसा है। प्रजा हित के लिए कोई भी काम कीजिए, तो उसमें भी लोगों को शंका होती है। हल पीछे दस रुपये बैठा देने से कोई पाँच लाख रुपये हाथ आ जायेंगे। रही रसद, वह तो बेगार में मिलती है। आपकी अनुमति की देर है।‘

मुंशी – ‘जब सरकार ने कह दिया कि आप अपनी जिम्मेदारी पर वसूल कर सकते हैं, तो अनुमति का क्या प्रश्न? चलिए अब हुजूर को तकलीफ न दीजिये।‘

राजा – ‘बस इतना ख़याल रखिए कि किसी को कष्ट ना होने पाये। आपको ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि आसामी लोग सहर्ष आकर शरीक़ हों।‘

हुक्म मिलने की देर थी। कर्मचारियों के हाथ तो खुजला रहे थे। वसूली का हुक्म पाते ही बाग-बाग हो गये। फिर तो वह अंधेर मचा कि सारे इलाके में कोहराम पड़ गया। चारों तरफ लूट खसोट हो रही थी। गालियाँ और ठोक-पीट तो साधारण बात थी। किसी के बैल खोल लिए जाते थे, किसी की गाय छीन ली जाती थी, कितनों ही के खेत कटवा लिए गये। बेदखली और इजाफे की धमकियाँ दी जाती थी। जिसने खुशी से दिये, उसका तो दस रुपये ही में गला छूटा। जिसने हील-हवाले किए, कानून बघारा, उसे दस रूपये के बदले बीस रुपये, तीस रुपये, चालीस रूपये देने पड़े। आखिर विवश होकर एक दिन चक्रधर ने राजा साहब से शिकायत कर ही दी।

राजा साहब में त्योरी बदलकर कहा – ‘मेरे पास तो आज तक कोई असामी शिकायत करने नहीं आया। आप उनकी तरफ से क्यों वकालत कर रहे हैं?’

चक्रधर – ‘उन्हें आपसे शिकायत करने को क्यों कर साहस हो सकता है?’

राजा – ‘यह मैं नहीं मानता। जिसको किसी बात की अखर होती है। वह चुप नहीं बैठा रहता।‘

चक्रधर – ‘तो आपसे कोई आशा ना रखूं?’

राजा –  ‘मैं अपने कर्मचारियों से अलग कुछ नहीं हूँ।‘

चक्रधर ने इसका और कुछ जवाब नहीं दिया।

मुंशी राजभवन में इन्हें देख कर बोले – तुम यहाँ क्या करने आए थे? अपने लिए कुछ नहीं कहा?’

चक्रधर – ‘अपने लिए क्या कहता? सुनता हूँ, रियासत में बड़ा अंधेर मचा हुआ है।‘

वज्रधर – ‘यह सब तुम्हारे आदमियों की शरारत है। तुम्हारी समिति के आदमी जा-जाकर असामियों को भड़काते रहते हैं।‘

चक्रधर – ‘हम लोग तो इतना ही चाहते हैं कि असामियों के ऊपर सख्ती ना की जाए और आप लोगों ने इसका वादा भी किया था। फिर यह मारधाड़ क्यों हो रही है?’

वज्रधर – ‘इसलिए कि असामियों ने कह दिया था कि राजा साहब किसी पर जब्र नहीं करना चाहते थे। जिसकी खुशी हो दें, जिसकी खुशी न हो ना दें। तुम अपने आदमियों को बुला लो, फिर देखो कितनी आसानी से काम हो जाता है। तुम आज अपने आदमियों को बुला लो। रियासत के सिपाही उनसे बेहतर बिगड़े हुए हैं। ऐसा ना हो कि मारपीट हो जाये।‘

चक्रधर यहाँ से अपने आदमियों को बुला लेने का वादा करके तो चले गये, लेकिन दिल में आगा पीछा हो रहा था। कुछ समझ में आता था कि क्या करना चाहिए। इसी सोच में पड़े हुए मनोरमा के यहाँ चले गये।

मनोरमा उन्हें उदास देखकर बोली – ‘आप बहुत चिंतित से मालूम होते हैं, घर में तो सब कुशल है?’

चक्रधर – ‘क्या करूं मनोरमा, अपनी दशा देखकर कभी-कभी रोना आ जाता है। सारा देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। फिर भी हम अपने भाइयों के गर्दन पर छुरी फेरने से बाज नहीं आते। राजा साहब की जात से लोगों को कैसी-कैसी आशायें थीं, लेकिन अभी गद्दी पर बैठे छः महीने भी नहीं हुए हैं और इन्होंने भी वही पुराना राग अख्तियार कर लिया। प्रजा से डंडे के जोर से रुपये वसूल किए जा रहे हैं और कोई फरियाद नहीं सुनता। सबसे ज्यादा रोना तो इस बात का है कि दीवान साहब और मेरे पिताजी ही राजा साहब के मंत्री और इस अत्याचार के मुख्य कारण हैं।

सरल हृदय प्राणी अन्याय की बात सुनकर उत्तेजित हो जाते हैं। मनोरमा ने उद्दंड होकर कहा – ‘आप असामियों से क्यों नहीं कहते कि किसी को एक कौड़ी भी ना दें, कोई देगा ही नहीं, तो यह लोग कैसे ले लेंगे।‘

चकधर को हँसी आ गई। बोले – ‘तुम मेरी जगह होती, तो असामियों को मना कर देती?’

मनोरमा – ‘अवश्य! मैं खुल्लम-खुल्ला कहती, खबरदार! राजा के आदमियों को कोई एक पैसा भी ना दें। मैं राजा के आदमी को इतना चिटवाती कि फिर इलाके में जाने का नाम है ना लेते।‘

चक्रधर ये बातें सुनकर पुलकित हो उठे। मुस्कुरा कर बोले – ‘अगर दीवान साहब खफा हो जाते?’

मनोरमा – ‘तो खफा हो जाते। किसी के खफा हो जाने के डर से सच्ची बात पर पर्दा थोड़ी ही डाला जाता है।‘

इस विषय पर फिर कुछ बातचीत ना हुई, लेकिन चक्रधर यहाँ से पढ़ाकर चले, तो उनके मन में प्रश्न हो रहा था – ‘क्या अब यहाँ मेरा आना उचित है। आज उन्होंने विवेक के प्रकाश में अपने अंत:स्थल को देखा, तो उसमें कितने ही ऐसे भाव छिपे हुए थे, जिन्हें यहाँ ना रहना चाहिए था।‘

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