चैप्टर 15 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 15 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 15 Manorama Novel By Munshi Premchand

Chapter 15 Manorama Novel By Munshi Premchand

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | | | || | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16

PrevNext | All Chapters

फागुन का महीना आया, ढोल मंजीरे की आवाजें कानों में आने लगी। मुंशी वज्रधर की संगीत सभा की सजग हुई। यों तो कभी-कभी बारह माहों बैठक होती, पर फागुन आते ही बिला नागा मृदंग पर थाप पड़ने लगी। उदार आदमी थे, फिक्र को कभी पास न आने देते। अपने शरीर को कभी कष्ट न देते थे। लड़का जेल में है, घर में स्त्री रोती-रोती अंधी हुई जा रही है, सयानी बेटी घर पर बैठी हुई है, लेकिन मुंशी जी को कोई गम नहीं। पहले ₹25 में गुजर करते थे, अब ₹75 भी पूरे नहीं पड़ते। जिससे मिलते हैं, हँसकर, सभी की मदद करने को तैयार। वादे सबके करते हैं, किसी ने झुककर सलाम किया और प्रसन्न हो गये। दोनों हाथों से वरदान बांटते फिरते हैं, चाहे पूरा एक भी न कर सकें। अपने मोहल्ले के कई बेफिक्रों को, जिन्हें कोई टके को भी न पूछता, रियासत में नौकर करा दिया – किसी को चौकीदार, किसी को मुहर्रिर, किसी को कारिंदा। मगर नेकी करके दरिया में डालने की उनकी आदत नहीं। जिससे मिलते हैं अपना ही यश गाना शुरू करते हैं, और उनमें मनमानी अतिशयोक्ति भी करते हैं। मुंशी जी  किसी को निराश नहीं करते। और कुछ न कर सके, तो बातों से ही पेट भर देते हैं। जो काम पहुँच से बाहर होता है, उसके लिए भी ‘हाँ-हाँ’ कर देना, आँखें मारना, उड़न घाईयाँ बताना, इन चालों में यह सिद्ध है। मनोरमा का राजा साहब से विवाह होना था कि मुंशी जी का भाग्य चमक उठा। एक ठीकेदार को रियासत के कई मकानों का ठीका दिला कर अपना मकान का पक्का करा लिया; बनिया बोरों अनाज मुफ्त में भेज देता, धोबी कपड़ों की धुलाई न लेता। सारांश यह है कि तहसीलदार साहब के पौ बारह थे। तहसीलदारी में जो मज़े न उड़ाये थे, अब उड़ा रहे हैं।

रात के आठ बजे थे। झिक्कू अपने समाजियों के साथ आ बैठा। मुंशी जी मनसद पर बैठे पेचवान पी रहे थे। गाना होने लगा। इतने में रानी मनोरमा की मोटर आकर द्वार पर खड़ी हो गई। मुंशी जी नंगे सिर, नंगे पांव दौड़े; जरा भी ठोकर खा जाते, तो उठने का नाम न लेते।

मनोरमा ने हाथ उठाकर कहा – “दौड़िये नहीं, दौड़िये नहीं। मैं आप ही के पास इस वक्त बड़ी खुशखबरी सुनाने आई हूँ। बाबूजी कल यहाँ आ जायेंगे।“

मुंशी – “क्या लल्लू?”

मनोरमा – “जी हाँ! सरकार ने उनकी मियाद घटा दी है।”

इतना सुनना था कि मुंशी की बेतहाशा दौड़े और घर में जाकर हांफते हुए निर्मला से बोले – “सुनती हो लल्लू कल आयेंगे। मनोरमा रानी दरवाजे पर खड़ी हैं।”

यह कहकर उल्टे पांव फिर आ पहुँचे।

मनोरमा – “अम्मा जी क्या कर रही हैं। उनसे मिलती चलूं।”

मनोरमा घर में दाखिल हुई। निर्मला आँखों में प्रेम की नदी भरे, सिर झुकाये खड़ी थी। जी चाहता था, इसके पैरों के नीचे आँखें बिछा दूं। मेरे धन्य भाग्य।

एकाएक मनोरमा ने झुककर निर्मला के पैरों पर शीश झुका दिया और पुलकित कंठ से बोली – “माता जी धन्य भाग्य, जो आपके दर्शन हुए। जीवन सफल हो गया।”

निर्मला सारा शिष्टाचार भूल गई। बस खड़ी रोती रही। मनोरमा के शील और विनय ने शिष्टाचार को तृण की भांति मातृस्नेह की रंगत में बहा दिया।

जब मोटर चली गई, तो निर्मला ने कहा – “साक्षात देवी है।”

दस बज रहे थे। मुंशी जी भोजन करने बैठे। मारे खुशी के खाया भी न गया। जल्दी से दो चार कौर खाकर बाहर की ओर भागे और अपने इष्ट मित्रों से चक्रधर के स्वागत के विषय में आधी रात तक बातें करते रहे। निश्चय किया गया कि प्रात:काल शहर में नोटिस बांटी जाये और सेवा समिति के सेवक स्टेशन पर बैंड बजाते हुए उनका स्वागत करें।

प्रातः समय में मनोरमा कमरे में आई और मेज़ पर बैठकर बड़ी उतावली में कुछ लिखने लगी कि दीवान साहब के आने की इत्तला हुई और एक क्षण में आकर वह कुर्सी पर बैठ गये। मनोरमा ने पूछा – “रियासत का बैंड तैयार है न।”

हर सेवक – “हाँ, उसके लिए पहले ही हुक्म दिया जा चुका है।”

मनोरमा – “जुलूस का प्रबंध ठीक है न! मैं डरती हूँ कि भद्द न हो जाये।”

हरसेवक – “श्रीमान राजा साहब की राय है कि शहर वालों को जुलूस निकालने दिया जाये। हमारे सम्मिलित होने की जरूरत नहीं।”

मनोरमा ने रूष्ट ठोकर कहा – “राजा साहब से मैंने पूछ लिया है। उनकी राय वही है, जो मेरी है। अगर सन्मार्ग पर चलने पर विरासत जब्त भी हो जाये, तब भी मैं उस मार्ग से विचलित न हूंगी।”

दीवान साहब ने सजल नेत्रों से मनोरमा को देखकर कहा – “बेटी मैं तुम्हारे ही भले को कहता हूँ। तुम नहीं जानती कि जमाना कितना नाजुक है।”

मनोरमा उत्तेजित होकर बोली – “पिताजी इस सदुपदेश के लिए मैं आपकी बहुत अनुगृहित हूँ, लेकिन मेरी आत्मा उसे ग्रहण नहीं करती। अभी सात बजे हैं। लेकिन आठ बजते-बजते आपको स्टेशन पहुँच जाना चाहिए। मैं ठीक वक्त पर पहुँच जाऊंगी। जाइये।”

दीवान साहब के जाते ही मनोरमा फिर मैं इस पर बैठकर लिखने लगी। यह वह भाषण था, जो मनोरमा चक्रधर के स्वागत के अवसर पर देना चाहते थी। वह लिखने में इतनी तल्लीन हो गई कि उसे राजा साहब के आकर बैठ जाने की तब तक खबर न हुई, जब तक उन्हें उनके फेफड़ों में खांसने मजबूर न कर दिया।

मनोरमा ने चौंककर आँखें उठाई, तो देखा कि राजा साहब बैठे हुए उसकी ओर प्रेम विहवल नेत्रों से ताक रहे हैं। बोली -“क्षमा कीजिएगा, मुझे आपकी आहट न मिली। क्या बहुत देर से बैठे हैं?”

राजा – “नहीं तो, अभी-अभी आया हूँ। तुम लिख रही थी इसलिए छेड़ना उचित न समझा। मैं चाहता हूँ कि जुलूस इतनी धूमधाम से निकले कि इस शहर के इतिहास में अमर हो जाये।”

मनोरमा – “यही तो मैं भी चाहती हूँ।”

राजा – “मैं सैनिकों के आगे सैनिक वर्दी में रहना चाहता हूँ।”

मनोरमा ने चिंतित होकर कहा – “आपका जाना उचित नहीं जान पड़ता। आप यहाँ उनका स्वागत कीजियेगा। अपनी मर्यादा का निर्वाह तो करना पड़ेगा। सरकार यों ही हम लोगों पर संदेह करती है, तब तो फिर सत्तू बांधकर हमारे पीछे पड़ जायेगी।”

मनोरमा फिर लिखने लगी, जो कि राजा साहब को वहाँ से चले जाने का संकेत था। पर राजा साहब ज्यों की त्यों बैठे रहे। उनकी दृष्टि मकरंद के प्यासे भ्रमर की भांति मनोरमा के मुख कमल का माधुर्य रसपान कर रही थी।

सहसा घड़ी में नौ बजे। मनोरमा कुर्सी से उठ खड़ी हुई। राजा साहब भी वृक्ष की छाया में विश्राम करने वाले पथिक की भांति उठे और धीरे-धीरे द्वार की ओर चले। द्वार पर पहुँचकर वह फिर मुड़कर मनोरमा से बोले – “मैं भी चलूं, तो क्या हर्ज?”

मनोरमा ने करुण कमल नेत्रों से देखकर कहा – “अच्छी बात है चलिये।”

रेलवे स्टेशन पर कहीं तिल रखने को जगह न थी। अंदर का चबूतरा और बाहर का सहन आदमियों से खचाखच भरे थे। चबूतरे पर विद्यालयों के छात्र थे, रंग बिरंगी वर्दियाँ पहने; और सेवा समिति के सदस्य रंग-बिरंगी झंडियाँ लिए हुये। मनोरमा नगर के कई महिलाओं के साथ सेवकों के बीच में खड़ी थी। बरामदे में राजा विशाल सिंह, उनके मुख्य कर्मचारी और शहर की रईस और नेता जमा थे। मुंशी वज्रधर इधर से उधर पैंतरे बदलते और लोगों को सावधान रहने की ताकीद करते फिरते थे।

ठीक दस बजे गाड़ी दूर से धुआं उड़ाते हुए दिखाई दी। अब तक लोग अपनी जगह कायदे के साथ खड़े थे। लेकिन गाड़ी के आते ही सारी व्यवस्था हवा हो गई। गाड़ी आकर रुकी और चक्रधर उतर पड़े। मनोरमा भी उन्माद से उन्मुक्त होकर चली; लेकिन तीन-चार पग चली थी कि ठिठक गई और एक स्त्री की आड़ से चक्रधर को देखा। सेवा समिति का मंगल गान समाप्त हुआ, तो राजा जी ने आगे बढ़कर नगर के नेताओं की तरफ से उनका स्वागत किया। सब लोगों उनसे गले मिले और यह जुलूस सजाया जाने लगा। चक्रधर स्टेशन के बाहर आये और तैयारियाँ देखी, तो बोले – “आप लोग इतना सम्मान करके मुझे लज्जित कर रहे हैं। मुझे तमाशा न बनाइये।”

संयोग से मुंशी जी वही खड़े थे। यह बातें सुनी, तो बिगड़कर बोले – “तमाशा नहीं बनना था, तो दूसरों के लिए प्राण देने को क्यों तैयार हुए थे? तुम्हीं अपनी इज्जत न करोगे, तो दूसरे क्यों करने लगे? आदमी कोई काम करता है, तो रुपये के लिए या नाम के लिये। यदि दोनों में से कोई हाथ न आये, तो वह काम करना ही व्यर्थ है।“

यह कहकर उन्होंने चक्रधर को छाती से लगा लिया। चक्रधर रक्तहीन मुख लज्जा से आरक्त हो गया था और कुछ आपत्ति करने का साहस न हुआ। चुपके से राजा साहब की टुकड़ी पर बैठे।

जुलूस नदेसर, चेतगंज, दशाश्वमेध और चौक पर होता हुआ दोपहर होते-होते कबीर चौरे पर पहुँचा। यहाँ मुंशी जी के मकान के सामने एक बहुत बड़ा शामियाना लगा हुआ था। निरहुआ की यही सभा हो और चक्रधर को अभिनंदन पत्र दिया जाये। मनोरमा स्वयं पत्र पढ़कर सुनाने वाली थी, लेकिन जब पढ़ने को खड़ी हुई, तो उसके मुँह से एक शब्द न निकला।

मनोरमा को असमंजस में देख कर राजा साहब खड़े हुए और धीरे से कुर्सी पर बिठा कर बोले – “सज्जनों रानी के भाषण में आपको जो रस मिलता, वह मेरे शब्दों में कहाँ। कोयल के स्थान पर कौआ हुआ खड़ा हो गया है, शहनाई की जगह नृसिंह ने लेली है। आप लोगों को ज्ञात न होगा कि पूज्यवर चक्रधर रानी साहिबा के गुरु रह चुके हैं और वह भी उन्हें उसी भाव से देखती है। अपने ग्रुप का सम्मान करना शिष्या का धर्म है, किंतु रानी साहिबा का कोमल हृदय नाना प्रकार के आवेगों से इतना भरा हुआ है कि वाणी के लिए भी जगह नहीं रही। इसके लिए क्षम्य है। बाबू साहब ने जिस धैर्य और साहस से दोनों की रक्षा की, वह आप लोग जानते ही हैं। जेल में भी आपने निर्भीकता से अपने कर्तव्य का पालन किया। आपका मन दया और प्रेम का सागर है। जिस अवस्था में और युवक धन की उपासना करते हैं, आपने धर्म जाति प्रेम की उपासना की है। मैं भी आपका पुराना भक्त हूँ।”

एक सज्जन ने टोका – “आप ही ने तो उन्हें सजा दिलाई थी!”

राजा – “हाँ मैं से स्वीकार करता हूँ। राजा के मद में कुछ दिनों के लिए मैं अपने को भूल गया था। कौन है जो प्रभुता पाकर फूल न उठा हो। यह मानवीय स्वभाव है और आशा है आप लोग मुझे क्षमा करेंगे।”

PrevNext | All Chapters

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | | | || | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16

Read Munshi Premchand Novel In Hindi :

प्रेमा ~ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

निर्मला ~ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

प्रतिज्ञा ~ मुंशीप्रेमचंद का उपन्यास

गबन ~ मुंशीप्रेमचंद का उपन्यास

Leave a Comment