Chapter 13 Manorama Novel By Munshi Premchand
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चक्रधर को जेल में पहुँचकर ऐसा मालूम हुआ कि वह नई दुनिया में आ गए। उन्हें ईश्वर के दिए हुए वायु और प्रकाश के मुश्किल से दर्शन होते हुए थे। भोजन ऐसा मिलता था, जिसे शायद कुत्ते भी सूंघ कर छोड़ देते हैं। वस्त्र ऐसे, जिन्हें कोई भिखारी पैरों से ठुकरा देता और परिश्रम इतना करना पड़ता था, जितना बैल भी ना कर सके। जेल शासन का विभाग नहीं, पाश्विक व्यवसाय है। आदि से अंत सार व्यापार घृणित, जघन्य पैशाचिक और निंद्य है। अनीति की भी अकल यहां दंग है। दुष्टता भी यहाँ दांतो तले उंगली दबाती है।
मगर कुछ ऐसे भाग्यवान है, जिनके लिए जेल कल्पवृक्ष से कम नहीं। बैल अनाज पैदा करता है, तो अनाज का भूसा खाता है। कैदी बैल से भी गया गुज़रा है। वह नाना प्रकार के साग भाजी और फल फूल पैदा करता है; पर सब्जी फल और फूलों से भरी हुई डालिया हुक्काम के बंगलों पर पहुँच जाती हैं। कैदी देखता है और किस्मत ठोक कर रह जाता है।
चक्रधर को चक्की पीसने का काम दिया गया। प्रात:काल गेहूं तौल कर दे दिया जाता और संध्या तक उसे पीसना ज़रूरी था। कोई उज्र या बहाना ना सुना जाता था। बीच में केवल एक बार खाने की छुट्टी मिलती थी। इसके बाद फिर चक्की में जुत जाना पड़ता था। वह बराबर सावधान रहते थे कि किसी कर्मचारी को कुछ कहने का मौका ना मिले, लेकिन गालियों में बातें करना जिनकी आदत हो गई हो, उन्हें कोई क्यों कर रोकता।
किंतु विपत्ति का अंत यहीं तक न था। कैदी लोग उन पर ऐसी अश्लील ऐसी अपमानजनक आवाजें कसते थे कि क्रोध और घृणा से उनका रक्त खौल उठता, पर लहू का घूंट पीकर रह जाते थे। इनके कमरे में पांच कैदी रहते थे। उनमें धन्ना सिंह नाम का एक ठाकुर भी था, बहुत ही बलिष्ठ और गजब का शैतान। वह उनका नेता था। वे सब इतना शोर मचाते, इतनी गंदी, घृणितोपादक बातें करते कि चक्रधर को कानों में उंगलियाँ डालनी पड़ती थी। हुक्म तो यह था कि कोई कैदी तंबाखू भी न पीने पाये। पर यहाँ गांजा, भंग, शराब, अफ़ीम यहाँ तक कि कोकेन भी न जाने किस तिकड़म से पहुँच जाते थे। नशे में वे इतने उद्दंड हो जाते, मानो नर तन धारी राक्षस हो।
धीरे-धीरे चक्रधर को इन आदमियों से सहानुभूति होने लगी। सोचा इन परिस्थिति में पड़कर ऐसा कौन प्राणी है, जिसका पतन न हो जायेगा। उन्हें सभी श्रेणी के मनुष्यों से साबिका पड़ चुका था, पर ऐसे निर्लज्ज, गालियाँ खाकर हँसने वाले, दुर्व्यसनों में डूबे हुए मुँहफट बेहया आदमी उन्होंने अब तक न देखे थे। उन्हें न गालियों की लाज थी, न मार का भय। कभी-कभी उन्हें ऐसी ऐसी अस्वाभाविक ताड़नायें मिलती थी कि चक्रधर के रोयें खड़े हो जाते थे, मगर क्या मज़ाल किसी की आँखों में आँसू आये। यह व्यहवार देखकर चक्रधर अपने कष्टों को भूल जाते थे। कोई कैदी उन्हें गाली देता, तो चुप हो जाते और इस ताक में रहते कि कब इसके साथ सज्जनता दिखाने का अवसर मिले।
चक्रधर का जीवन का कभी इतना आदर्श ना था। कैदियों को मौका मिलने पर धर्म कथायें सुनाते। इन कथाओं को कैदी लोग इतने चाव से सुनते, मानो एक-एक शब्द उनके हृदय पर अंकित हो जाता था! किंतु इसका असर बहुत जल्दी मिट जाता था, इतनी जल्दी कि आश्चर्य होता था। उधर कथा हो रही है और इधर लात-मुक्के चल रहे हैं। कभी-कभी वे इन कथाओं पर अविश्वास पूर्ण टीकायें करते और बात हँसी में उड़ा देते हैं। पर अभिव्यक्ति पूर्ण आलोचनायें सुनकर भी चक्रधर हताश ना होते। शनै: शनै: उनकी भक्ति चेतना स्वयं अदृश्य होती जाती थी।
इस भांति कई महीने गुजर गये। एक दिन संध्या समय चक्रधर दिन भर के कठिन श्रम के बाद बैठे संध्या कर रहे थे कि कई कैदी आपस में बातें करते हुए निकले- ‘आज दरोगा की खबर लेनी चाहिए। जब देखो गालियाँ दिया करता है। ऐसा मारो कि जन्म पर को दाग हो जाये। यही न होगा कि साल दो साल की मियाद और बढ़ जायेगी। बच्चा की आदत तो छूट जायेगी।‘
चक्रधर इस तरह की बातें सुनते रहते थे, इसलिए उन्होंने इस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया, मगर भोजन करने के समय ज्यों ही दरोगा साहब आकर खड़े हुए और एक को देर से आने के लिए मारने दौड़े कि कई कैदी चारों तरफ से दौड़ पड़े और ‘मारो मारो’ का शोर मच गया। दरोगाजी की सिट्टी पिट्टी भूल गई। सहसा धन्ना सिंह ने आगे बढ़कर दरोगाजी की गर्दन पकड़ी और इतनी ज़ोर से दबाई कि उसकी आँखें निकल आई। चक्रधर ने देखा, अब अनर्थ हुआ जाता है, तो तीर की तरह झपटे, कैदियों के बीच में घुसकर धन्ना सिंह का हाथ पकड़ लिया और बोले – “क्या करते हो?”
धन्ना सिंह – “हट जाओ सामने से, नहीं तो सारा बाबूपन निकाल दूंगा। पहले इससे पूछो, अब तो किसी को गालियाँ न देगा, मारने को न दौड़ेगा?”
दरोगा – “कसम कुरान की, जो कभी मेरे मुँह से गाली का एक हरफ भी निकले।”
धन्ना सिंह – “कान पकड़ो।”
दरोगा – “कान पकड़ता हूँ।”
धन्ना सिंह – “जाओ बच्चा, भले का मुँह देख कर उठे थे, नहीं तो आज जान न बचती, यहाँ कौन कोई रोने वाला बैठा हुआ है।”
चक्रधर – “दरोगा जी! कहीं ऐसा न कीजियेगा कि जाकर वहाँ से सिपाहियों को चढ़ा लाइये और इन गरीबों को भुनवा डालिये।”
दरोगा – “लाहौल विला कूवत इतना कामीना नहीं हूँ।”
दरोगाजी तो यहाँ से जान बचाकर भागे, लेकिन दफ्तर में जाते ही गारद के सिपाहियों को ललकारा, हाकिम जिला को टेलीफोन किया और खुद बंदूक लेकर समर के लिए तैयार हुये। दम के दम में सिपाहियों का दल संगीने चढ़ाये आ पहुँचा और लपककर भीतर घुस पड़ा।
चक्रधर पर चारों ओर से बौछार पड़ने लगी। उन्होंने आगे बढ़कर कहा – “दरोगा जी! आखिर आप चाहते क्या हैं? इन गरीबों को क्यों घेर रखा है।”
दरोगा ने सिपाहियों की आड़ से कहा – “यही उन सब बदमाशों का सरगना है। इसे गिरफ्तार कर लो। बाकी जितने हैं, उन्हें खूब मारो। मारते-मारते हलवा निकाल लो सूअर के बच्चों का।”
चक्रधर – “आपको कैदियों को मारने का कोई मजाज नहीं है।”
सिपाही कैदियों पर टूट पड़े और उन्हें बंदूकों के कुंदों से मारना शुरू किया। कैदियों में खलबली पड़ गई। कुछ इधर-उधर से फावड़े, कुदालें और पत्थर ला-लाकर लड़ने पर तैयार हो गये। मौका नाजुक था। चक्रधर ने बड़ी दीनता से कहा – “मैं आपको फिर समझाता हूँ।”
दरोगा – “चुप रह सूअर का बच्चा!”
इतना सुनना था कि चक्रधर बाज़ की तरह लपककर दरोगाजी पर झपटे। कैदियों पर कुंदों की मार पड़नी शुरू हो गई थी। चक्रधर को बढ़ते देखकर उन सबों ने पत्थरों की वर्षा शुरू की। भीषण संग्राम होने लगा।
एकाएक चक्रधर ठिठक गये। ध्यान आ गया, स्थिति और भयंकर हो जायेगी, अभी सिपाही बंदूकें चलानी शुरू कर देंगे, लाशों के ढेर लग जायेंगे। अगर हिंसक भावों को दबाने का कोई मौका हो सकता है, तो वह यही मौका है। ललकार कर बोले – “पत्थर न फेंकों, पत्थर न फेंकों। सिपाहियों के हाथों से बंदूक छीन लो।”
सिपाहियों ने संगीने चढ़ानी चाही, लेकिन उन्हें इसका मौका न मिल सका। एक-एक सिपाही पर दस-दस कैदी टूट पड़े और दम के दम में उनकी बंदुकें छीन लीं। यह सब कुछ पांच मिनट में हो गया। ऐसा दांव पड़ा कि वही लोग जो ज़रा देर पहले हेकड़ी जताते थे, खड़े दया प्रार्थना कर रहे थे, घिघियाते थे, मत्थे टेकते थे और रोते थे, दरोगाजी की सूरत तस्वीर खींचने योग्य थी। चेहरा फक्क, हवाइयाँ उड़ी हुई, थर-थर कांप रहे थे कि देखें, जान बचती है या नहीं।
कैदियों ने देखा इस वक़्त हमारा राज्य है, तो पुराने बदले चुकाने पर तैयार हो गये। धन्ना सिंह लपका हुआ दरोगा के पास आया और जोर से धक्का देकर बोला – “क्यों साहब? उखाड़ लूं दाढ़ी का एक-एक बाल।”
चक्रधर – “धन्ना सिंह, हट जाओ।”
धन्ना सिंह – “मरना तो है ही, अब इन्हें क्यों छोड़े?”
चक्रधर – “मेरे देखते तो यह अनर्थ न होने पायेगा। हाँ मर जाऊं, तो जो चाहे करना।”
धन्ना सिंह – “अगर ऐसे बड़े धर्मात्मा हो, तो इनको क्यों नहीं समझाया? देखते नहीं हो, कितने सांसत होती है।”
इतने में सदर फाटक पर शोर मचा। जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के सिपाही और अफसरों के साथ आ पहुँचे थे। दरोगाजी ने अंदर आते वक्त किवाड़ बंद कर लिए थे, जिससे कोई कैदी भागने न पायें।
यह शोर सुनते ही चक्रधर समझ गए कि पुलिस आ गई है। बोले – “अरे भाई! क्यों अपनी जान के दुश्मन बने हुए हो? बंदूकें रख दो और फौरन जाकर किवाड़ खोल दो। पुलिस आ गई।”
धन्ना सिंह – “कोई चिंता नहीं। हम भी इन लोगों का वारा न्यारा किए डालते हैं। मरते ही हैं, तो दो-चार कुमार को मार के मरें।”
कैदियों ने फौरन संगीनें चढ़ाई और सबसे पहले धन्ना सिंह दरोगा जी पर झपटा। करीब था कि संगीत की नोंक उसके सीने में चुभे कि चक्रधर यह कहते हुए : “धन्ना सिंह ईश्वर के लिए …” दरोगा जी के सामने आकर खड़े हो गये। धन्ना सिंह वार कर चुका था। चक्रधर के कंधे पर संगीन का भरपूर हाथ पड़ा। आधी संगीन धंस गई। दाहिने हाथ के कंधे को पकड़ कर बैठ गये। कैदियों ने उन्हें गिरते देखा, तो होश उड़ गये। आ-आकर उनके चारों तरफ खड़े हो गये। घोर अनर्थ की आशंका ने उन्हें स्तंभित कर दिया। भगत को चोट आ गई – ये शब्द उनकी पशुवृत्तियों को दबा बैठे। धन्ना सिंह ने बंदूक फेंक दी और फूट-फूट कर रोने लगा। ग्लानि के आवेश में बार-बार चाहता है कि वही संगीन अपनी छाती में चुभा ले; लेकिन कैदियों ने इतने ज़ोर से उसे जकड़ रखा था कि उसका कुछ बस नहीं चलता।
दरोगा ने मौका पाया, तो सदर फाटक की तरफ दौड़े कि उसे खोल दूं। धन्ना सिंह ने देखा, तो एक ही झटके में वह कैदियों के हाथों से मुक्त हो गया और बंदूक उठा कर उनके बीच दौड़ा। करीब था कि दरोगाजी पर फिर वार पड़े कि चक्रधर फिर संभलकर उठे और एक हाथ से अपना कंधा पकड़े लड़खड़ाते हुए चले। धन्नासिंह ने उन्हें आते देखा, तो उसके पांव रुक गये। भगत अभी जीते हैं, इसकी उसे इतनी खुशी हुई कि वह बंदूक लेकर पीछे की ओर चला और उनके चरणों पर सिर रख कर रोने लगा।
चक्रधर ने कहा – “सिपाहियों को छोड़ दो।”
धन्ना जी बहुत अच्छा भैया तुम्हारा जी कैसा है?
सहसा मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के साथ जेल में दाखिल हुये। उन्हें देखते ही सारे कैदी भय से भागे। केवल दो आदमी चक्रधर के पास खड़े रहे थे। धन्ना सिंह उनमें एक था। सिपाहियों ने भी छूटते ही अपनी अपनी बंदूके संभाली और कतार में खड़े हो गये।”
जिम – “वेल दरोगा क्या हाल है?”
दरोगा – “हुजूर के अकबाल से फ़तह हो गई। कैदी भाग गये।”
जिम – “यह कौन आदमी पड़ा है?”
दरोगा – “इसी ने हम लोगों की मदद की है हुजूर। चक्रधर नाम है।”
जिम – “इसी ने कैदियों को भड़काया होगा।”
दरोगा – “नहीं हुजूर! इसने तो कैदियों को समझा-बुझाकर शांत किया।”
जिम – “तुम कुछ नहीं समझ ता। यह लोग पहले कैदियों को भड़काता है, फिर उनकी तरफ से हाकिम लोगों से लड़ता है।”
दरोगा – “देखने में तो हुज़ूर बहुत ही सीधा मालूम होता है, दिल का हाल खुदा जाने।”
जिम – “खुदा के जाने से कुछ नहीं होगा, तुमको जानना चाहिए। यह आदमी कैदियों से मज़हब की बातचीत तो नहीं करता?”
दरोगा – “मज़हब की बातें तो बहुत करता है हुजूर।”
जिम – “ओह! तब तो यह बहुत ही खतरनाक आदमी है। जब कोई पढ़ा-लिखा आदमी मज़हब की बातचीत करे, तो फौरन समझ लो कि वह कोई साजिश करना चाहता है।”
रिलीजन के साथ पॉलिटिक्स बहुत खतरनाक हो जाती है। यह आदमी कैदियों से बड़ी हमदर्दी करता होगा? सरकारी हुक्म उनको खूब मानता होगा? बड़े से बड़ा काम खुशी से करता होगा?”
दरोगा – ” जी हाँ!”
जिम – “ऐसा आदमी निहायत खौफनाक होता है। उस पर कभी ऐतबार नहीं करना चाहिए। हम इस पर मुक़दमा चलायेगा। इसको बहुत कड़ी सजा देगा। सिपाहियों को दफ्तर में बुलाओ। हम सबका बयान लिखेगा।”
दरोगा – “हुजूर! पहले उसे डॉक्टर को दिखा लूं। ऐसा न हो कि मर जाये। गुलाम को दाग लगे।”
जिम – “वह मरेगा नहीं। ऐसा खौफनाक आदमी कभी नहीं मरता और मर भी जायेगा, तो हमारा कोई नुकसान नहीं।”
यह कहकर साहब दफ्तर की ओर चले। धन्नासिंह अब तक इस इंतजार में खड़ा था कि डॉक्टर साहब आते होंगे। जब देखा कि जिम साहब उधर मुखातिब भी ना हुए, तो उसने चक्रधर को गोद में उठाया और अस्पताल की ओर चला।
चक्रधर दो महीने अस्पताल में पड़े रहे। दवादर्पन तो जैसे हुई वही जानते होंगे; लेकिन जनता की दुआओं में ज़रूर असर था। हजारों आदमी नित्य उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे और मनोरमा को दान, व्रत और तप सिवा और कोई काम न था। जिन बातों को वह पहले ढकोसला समझती थी, उन्हीं बातों में अब उसकी आत्मा को शांति मिलती थी। कमजोरी ही में हम लकड़ी का सहारा लेते हैं।
चक्रधर तो अस्पताल में पड़े थे। इधर उन पर नया अभियोग चलाने की तैयारियाँ हो रही थी। ज्यों ही वह चलने-फिरने लगे, उन पर मुकदमा चलने लगा। जेल के भीतर ही इजलास होने लगा। ठाकुर गुरु हरसेवक जोशी आजकल डिप्टी मदिस्ट्रेट थे। उन्हीं को यह मुकदमा सुपुर्द किया गया।
ठाकुर साहब सरकारी काम में ज़रा भी रियायत न करते थे, लेकिन यह मुकदमा पाकर वह संकट में पड़ गए, अगर चक्रधर को सजा देते हैं, तो जनता में मुँह दिखाने लायक नहीं रहते। मनोरमा तो शायद उनका मुँह भी न देखे। छोड़ते हैं, तो अपने समाज में तिरस्कार होता है, क्योंकि वहाँ सभी चक्रधर से खार खाये बैठे थे।
मुकदमे को पेश हुए आज तीसरा दिन था। गुरु हरदेव सेवक बरामदे में बैठे सावन की रिमझिम वर्षा का आनंद उठा रहा था। सहसा मनोरमा मोटर से उतर कर उनके समीप कुर्सी पर बैठ गई।
गुरूसेवक ने पूछा – “कहाँ से आ रही हो?”
मनोरमा – “घर से ही आ रही हूँ ।जेल वाले मुकदमे में क्या हो रहा?”
गुरुसेवक – “अभी तो कुछ नहीं हुआ। गवाहों के बयान हो रहे हैं।”
मनोरमा – “बाबू जी पर जुर्म साबित हो गया?”
गुरूसेवक – “जुर्म का साबित होना या न होना दोनों बराबर है और मुझे मुलजिमों को सजा करनी पड़ेगी। अगर बरी कर दूंगा, तो सरकार अपील करके उन्हें फिर सजा दिला देगी। हाँ, मैं बदनाम हो जाऊंगा। मेरे लिए यह आत्मबलिदान का प्रश्न है। सारी देवता मंडली मुझ पर कुपित हो जायेगी।”
मनोरमा – “बाबूजी के लिए सजा का दो-एक साल बढ़ जाना कोई बात नहीं, वह निरापराध हैं और यह विश्वास उन्हें तस्कीन देने को काफ़ी है। लेकिन तुम कहीं के न रहोगे। तुम्हारे देवता भले तुम से भले ही संतुष्ट हो जाये, पर तुम्हारी आत्मा का सर्वनाश हो जायेगा।”
गुरूसेवक – “चक्रधर बिल्कुल बेकसूर तो नहीं है। पहले पहल जेल में के दरोगा पर वही गर्म पड़े थे। वह उस वक्त जब्त कर जाते, तो यह फिसाद न खड़ा होता।”
मनोरमा – “उन्होंने जो कुछ किया, वही उनका धर्म था। आपको अपने फैसले में साफ-साफ लिखना चाहिए कि बाबूजी बेकसूर हैं। आपको सिफ़ारिश करनी चाहिए कि महान संकट में अपने प्राणों को हथेली पर लेकर जेल के कर्मचारियों की जान बचाने के बदले में उनकी मियाद हटा दी जाये।”
गुरूसेवक ने अपनी नीचता को मुस्कुराहट से छिपाकर कहा – “आग में कूद पड़ूं?”
मनोरमा – “धर्म की रक्षा के लिए आग में कूद पड़ना कोई नई बात नहीं है। आखिर आपको किस बात का डर है? यही न कि आपसे आपके आपसे नाराज हो जायेंगे। आप शायद डरतें हो कि कहीं आप अलग न कर दिया जायें। इसकी ज़रा भी चिंता ना कीजिये।”
गुरूसेवक अपनी स्वार्थपरता पर झेंपते हुए बोले – “नौकरी की मुझे परवाह नहीं मनोरमा। मैं लोगों के कमीनेपन से डरता हूँ। इनका धर्म, इनकी राजनीति, इनका न्याय, इनकी सभ्यता केवल एक शब्द में आ जाती है और वह शब्द है – स्वार्थ। जानता हूँ यह मेरी कमजोरी है, पर क्या करूं? मुझमें तो इतना साहस नहीं।”
मनोरमा – “भैया जी! आप यह सारी शंका निर्मूल है। गवाहों के बयान हो गए कि नहीं?”
गुरूसेवक – “हाँ, हो गये। अब तो केवल फैसला सुनाना है।”
मनोरमा – “तो लिखिए। मैं बिना लिखवाये यहाँ से जाऊंगी ही नहीं। यही इरादा करके आज आई हूँ।”
दौड़ा दूसरी मोटर आ पहुँची। इस पर राजा साहब बैठे हुए थे। गुरूसेवक बड़े तपाक से उन्हें लेने दौड़े। राजा ने उनकी ओर विशेष ध्यान न दिया। मनोरमा के पास आकर बोले – “तुम्हारे घर से चला रहा हूँ। वहाँ पूछा, तो मालूम हुआ – कहीं गई हो; पर यह तो किसी को मालूम न था कि कहाँ। वहाँ से पार्क गया, पार्क से चौक पहुँचा, सारे ज़माने की खाक छानता हुआ यहाँ पहुँचा हूँ। मैं कितनी बार कह चुका हूँ कि घर से चला करो, तो ज़रा बतला दिया करो।”
यह कहकर राजा साहब ने मनोरमा का हाथ आहिस्ता से पकड़ लिया और उसे मोटर की तरफ खींचा। मनोरमा ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और बोली – “मैं न जाऊंगी।”
राजा – “आखिर क्यों?”
मनोरमा – “अपनी इच्छा।”
गुरूसेवक – ” हुजूर! यह मुझसे जबरदस्ती जेलवाले मुकदमे का फैसला लिखवाने बैठी हुई है। कहती है – बिना लिखवाये न जाऊंगी।”
गुरूसेवक ने यह बात दिल्लगी से कही थी, पर समयोचित बात उनके मुँह से कम निकली। मनोरमा का मुँहह लाल हो गया। समझी कि यह मुझे राजा साहब के सम्मुख गिराना चाहते है। तनकर बोली – “हाँ, इसलिए बैठी हूँ, तो फिर? आपको यह कहते हुए शर्म आनी चाहिए थी। अगर मैं समझती कि आप निष्पक्ष होकर फैसला करेंगे, तो मेरे बैठने की क्यों ज़रूरत होती। आप मेरे भाई हैं, इसलिए मैं आपसे सत्याग्रह कर रही हूँ। आपकी जगह कोई दूसरा आदमी बाबूजी पर जानबूझकर ऐसा घोर अन्याय करता, तो शायद मेरा वश चलता तो उसके हाथ कटवा लेती। चक्रधर की मेरे दिल में जितनी इज्ज़त है, उसका आप लोग अनुमान नहीं कर सकते।“
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