चैप्टर 12 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 12 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 12 Manorama Novel By Munshi Premchand

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Chapter 12 Manorama Novel By Munshi Premchand

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चक्रधर की गिरफ्तारी के दूसरे दिन मनोरमा राजा विशाल सिंह को फटकार सुनाने गई थी। उसकी दोनों आँखें बीरबहूटी हो रही थी, भौंहें चढ़ी हुई। उस समय राजा साहब कोपभवन में मारे क्रोध से अपनी मूंछें ऐंठ रहे थे। सारे राजमहल में सन्नाटा था।

मनोरमा उनके सामने चली गई और उन्हें सरोष नेत्रों से ताकती हुई बोली। उसका कंठ आवेश से कांप रहा था – “महाराज! मैं आपसे यह पूछने आई हूँ कि क्या प्रभुता और पशुता एक ही वस्तु है या उनमें कुछ अंतर है। मुझे आश्चर्य होता है कि जिन्हें मैं देवता समझती थी, उन पर आपके हाथ क्यों कर उठे?”

मनोरमा के मान प्रदीप्त सौंदर्य ने राजा साहब को परास्त कर दिया। सौंदर्य के सामने प्रभुत्व भीगी बिल्ली बन गया। विशाल सिंह ने अपने कृत्य पर पश्चाताप करते हुए कहा – “मनोरमा! बाबू चक्रधर वीर आत्मा है और उनके साथ मैंने जो अन्याय किया है, उसका मुझे जीवन पर्यंत दुख रहेगा।”

मनोरमा के सौंदर्य में राजा साहब पर जो जादू का सा असर डाला था, वही असर उनकी विनय और शालीनता ने मनोरमा पर किया। जब वह कमरे से चली गई,  तो विशाल सिंह द्वार पर खड़े होकर उसकी ओर ऐसे तृषीत नेत्रों से देखते रहे, मानो उसे पी जायेंगे। उनके हृदय में एक विचित्र आकांक्षा अंकुरित हुई।

दीवान साहब से पहले वह खिंचे रहते थे। उनका विशेष आदर सत्कार करने लगे। दो तीन बार उनके मकान पर भी गए और ठाकुर साहब की भी कई बार दावत की। आपस में घनिष्टता बढ़ने लगी। हर्ष की बात यह थी कि मनोरमा के विवाह की बातचीत और कहीं नहीं हो रही थी। मैदान खाली था। इन अवसरों पर मनोरमा उनके साथ कुछ इस तरह दिल खोलकर मिली कि राजा साहब की आशायें और भी चमक उठीं। अगर शंका थी, तो लौंगी की ओर से थी। वो राजा साहब का आना जाना पसंद न करती थी। वह उनके इरादों को भांप गई थी और उन्हें दूर ही रखना चाहती थी। यही एक कंटक था और उसे हटाए बिना वह अपने लक्ष्य पर न पहुँच सकते थे। बिचारे इसी उधेड़बुन में पड़े रहते थे। आखिर उन्होंने मुंशी को अपना भेदिया बनाना निश्चय किया।

दूसरे दिन प्रातः काल मुंशीजी दीवान साहब के मकान पहुँचे। दीवान साहब मनोरमा के साथ गंगा स्नान को गए हुए थे। लौंगी अकेली बैठी हुई थी। मुंशीजी फूले न समाये। ऐसा ही मौका चाहते थे। जाते ही जाते विवाह की बात छेड़ दी। लौंगी को यह संबंध किसी भी तरह स्वीकार नहीं था। अभी बातचीत हुई रही थी कि दीवान साहब स्नान करके लौट आये।

लौंगी ने इशारे से उन्हें मकान में ले जाकर सलाह की। थोड़ी देर बाद दीवान साहब ने आकर मुंशी जी से कहा – “आप राजा साहब से जाकर कह दीजिए कि हमें विवाह करना मंजूर नहीं।”

मुंशीजी ने सोचा आज राजा साहब से कहे देता हूँ कि दीवान साहब ने साफ इंकार कर दिया, तो मेरी किरकिरी होती है। इसलिए आपने जाकर दून हांकनी शुरू की – “हुजूर! बुढ़िया बला की चुड़ैल है; हत्थे पर तो आती ही नहीं, इधर भी झुकती है उधर भी; और दीवान साहब तो निरे मिट्टी के ढेले हैं।”

राजा साहब ने अधीर होकर पूछा – “आखिर आप तय क्या कर आये?”

मुंशी – “हुजूर के एकबाल से फतह हुई, मगर दीवान साहब खुद आपसे शादी की बात से झेंपते हैं। आप की तरफ से बातचीत शुरू हो, तो शायद न नहीं करना हो।”

राजा – “तो मैं बातचीत शुरू कर देता हूँ। आज ही ठाकुर साहब की दावत करूंगा और मनोरमा को भी बुलाऊंगा। आप भी जरा तकलीफ कीजिएगा।”

दावत में राजा साहब ने मौका पाकर मनोरमा पर अपनी अभिलाषा प्रकट की। पहले तो वह सहमी सी खड़ी रही, फ़िर बोली – “पिताजी से तो अभी आपकी बातें नहीं हुई।”

राजा – “अभी तो नहीं मनोरमा! अवसर पाते ही करूंगा। पर कहीं उन्होंने इंकार कर दिया तो?”

मनोरमा – “मेरे भाग्य का निर्णय वही कर सकते हैं। मैं उनका अधिकार नहीं छीनूंगी।”

दोनों आदमी बरामदे में पहुँचे, तो मुंशीजी और दीवान साहब खड़े थे। मुंशीजी ने राजा साहब से कहा – ” हुजूर को मुबारकबाद देता हूँ।”

दीवान – “मुंशीजी!”

मुंशी – “हुजूर! आज जलसा होना चाहिए (मनोरमा से) महारानी, आपका सोहाग सदा सलामत रहे।”

दीवान – “ज़रा मुझे सोच…”

मुंशी – “जनाब! शुभ काम में सोच-विचार कैसा? भगवान जोड़ी सलामत रखे।”

सहसा बाग में बैंड बजने लगा और राजा के कर्मचारियों का समूह इधर-उधर से आ-आकर राजा साहब को मुबारकबाद देने लगा। दीवान साहब सिर झुकाए खड़े थे। न कुछ कहते बनता था, न सुनते। दिल में मुंशीजी को हजारों गालियाँ दे रहे थे कि इसने मेरे साथ कैसी चाल चली। आखिर यह सोचकर दिल को समझाया कि लौंगी से सब हाल कह दूंगा। भाग्य में ही बदा था, तो मैं क्या करता? मनोरमा भी तो खुश है।”

ज्यों ही ठाकुर साहब घर पहुँचे, लौंगी ने पूछा – “वहाँ क्या बातचीत हुई?”

दीवान – “शादी ठीक हो गई और क्या?’

सुन कर लौंगी ने अपना कपाल पीट लिया। उसे दीवान साहब पर बड़ा क्रोध आया। उसने खूब खरी-खोटी सुनाई। मुंशीजी की भी सात पुश्तों की खबर ले डाली। लेकिन शादी तो ठीक हो ही गई थी। अब बात फेरी नहीं जा सकती थी। ऐसे लौंगी मन मारकर उसी दिन से विवाह की तैयारियाँ करने लगी।

यों तीन महीने तैयारियों में गुज़र गये। विवाह का मुहूर्त निकट आ गया। सहसा एक दिन शाम को घर में लेकर जेल में दंगा हो गया और चक्रधर के कंधे में गहरा घाव लगा है। बचना मुश्किल है।

मनोरमा की विवाह की तैयारी तो हो ही रही थी और यों भी देखने में वह बहुत खुश नजर आती थी, पर उसका हृदय सदैव रोता रहता था। कोई अज्ञात भय, कोई अलक्षित वेदना, कोई अतृप्त कामना, कोई गुप्त चिंता हृदय को मथा करती थी। अंधों की भांति इधर-उधर टटोलती फिरती थी, पर न चलने का मार्ग मिलता था, न विश्राम का आधार। उसने मन में एक बात निश्चय की थी और उसी में संतुष्ट रहना चाहती थी। लेकिन कभी-कभी वह जीवन इतना शून्य, इतना अंधेरा, इतना निराश मालूम होता कि घंटों यह मूर्छित सी बैठी रहती, मानो कहीं कुछ भी नहीं है। अनंत आकाश में केवल वही अकेली है।

यह भयानक समाचार सुनते ही मनोरमा को हौलदिल सा हो गया। आकर लौंगी से बोली – “लौंगी अम्मा! मैं क्या करूं? बाबूजी को देखे बिना अब नहीं रहा जाता। क्यों अम्मा घाव अच्छा हो जायेगा ना? “

लौंगी ने करुण नेत्रों से देखकर कहा – “अच्छा क्यों न होगा बेटी! भगवान चाहेंगे, तो जल्द अच्छा हो जायेगा।”

लौंगी मनोरमा के मनोभाव को जानती थी। उसने सोचा, इस अबला को कितना दुख है। मन ही मन तिलमिलाकर रह गई। हाय! चारे पर गिरने वाली चिड़िया को मोती चुगाने की चेष्टा की जा रही है। तड़प-तड़प कर पिंजरे में प्राण देने के सिवा यह और क्या करेगी? मोती में जो चमक है, वह अनमोल है। लेकिन उसे कोई खा तो नहीं सकता। उसे गले में बांध लेने से क्षुधा तो ना मिटेगी।

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