चैप्टर 6 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 6 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 6 Manorama Novel By Munshi Premchand

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मुंशी वज्रधर विशाल सिंह के पास से लौटे तो उनकी तारीफों के पुल बांध दिये। यह तारीफ सुनकर चक्रधर को विशाल सिंह से श्रद्धा सी हो गई। उनसे मिलने गए व समिति के संरक्षकओं में उनका नाम दर्ज कर लिया। तब से कुंवर साहब समिति की सभाओं में नित्य सम्मिलित होते थे। अतएव अबकी जब उनके यहाँ कृष्णाष्टमी का उत्सव हुआ, तब चक्रधर अपने सहवर्गियों के साथ उसमें शरीक हुये।

कुंवर साहब कृष्ण के परम भक्त थे। उनका जन्म उत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाते थे। उनकी स्त्रियों में भी इस विषय में मतभेद था। रोहिणी कृष्ण की उपासक थी, तो सुमति रामनवमी का उत्सव मनाती थी, रही राम प्रिया, वह कोई व्रत न रखती थी।

संध्या हो गई थी। बाहर कंवल, झाड़ आदि लगाए जा रहे थे। चक्रधर अपने मित्रों के साथ बनाओ सजाओ में मशरूफ़ थे। संगीत समाज के लोग आ पहुँचे थे। गाना शुरू होने वाला ही था कि वसुमति और रोहिणी में तकरार हो गई। वसुमति को यह तैयारियाँ एक ना भाती थी। उसके रामनवमी के उत्सव में सन्नाटा सा रहता था। विशाल सिंह उस उत्सव से उदासीन रहते थे। वसुमति इसे उनका पक्षपात समझती थी। वह दिल में जल भुन रही थी। रोहिणी सोलह सिंगार किए पकवान बना रही थी। उसका वह अनुराग देख-देख कर वसुमति के कलेजे पर सांप से लोट रहा था। वह इस रंग में भंग मिलाना चाहती थी। सोचते-सोचते उसे एक बहाना मिल गया। महरी को भेजा, जाकर रोहिणी से कह आ, घर के बर्तन जल्दी खाली कर दे। दो थालियाँ, दो बटलोइयाँ, कटोरे, कटोरियाँ मांग लो। उनका उत्सव रात भर होगा, तो कोई कब तक बैठा भूखे मरे। महरी गई, तो रोहाणी ने तन्ना कर कहा – “आज इतनी भूख लग गई। रोज तो बारह बजे तक बैठी रहती थी। आज आठ बजे ही भूख सताने लगी। अगर ऐसी ही जल्दी है, तो कुम्हार के यहाँ से हांडियाँ मंगवा ले। पत्तल मैं दे दूंगी।

वसुमति ने यह सुना तो आग हो गई। हांडियाँ चढ़ाये मेरे दुश्मन – जिसकी छाती फटती हो। मैं क्यों हांडी चढ़ाऊं? उत्सव मनाने की बड़ी साध है, तो नये बर्तन क्यों नहीं मंगवा लेती? अपने कृष्ण से कह दे, गाड़ी भर बर्तन भेज दे, क्या जबरदस्ती दूसरों को भूख के मारेगी।

रोहिणी रसोई से बाहर निकल कर बोली  – “बहन जरा मुँह संभाल कर बात करो। देवताओं का अपमान करना अच्छा नहीं।“

वसुमति – “अपमान तो तुम करती हो, जो व्रत के दिन यों बन-ठन कर इठलाती फिरती हो, देवता रूप नहीं देखते, भक्ति देखते हैं।“

रोहिणी – “क्या आज लड़ने ही पर उतारू हो कर आई हो क्या? भगवान सब दुख देन, पर बुरी संगत ना दें। लो, यह गहने कपड़े आँखों में गढ़ रहे हैं ना! ना पहनूंगी! जाकर बाहर कह दे, पकवान प्रसाद किसी हलवाई से बनवा लें। मुझे क्या? मेरे मन का हाल भगवान आप जानते हैं, पड़ेगी उन पर जिनके कारण यह सब हो रहा है।

यह कहकर रोहिणी अपने कमरे में चली गई। सारे गहने कपड़े उतार फेंके और मुँह ढाप कर चारपाई पर पड़ी रही। ठाकुर साहब ने यह समाचार सुना, तो माथा कूटकर बोले – “इन चंडालिनों से आज शुभोत्सव के दिन भी शांत नहीं बैठा जाता। इस ज़िन्दगी से तो मौत ही अच्छी। घर में आकर रोहिणी से बोले – “तुम सो रही हो या उठकर पकवान बनाती हो?

रोहिणी ने पड़े-पड़े ही उत्तर दिया – “फट पड़े वह सोना जिससे टूटे कान। ऐसे उत्सव से बाज़ आये! जिसे देखकर घरवालों की छाती फटे।“

विशाल सिंह – “तुमसे तो बार-बार कहा कि उसके मुँह ना लगा करो। एक चुप सौ वक्ताओं को हरा देता है। फिर तुमसे बड़ी भी तो ठहरी, यों भी तुमको उसका लिहाज करना ही चाहिए।“

रोहिणी क्यों दबने लगी। यह उपदेश सुना, तो झुंझला कर बोली – “रहने भी दो, जले पर नमक छिड़कते हो। जब बड़ा देख-देख कर जले, बात-बात पर कोसे, तो कोई कहाँ तक उसका लिहाज करें। तुम ही ने उन्हें सिर चढ़ा लिया है। कोई बात होती है, तो मुझी को उपदेश करने को दौड़ते हो। सीधा पा लिया है ना! उनसे बोलते हुए तो तुम्हारा भी कलेजा कांपता है। तुम न शह देते, तो मजाल थी कि यों मुझे आँखें दिखाती।“

विशाल सिंह  – “तो क्या मैं उन्हें सिखाता हूँ कि तुम्हें गालियाँ दे?”

कुंवर साहब ज्यों-ज्यों रोहिणी का क्रोध शांत करने की चेष्टा करते थे, वह और भी बिफरती जाती थी, यहाँ तक कि अंत में वह भी नरम पड़ गये।

वसुमति सायबान में बैठी हुई दोनों प्राणियों की बातें तन्मय होकर सुन रही थी, मानो कोई सेनापति अपने प्रतिपक्षी की गति का अध्ययन कर रहा हो कि कब यह चुके और कब मैं दबा बैठूं। अंत में प्रतिद्वंदी कि एक भद्दी चाल ने उसे अपेक्षित अवसर दे ही दिया। विशाल सिंह को मुँह लटकाये रोहिणी की कोठी से निकलते देख कर बोली – “क्या मेरी सूरत ना देखने की कसम खा ली है। तुम्हारे हिसाब से मैं घर में हूँ ही नहीं। बहुत दिन तो हो गए रूठे, क्या जन्म भर रूठे ही रहोगे? क्या बात है इतने उदास क्यों हो?”

विशाल सिंह ने ठिठक कर कहा – “तुम्हारी लगाई हुई आग को ही तो शांत कर रहा था। पर उल्टे हाथ जल गये। क्या यह रोज तूफान खड़ा किया करती हो? मैं तो ऐसा तंग आ गया हूँ कि जी चाहता है कि कहीं भाग जाऊं।“

वसुमति – “कहाँ भागकर जाओगे?” कहकर वसुमति ने उनका हाथ पकड़ लिया और घसीटती हुई अपने कमरे में ले गई और चारपाई पर बैठाती हुई बोली – “औरतों को सिर चढ़ाने का यही फल है। जब देखो तो अपने भाग्य को रोया करती है और तुम दौड़ते हो मनाने। बस, उसका मिजाज और आसमान पर चढ़ जाता है। दो दिन, चार दिन, दस दिन रूठी पड़ी रहने दो। फिर देखो, भीगी बिल्ली हो जाती है या नहीं।“

विशाल सिंह – “यहाँ वह खटवास लेकर पड़ी, अब पकवान कौन पकायेगा?”

वसुमति – “तो क्या जहाँ मुर्गा ना हो, वहाँ सवेरा ही ना होगा? ऐसा कौन सा बड़ा काम है? मैं बना देती हूँ।“

विशाल सिंह ने पुलकित होकर कहा – “बस कुलवंती स्त्रियों का यही धर्म है।“

विजय के गर्व से फूली हुई वसुमति आधी रात तक बैठी भांति-भांति के पकवान बनाती रही। राम प्रिया ने उसे बहुत व्यस्त देखा, तो वह भी आ गई और दोनों मिलकर काम करने लगीं।

विशाल सिंह बाहर गये और कुछ देर गाना सुनते रहे; पर वहाँ जी ना लगा। फिर भीतर चले आये और रसोई घर के द्वार पर मोड़ा डाल कर बैठ गये। भय था कि कहीं रोहिणी कुछ कह ना बैठे और दोनों फिर लड़ मरे।

वसुमति ने कहा – “अभी महारानी नहीं उठी क्या? इसे छिपकर बातें सुनने की बुरी लत है। मोहब्बत तो इसे छू नहीं गई। अभी तुम तीन दिन बाहर कराहते रहे, पर कसम ले लो, जो उसका मन जरा भी मैला हुआ हो। ऐसी औरतों पर कभी विश्वास ना करें।“

विशाल सिंह – “सब देखता हूँ, समझता हूँ। निरा गधा नहीं हूँ।“

वसुमति – “यही तो रोना है कि तुम देखकर भी नहीं देखते, समझ कर भी नहीं समझते। आदमी में सब एब हो, फिर मेहर-बस ना हो।“

विशाल सिंह – “मैं मेहर-बस हूँ? मैं उसे ऐसी ऐसी बातें कहता हूँ कि बहुत याद करती होगी।“

राम प्रिया – “कड़ी बात भी हँस कहीं जाये, तो मीठी हो जाती है।“

विशाल सिंह –  “हँसकर नहीं कहता, डांटता हूँ, फटकारता हूँ।“

वसुमति – “डांटते होंगे, मगर प्रेम के साथ। ढलती उम्र में सभी मर्द तुम्हारे जैसे ही हो जाते हैं। कभी-कभी तुम्हारी लंपटता पर मुझे हँसी आती है। आदमी कड़े दम चाहिए। जैसे घोड़ा पैदल और सवार पहचानता है, उसी तरह औरतें भी भकुए और मर्द को पहचानती हैं। जिसने सच्चे आसन जमाया और लगाम कड़ी रखी, उसी की जय है। जिसने रस्सी ढीली कर दी, उसकी कुशल नहीं।“

विशाल सिंह – “मैंने तो अपनी जान में कभी लगाम ढीली नहीं रखी। आज ही देखो कैसी फटकार लगाई।“

वसुमति –  “क्या कहना है, जरा मूंछें खड़ी कर लो, लाओ पगिया मैं संवार दूं। यह नहीं कहते कि उसने ऐसी-ऐसी चोटें की कि भागते ही बने।“

सहसा किसी के पैरों की आहट पाकर वसुमति ने द्वार की ओर देखा। रोहिणी रसोई के द्वार से दबे पांव चली आ रही थी। मुँह का रंग उड़ गया था, दांतो से होंठ दबाकर बोली – “छिपी खड़ी थी। मैंने साफ देखा। अब घर में रहना मुश्किल है। देखो क्या रंग लाती है।“

विशाल सिंह ने पीछे की ओर संशय नेत्रों से देखकर कहा – “बड़ा गजब हुआ। चुड़ैल सब सुन गई होगी। मुझे जरा भी आहट ना मिली।“

वसुमति – “उंह, रानी रूठेगी, अपना सोहाग लेंगी। कोई कहाँ तक डरें। आदमियों को बुलाओ, यह सब सामान यहाँ से ले जाये।“

भादों की अंधेरी रात थी। हाथ को हाथ में सूझता था। मालूम होता था, पृथ्वी पाताल में चली गई है या किसी विशाल जंतु ने उसे निकल लिया है। मोमबत्तियों का प्रकाश उस तिमिर सागर में पाव रखते कांपता था। विशाल भोग के पदार्थ थालियों में भरवा-भरवा कर बाहर रखवाने में लगे हुए थे। एकाएक रोहिणी एक चादर ओढ़े घर से निकली और बाहर की ओर चली। विशाल दहलीज के द्वार पर खड़े थे। इस भरी सभा में उसे यों निश्शंक भाव से निकलते देख कर उनका रक्त खौलने लगा। जरा भी ना पूछा, कहाँ जाती हो क्या बात है। मूर्ति की भांति खड़े रहे और सब लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। रोहिणी पर किसी की निगाह न पड़ी।

इतने में चक्रधर उनसे कुछ पूछने आये, तो देखा कि महरी उनके सामने खड़ी है और क्रोध से आँखें लाल किए कह रहे हैं –  “अगर वह मेरी लौंडी नहीं है, तो मैं भी उसका गुलाम नहीं हूँ। जहाँ इच्छा हो जाये, अब इस घर में कदम रखने दूंगा।“

जब चक्रधर को रानियों के आपसी झगड़े और रोहिणी के घर से निकल जाने की बात मालूम हुई, तो उन्होंने लपक कर एक लालटेन उठा ली और बाहर निकलकर दाएं-बाएं निगाहे दौड़ाकर तेजी से कदम बढ़ाते हुए चले। कोई दो सौ कदम गए होंगे कि रोहिणी एक वृक्ष के नीचे खड़ी दिखाई दी। ऐसा मालूम होता था कि वह छिपने के लिए कोई जगह तलाश रही है। चक्रधर उसे देखते ही लपक कर समीप पहुँचे और उसे घर चलने के लिए समझाने लगे। पहले तो रोहिणी किसी तरह राजी ना हुई, लेकिन चक्रधर के बहुत समझाने बुझाने के बाद वह घर लौट पड़ी।

जब दोनों आदमी घर पहुँचे, तो विशाल सिंह अभी तक वहाँ मूर्तिवत खड़े थे, महरी भी खड़ी थी। भक्तजन अपना-अपना काम छोड़कर लालटेन की ओर ताक रहे थे। सन्नाटा छाया हुआ था।

रोहिणी ने देहलीज में कदम रखा; मगर ठाकुर साहब ने उसकी ओर आँख उठाकर भी ना देखा। जब अंदर चली गई, तो उन्होंने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और बोले – “मैं तो समझता था, किसी तरह ना आयेगी। पर आप खींच ही लाये। क्या बहुत बिगड़ती थी।“

चक्रधर ने कहा – “आपको कुछ नहीं कहा। मुझे तो बहुत समझदार मालूम होती है। हाँ मिजाज नाजुक है, बात बर्दाश्त नहीं कर सकती।“

विशाल सिंह – “मैं यहाँ से टला तो नहीं, लेकिन सच पूछिए, तो ज्यादती मेरी ही थी। मेरा क्रोध बहुत बुरा है। अगर आप न पहुँच जाते, तो बड़ी मुश्किल पड़ती। जान पर खेल जाने वाली स्त्री है। आपका एहसान कभी ना भूलूंगा। देखिए तो, सामने कुछ रोशनी सी मालूम हो रही है। बैंड भी बज रहा है। क्या माजरा है?”

सैकड़ों आदमी कतार बांधे मशालों और लालटेनों के साथ चले आ रहे थे। आगे आगे दो घुड़सवार भी नजर आते थे। बैंड की मनोहर ध्वनि आ रही थी।

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