चैप्टर 16 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 16 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 16 Manorama Novel By Munshi Premchand

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आगरा के हिंदू और मुसलमानों में आये दिन जूतियाँ चलती रहती थी। ज़रा-ज़रा सी बात पर दोनों दलों के सिर फिर जमा हो जाते और दो चार के अंग भंग हो जाते। कहीं बनिये की डंडी मार दी और मुसलमानों ने उसकी दुकान पर धावा कर दिया, कहीं किसी जुलाहे ने किसी हिंदू का घड़ा छू लिया और मोहल्ले में फौजदारी हो गई। निज के लड़ाई-झगड़े सांप्रदायिक संग्राम के क्षेत्र में खींच लाए जाते थे। दोनों ही धर्म मजहब के नशे में चूर थे।

होली के दिन थेम गलियों में गुलाल के छींटे उड़ रहे थे। इतने जोश में कभी होली ना मनाई गई थी

संयोग से एक मिर्जा साहब हाथ मुर्गी लटका के कहीं से चले जा रहे थे। उनके कपड़े पर दो-चार छींटे पड़ गये। बस गजब ही हो गया। सीधे जामे मस्जिद पहुँचे और मीनार पर खड़े होकर बांग दी – ये उम्मत-ए-रसूल। आज एक काफ़िर के हाथों से मेरे दीन का खून हुआ है। उसके छींटे मेरे कपड़े पर पड़े हैं। या तो काफ़िरों से इस खून का बदला लो या मीनार से गिरकर नबी की खिदमत में फ़रियाद सुनाने जाऊं। बोलो मंजूर है!”

मुसलमानों ने यह ललकार सुनी और उनकी त्योरियाँ बदल गई। शाम होते-होते दस हज़ार आदमी तलवारें लिए जामे मस्जिद के सामने आकर खड़े हो गये।

सारे शहर में तहलका मच गया। हिंदुओं के होश उड़ गये। होली का नशा हिरन हो गया। पिचकारियाँ छोड़-छोड़ लोगों ने लाठियाँ संभाली; लेकिन ययाँ कोई जामे मस्जिद नहीं थी, न वह ललकार न दीन का जोश। सबको अपनी-अपनी पड़ी हुई थी।

बाबू यशोदानंदन कभी इस अफसर के पास जाते कभी उस अफसर के पास। लखनऊ तार भेजे, दिल्ली तार भेजे, मुस्लिम नेताओं के नाम तार भेजे, लेकिन कोई फल न निकला। और अंत में जब यह निराश होकर उठे, तो मुस्लिम वीर धावा बोल चुके थे।

वे ‘अली’ ‘अली’ का शोर मचाते चले जाते थे कि बाबू साहब नज़र आ गये। फिर क्या था? सैकड़ों आदमी ‘मारो’ कहते हुए लपके। बाबू साहब ने पिस्तौल निकाली और शत्रुओं के सामने खड़े हो गये, सवाल-जवाब कौन करता। उन पर चारों तरफ से वार होने लगे।

पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आई, यही सोचते रह गये कि समझाने से ये लोग शांत हो जाये, तो क्यों किसी की जान लूं। अहिंसा के आदर्श ने हिंसा का हथियार हाथ पर भी उनका दामन न छोड़ा।

बाबू यशोदानंदन के मरने की खबर पाते ही सेवादल के युवकों का खून खौल उठा। दो तीन युवक कलवारी लेकर निकल पड़े और मुसलमान मोहल्ले में घुसे। हिंदू मोहल्ले में जो कुछ मुसलमान कर रहे थे, मुसलमान मोहल्लों में वही हिंदू करने लगे। अहिंसा ने हिंसा के सामने से झुका दिया।

सिरसा खबर उड़ी कि यशोदानंदन के घर पर आग लगा दी गई है और दूसरे घरों में भी आग लगाई जा रही है। सेवा दल वालों के कान खड़े हुये। दो-ढाई हजार आदमियों का दल डबल मार्च करता हुआ उस स्थान को चला, जहाँ यह बड़नावल दहक रहा था। यहाँ किसी मुसलमान का पता नहीं था, आग लगी थी; लेकिन बाहर की ओर। अंदर जाकर देखा, तो घर खाली पड़ा हुआ था। वागीश्वरी एक कोठरी में द्वार बंद किए हुए बैठी थी। इन्हें देखते ही वह रोती बाहर निकल आई और बोली – ‘हाय मेरी अहिल्या! दौड़ो…उसे ढूंढो। पापियों ने न जाने उसकी क्या दुर्गति की। हाय मेरे बच्ची।’

 एक युवक ने पूछा – ‘क्या अहिल्या को उठा ले गये?’

वागीश्वरी – ‘हाँ भैया, उठा ले गये। मना कर रही थी कि एरी बाहर मत निकल; अगर मरेंगे तो साथ मरेंगे; लेकिन न मानी। जाकर ख्वाजा महमूद से कहो, उसका पता लगाये। कहना, तुम्हें लाज नहीं आती। जिस लड़की को बेटी बनाकर मेरी गोद में सौंपा था, जिसके विवाह में पांच हजार खर्च करने वाले थे, उसकी उन्हीं के पिछलगुओं के हाथों या दुर्गति। हाय भगवान।’

लोग ख्वाजा साहब के पास पहुँचे, तो देखते हैं कि मुंशी यशोदानंदन की लाश रखी हुई है और ख्वाजा साहब बैठे रो रहे हैं। इन लोगों को देख कर बोले – ‘तुम लोग समझते होंगे, यह मेरा दुश्मन था। खुदा जानता है कि मुझे अपना भाई और बेटा भी इससे ज्यादा अजीज़ नहीं। फिर भी हम दोनों की ज़िन्दगी के अंतिम साल मैदान बाजी में गुज़रे। आज उसका क्या अंजाम हुआ। हम दोनों दिल से मेल करना चाहते थे; पर हमारी मर्जी के खिलाफ कोई गैबी ताकत हमको लड़ाती थी। आप लोग नहीं जानते हो, मेरी इससे कितनी गहरी दोस्ती थी। कौन जानता था, इस गहरी दोस्ती का यह अंजाम होगा।’

एक युवक – ‘हम लोग लाश को क्रियाक्रम के लिए ले जाना चाहते हैं।’

ख्वाजा – ‘ले जाओ भाई! मैं भी साथ चलूंगा। मेरे कंधा देने में कोई हर्ज है। इतनी रियायत तो मेरे साथ करनी पड़ेगी। मैं पहले मरता, तो यशोदा सिर पर खाक उड़ता हुआ मेरी मज़ार पर जरूर आता।’

युवक – ‘अहिल्या को भी उठा ले गये। माताजी ने आपसे…’

ख्वाजा – ‘क्या अहिल्या? मेरी अहिल्या को! कब?’

युवक – ‘आज ही। घर में आग लगाने से पहले।’

ख्वाजा – ‘कलामे मजीद की कसम, जब तक अहिल्या का पता न लगा लूंगा, मुझे दाना पानी हराम है। तुम लोग लाश ले जाओ; मैं अभी आता हूँ। सारे शहर की खाक छान डालूंगा। भाभी से मेरी तरफ से अर्ज़ कर देना, मुझसे मलाल न रखें। यशोदा नहीं है, लेकिन महमूद है। जब तक उसके दम में दम है, उन्हें कोई तकलीफ न होगी। कह देना महमूद यों तो अहिल्या को खोज निकालेगा या मुँह में कालिख लगाकर डूब मरेगा।’

यह कहकर ख्वाजा साहब उठ खड़े हुए, लकड़ी उठाई और बाहर निकल गये।

चक्रधर को आगरे के उपद्रव, यशोदा नंदन की हत्या और अहिल्या के अपहरण का शोक समाचार मिला, तो उन्होंने व्यग्रता में आकर पिता को पत्र सुना दिया और बोले – ‘मेरा वहाँ जाना बहुत ज़रूरी है।’

वज्रधर – ‘जाकर करोगे ही क्या? जो कुछ होना था तो हो चुका। अब जाना व्यर्थ है।’

चक्रधर – ‘कम से कम अहिल्या का तो पता लगाना ही होगा।’

वज्रधर – ‘यह भी व्यर्थ है। पहले तो उसका पता लगाना ही मुश्किल है और लग भी गया, तो तुम्हारा अब उससे क्या संबंध। अब हम मुसलमानों के साथ रह चुकी है, तो कौन हिंदू उसे पूछेगा?’

चक्रधर – ‘इसीलिए तो मेरा जाना और भी ज़रूरी है।’

वज्रधर – ‘ऐसी बहू के लिए हमारे घर में स्थान नहीं है।’

चक्रधर निश्चयात्मक भाव से कहा – ‘वह आपके घर में न आयेगी।’

वज्रधर ने भी उतने ही निर्दय शब्द में उत्तर दिया – ‘अगर तुम्हारा ख़याल हो कि पुत्र प्रेम के वश होकर मैं अंगीकार कर लूंगा, तो ये तुम्हारी भूल है। अहिल्या कुलदेवी नहीं हो सकती, चाहे इसके लिए मुझे पुत्र वियोग ही सहना पड़े।’

चक्रधर पीछे घूमे थे कि निर्मला ने उसका हाथ पकड़ लिया और स्नेह पूर्ण तिरस्कार करते हुए बोली – ‘बच्चा तुम से ये आशा न थी। अभी हमारा कहना मानो, हमारे कुल के मुँह में कालिख न लगाओ।’

चक्रधर ने हाथ छुड़ाकर कहा – ‘मैंने आपकी आज्ञा कभी भंग नहीं की, लेकिन इस विषय में मजबूर हूँ।’

वज्रधर – ‘यह तुम्हारा अंतिम निश्चय है।’

चक्रधर – ‘जी हाँ अंतिम!’

यह कहते हुए चक्रधर बाहर निकल आये और कुछ कपड़े साथ में लिए स्टेशन की तरफ चल दिये।

चक्रधर आगरा पहुँचे, तो सवेरा हो गया था। एक क्षण तक वे खड़े सोचते रहे, कहाँ जाऊं? बाबू यशोदानंदन के घर जाना व्यर्थ था। अंत को उन्होंने ख्वाजा महमूद के घर चलना निश्चय किया।

ख्वाजा साहब के द्वार पहुँचे, तो देखा कि हजारों आदमी एक लाश को घेरे खड़े हैं और उसे कब्रिस्तान ले चलने की तैयारी हो रही है। चक्रधर तुरंत तांगे से उतर के पड़े और लाश के पास जाकर खड़े हो गये। कहीं ख्वाजा साहब तो नहीं कत्ल कर दिए गए। वह किसी से पूछने ही जाते थे कि सहसा ख्वाजा साहब ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और आँखों में आँसू भर कर बोले – ‘खूब है बेटा! तुझे आँखें ढूंढ रही थी। जानते हो वह किसकी लाश है? वह मेरा इकलौता पुत्र है, जिस पर ज़िन्दगी की सारी उम्मीदें कायम थी। लेकिन खुदा जानता है कि उसकी मौत पर मेरी आँखों से एक बूंद आँसू भी न निकला। उसने वह खेल किया, जो इंसानियत के दर्जे से गिरा हुआ था। तुम्हें अहिल्या के बारे में तो खबर मिली होगी।

चक्रधर  – ‘जी हाँ! शायद बदमाश लोग पकड़ ले गये।’

ख्वाजा – ‘यह वही बदमाश है, जिसकी लाश तुम्हारे सामने पड़ी है। वह इसी की हरकत थी। मैं तो सारे शहर में अहिल्या को तलाश करता फिरता था, और वह मेरे ही घर में कैद थी। यह ज़ालिम उस पर जब्र करना चाहता था। आज उसने मौका पाकर इसे जहन्नुम का रास्ता दिखा दिया – सीने में छुरी भोंक दी।’

चक्रधर – ‘मुझे यह सुनकर बहुत अफ़सोस हुआ। मुझे आपके साथ काबिल हमदर्दी है। आपका सा इंसाफ़ परवर, हकपरस्त आदमी इस दुनिया में न होगा। पहले आप कहाँ है?’

ख्वाजा – ‘इसी घर में। सुबह से कई बार कह चुका हूँ कि तुझे तेरे घर पहुँचा आऊं, पर जाती है नहीं। बस बैठी रो रही है।’

लाश उठाई गई। शोक समाज पीछे-पीछे चला। चक्रधर भी ख्वाजा साहब के साथ कब्रिस्तान तक गये। जिस वक्त लाश कब्र में उतारी गई, ख्वाजा साहब रो पड़े। यह क्षमा के आँसू थे। चक्रधर भी आँसुओं को रोक न सके।

दोपहर होते-होते लोग घर लौटे। ख्वाजा साहब ज़रा दम लेकर बोले – ‘आओ बेटा! तुम्हें अहिल्या के पास ले चलूं।’

यह कहकर ख्वाजा साहब ने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और अंदर चले। चक्रधर का हृदय बांसो उछल रहा था। अहिल्या के दर्शनों के लिए वह इतने उत्सव कभी न थे। वह एक खिड़की के सामने खड़ी बगीचे की ओर ताक रही थी। सहसा चक्रधर को देखकर वह चौंक पड़ी और घूंघट में मुँह छुपा लिया। फिर एक क्षण के बाद वह उनके पैरों को पकड़कर अश्रुधारा से रोने लगी।

चक्रधर बोले – ‘अहिल्या मुझे तुम्हारे चरणों पर सिर झुकाना चाहिए। तुम बिल्कुल उल्टी बात कर रही हो।’

यह कहकर उन्होंने अहिल्या का हाथ पकड़ लिया, लेकिन वह हाथ छुड़ाकर हट गई और कांपते हुए स्वर में बोली – ‘नहीं नहीं मेरे अंको मत स्पर्श कीजिये। सूखा हुआ फूल देवताओं पर नहीं चढ़ाया जाता, आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म से ही अभागिनी हूँ। आप जाकर अम्मा को समझा दीजिए। मेरे लिए अब दुख न करें। मैं निर्दोष हूँ, लेकिन ऐसी हो कि नहीं कि आपकी प्रेमपात्री बन सकूं।’

चक्रधर से अब न रहा गया। उन्होंने फिर अहिल्या का हाथ पकड़ लिया और बोले – ‘अहिल्या जिस देह में पवित्र और निष्कलंक आत्मा रहती है, वह देह भी पवित्र निष्कलंक रहती है। मेरी आँखों में आज तुम उससे कहीं अधिक पवित्र और निर्मल हो, जितनी पहले थी।’

अहिल्या कई मिनट तक चक्रधर के कंधे पर सिर के रोती रही। फिर बोली – ‘तुम सिर्फ दया भाव से और मेरा उद्धार करने के लिए यह कालिमा सिर चढ़ा रहे हो या प्रेम भाव से?’

चक्रधर का दिल बैठ गया। अहिल्या की सरलता पर उसे दया आ गई। वह अपने को ऐसी अभागिनी और दीन समझ रही थी कि इसी विश्वास ही नहीं आता, मैं इससे शुद्ध प्रेम कर रहा हूं। बोले – ‘तुम्हें क्या जान पड़ता है अहिल्या?’

अहिल्या – ‘तुम्हारे मन में प्रेम से अधिक दया का भाव है।’

चक्रधर – ‘अहिल्या! तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो।’

अहिल्या – ‘जिस वस्तु को लेने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है, उस पर हाथ न बनाऊंगी। मेरे लिए यही बहुत है, जो आप दे रहे हैं। वैसे भी अपना धन्य भाग्य समझती हूं।’

फिर सहसा अहिल्या ने कहा – ‘मुझे भय है कि मुझे आश्रय देकर आप बदनाम हो जाएंगे। कदाचित आपके माता-पिता आपका तिरस्कार करें। मेरे लिए इससे बड़ी सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपकी दासी बनूं, लेकिन आपकी तिरस्कार और अपमान का ख्याल करके जी में आता है कि क्यों न इस जीवन का अंत कर दूं।’

चक्रधर की आँखें करुणार्द्र हो गई। बोले – ‘अहिल्या! ऐसी बातें न करो। अपनी आत्मा की अनुमति के सामने मैं माता-पिता के विरोध की परवाह नहीं करता। मैं तुम से विनती करता हूँ कि ये बातें फिर जबान पर न लाना।’

अहिल्या ने अबकी स्नेह सजल नेत्रों से चक्रधर को देखा। शंका की दाह जो उसके मर्मस्थल को जलाया जा रही थी, शीतल आर्द्र शब्दों से शांत हो गई। शंका की ज्वाला शांत होते ही उसकी दाह चंचल दृष्टि स्थिर हो गई और चक्रधर की सौम्य मूर्ति प्रेम की आँखों से प्रकाशमान आँखों के सामने खड़ी दिखाई दी।

बाबू यशोदानंदन की क्रिया कर्म के तीसरे ही दिन चक्रधर का अहिल्या से विवाह हो गया। चक्रधर तो अभी कुछ दिन टालना चाहते थे, लेकिन वागीश्वरी ने बड़ा आग्रह किया। विवाह में कोई धूमधाम नहीं हुई।

जिस दिन चक्रधरा अहिल्या को विदा कर काशी चले, हजारों आदमी स्टेशन पर पहुंचाने आए। वागीश्वरी का रोते-रोते बुरा हाल था। जब अहिल्या जाकर पालकी पर बैठी, तो वह दुखिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी। अहिल्या भी रो रही थी, लेकिन शोक से नहीं वियोग से। भाग्यश्री की गर्दन में उसके करपाश इतने सुदृढ़ हो गए कि दूसरी स्त्रियों ने बड़ी मुश्किल से छुड़ाया।

लेकिन चक्रधर के सामने दूसरी ही समस्या उपस्थित ही रही थी। वह घर तो जा रहे थे, लेकिन उस घर के द्वार बंद थे। पिता का क्रोध, माता का तिरस्कार, संबंधियों की अवहेलना, उन सभी शंकाओं से चित्त उद्विग्न हो रहा था। सबसे विकट समस्या यह थी कि गाड़ी से उतर कर जाऊंगा कहाँ? इन चिंताओं से उसकी मुख मुद्रा इतनी मलिन हो गई कि अहिल्या ने उनसे कुछ कहने के लिए उनकी ओर देखा, तो चौंक पड़े। उसकी वियोग व्यथा अब शांत हो गई थी और हृदय में उल्लास का प्रवाह होने लगा था। लेकिन पति कि उदास मुद्रा देखकर वह घबरा गई। बोली – ‘आप इतने उदास क्यों हैं? क्या अभी से मेरी फ़िक्र सवार हो गई।’

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा – ‘नहीं तो! उदास क्यों होने लगा। यह उदास होने का समय है या आनंद मनाने का।‘

मगर जितना ही अपनी चिंता को छिपाने का प्रयत्न करते थे, उतना ही वह और भी प्रत्यक्ष होती जाती थी, जैसे दरिद्र अपनी साख रखने की चेष्टा में और भी दरिद्र होता जाता है।

अहिल्या ने गंभीर भाव से कहा – ‘तुम्हारी इच्छा है, न बताओ! लेकिन यही इसका आशय है कि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं।’

यह कहते कहते अहिल्या की आँखें सजल हो गई। चक्रधर से अब जब्त न हो सका। उन्होंने संक्षेप में सारी बातें कह सुनाई और अंत में प्रयाग उतर जाने का प्रस्ताव किया। अहिल्या ने गर्व से कहा – ‘अपना घर रहते प्रयाग क्यों उतरें? वे कितने ही नाराज़ हो, हैं तो हमारे माता पिता। आप इन चिंताओं को दिल से निकाल डालिए। उनको प्रसन्न करने का भार मुझ पर छोड़ दें। मुझे विश्वास है कि उन्हें मना लूंगी।’

चक्रधर ने अहिल्या को गदगद नेत्रों से देखा और चुप ही रहे।

रात को दस बजते बजते गाड़ी बनारस पहुँची। अहिल्या के आश्वासन देने पर भी चक्रधर बहुत चिंतित हो रहे थे कि कैसे क्या होगा। लेकिन उन्हें कितना आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने मुंशी जी को दो आदमियों के साथ स्टेशन पर उनकी राह देखता पाया। पिता के उस असीम, अपार, अलौकिक वात्सल्य ने उन्हें इतना पुलकित किया कि वे जाकर पिता के पैरों पर गिर पड़े। मुंशीजी ने उन्हें दौड़कर छाती से लगा लिया और उनके श्रद्धाश्रुओं को रूमाल से पोंछते हुए स्नेह कोमल शब्दों में बोले – ‘कम से कम एक तार तो दे देते कि मैं किस गाड़ी से आ रहा हूँ। खत तक न लिखा। यहाँ बराबर दस दिल से दो बार स्टेशन दौड़ा आता हूँ और एक आदमी हरदम बाहर तुम्हारे इंतज़ार में बिठाए रखता हूँ कि न जाने कब किस गाड़ी से आ जाओ। कहाँ है बहू? चलो उतार लायें। बहू के साथ यहीं ठहरो। स्टेशन मास्टर से कहकर वेटिंग रूम खुलवाए देता हूँ। मैं दौड़कर ज़रा बाजे गाजे, रौशनी, सवारी की फिक्र करूं। बहू का स्वागत तो करना ही होगा। यहाँ के लोग क्या जानेंगे कि बहू आती है। वहाँ की बात और थी, यहाँ की बात और है। भाई बंदों के साथ रस्म रिवाज़ मानना है पड़ता है।‘

यह कहकर मुंशी जी चक्रधर के साथ गाड़ी के द्वार पर खड़े हो गये। अहिल्या ने धीरे से उतर कर उनके चरणों पर सिर रख दिया। उसकी आँखों से आनंद और श्रद्धा के आँसू बहने लगे। मुंशी जी ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और दोनों प्राणियों को वेटिंग रूम में बिठाकर बोले – ‘किसी को अंदर आने मत देना। मैंने साहब से कह दिया है। मैं कोई घंटे भर में आऊंगा।’

चक्रधर ने दबी ज़बान से कहा – ‘इस वक़्त धूमधाम करने की ज़रूरत नहीं। सबेरे तो सब मालूम हो ही जायेगा।’

मुंशीजी ने लकड़ी संभालते हुए कहा – ‘सुनती हो बहू इनकी बातें। सबेरे लोग जानकर क्या करेंगे? दुनिया क्या जानेगी कि बहू कब आई।’

मुंशीजी जब चले गए, तो अहिल्या ने चक्रधर को आड़े हाथों लिया। बोली – ‘ऐसे देवता पुरुष के साथ तुम अकारण ही अनर्थ कर रहे थे। मेरा तो जी चाहता है कि घंटों उनके चरणों पर पड़ी रोया करूं।’

चक्रधर लज्जित हो गये। इसका प्रतिवाद तो न किया, पर उनका मन कह रहा था कि इस वक़्त दुनिया को दिखाने के लिए पिताजी कितनी ही धूमधाम क्यों न कर लें, घर में कोई न कोई गुल खिलेगा ज़रूर।

मुंशीजी को गए अभी आधा घंटा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखाई दी।

उसने कहा – ‘वाह बाबूजी! आप चुपके चुपके बहूजी को उड़ा लाए और मुझे खबर तक न दी। मुंशीजी न कहते, तो मुझे मालूम ही न होता। आपने अपना घर बसाया, मेरे लिए भी कोई सौगात लाये।’

यह कहकर वह अहिल्या के पास गई और दोनों गले मिली। मनोरमा ने हाथ से एक जड़ाऊ कंगन निकालकर अहिल्या को पहना दिया। अहिल्या ने उसे कुर्सी पर बिठा दिया और पान इलायची देते हुए बोली – ‘आपको मेरे कारण बड़ी तकलीफ़ हुई। यह आपके आराम करने का समय था।’

चक्रधर मौका देखकर बाहर चले गए थे। उनके रहने से दोनों ही में संकोच होता।

मनोरमा ने कहा – ‘नहीं बहन! मुझे ज़रा भी तकलीफ न हुई। मैं तो यों भी बारह एक बजे के पहले नहीं सोती। तुमसे मिलने की बड़े दिनों से इच्छा थी। तुम बड़ी भाग्यवान हो। तुम्हारा पति मनुष्यों में रत्न है, सर्वथा निर्दोष एवं सर्वथा निष्कलंक।‘

अहिल्या पति प्रशंसा से गर्वोंन्नत होकर बोली  – ‘आपके लिए कोई सौगात तो नहीं लाये।’

मनोरमा – ‘मेरे लिए तुमसे बढ़कर और क्या सौगात लाते। मैं संसार में अकेली थी। तुम्हें पाकर दुकेली हो गई।’

अहिल्या – ‘मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगी।’

इतने में बाजों की घों-घों पों-पों सुनाई दी। मुंशीजी बारात जमाये चले आ रहे थे।

अहिल्या के हृदय में आनंद की तरंगे उठ रही थी। कभी उसका स्वागत इस ठाठ से होगा, कभी इतनी बड़ी रानी उसकी सहेली बनेगी, कभी उसका इतना आदर सत्कार होगा, उसने कल्पना भी न की थी।

मनोरमा ने उसे धीरे-धीरे ले जाकर सुखपाल में बिठा दिया। बारात चली। चक्रधर एक सुरंग घोड़े में सवार थे।

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