चैप्टर 6 अदल बदल : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 6 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 6 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

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डाक्टर जब क्लब में पहुँचे, तो दस बज रहे थे। मायादेवी सुर्ख जार्जेट की साड़ी में मूत्तिमान मदिरा बनी हुई थीं। उन्होंने सफेद जाली की चुस्त स्लीवलेस वास्केट पहन रखी थी। अपनी कटीली बड़ी-बड़ी आँखों को उठाकर मायादेवी ने कहा – ‘ओफ, अब आपको फुर्सत मिली है, मर चुकी मैं तो इंतज़ार करते-करते।’

‘मुझे अफ़

सोस है मायादेवी, मुझे देर हो गई। क्या कहूं, ऐसी ज़ाहिल औरत से पाला पड़ा है कि ज़िन्दगी कोफ्त हो गई। जब देखिये, रोनी सूरत।’

मायादेवी से सटकर एक तरुण युवक और बैठा था। शीतल पेय के गिलास को टेबुल पर रख और सिगरेट का धुआं मुँह से उड़ाकर उसने कहा – ‘डाक्टर अव शरीफ़ आदमियों को जाहिल औरतों से पिण्ड छुड़ा लेना चाहिए। अच्छा मौसम है। डाक्टर अम्बेडकर साहब को दुआ दीजिए और नेहरू साहब की खैर मनाइए कि जिनकी बदौलत हिन्दू कोडबिल पास हो रहा है। अब शरीफ़ एजुकेटेड हिन्दू लेडीज और जेन्टलमैन दोनों को राहत, आजादी और खुशी हासिल होगी।’

‘मगर ये कम्बख्त हिन्दू इसे कानून बनने दें तब तो ? खासकर ये ग्यारह नंबर के चोटीधारी चण्डूल वह बावैला मचा रहे हैं कि जिसका नाम नहीं।’

‘लेकिन दोस्त, आज नहीं तो कल, कोडबिल बनकर ही रहेगा। इन दकियानूसों की एक न चलेगी।’

‘मगर अफ़सोस, तब तक तो मायादेवी बूढ़ी हो जायेंगी, इनका सब निखार ही उतर जायेगा।’

मायादेवी ने तिनककर कहा – ‘अच्छा, अब मुझे भी कोसने लगे! यों क्यों नहीं कहते कि मायादेवी तब तक मर ही जायेगी।’

‘लाहौल बिला कूबत, ऐसी मनहूस बात जबान पर न लाना मायादेवी, कहे देता हूं। मरें तुम्हारे दुश्मन। और इस कोडबिल ने भी तबीयत कोफ्त कर दी। लो यारो, एक-एक पैग चढ़ाओ, जिससे तबीयत ज़रा भुरभुरी हो। उन्होंने जोर से पुकारा ‘बॉय।’

बैरा आ हाज़िर हुआ। डाक्टर ने जेब से सौ का नोट निकाल कर कहा – ‘झटपट दो बोतल विह्स्की, बर्फ, सोडा।’

‘लेकिन हुजूर, आज तो ड्राई डे है!’

‘अबे ड्राई डे के बच्चे, ड्राई डे है तो मैं क्या करूं, क्लब से ला।’ उन्होंने एक सौ रुपये का नोट उस पर फेंक दिया। बैरा झुककर सलाम करता हुआ चला गया।

मायादेवी के साथ जो युवक था, वह किसी बीमा कंपनी का एजेण्ट था। निहायत नफ़ासत से कपड़े पहने था और पूरा हिन्दुस्तानी साहब लग रहा था। डाक्टर कृष्णगोपाल की गंजी खोपड़ी, अधपकी मूंछे और कद्दू के समान कोट के बाहर उफनते हुए पेट को वह हिकारत की नज़र से देख रहा था।

इस मण्डली में चौथे महाशय एक सेठजी थे। वे सिल्क का कुर्ता तथा महीन पाढ़ की धोती पर काला पम्पशू डाटे हुए थे। वे चुपचाप मुस्कराकर शराब पी रहे थे। रंग उनका गोरा, आँखें बड़ी-बड़ी और माथा उज्ज्वल था। उंगलियों में हीरे की अंगूठी थी। डाक्टर को ये भी तिरस्कार की नजर से देख रहे थे। बात यह थी कि ये तीनों जेंटलमैन मायादेवी के ग्राहक थे। भीतर से तीनों एक-दूसरे से द्वेष रखते थे। ऊपर से चिकनी-चुपड़ी बातें करते थे। मायादेवी सबको सुलगातीं। सबको खिलौना बनातीं। उनके साथ खेल करतीं, खिजाती थीं और उसी में उन्हें मजा आता था।

उन्होंने ज़रा नाक-भौं सिकोड़कर कहा – ‘आखिर यह कोडबिल है क्या बला?’

सेठजी का नाम गोपालजी था। उन्होंने हुमसकर कहा – ‘मजेदार चीज है। मायादेवी, ठीक मौसमी कानून है।’

‘मौसमी कैसा?’ मायादेवी ने गोपाल सेठ पर कटाक्षपात करते हुए कहा।

‘इतना भी नहीं समझतीं? मायादेवी जब उभर आई हैं, तभी कोडबिल कानून भी उनकी मदद को आ खड़ा हुआ है। उसका मंशा यह है कि मायादेवी न किसीकी जरखरीद बांदी हैं,न किसीकी ताबेदार, वे स्वतंत्र महिला हैं। अरे साहब, स्वतंत्र भारत की स्वतंत्र महिला, वे अपनी कृपादृष्टि से चाहे जिसे निहाल कर दें, चाहे जिसे बर्बाद कर दें।’

डाक्टर ने गिलास खाली करके मेज पर रखते हुए घुड़ककर सेठजी से कहा -‘बड़े बदतमीज हो, महिलाओं से बात करने का ज़रा भी सलीका नहीं है तुम्हें, कोडबिल की मंशा तो ज़रा भी नहीं समझते?’

‘तो हजूरेवाला ही समझा दें। गोपाल सेठ ने बनते हुए कहा।

‘कोडबिल का मंशा यह है कि आजाद भारत की नारियाँ आजादी के वातावरण में आजादी की सांस लें। हजारों साल से पुरुष उन पर जो अपनी मिल्कियत जताते आते हैं, वह खत्म हो जाए। पुरुष के समान ही उनके अधिकार हों, पुरुष की भांति ही वे रहें, समाज में उनका दर्जा पुरुष ही के समान हो।’

‘वाह भाई वाह ! खूब रहा!’ सेठने जोर से हँसकर कहा – ‘तब तो वे बच्चे पैदा ही न करेंगी, उनके दाढ़ी-मूंछे भी निकल आयेंगी। पुरुष की भांति जब वे सब काम करेंगी, तो उनका स्त्री-जाति में जन्म लेना ही व्यर्थ हो गया। तब कहो-हम-तुम किसके सहारे जियेंगे, यह बरसाती हवा और पैग का गुलाबी सुरूर सब हवा हो जायेगा!’

‘वही गधेपन की हांकते हो। कोडबिल की यह मंशा नहीं है कि स्त्रियाँ मर्द हो जायें, उनको दाढ़ी-मूंछे निकल आयें या वे बच्चे न पैदा करें। यह तो कुदरत का प्रश्न है, इसमें कौन दखल दे सकता है। कोडबिल की मंशा सिर्फ यह है कि समाज में जो पुरुष उनके मालिक बनते हैं, उन्हें जबरदस्ती अपने साथ बांध रखते हैं, उनके ये मालिकाना अख्तियार खत्म हो जाये। स्त्रियाँ समाज में पुरुषों के समान ही अधिकार संपन्न हो जायें।’

‘लेकिन यह हो कैसे सकता है ?’ तरुण युवक ने जिसका नाम हरवंशलाल था, धुएं का बादल बनाते हुए कहा।

‘क्यों नहीं हो सकता?’ डाक्टर ने ज़रा तेज होकर कहा।

युवक हरवंशलाल ने कहा – ‘जनाब, गुस्सा करने की ज़रूरत नहीं। बातचीत कीजिए। समझिए, समझाइए। पहली बात तो यह कि स्त्रियों का समाज में समान अधिकार हो ही नहीं सकता। उनकी शारीरिक बनावट, मानसिक धरातल और सामाजिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे स्वतंत्र रह सकें। उन्हें पुरुषों के संरक्षण में रहना ही होगा। उसमें बुराई भी क्या है, समाज में घर के बाहर बहुत भेदिये रहते हैं, उनसे उनकी हत्या होगी। स्त्रियों की हमारे घरों में एक मर्यादा है, उन्हें हम अपने से कमजोर, नीच या दलित नहीं समझते। हम उन्हें अपनी अपेक्षा अधिक पवित्र, पूज्य और सम्माननीय समझते हैं। युग-युग से पुरुषों ने स्त्रियों की मान-मर्यादा के लिए अपने खून की नदियाँ बहाई हैं, वह इसलिए कि समाज में पुरुष स्त्री का संरक्षक है। अब यदि वह समाज में बराबर का दर्जा पा जायेगी, तो पुरुषों की सारी सहानुभूति और संरक्षण खो बैठेगी। तथा उनकी दशा अत्यंत दयनीय हो जायेगी।’

‘खाक दयनीय हो जायेगी।’ मायादेवी ने उत्तेजित होकर कहा – ‘आप यहाँ चाहते है कि हम स्त्रियाँ आप पुरुषों की पैर की जूती बनी रहें। आप जो चाहें, हमारे साथ जुल्म करें, और हमारी छाती पर मूंग दले और हम कुछ न कहें। चुपचाप बर्दाश्त करें। हज़रत, अब यह नहीं हो सकता। हम लोगों ने गुलामी के इस कफन को फाड़ फेंकने तथा आजादी की हवा में सांस लेने का पक्का इरादा कर लिया है। दुनिया की कोई ताकत अब हमें इस इरादे से रोक नहीं सकती।’

‘श्रीमती मायादेवी!’ युवक ने हँसकर मादक दृष्टि से मायादेवी की ओर देखते हुए कहा – ‘हम मर्दो का इरादा स्त्रियों के किसी इरादे में दखल देने का नहीं है। पर सच कहने की आप यदि इज़ाज़त दें तो मैं एक ही बात कहूंगा कि आधुनिक काल का प्रत्येक शिक्षित पुरुष जब स्त्रियों के विषय में सोचता है तो वह उनकी उन्नति, आजादी तथा भलाई की ही बात सोचता है। परन्तु आधुनिक काल की प्रत्येक शिक्षित नारी तो पुरुषों के विषय में केवल एक ही बात सोचती है कि कैसे उन पुरुषों को कुचल दिया जाये, उन्हें पराजित कर दिया जाये। वास्तव में यह ही खतरनाक बात है।’

‘खतरनाक क्यों है?’ मायादेवी ने कहा।

‘इसलिए ऐसा करने से पुरुषों के हृदय में से स्त्रियों के प्रति प्रेम के जो अटूट संबंध हैं, वे टूट जायेंगे और उनमें एक परायेपन की भावना उत्पन्न हो जायेगी, तथा स्त्रियाँ पुरुषों के संरक्षण से बाहर निकलकर कठिनाइयों में पड़ जायेंगी।’

‘तब आप चाहते क्या हैं ? यही कि हम लोग सदैव आपकी गुलाम बनी रहें?

‘आपको गुलाम बनाता कौन है मायादेवी, हम पुरुष लोग तो खुद ही आप लोगों के गुलाम हैं। हमारी नकेल तो आप ही के हाथों में हैं। धन-दौलत जो कमाकर लाते हैं, घर में हम स्त्रियों को सौंप देते हैं। उन्हें हमने घर-बार की मालकिन बना दिया है।

संभव नहीं है कि हम उनकी रजामंदी के विरुद्ध कोई काम भी कर सकें।’

‘लेकिन यह भी तो कहिए कि घर में हमारी इज्जत क्या है, हमारा अधिकार क्या है?’

‘क्या इज्जत नहीं है? छ: साल तक मुर्दो से लड़ाई करते हैं तब डाक्टर की डिग्री मिलती है। परन्तु स्त्री उससे ब्याह करते ही डाक्टरनी बन जाती है। ये सेठजी बैठे हैं पूछिए, कितनों का गला काटकर सेठ बने हैं; और इनकी बीबी तो इनसे ब्याह होते ही सेठानी बन गई। तहसीलदार की बीबी तहसीलदारिन, थानेदार की थानेदारिन स्वतः बन जाती है कि नहीं? फिर अधिकार की क्या बात? घर में तो आपका ही राज्य है मायादेवी, हमारी तो वहां थानेदारी चलती नहीं।’

‘परन्तु आप यह भी जानते हैं कि घर के भीतर स्त्रियों ने कितने आँसू बहाए हैं।’

‘सो हो सकता है, आप ही कहाँ जानती हैं कि घर के बाहर मर्दों ने कितना खून बहाया है! आँसू से तो खून ज्यादा कीमती है मायादेवी, यह तो अपनी-अपनी मर्यादा है। अपना-अपना कर्तव्य है। वक्त पर हँसना भी पड़ता है, रोना भी पड़ता है, जीना भी पड़ता है, और मरना भी पड़ता है। समाज नाम भी तो इसी मर्यादा का है?

सेठ गोपालजी खुश होकर बोले – ‘बहस मजेदार हो रही है। कहिए मायादेवी, अब आप हरवंशलाल बाबू की क्या काट करती हैं।’

डाक्टर ने जोश में आकर कहा – ‘हरवंश बाबू की बात की काट करूंगा मैं। आप यदि स्त्रियों को बच्चे पैदा करने की मशीन और अपनी वासना-पूर्ति का साधन नहीं बनाना चाहते तो जनाब आपको उन्हें आजाद करना पड़ेगा, उन्हें समाज में समानता के अधिकार देने पड़ेंगे।’

‘लेकिन किस तरह महाशय, समानता के अधिकारों से आपका मतलब क्या है? आप यह तो नहीं चाहते कि एक बार बच्चा स्त्री जने और दूसरी बार पुरुष। मासिक धर्म एक महीने स्त्री को हो, दूसरे महीने पुरुष को।’

‘यह आप बहस नहीं कर रहे हैं, बहस का मखौल उड़ा रहे हैं। मेरा मतलब यह है कि स्त्री-पुरुषों को समाज में समान अधिकार प्राप्त हों।’

‘तो इस बात से कौन इंकार करता है। बात इतनी ही तो है कि पुरुष घर के बाहर काम करते हैं, स्त्रियाँ घर के भीतर। अब आप उन्हें घर से बाहर काम करने की आजादी देते हैं तो मेरी समझ में तो आप उन्हें उनकी प्रतिष्ठा तथा शांति को खतरे में डालते हैं।’

‘यह कैसे?’

‘मैं देख रहा हूँ। अब से बीस-पचीस वर्ष पहले हमारे घर की बहू-बेटियाँ घर की दहलीज से बाहर पैर नहीं धरती थीं। वे पर्दा-नशीन महिलाओं की मर्यादा धारण करती थीं। रोती थीं, तब भी घर की चहारदीवारी के भीतर और हँसती थीं तब भी वहीं। वे अपने पति पर आधारित थीं। पति ही उनका देवता और सब कुछ था। वे लड़ती भी थीं और प्यार भी करती थीं। पर यह बात घर से बाहर नहीं जाती थी। बाहरी पुरुषों के सामने न उनकी आँखें उठती थीं, न जबान खुलती थी। वे अधिक पढ़ी-लिखी भी न होती थीं। घर-गृहस्थी का काम, बच्चों की सार-संभाल और पति की सेवा–बस इसी में उनका जीवन बीत जाता था। यह क्या बुरा था?

‘और अब?’

‘उनको क्या? मैं तो यह देखता हूँ कि अच्छे-अच्छे घरानों की लड़कियाँ ग्रेजुएट बन गईं। उनकी व्याह की उम्र ही बीत गई। अब वे ऑफिसों में, स्कूलों में, सिनेमा में अपने लिए काम की खोज में घूम रही हैं। इस काम से उनकी कितनी अप्रतिष्ठा हो रही है तथा कितना उनके चरित्र का नाश हो रहा है, इसे आँख वाले देख सकते हैं।’

मायादेवी अब तक चुप थीं। अब ज़रा जोश में आकर बोलीं – ‘तो आप यही चाहते हैं कि स्त्रियाँ पुरुषों की सदा गुलाम बनी रहें, उन्हीं पर आधारित रहें।’

‘यदि थोड़ी देर के लिए यही मान लिया जाये श्रीमती मायादेवी, कि वे पुरुषों की गुलाम ही हैं तो दर-दर गुलामी की भीख मांगते फिरने से, एक पुरुष की गुलामी क्या बुरी है?’

‘यदि वे कोई काम करती हैं, नौकरी करती हैं तो इसमें गुलामी क्या है?’

‘अफ़सोस की बात तो यही है मायादेवी, कि सारा मामला रुपयों-पैसों पर आकर टिक जाता है। टीचर, डाक्टर बनकर या नौकरी करके वे जो पैदा कर सकती हैं, सिनेमा-स्टार बनकर लाखों पैदा कर सकती हैं, मोटर में शान से सैर कर सकती हैं। परन्तु सामाजिक जीवन का मापदण्ड रुपया-पैसा ही नहीं है। स्त्री-पुरुष की परस्पर की जो शारीरिक और आत्मिक भूख है, वही सबसे बड़ी चीज है। उसीकी मर्यादा में बंधकर हिन्दू गृहस्थ की स्थापना हुई है। वही हिन्दू गृहस्थ आज छिन्न-भिन्न किया जा रहा है।’

‘पर यह हिन्दू गृहस्थ भी तो आर्थिक ही है। उसकी जड़ में तो रुपया-पैसा ही है?’

‘कैसे?’

‘अत्यन्त प्राचीन काल में, हिन्दुओं में गृहस्थ की मर्यादा न थी। स्त्री-पुरुष उन्मुक्त थे। स्त्रियाँ स्वतंत्र थीं। वे जब जिस पुरुष से चाहतीं, संबंध स्थापित करके बच्चा पैदा कर सकती थीं। वे ही बच्चे की मालकिन कहलाती थीं, पुरुष का उससे कोई संबंध न था। बाद में जब धन-संपत्ति बढ़ी, नागरिकता का उदय हुआ, और पुरुष अपनी विजयिनी शक्ति के कारण उसका मालिक हुआ, तो वह धीरे-धीरे स्त्रियों का भी मालिक बनता चला गया। वह जमाना था ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’। एक दल दूसरे से लड़ता था, तो जीतनेवाला दल हारने वाले दल का घर-बार, सामान सब लूट लेता था, उसी लूट में वह स्त्रियों को भी लूट लाता और अपने घर की दासी बनाकर रखता। तरुणी और सुन्दरी, ये विजिता दासियाँ आगे चलकर आधीन पत्नियाँ बनती गई। समाज में बहु-पत्नीत्व का प्रचलन हुआ और स्त्रियाँ पुरुष के अधीन हुई।’

‘किन्तु अब?’

‘अब स्त्रियों की आर्थिक दासता ही उनकी सामाजिक स्वाधीनता की बाधक है। वे घर में रहकर यदि गृहस्थी चलायें, तो कुछ कमा तो सकतीं नहीं। केवल पति की आमदनी पर ही उन्हें निर्भर रहना पड़ता है है। पर इतना अवश्य है कि गृहस्थी में गृहिणी पति की कमाई पर निर्भर रहकर भी उतनी निरुपाय नहीं है। उसकी बहुत बड़ी सत्ता है, बहुत भारी अधिकार है। पति तो उसके लिए सब बातों का ख्याल रखता ही है, पुत्र भी उसकी मान-मर्यादा का पालन करते हैं।’

मायादेवी ने तिनककर कहा – ‘क्या मर्यादा पालन करते हैं? पति के मरने पर वह पति की संपत्ति की मालिक नहीं बन सकती, मालिक बनते हैं लड़के लोग। जब तक पति जीवित है वह उसके आगे हाथ पसारती हैं, और उसके मरने पर पुत्रों के आगे। उसकी दशा तो असहाय भिखारिणी जैसी है।”

‘यह ठीक है, बुरे पति और बेटे स्त्रियों को कष्ट देते हैं। इसका कानून से निराकरण अवश्य होना चाहिए। पर कोडबिल तो कुछ दूसरी ही रचना करता है। यह हिन्दू गृहस्थी को भंग करता है।”

‘किस प्रकार?’

‘तलाक का अधिकार देकर।’

‘लेकिन तलाक का अधिकार तो अब रोका नहीं जा सकता।’ डाक्टर ने तेज़ी से कहा।

‘हाँ, मैं भी यही समझता हूं परन्तु मैं इसका कुछ दूसरा ही कारण समझता हूँ, और आप दूसरा।’

‘मेरा तो कहना यही है कि तलाक का अधिकार स्त्री को पुरुष के और पुरुष को स्त्री के जबर्दस्ती बंधन से मुक्त करने के लिए है।’ डाक्टर ने कहा।

‘परन्तु मेरा विचार दूसरा है। असली बात यह है कि अंग्रेजों से हमने जो नई बातें अपने जीवन में समावेशित की हैं, उनमें एक नई बात ‘एक पत्नीव्रत’ है। हिन्दू लॉ के अनुसार हिन्दू गृहस्थ एक ही समय में एक से अनेक पत्नियों से विवाह कर और रख सकता है। आप जानते ही हैं कि प्राचीन काल के राजा-महाराजाओं के महलों में महिलाओं के रेवड़ भरे रहते थे। अंग्रेजों के संसर्ग से हमने दो बातें ही सीखीं। पहला ‘एक पत्नीव्रत’, दूसरा समाज में स्त्रियों का समान अधिकार। यद्यपि भारत में भी राम जैसे एक पत्नीव्रती पुरुष हो गए हैं, पर कानूनन अनेक पत्नी रखना निषिद्ध न था। अब भी हिन्दू लॉ के अधीन अनेक पत्नी रखी जा सकती हैं। परन्तु व्यवहार में यह हीन कर्म माना जाता है। अभी तक ‘एक पत्नीव्रत’ का कानून नहीं बना था। पुरुष चाहते तो अपनी स्त्री को त्याग दे सकते थे, वह सिर्फ खाना-कपड़ा पाने का दावा कर सकती थी और पुरुष झट से दूसरा विवाह कर लेते थे। उसमें कोई बाधा न थी, परन्तु अब जब, ‘एका पत्नीव्रत’ कानूनन कायम हो जायेगा, तो स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों ही का तलाक अनिवार्य बन जायेगा। बिना तलाक की स्थापना के पुरुष एक मिनट भी तो ‘एक पत्नीव्रत’ को सहन नहीं कर सकता।’

‘क्यों नहीं कर सकता?’-इतनी देर बाद सेठजी ने मुँह खोला।

‘इसलिए कि वह अपने लम्पट स्वभाव से लाचार है। ‘एक पत्नीव्रत’ का अर्थ ही यही है कि जब तक पत्नी है, तब तक दूसरी स्त्री उसकी पत्नी नहीं बन सकती। अब यदि वह दूसरी स्त्री पर अपना अधिकार कायम रखना चाहता है तो उसे एकमात्र तलाक ही का सहारा रह जाता है। बिना तलाक दिए वह नई नवेलियों का, जीवनभर आनंद नहीं उठा सकता।’

सेठजी ने जोर से हँसकर कहा – ‘बात तो पते की कही । हमी को देखो, अपनी बुढ़िया को घसीटे लिए जा रहे हैं। गले में चिपटी पड़ी है। मरे तो दूसरी शादी का डौल करें।’

‘जब तलाक चल गया, तो मरने की जरूरत ही न रही साहेब। तलाक दीजिए,और दूसरी शादी कीजिए।’

‘और वह स्त्री ?’

‘वह भी दूसरी शादी करे।’

‘वाह! तो यों कहो कि तलाक का मसला, अदल-बदल का मसला है। अर्थात् बीबी बदलौवन ।’

‘बेशक, मगर इसकी जड़ में दो बड़ी गहरी बुराइयाँ हैं। एक तो यह कि हमारे गृहस्थ में जो पति-पत्नी में गहरी एकता- विश्वास और अभंग संबंध कायम है, वह नष्ट हो जायेगा। पति-पत्नी के स्वार्थ भिन्न-भिन्न हो जायेंगे। और दाम्पत्य-जीवन छिन्न-भिन्न हो जायेगा।’

‘और दूसरा?’

‘दूसरा इससे भी खराब है। आप जानते हैं कि पुरुष स्त्री के यौवन का ग्राहक है। स्त्रियों का यौवन ढलने पर उन्हें कोई नहीं पूछता। अब तक हमारे गृहस्थ की यह परिपाटी थी कि स्त्री की उम्र बढ़ती जाती थी, वह पत्नी के बाद माँ, मां के बाद दादी बनती जाती थी, इसमें उसका मान-रुतबा बढ़ता ही जाता था। अब पुरुष तो पुरानी औरतों को तलाक देकर, नई नवेलियों से नया व्याह रचाएंगे। स्त्रियाँ भी, जब तक उनका रूप-यौवन है, नये-नये पंछी फसायेंगी। पर रूप-यौवन ढलने पर वे असहाय और अप्रतिष्ठित हो जायेंगी। उनकी बड़ी अधोगति होगी।’

सेठजी विचार में पड़ गए। बोले – ‘इस मसले पर तो हमने कोई विचार ही नहीं किया। क्या कहती हो मायादेवी ?’

‘मैं तो आप लोगों को हिमाकत को देख रही हूँ। क्या दकियानूसी मनहूस बहस शुरू की है। शाम का मजा किरकिरा कर दिया। जाइए आप, अपनी औरतों को बांधकर रखिए। मैं तो अन्याय को दाद न दूंगी। मैं स्त्री की आजादी के लिए पुरुषों से लड़गी, डटकर।”

‘और श्रीमती मायादेवी, यह बंदा इस नेक काम में जी-जान से आपकी मदद करेगा।’ डाक्टर ने लबालब शराब से भरा गिलास मायादेवी की ओर बढ़ाते हुए कहा – ‘लीजिए, हलक तर कीजिए इसी बात पर।’

‘शुक्रिया, पर मैं ज्यादा शौक नहीं करती। हाँ कहिए, श्रीमती विमलादेवी कैसी हैं? आजकल उनसे कैसी पट रही है?’

‘कुछ न पूछो? मुझे तो उसकी सूरत से नफ़रत है। जब देखो, मनहूस सूरत लिए मिनमिनाती रहती है।’

‘तो हज़रत, कभी-कभी यहाँ सोसाइटी ही में लाइए। तरीके सिखाइए। बातें आप बड़ी-बड़ी बनाते हैं मगर करनी कुछ नहीं। मैं कहती हूँ, जो कहते हैं उस पर अमल कीजिए।’

‘करूंगा, जरूर करूंगा मायादेवी, बस आप जरा मेरी पीठ पर रहिए।’

सेठजी ने हँसकर कहा – ‘वाह, क्या बात कही? अच्छा एक दौर चले इसी बात पर।”

सबने गिलास भरे और गला सींचने लगे।

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