चैप्टर 15 अदल बदल : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 15 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 15 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

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डाक्टर कृष्णगोपाल शहर के प्रसिद्ध चिकित्सक थे। उनकी प्रैक्टिस खूब चलती थी। उन्होंने नाम और दाम खूब कमाया था। मिलनसार, सज्जन और उदार भी थे। विद्वान विचारक और क्रियाशील थे। इतने सद्गुणी होने पर भी वे सद्गृहस्थ न रह पाये। उनकी पत्नी विमलादेवी, एक आदर्श हिंदू महिला थीं। वैसी कर्मठ पतिप्राणा पत्नी पाकर कोई भी पति धन्य हो सकता है। ऐसे दम्पति का जीवन अत्यंत सुखी होना चाहिए था, पर दुर्भाग्य से ऐसा न था। चरित्र की हीनता ने डाक्टर कृष्णगोपाल के सारे गुणों पर पानी फेर दिया था। शराब और व्यभिचार, ये दो दोष उनमें ऐसे जमकर बैठ गए थे कि इनके कारण उनके सभी गुण दुर्गुण बन गए और उनका जीवन अशांत और दुःखमय होता चला गया।

श्रीमती विमलादेवी जैसी आदर्श पत्नी थीं, वैसी ही आदर्श माता, गृहणी और रमणी भी। मुहल्लेभर में उनका मान था, अपमान था केवल पति की दृष्टि में। पति अपनी गृहस्थी तथा पतिभाव की मर्यादा का पालन नहीं करते, यही उनकी शिकायत थी, और अब यह शिकायत तीव्र से तीव्रतम होती हुई उग्र झगड़े की जड़ बन गई थी। यह खेद और लज्जा की बात कही जानी चाहिए कि डाक्टर जैसा सभ्य, सुशिक्षित पति विमलादेवी जैसी साध्वी, शान्त पत्नी पर हाथ उठाए, पशु की भांति व्यवहार करे, परन्तु प्रायः नित्य ही यह होता था। डाक्टर दिन-दिन बुरी सोहबत में फंसकर फजूलखर्च, शराबी और व्यभिचारी बनते जा रहे थे। और अब तो वे उस दर्जे को पहुँच चुके थे, जब उन्हें किसी धक्के की जरूरत ही न थी, वे स्वयं तेज़ी से फिसलते जा रहे थे।

मायादेवी से उनका साक्षात्कार होना तथा घनिष्ठता की सीमा पार कर जाना उनके जीवन में तूफान ले आया। दोनों का दोनों के प्रति आकर्षण शुद्ध और प्रगाढ़ प्रेम का प्रतीक न था, कोरा वासनामूलक था। इसके अतिरिक्त माया और कृष्ण-गोपाल दोनों ही अपनी सनक की झोंक में बिना आगा-पीछा सोचे बढ़ते चले जा रहे थे।

जब-तब मायादेवी डाक्टर से लुक-छिपकर मिलतीं। पराई पत्नी थीं, तब तक डाक्टर की उनके प्रति उत्सुकता और व्यवहार कुछ और ही था। अब जब उन्होंने अपने घर और पति को त्याग दिया तथा तलाक की कानूनी कार्यवाहियां करने लगीं, तब उनके विचारों में परिवर्तन और उलझन होने लगी। उनके कायर और चरित्रहीन मन में भय और आशंका ने घर कर लिया। वे सोचने लगे, ऐसा करना क्या ठीक होगा। अब इतने दिन बाद विमला-देवी की ओर ध्यान देने का उन्हें समय मिला। यदि वे मायादेवी से विवाह करते हैं तो विमलादेवी को तो उन्हें त्यागना ही होगा। यद्यपि कभी उन्होंने अपनी पत्नी से प्रेमपूर्वक व्यवहार नहीं किया था, पर इस अदल-बदल का प्रश्न आने पर उनके मन की उलझनें बढ़ गई। कुछ देर के लिए प्रेम का खुमार ठण्डा पड़ गया।

परन्तु बात अब बहुत आगे बढ़ चुकी थी। एक दिन मालती-देवी के मकान में गम्भीर बातचीत हुई। बातचीत में मालती-देवी, मायादेवी, डाक्टर कृष्णगोपाल तथा वकील साहब उपस्थित थे।

वकील साहब कह रहे थे – ‘हिन्दू का, हिन्दू धर्म विवाह पद्धति पर विवाहित स्त्रियों की परुष संतति के उत्तराधिकार से संबंधित सिर्फ कानूनी सत्ता है। हिन्दू स्त्रियों के अधिकारों की मीमांसा उसमें गौण है-, जो आजकल की सुशिक्षिता और आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करने वाली, साथ ही हिन्दू सभ्यता और संस्कृति की मर्यादा पालन करने वाली स्त्री के किए अपर्याप्त है। इसीलिए हिन्दू कोड कानून की सहायता लेनी पड़ी। इस कानून की मंशा मुख्यतया हिन्दू स्त्री की संतति के अधिकारों के लिए नहीं, प्रत्युत सीधे स्त्रियों के अधिकारों के लिए है। ये अधिकार सामाजिक और आर्थिक दोनों हैं।’

डाक्टर ने कहा – ‘किंतु अब तक जिस प्रकार चल रहा था, वैसे ही चलना क्या बुरा था। एक पत्नी के रहते हुए भी दूसरी पत्नी रखी जा सकती है। हिन्दू लॉ इस मामले में बाधक नहीं।’

‘जी हाँ, बाधक था। इसी से तो यह कानून बनाना पड़ा। जब तक ऐसे कानूनी संशोधन हिन्दुओं में नहीं हुए तब तक सुशिक्षित परिवार में, जो हिन्दू संस्कृति के भी कायल हैं तथा स्त्रियों के सामाजिक समानाधिकार भी चाहते हैं, दोनों प्रकार के विवाहों का रिवाज-सा पड़ गया था। और आप देखते ही हैं कि इधर कुछ दिनों से सभ्य परिवारों में हिन्दू-पद्धति पर विवाह होने के साथ ही, सिविल मैरिज विधान से भी विवाह किए जाते थे।’

‘तो कानूनी, धार्मिक तथा सामाजिक दृष्टि से दोनों प्रकार से शादी करने में तो कोई नुक्स न था।’

‘बहुत था। स्त्रियों के अधिकारों की ठीक-ठीक मर्यादा का पालन नहीं होता था।’

‘किंतु हिन्दू विवाह पद्धति में अब क्या अंतर पड़ गया?’

‘हिन्दू विवाह की तीन मर्यादाएं हैं और चार विधि। इनके बिना हिन्दू विवाह सम्पूर्ण नहीं माना जाता। इनके सिवा लोक प्रचलित रसूम भी बहुत हैं। वे तीन मर्यादायें हैं –

१. पति-पत्नी का व्यक्तिगत शारीरिक और मानसिक जीवन संबंध और उनका सामाजिक दायित्व।

२. पति-पत्नी का एक-दूसरे के परिवार और संबंधियों से संबंध और उनकी मर्यादा।

३. पति और पत्नी का आध्यात्मिक अविच्छिन्न जन्म-जन्मान्तरों का संबंध ।

‘इन्हीं मर्यादाओं पर हिन्दू-विवाह विधि निर्भर थी। आप अच्छी तरह समझ सकते हैं, कि ये सारे ही आधार आध्यात्मिक हैं, और उनका आजकल के भौतिक जीवन से मेल नहीं खाता था। इसीसे यह आवश्यकता पड़ी। सहस्रों वर्षों के बाद अब पति-पत्नी के संबंधों का नया अध्याय शुरू हुआ है, जो दोनों को समान अधिकार देता है। अब तक तो स्त्री पति की गुलाम थी, सम्पत्ति थी, दौलत थी, जिंदा दौलत!’

‘अंधेर करते हैं आप, जिंदा दौलत कैसे? हम लोग तो स्त्रियों को वह मालिकाना अधिकार देते हैं कि घर-बार सबकी मालकिन उसी को बना देते हैं।’

वकील साहब हँसकर बोले – ‘किंतु उसी प्रकार, जैसे बैंक का क्लर्क बैंक के रुपये-पैसे और हिसाब-किताब का मालिक रहता है। जनाब, आप इस बात पर चौंकते हैं कि मैंने कह दिया कि स्त्री को आप दौलत समझते हैं। आप क्या उन्हें ‘स्त्री रत्न’ नहीं कहते? क्या आपके धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी पत्नी द्रौपदी को जुए के दांव पर नहीं लगा दिया था। सत्यवादी हरिश्चन्द्र ने अपनी स्त्री को कर्जा चुकाने के लिए भेड़-बकरी की भांति बीच बाजार में नहीं बेच दिया था?

वकील साहब खूब जोश में जा रहे थे, परंतु मालतीदेवी ने उन्हें बीच ही में रोककर कहा – ‘कृपया मतलब की बात पर आइए। अभी बहस रहने दीजिए।’

वकील साहब ने कहा—

‘अच्छी बात है। मैं तो पहले ही कह चुका हों कि कानून आपके हक में है और मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूँ। केवल फीस का सवाल है, सो आपने हल ही कर दिया। यह भी संभव है कि फीस का सवाल कभी उठे ही नहीं।’ वकील साहब ने मायादेवी की ओर घूरकर देखा, फिर हंस दिया।

मायादेवी ने कहा – ‘फीस की बात बार-बार क्यों उठाते हैं? आप सिर्फ कानून की बात कीजिए।’

‘कह चुका कि कानून आपके हक में है, अब आप यह विचार लीजिए कि आप क्या अपने पति से विच्छेद करने पर आमादा हैं?’

‘मैं बिलकुल आमादा हूँ।’

‘अच्छी तरह सोच लीजिए श्रीमतीजी, आगे-पीछे की सभी बाधाओं पर विचार कर लीजिए।’

‘और बाधा क्या है?

‘आपके पतिदेव उज्र कर सकते हैं।’

‘मैं उनका कोई उज्र न सुनूंगी।’

‘आपकी संतान का भी प्रश्न है।’

‘मुझे संतान से कोई वास्ता नहीं।’

अब मालतीदेवी ने बीच में उन्हें रोक कर कहा – ‘ठहरिए डाक्टर साहब, मैं आपसे एक प्रश्न करना चाहती हूँ? क्या आप श्रीमती मायादेवी से विवाह करने को तैयार हैं?’

डाक्टर उल्झन में पड़ गए। उन्होंने ज़रा धीमे स्वर में वकील साहब से पूछा -‘आपका क्या ख़याल है कि इसमें मुझे कुछ बाधा होगी?’

‘बहुत बड़ी बाधा हो सकती है। पहली बात तो यह है कि आपको अपनी पूर्व पत्नी का त्याग करना होगा।’

‘यह क्या अत्यंत आवश्यक है?’

‘अनिवार्य है।’

‘परन्तु यदि वह इंकार करे?’

‘तो आपके लिए दो मार्ग हैं। आप या तो उन्हें दोषी ठहरायें या उन्हें उनके भरण-पोषण के लिए मुँहमांगा धन दें।’

‘दोषी कैसे?’

‘दुराचार की।’

डाक्टर के मन में कहीं मर्मान्तक चोट लगी। भला विमला जैसी सती-साध्वी पर दुराचार का दोष कैसे लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा – ‘मैं उसे उचित भरण-पोषण देने को तैयार हूँ।’

यह कहकर डाक्टर उदास हो गए और उनका मन बेचैन हो हो गया।

मायादेवी ने इस बात को भांप लिया। उसके आत्मसम्मान और अहंभाव पर कहीं चोट लगी। उसने कहा – ‘वकील साहब, मेरे इस मामले से डाक्टर साहब के मामले का क्या संबंध है?’

‘कुछ भी नहीं।’

मालतीदेवी ने कहा – ‘कुछ भी नहीं कैसे, इसीलिए तो तुम अपना घर त्याग रही हो? इसे क्यों छिपाती हो?’

‘मैं किसी पर बोझ बनना पसंद नहीं करती, मैं केवल स्वतंत्र जीवन चाहती हूँ।’ मायादेवी ने उदास भाव से कहा।

वकील साहब ने उत्साहित होकर कहा – ‘ठीक है, ठीक है, फिर मायादेवी जैसी पत्नी जिसके भाग्य में हो, वह तो स्वयं ही धन्य हो जायेगा।’

‘मेरा अभिप्राय केवल यही है कि पुरुषों ने जो सैकड़ों वर्ष से स्त्रियों को साहस, ज्ञान और संगठन से रहित कर रखा है, उन्हें अपनी वासना की दासी और बच्चे पैदा करने की मशीन बना रखा है, यह न होना चाहिए। उनका एक पृथक् अस्तित्व है। मैं अपने उदाहरण से यह दिखाना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि पुरुष स्त्रियों की शक्ति का भरोसा करें। और वे प्यार के नाम पर उन पर जुल्म न कर सकें।’

मालती ने कहा – ‘मायादेवी, यह सब तो ठीक है। पर देखो, आदर्श के नाम पर व्यवहार को मत भूलो। इस काम को व्यावहारिक दृष्टि से देखो। मैं साफ-साफ डाक्टर साहब से पूछती हूँ कि मायादेवी का पूर्व पति से विच्छेद होने पर आप उससे तुरन्त विवाह करेंगे?’

‘मुझे उज्र नहीं है, पर विमलादेवी का मसला कैसे हल होगा?’

‘उसे आपको त्यागना होगा।’

‘और लड़की को?’

‘उसका निर्णय अदालत के अधीन है।’

‘पर यदि विमलादेवी ने विरोध किया?’

‘तो आपको उससे लड़ना होगा, आपको हर हालत में उसे त्यागना होगा। आप पशोपेश मत कीजिए। जो कहना हो, साफ-साफ कहिये।’

‘तो मालतीदेवी, विमला से आप ही मिलकर मामला तय कर लीजिए। आप जो निर्णय करें मुझे स्वीकार होगा। सम्भव है कोई आपसी समझौता ही हो जाए।’

‘अच्छी बात है। मैं उससे मिलूंगी। परन्तु यह तय है कि दोनों विच्छेद के मामले एक साथ ही कोर्ट में जाएंगे।’

‘ऐसा ही सही।’ डाक्टर ने गंभीरता से जवाब दिया।

वकील साहब ने कहा – ‘यह और भी अच्छा है। जैसा निर्णय हो, वह आप तय कर लीजिए।’

इसके बाद यह मजलिस बर्खास्त हुई।

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अन्य हिंदी उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

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