चैप्टर 17 अदल बदल : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 17 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 17 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

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मायादेवी और डाक्टर कृष्णगोपाल दोनों ही के तलाक के मुकदमे अदालत में दाखिल कर दिए गए। मायादेवी ने पति पर अत्याचार, अयोग्यता तथा अनीतिमूलक व्यवहार के आरोप लगाए। मास्टर साहब ने क्षोभ और दुःख के कारण जवाबदेही नहीं की। मायादेवी को तलाक मिल गया। परन्तु इसपर जितना भी मायादेवी को साधुवाद, धन्यवाद और बधाइयां दी जाने लगी उतना ही उनका शोक और व्यग्रता बढ़ती गई। रह-रहकर पति की निरीह, नैराश्य-मूर्ति उनके नेत्रों में घूम जाती, पुत्री की पीड़ा से भी वह बेचैन हो जातीं। वह जितना अपने मन को प्रबोध देतीं, भावी सुख का चित्र खींचतीं, उतना ही उनका मन निराशा से भर जाता।

डाक्टर कृष्णगोपाल की तसल्ली और आदर-सत्कार उसे अब उतना उल्लासवर्द्धक नहीं दीख रहा था। तथा रह-रहकर उसे अपना घर, अपना पति, और अपनी पुत्री याद आ रही थी। वह खोई-सी रहने लगी जैसे उसके सब आश्रय नष्ट हो गए हों। उनका मन चिन्ता, घबराहट और उदासी से भर गया।

डाक्टर कृष्णगोपाल के मुकदमे में विमलादेवी ने अदालत में उपस्थित होकर जज से मनोरंजक वार्तालाप किया।

जज ने पूछा – ‘श्रीमती विमलादेवी, आपके पति डाक्टर कृष्णगोपाल ने आपके विरुद्ध तलाक का मुकदमा दायर किया है। आपको कुछ उज्र हो तो पेश कीजिए।’

‘आप किसलिए मेरा उज्र पूछते हैं?’

‘इसलिए कि आपको उज्र करने का कानूनन अधिकार है।’

‘मैं एक हिन्दू गृहस्थ की पत्नी हूँ। मैं अधिकार नहीं चाहती, मैं कर्तव्य-पालन करना चाहती हूं। मेरे पति जब जहाँ जिस हालत में रहेंगे, मैं अपना कर्तव्य उनके प्रति पालन करती रहूंगी।’

‘मेरा अभिप्राय यह है कि तलाक स्वीकार होने पर…’

‘हिन्दू स्त्री प्रदत्ता है। उसे तलाक स्वीकार करने का अधिकार नहीं है।’

‘स्वीकार न करने पर भी कानूनन उसका सम्बन्ध पति से टूट जायेगा।’

‘केवल शरीर- संबंध । परन्तु हिन्दू स्त्री का पति से केवल शरीर- संबंध ही नहीं है। लाखों करोड़ों-विधवायें आज भी पति के मर जाने पर जीवनभर वैधव्य धारण कर उसीके नाम पर बैठी रहती हैं।’

‘परन्तु यह तो अन्याय है विमलादेवी।’

‘आप न्याय को कानून के तराजू पर तौलते हैं, इसलिए आपको यह अन्याय प्रतीत होता है। यदि इसे धर्म की तराजू पर तौला जाये, तो यह तप है। और तप एक पुण्य है, और पुण्य कदापि अन्याय नहीं।’

‘परन्तु यह पुण्य या तप जो कुछ भी आप समझें, पुरुष तो करते नहीं।’

‘वे करें, उन्हें रोका किसने है?’

‘परन्तु वे करते तो नहीं।’

‘हां, नहीं करते। इसका कारण यह है कि उनमें तप करने की, पुण्य करने की शक्ति नष्ट हो गई है। वे बेचारे तप-पुण्य कर ही नहीं सकते। उन्होंने शरीरबल उपार्जन किया, हमने आध्यात्मिक। उन्होंने व्यावहारिक दुनिया को अपनाया, हमने अपनाया आदर्श और निष्ठा की दुनिया को।’

‘परन्तु एक नवयुवती विधवा होने पर पति के नाम पर जीवन भर विधवा होकर बैठी रहे, इसे आप पुण्य कैसे कहती हैं?’

‘इसे आप नहीं समझ सकते। इस प्रश्न का उत्तर कानून नहीं दे सकता।’

‘तो आप उत्तर दीजिए।’

‘उत्तर दे सकती हूँ, पर आप चूंकि पुरुष हैं, समझ नहीं सकेंगे।’

‘फिर भी आप कहिए।’

‘पति-पत्नी संबंध में स्त्रियों और पुरुषों के आदर्शों में अंतर है। पुरुष के लिए दाम्पत्य का अर्थ है उपभोग।’

‘और स्त्री के लिए?

‘संयम! और यह नैसर्गिक है, कृत्रिम नहीं। आप कानून, पुरुषों के लिए उनकी संपत्ति के लिए बना सकते हैं, और उन्हें लाभ पहुँचा सकते हैं। परन्तु स्त्रियों के लिए नहीं। कानून का अर्थ है, शांतिपूर्वक उपभोग करो। लेकिन स्त्री पर कानून का नहीं, धर्म का शासन है। धर्म कहता है, संयम से पहले अपने को वश में करो, फिर संसार को।’

‘क्या स्त्रियां वैधव्य से और खराब पतियों से दुःख नहीं पातीं?’

‘पाती हैं, पुरुष भी खराब स्त्रियों से दुःख पाते हैं, सुख, दुःख मनुष्य की दुबुद्धि का भोग है। उनसे कैसे बचा जा सकता है?’

‘परन्तु कानून तो जीवन में एक व्यवस्था कायम करता है।’

‘सो करे।’

‘तो कानून की दृष्टि में तलाक के बाद आप डा० कृष्णगोपाल की पत्नी न रहेंगी।’

‘समझ गई। परन्तु मैं भी कह चुकी हूँ कि मैं उनकी पत्नी ही रहूंगी। हाँ, एक बात है। अब तक मैंने पति के द्वारा दिया गया दुःख भोगा और अब कानून के द्वारा दुःख भोगूंगी।’

‘आप दूसरा विवाह करके सुखी हो सकती हैं।’

‘परन्तु मुझे पुरुषों के इस सुख पर ईर्ष्या नहीं है, दया है।’

‘खैर, तो आपका और आपके पति का पति-पत्नी संबंध समाप्त हुआ। परन्तु आप जिस मकान में रहती हैं उसी में उसी भांति रह सकती हैं। वह मकान आपके भूतपूर्व पति ने आपको दे दिया है तथा दस हजार रुपया आपके जीवन-निर्वाह के लिए दे दिया है। आपकी लड़की भी शादी होने तक आप ही के पास रहेगी। परन्तु उसकी शादी और शिक्षा का भार आप ही पर रहेगा। हां, उसका एक बीमा डाक्टर साहब ने कर दिया है। जब उसका विवाह होगा, तब वह दस हजार रुपया शादी के खर्च के लिए आपको और मिल जायेगा, क्या आपको कुछ कहना है।’

‘जी नहीं।’

‘तो आप जा सकती हैं।’

विमलादेवी चुपचाप चली आई और डाक्टर कृष्णगोपाल छाती में तीर लगने से जैसे हिरन छटपटाता है, उस भांति की वेदना से तड़पते हुए, अपने नये आवास की ओर लौटे। उनकी आँखें झुकी हुई थीं, और लज्जा, ग्लानि और क्षोभ का जो प्रभाव इस समय वे अनुभव कर रहे थे, उसकी उन्होंने कभी कल्पना भी न की थी।

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अन्य हिंदी उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ गबन मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ चंद्रकांता देवकी नंदन खत्री का उपन्यास

 

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