चैप्टर 20 अदल बदल : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 20 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 20 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

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मास्टर साहब अपने घर में दीये जला, प्रभा को खिला-पिला बहुत-सी वेदना, बहुत-सी व्यथा हृदय में भरे बैठे थे। बालिका कह रही थी – ‘बाबूजी! अम्मा कब आयेंगी?

‘आयेगी बेटी, आयेगी!’

‘तुम तो रोज यही कहते हो। तुम झूठ बोलते हो बाबूजी।’

‘झूठ नहीं बेटी, आयेगी।’

‘तो वह मुझे छोड़कर चली क्यों गईं?’

‘……’

‘आज दिवाली है बाबूजी ?”

‘हाँ बेटी।’

‘तुमने कितनी चीजें बनाई थीं – पूरी, कचौरी, रायता, हलुआ…’

‘हाँ, हाँ, बेटी, तुझे सब अच्छा लगा?’

‘हाँ, बाबूजी, तुम कितनी खील लाए हो, खिलौने लाए हो, मैंने सब वहाँ सजाये हैं।”

‘बड़ी अच्छी है तू रानी बिटिया।’

‘यह सब मैं अम्मा को दिखाऊंगी।’

‘दिखाना।’

‘देखकर वे हँसेंगी।’

‘खूब हँसेंगी ।’

‘फिर मैं रूठ जाऊंगी।’

‘नहीं, नहीं, रानी बिटिया नहीं रूठा करतीं।’

‘तो वह मुझे छोड़कर चली क्यों गई ?’.

मास्टरजी ने टप से एक बूंद आँसू गिराया, और पुत्री की दृष्टि बचाकर दूसरा पोंछ डाला। तभी बाहर द्वार के पास किसी के धम्म से गिरने की आवाज आई।

मास्टरजी ने चौंककर देखा, गुनगुनाकर कहा – ‘क्या गिरा? क्या हुआ ?’

वे उठकर बाहर गए, सड़क पर दूर खंभे पर टिमटिमाती लालटेन के प्रकाश में देखा, कोई काली-काली चीज द्वार के पास पड़ी है। पास जाकर देखा, कोई स्त्री है। निकट से देखा, बेहोश है। मुँह पर लालटेन का प्रकाश डाला, मालूम हुआ माया है।

मास्टर साहब एकदम व्यस्त हो उठे। उन्होंने सहायता के लिए इधर-उधर देखा, कोई न था, सन्नाटा था। उन्होंने दोनों बांहों में माया को उठाया और घर के भीतर ले आए। उसे चारपाई पर लिटा दिया।

बालिका ने भय-मिश्रित दृष्टि से मूच्छिता माता को देखा, कुछ समझ न सकी। उसने पिता की तरफ देखा।

‘तेरी अम्मा आ गई बिटिया, बीमार है यह।’ फिर माया की नाक पर हाथ रखकर देखा, और कहा – ‘उस कोने में दूध रखा है, ला तो ज़रा।‘

दूध के दो-चार चम्मच कण्ठ में उतरने पर माया ने आँखें खोलीं। एक बार उसने आँखें फाड़कर घर को देखा, पति को देखा, पुत्री को देखा, और वह चीख मारकर फिर बेहोश हो गई।

मास्टरजी ने नब्ज देखी, कंबल उसके ऊपर डाला । ध्यान से देखा, शरीर सूखकर कांटा हो गया है, चेहरे पर लाल-काले बड़े-बड़े दाग हैं, आँखें गढ़े में धंस गई हैं। आधे बाल सफेद हो गए हैं। पैर कीचड़ और गंदगी में लथपथ और वे दोनों हाथों से माथा पकड़कर बैठ गये।

प्रभा ने भयभीत होकर कहा – ‘क्या हुआ बाबूजी ?’

‘कुछ नहीं बिटिया !’ उन्होंने एक गहरी सांस ली। माया को अच्छी तरह कंबल ओढ़ा दिया।

इसी बीच माया ने फिर आँखें खोली। होश में आते ही वह उठने लगी। मास्टरजी ने बाधा देकर कहा – ‘उठो मत, प्रभा की माँ, बहुत कमजोर हो । क्या थोड़ा दूध दूं?’

माया जोर-जोर से रोने लगी। रोते-रोते हिचकियाँ बंध गईं।

मास्टरजी ने घबराकर कहा – ‘यह क्या नादानी है, सब ठीक हो जायेगा। सब ठीक…।’

‘पर मैं जाऊंगी, ठहर नहीं सकती।’

‘भला यह भी कोई बात है, तुम्हारी हालत क्या है, यह तो देखो।’

माया ने दोनों हाथों से मुँह ढक लिया। उसने कहा – ‘तुम क्या मेरा एक उपकार कर दोगे ! थोड़ा ज़हर मुझे दे दोगे ! मैं वहाँ सड़क पर जाकर खा लूंगी।’

‘यह क्या बात करती हो प्रभा की माँ! हौसला रखो, सब ठीक हो जायेगा।‘

‘हाय मैं कैसे कहूं?’

‘आखिर बात क्या है?’

‘यह पापिन एक बच्चे की माँ होने वाली है, तुम नहीं जानते।’

‘जान गया प्रभा की माँ, पर घबराओ मत, सब ठीक हो जायेगा।’

‘हाय मेरा घर!’

‘अब इन बातों को इस समय चर्चा मत करो।’

‘तुम क्या मुझे क्षमा कर दोगे?’

‘दुनिया में सब कुछ सहना पड़ता है, सब कुछ देखना पड़ता’

‘अरे देवता, मैंने तुम्हें कभी नहीं पहचाना!’

‘कुछ बात नहीं, कुछ बात नहीं, एक नींद तुम सो लो, प्रभा की माँ।

‘आह मरी, आह पीर।’

‘अच्छा, अच्छा ! प्रभा बिटिया, तू ज़रा माँ के पास बैठ, मैं अभी आता हूँ बेटी। प्रभा की माँ, घबराना नहीं, पास ही एक दाई रहती है, दस मिनट लगेंगे। हौसला रखना।’ और वह कर्तव्यनिष्ठ मास्टर साहब, जल्दी-जल्दी घर से निकलकर, दीपावली की जलती हुई अनगिनत दीप-पंक्तियों को लगभग अनदेखा कर तेज़ी से एक अंधेरी गली की ओर दौड़ चले।

‘चरण-रज दो मालिक!’

‘वाहियात बात है, प्रभा की माँ।’

‘अरे देवता, चरण-रज दो, ओ पतितपावन, ओ अशरणशरण, ओ दीनदयाल, चरण-रज दो।’

‘तुम पागल हो, प्रभा की माँ।’

‘पागल हो जाऊंगी। तीन साल में दुनिया देख ली, दुनिया समझ डाली; पर इस अंधी ने तुम्हें न देखा, तुम्हें न समझा।’

‘यह तुम फालतू बकबक करती रहोगी, तो फिर ज्वर हो जाने का भय है। बिटिया प्रभा, अपनी माँ को थोड़ा दूध तो दे।’

‘मै भैया को देखूगी, बाबूजी।’

माया ने पुत्री को छाती से लगाकर कहा, ‘मेरी बच्ची, अपने बाप की बेटी है, इस पतिता माँ को छू दे, जिससे वह पापमुक्त हो जाये।’

‘नाहक बिटिया को परेशान मत करो, प्रभा की माँ।’

‘हाय, पर मैं तुम्हें मुँह कैसे दिखाऊंगी?’

‘प्रभा की माँ, दुनिया में सब कुछ होता है । तुमने इतना कष्ट पाया है, अब समझ गई हो। उन सब बातों को याद करने से क्या होगा? जो होना था हुआ, अब आगे की सुध लो। हाँ, अब मुझे तनखा साठ रुपये मिल रही है, प्रभा की माँ। और ट्यूशन से भी तीस-चालीस पीट लाता हूँ। और एक चीज देखो, प्रभा ने खुद पसंद करके अपनी अम्मा के लिए खरीदी थी, उस दिवाली को।‘

वे एक नवयुवक की भांति उत्साहित हो उठे, बक्स से एक रेशमी साड़ी निकाली और माया के हाथ में देकर कहा – ‘तनिक देखो तो।’

माया ने हाथ बढ़ाकर पति के चरण छुए। उसने रोते-रोते कहा – ‘मुझे साड़ी नहीं, गहना नहीं, सुख नहीं, सिर्फ तुम्हारी शुभ दृष्टि चाहिए। नारी-जीवन का तथ्य मैं समझ गई हूँ, किन्तु अपना नारीत्व खोकर। वह घर की सम्राज्ञी है, और उसे खूब सावधानी से अपने घर को चारों ओर से बंद करके अपने साम्राज्य का स्वच्छन्द उपभोग करना चाहिए, जिससे बाहर की वायु उसमें प्रविष्ट न हो, फिर वह साम्राज्य चाहे भी जैसा-लघु, तुच्छ, विपन्न, असहाय क्यों न हो।’

मास्टर साहब ने कहा – ‘प्रभा की माँ, तुम तो मुझसे भी ज्यादा पण्डिता हो गईं। कैसी-कैसी बातें सीख लीं तुमने प्रभा की माँ!’ – वे ही-ही करके हँसने लगे।

उनकी आँखों में अमल-धवल उज्ज्वल अश्रु-बिंदु झलक रहे थे।

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अन्य हिंदी उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

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