चैप्टर 2 गुनाहों का देवता : धर्मवीर का उपन्यास | Chapter 2 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 2 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 2 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

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वैसे तो यह घर, यह परिवार चन्द्र कपूर का अपना हो चुका था, जब से वह अपनी माँ से झगड़ कर प्रयाग भाग आया था पढ़ने के लिए, यहाँ आकर बी०ए० में भर्ती हुआ था और कम खर्च के ख़याल से चौक में एक कमरा लेकर रहता था, तभी से डॉक्टर शुक्ला उसके सीनियर टीचर थे और उसकी परिस्थितियों से अवगत थे। चंदर की अंग्रेजी बहुत ही अच्छी थी और डॉ० शुक्ला उससे अक्सर छोटे-छोटे लेख लिखवाकर पत्रिकाओं में भिजवाते थे। उन्होंने कई पत्रों के आर्थिक स्तंभ का काम चंदर को दिलवा दिया था और उसके बाद चंदर के लिए डॉ० शुक्ला का स्थान अपने संरक्षक और पिता से भी ज्यादा हो गया था। चंदर शरमीला लड़का था, बेहद शरमीला, कभी उसने यूनिवर्सिटी के वजीफे के लिए भी कोशिश न की थी, लेकिन जब बी०ए० में वह सारी यूनिवर्सिटी मे सर्वप्रथम आया, तब स्वयं इकनॉमिक्स विभाग ने उसे यूनिवर्सिटी के आर्थिक प्रकाशनों का वैतनिक संपादक बना दिया था। एम०ए० में भी वह सर्वप्रथम आया और उसके बाद उसने रिसर्च ले ली। उस के बाद डॉ० शुक्ला यूनिवर्सिटी से हट कर ब्यूरो में चले गये थे। अगर सच पूछा जाये, तो उसके सारे कैरियर का श्रेय डॉ० शुक्ला को था, जिन्होंने हमेशा उसकी हिम्मत बढ़ाई और उसको अपने लड़के से बढ़कर माना। अपनी सारी मदद के बावजूद डॉ० शुक्ला ने उससे इतना अपनापन बनाये रखा कि कैसे धीरे-धीरे चंदर सारी गैरियत खो बैठा, यह उसे खुद नहीं मालूम। यह बंगला, इसके कमरे, इसके लॉन, इसकी किताबें, इसके निवासी, सभी कुछ जैसे उसके अपने थे और सभी का उस से जाने कितने जन्मों का संबंध था।

और यह नन्ही दुबली-पतली रंगीन चन्द्रकिरण सी सुधा। जब आज से वर्षों पहले सातवीं पास करके अपनी बुआ के पास से यहाँ आयी, तबसे ले कर आज तक कैसे वह भी चंदर की अपनी होती गयी थी, इसे चंदर खुद नहीं जानता था। जब वह आयी थी, तब वह बहुत शरमीली थी, बहुत भोली थी, आठवीं में पढ़ने के बावजूद वह खाना खाते वक्त रोती थी, मचलती थी, तो अपनी कापी फाड़ डालती थी और जब तक डॉक्टर साहब उसे गोदी में बिठाकर नहीं मनाते थे, वह स्कूल नहीं जाती थी। तीन बरस की अवस्था में ही उसकी माँ चल बसी थी और दस साल तक वह अपनी बुआ के पास एक गाँव मे रही थी। जब तेरह वर्ष की होने पर गाँव वालों ने उसकी शादी पर जोर देना और शादी न होने पर गाँव की औरतों ने हाथ नचाना और मुँह मटकाना शुरू किया, तो डॉक्टर साहब ने उसे इलाहाबाद बुला कर आंठवीं मे भर्ती करा दिया। जब वह आयी थी, तो जंगली थी। तरकारी में घी कम होने पर वह महराजिन का चौका जूठा कर देती थी और रात में फूल न तोड़ कर लाने पर अक्सर उसने माली को दांत भी काट खाया था। चंदर से जरूर वह बेहद डरती थी, पर न जाने क्यों चंदर भी उससे नहीं बोलता था। लेकिन जब दो साल तक उसके ये उपद्रव जारी रहे ओर अक्सर डॉक्टर साहब गुस्से के मारे उसे न साथ खिलाते थे और न उससे बोलते थे, तो वह रो-रोकर और सिर पटक-पटक कर अपनी जान आधी कर देती थी। तब अक्सर चंदर ने पिता और पुत्री का समझौता कराया था, अक्सर सुधा को डांटा था, समझाया था, और सुधा, घर-भर में पुरवाई अल्हड़ और विद्रोही झोंके की तरह तोड़ फोड़ मचाती रहने वाली सुधा, चंदर के आँख के इशारे पर सुबह की नसीम की तरह शांत हो जाती थी। कब और क्यों उसने चंदर के इशारों का यह मौन अनुशासन स्वीकार कर लिया था, यह उसे खुद नहीं मालूम था, और यह सभी कुछ इतने स्वाभाविक ढंग से, इतना अपने आप होता गया कि दोनों में से कोई भी इस प्रक्रिया से वाकिफ नही था, कोई भी इस के प्रति जागरूक न था, दोनो का एक-दूसरे के प्रति अधिकार और आकर्पण इतना स्वाभाविक था, जैसे शरद की पवित्रता या सुबह की रोशनी ।

और मजा तो यह था कि चंदर की शक्ल देखकर छिप जाने वाली सुधा इतनी ठीठ हो गयी थी कि उस का सारा विद्रोह, सारी झुंझलाहट, मिजाज की सारी तेजी, सारा तीखापन और तारा लड़ाई-झगड़ा, सभी दो तरफ़ से हटकर चंदर की ओर केंदित हो गया था। वह विद्रोहिणी शांत हो गयी थी। इतनी शांत, इतनी सुशील, इतनी विनम्र, इतनी मितभाषिणी कि सभी को देख कर ताज्जुब होता था, लेकिन चंदर को देख कर जैसे उसका बचपन फिर लौट आता था और जब तक वह चंदर को खिझाकर, छेड़कर लड़ नहीं लेती थी, उसे चैन नहीं पड़ता था। अक्सर दोनों में अनबोला रहता था, लेकिन जब दो दिन तक दोनों मुँह फुलाये रहते थे और डॉक्टर साहब के लौटने पर सुधा उत्साह से उनके ब्यूरो का हाल नहीं पूछती थी और खाते वक़्त दुलार नहीं दिखाती थी , तो डॉक्टर साहब फौरन पूछते थे — “क्या, चंदर से लड़ाई हो गयी क्या ?” फिर वह मुँह फुलाकर शिकायत करती थी और शिकायतें भी क्या-क्या होती थीं, चंदर ने उस की हेड मिस्ट्रेस का नाम एलीफैण्टा (श्रीमती हथिनी) रखा है, या चंदर  ने उस को डिबेट के भाषण के पॉइंट नहीं बताये, या चंदर कहता है कि सुधा की सखियाँ कोयला बेचती हैं, और जब डॉक्टर साहब कहते है कि वह चंदर को डांट देंगे, तो वह खुशी से फूल उठती और चंदर के आने पर आँखें नाचती हुई चिढ़ाती थी, “कहो कैसी डांट पड़ी?”

वैसे सुधा अपने घर की पुरखिन थी। किस मौसम में कौन-सी तरकारी पापा को माफिक पड़ती है, बाजार में चीजों का क्या भाव है, नौकर चोरी तो नहीं करता, पापा कितनी सोसायटियों के मेम्बर हैं, चंदर के इकनॉमिक्स के कोर्स में क्या है, यह सभी उसे मालूम था। मोटर या बिजली बिगड़ जाने पर वह थोड़ी बहुत इंजिनियरिंग भी करती थी और मातृत्व का अंश तो उसमें इतना था कि हर नौकर नौकरानी उस से अपना सुख-दुख कह देते थे। पढ़ाई के साथ-साथ घर का काम काज करते हुए उस का स्वास्थ्य भी कुछ बिगड़ गया था और अपनी उम्र के हिसाब से कुछ अधिक शांत, संयत, गंभीर और बुजुर्ग थी, मगर अपने पापा और चंदर, इन दो के सामने हमेशा उस का बचपन इठलाने लगता था। दोनों के सामने उस का हृदय उन्मुक्त था और स्नेह बाधाहीन। लेकिन, हाँ, एक बात थी। उसे जितना स्नेह और स्नेह-भरी फटकारें और स्वास्थ्य के प्रति चिंता अपने पापा से मिलती थी, वह सब बड़े नि:स्वार्थ से वह चंदर को दे डालती थी। खाने-पीने की जितनी परवाह उसके पापा उसकी रखते थे, न खाने पर या कम खाने पर उसे जितने दुलार से फटकारते थे, उतना ही ख़याल वह चंदर का रखती थी और स्वास्थ्य के लिए जो उपदेश उसे पापा से मिलते थे, उसे और भी स्नेह में भिगोकर वह चंदर को दे डालती थी। चंदर कै बजे खाना खाता है, यहाँ से जा कर घर पर कितनी देर पढ़ता है, रात को सोते वक्त दूध पीता है या नहीं, इस सबका लेखा-जोखा उसे सुधा को देना पड़ता, और जब कभी उसके खाने-पीने में कोई कमी रह जाती, तो उसे सुधा को डांट खानी ही पड़ती थी। पापा के लिए सुधा अभी बच्ची थी, और स्वास्थ्य के मामले में सुधा के लिए चंदर अभी बच्चा था। और कभी कभी तो सुधा की स्वास्थ्य-चिंता इतनी ज्यादा हो जाती थी कि चंदर बेचारा जो खुद तन्दुरुस्त था, घबरा उठता था। एक बार सुधा ने कमाल कर दिया। उसकी तबीयत खराब हुई और डॉक्टर ने उसे लड़कियों का एक टॉनिक पीने के लिए बताया। इम्तिहान में जब चंदर कुछ दुबला-सा हो गया, तो सुधा अपनी बची हुई दवा ले आयी और लगी चंदर से जिद्द करने कि “पियो इसे!” जब चंदर ने किसी अखवार में उसका विज्ञापन दिखाकर बताया कि वह लड़कियों के लिए है, तो कही जाकर उस की जान बची।

इसीलिए जब आज सुधा ने चाय के लिए कहा तो उसकी रूह कांप गयी क्योंकि जब कभी सुधा चाय बनाती थी, तो प्याले के मुँह तक दूध भर कर उसमें दो-तीन चम्मच चाय का पानी डाल देती थी और अगर उसने ज्यादा स्ट्रॉन्ग चाय की मांग की, तो उसे खालिस दूध पीना पड़ता था और चाय के साथ फल और मेवा और खुदा जाने क्या-क्या और उसके बाद सुधा का इसरार, न खाने पर सुधा का गुस्सा और उसके बाद की लंबी-चौड़ी मनुहार, इस सब से चंदर बहुत घबराता था।

लेकिन जब सुधा उसे स्टडी रूम में बिठाकर जल्दी से चाय बना लायी, तो उसे मजबूर होना पड़ा, और बैठे-बैठे निहायत बेबसी से उसने देखा कि सुधा ने प्याले में दूध डाला और उसके बाद थोड़ी-सी चाय डाल दी। उसके बाद अपने प्याले में चाय डाल कर और दो चम्मच दूध डाल कर आप ठाठ से पीने लगी, और बेतकल्लुफी से दूधिया चाय का प्याला चंदर के सामने खिसका कर बोली – “पीजिए, नाश्ता आ रहा है।”

चंदर ने प्याले को अपने सामने रखा और उसे चारो तरफ़ घुमा कर देखता रहा कि किस तरफ़ से उसे चाय का अंश मिल सकता है। जब सभी ओर प्याले में क्षीरसागर नजर आया, तो उस ने हार कर प्याला रख दिया।

“क्यों, पीते क्यों नहीं?” सुधा ने अपना प्याला रख दिया ।

“पियें क्या? कहीं चाय भी हो ?”

“तो और क्या खालिस चाय पीजियेएगा? दिमागी काम करने वालो को ऐसी ही चाय पीनी चाहिए।”

“तो अब मुझे सोचना पड़ेगा कि मैं चाय छोडूं या रिसर्च। न ऐसी चाय मुझे पसंद, न ऐसा दिमागी काम।”

“लो आपको विश्वास नहीं होता। मेरी क्लासफेलो है गेसू काज़मी, सबसे तेज लड़की है, उसकी अम्मी उसे दूध में चाय उबाल कर देती है।”

“क्या नाम है तुम्हारी सखी का?”

“गेसू काज़मी”

“बड़ा अच्छा नाम है।”

“और क्या मेरी सबसे घनिष्ठ मित्र है और उतनी ही अच्छी है, जितना अच्छा नाम “

“जरूर जरूर” मुँह बिचकाते हुए चंदर ने कहा – “और उतनी काली होगी, जितने काले गेसू।”

“धत शरम नहीं आती, किसी लड़की के लिए ऐसा कहते हुए।”

“और हमारे दोस्तों की बुराई करती हो तब?”

“तब क्या! वे तो सब है ही बुरे। अच्छा लो नाश्ता, पहले फल खाओ।” और वह प्याले में छील-छील कर संतरा रखने लगी। इतने में ज्यों ही वह झुककर एक गिरे हुए संतरे को नीचे से उठाने लगी कि चंदर ने झट से उसका प्याला अपने सामने रख लिया और अपना प्याला उधर रख दिया और शांत चित्त से पीने लगा। संतरे  की फांक उसकी ओर बढ़ते हुए ज्यो ही उसने एक घूंट चाय ली, तो वह चौंककर बोली – “अरे, यह क्या हुआ।”

“कुछ नहीं, हमने उसमें दूध और डाल दिया। तुम्हें दिमागी काम बहुत रहता है!” चंदर  ने ठाठ से चाय घूंट लेते हुए कहा। सुधा कुढ़ गयी। कुछ बोली नहीं। चाय खत्म करके चंदर ने घड़ी देखी।

“अच्छा लाओ क्या टाइप कराना है? अब बहुत देर हो रही है।”

“बस यहाँ तो एक मिनिट बैठना बुरा लगता है आपको! हम कहते हैं कि नाश्ते और खाने के वक़्त आदमी को जल्दी नहीं करना चाहिए। बैठिए न!”

“अरे, तो तुम्हें कॉलेज की तैयारी नहीं करनी है।”

“करनी क्यों नहीं है? आज तो गेसू को मोटर पर लेते हुए तक जाना है।”

“तुम्हारी गेसू और कभी मोटर पर चढ़ी है?”

“जी, वह साबिर हुसैन काज़मी की लड़की है, उसके यहाँ दो मोटरें हैं, और रोज तो उसके यहाँ दावतें होती रहती हैं।”

“अच्छा, हमारी तो दावत कभी नहीं की।”

“नहीं, गेसू के यहाँ दावत खायेंगे। इसी मुँह से। जनाब उसकी शादी भी तय हो गयी है, अगले जाड़ों तक शायद हो भी जाये।”

“कितनी खराब लड़की हो। वहीं रहता ध्यान तुम्हारा?”

सुधा ने मजाक़ में पराजित कर बहुत विजय भरी मुस्कान से उसकी ओर देखा। चंदर ने झेंपकर निगाह नीची कर ली, तो सुधा आकर चंदर का कंधा पकड़कर बोली – “अरे उदास हो गये, नहीं भइया, तुम्हारा भी ब्याह तय करायेंगे, घबराते क्यों हो!” और एक मोटी-सी इकोनॉमिक्स की किताब उठा कर बोली – “लो इस मुटकी से ब्याह करोगे! लो बातचीत कर लो, तब तक, मैं वह निबंध ले आऊं, टाइप कराने वाला।”

चंदर ने खिसिया कर बड़ी जोर से सुधा का हाथ दबा दिया।

“हाय रे!” सुधा ने हाथ छुड़ाकर मुँह बनाते हुए कहा – “लो बाबा, हम जा रहे हैं, काहे बिगड़ रहे आप?” और वह चली गयी। डॉक्टर साहब का लिखा हुआ निबंध उठा लायी और बोली – “लो यह निबंध की पाण्डुलिपि है।” उसके बाद चंदर की ओर बड़े दुलार से देखती हुई बोली – “शाम को आओगे!”

“न!”

“अच्छा हम परेशान नहीं करेंगे। तुम चुपचाप पढ़ना। जब रात को पापा आ जायें, तो उन्हें निबंध की प्रतिलिपि दे कर चले जाना!”

 “नहीं, आज शाम को मेरी दावत है ठाकुर साहब के यहाँ।”

“तो उस के बाद आ जाना। और देखो अब फ़रवरी आ गयी है, मास्टर ढूंढ दो हमें।”

“नहीं, ये सब झूठी बात है। हम कल सुबह आयेंगे।”

“अच्छा तो सुबह जल्दी आना और देखो मास्टर लाना मत भूलना। ड्राइवर तुम्हें मुखर्जी रोड पहुँचा देगा।”

वह कार में बैठ गया और कार स्टार्ट हो गयी कि फिर सुधा ने पुकारा। वह फिर उतरा। सुधा बोली- “लो यह लिफ़ाफा तो भूल ही गये थे। यह पापा ने लिख दिया है। उसे दे देना।”

“अच्छा।” कहकर फिर चंदर चला कि फिर सुधा  ने पुकारा, “सुनो।”

“एक बार में क्यों नहीं कह देती सब।” चंदर ने झल्ला कर कहा। “अरे बड़ी गंभीर गंभीर बात है। देखो वहाँ कुछ ऐसी-वैसी बात मत कहना लड़की से, वरना उसके यहाँ दो बड़े-बड़े बुलडॉग हैं।” कहकर उसने गाल फुलाकर, आँख फैलाकर ऐसी बुलडॉग की भंगिमा बनायी कि चंदर हँस पड़ा। सुधा भी हँस पड़ी। ऐसी थी सुधा, और ऐसा था चंदर।

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