चैप्टर 1 गुनाहों का देवता : धर्मवीर का उपन्यास | Chapter 1 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 1 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 1 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

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अगर पुराने जमाने को नगर देवता की और ग्राम-देवता की कल्पनायें आज भी मान्य होती, तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगर-देवता ज़रूर कोई रोमांटिक कलाकार है। ऐसा लगता है कि इस शहर की बनावट, गठन, ज़िन्दगी और रहन-सहन में कोई बंधे-बंधाये नियम नहीं, कहीं कोई कसाव नहीं, हर जगह एक स्वच्छन्द खुलाव, एक बिखरी हुई-सी अनियमितता। बनारस की गलियों से भी पतली गलियाँ, और लखनऊ की सड़कों से भी चौड़ी सड़कें। यार्कशायर और ब्राइटन के उपनगरों का वर्णन करने वाली सिविल लाइन्स और दलदलों की गंदगी को मात करने वाले मुहल्ले। मौसम में भी कही कोई सम नही, कोई संतुलन नहीं। सुबह मलयजी, दोपहर अंगारा, तो शामें रेशमी! धरती ऐसी कि सहारा के रेगिस्तान की तरह बालू भी मिले, मालवा की तरह हरे भरे खेत भी मिलें और ऊसर और परती को भी कमी नहीं। सचमुच लगता है कि प्रयाग का नगर-देवता स्वर्ग कुंजों से निर्वासित कोई मनमौजी कलाकार है, जिसके सृजन में हर रंग के डोरे हैं।

और चाहे जो हो, मगर इधर क्वार, कार्तिक तथा उधर वसंत के बाद और होली के बीच के मौसम से इलाहाबाद का वातावरण नैस्टर्शियम और पैंजी के फूलो से भी ज्यादा खूबसूरत और नाम के बौरों की खुशबू से भी ज्यादा महकदार होता है। सिविल लाइन्स हो या अल्फ्रेड पार्क, गंगातट हो या खुशरू बाग, लगता है कि हवा एक नटखट दोशीजा को तरह कलियों के आँचल मोर लहरों के मिजाज से छेड़खानी करती चलती है ।

और अगर आप सर्दी से बहुत नहीं डरते, तो जरा एक ओवरकोट डाल कर सुबह-सुबह घूमने निकल जाये, तो इन खुली हुई जगहों की फिजा इठलाकर आप को अपने जादू में बांध लेगी। खासतौर से पौ फटने के पहले तो आपको एक बिलकुल नयी अनुभूति होगी। वसंत के नये-नये मौसमी फूलो के रंग से मुकाबला करने वाली हल्की सुनहली, वाल-सूर्य की अँगुलियाँ सुबह की राजकुमारी के गुलाबी वक्ष पर बिखरे हुए भौंराले गेसुओं को धीरे-धीरे हटाती जाती हैं और क्षितिज पर सुनहली तरुनाई बिखर पड़ती है।

एक ऐसी ही खुशनुमा सुबह थी, और जिस की कहानी में कहने जा रहा हूँ, वह सुबह से भी ज्यादा मासूम युवक, प्रभाती गाकर फूलों को जगाने वाले देवदूत की तरह अल्फ्रेड पार्क के लॉन पर फूलों की सरजमी के किनारे-किनारे घूम रहा था। कत्थई स्वीटपी के रंग का पश्मीने का लंबा कोट, जिस का एक कॉलर उठा हुआ था और दूसरे कॉलर में सरो की एक पत्ती बटन होल में लगी हुई थी, सफेद मकरान जीन का पतला पेण्ट और पैरों मे सफेद जरी की पेशावरी सेण्डिलें, भरा हुआ गोरा चेहरा और ऊँचे चमकते हुए माथे पर झूलती हुई एक सी भूरी लट। चलते-चलते उस ने एक रंग-बिरंगा गुच्छा इकट्ठा कर लिया था और रह-रह कर वह उसे सूंघ लेता था।

पूरव के आसमान की गुलाबी पंखुड़ियाँ बिखरने लगी थी और सुनहले पराग की एक बौछार सुबह के ताजे फूलों पर बिछ रही थी।

“अरे सुबह हो गयी।” उस ने चौंककर कहा और पास की एक बेंच पर बैठ गया। सामने से एक माली आ रहा था।

“क्यों जी, लाइब्रेरी खुल यी ?”

 “अभी नहीं बाबूजी।” उस ने जवाब दिया।

 वह फिर संतोष से बैठ गया और फूलों कि पंखुड़ियाँ नोंच कर नीचे फेंकने लगा। जमीन पर बिछाने वाली सोने की चादर परतों पर परतें बिछाती जा रही थी और पेड़ो की छायाओं का रंग गहराने लगा था। उस की छांव के नीचे वो चुनी हुई पत्तियाँ बिखरी थी और उसने पूछ बाकी रह गया था। हल्के फालसई रंग के उस फूल पर गहरे वैजनी डोरे थे।

“हलो कपूर!” सहसा किसी ने पीछे से कंधे पर हाथ रख कर कहा – “यहाँ क्या झक मार रहे हो सुबह-सुबह।”

उस ने मुड़कर पीछे देखा – “आओ ठाकुर साहब आओ बैठो।”

“यार, लाइब्रेरी खुलने का इंतजार कर रहा हूँ।”

“यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी चाट डाली, अब इसे तो शरीफ़ लोगो के लिए छोड़ दो|”

“हाँ, हाँ शरीफ़ लोगो ही के लिए छोड़ रहा हूँ, डॉक्टर शुक्ला की लड़की है न, वह इस की मेम्बर बनना चाहती थी, तो मुझे आना पड़ा, उसी का इंतज़ार भी कर रहा हूँ।”

“डॉक्टर शुक्ला जो पॉलिटिक्स डिपार्टमेण्ट में हैं।”

“नहीं, गवर्नमेण्ट साइकोलॉजिकल ब्यूरो में।”

“और तुम पॉलिटिक्स में रिसर्च कर रहे हो।”

“नहीं, इकनॉमिक्स में ।”

“बहुत अच्छे! तो उनकी लड़की को सदस्य बनवाने आये हो?” कुछ अजब स्वर में ठाकुर ने कहा।

“छि! ” कपूर ने कुछ हँसते हुए कुछ अपने को बचाते हुए कहा “यार, तुम जानते हो कि मेरा उन से कितना घरेलू संबंध है। जब से में प्रयाग में हूँ, उन्हीं के सहारे हूँ और फिर आजकल तो उन्ही के यहाँ पढ़ता लिखता भी हूँ।”

ठाकुर साहब हँस पड़े – “अरे भाई, में डॉक्टर शुक्ला को जानता नहीं क्या? उनका सा भला आदमी मिलना मुश्किल है। तुम सफाई व्यर्थ मे दे रहे हो।”

ठाकुर साहब युनिवर्सिटी के उन विद्यार्थियों में से थे, जो होनहार विद्यार्थी होते हैं और कब तक वे यूनिवर्सिटी को सुशोभित करते रहेंगे, इसका कोई निश्चय नहीं। एक अच्छे खासे रुपये वाले व्यक्ति थे और घर के ताल्लुकेदार। हँसमुख, फब्तियाँ कसने में मजा लेने वाले, मगर दिल के साफ निगाह के सच्चे। बोले, “एक बात तो मैं स्वीकार करता हूँ कि तुम्हारी पढ़ाई का सारा श्रेय डॉ० शुक्ला को है! तुम्हारे घर वाले तो कुछ खर्चा भेजते नहीं?”

“नहीं, उन से अलग ही हो कर आया था। समझ लो इन्होंने किसी-न-किसी बहाने मदद की है।”

“अच्छा आओ तब तक लोटस-पौंड (कमल-सरोवर) तक ही घूम लें। फिर लाइब्रेरी भी खुल जायेगी !”

दोनो उठकर एक कृत्रिम कमल सरोवर की ओर चल दिये, जो पास ही में बना हुआ था। सीढ़ियाँ चढ़ कर ही उन्होंने देखा कि एक सज्जन में किनारे बैठे कमलों की ओर एकटक देखते हुए ध्यान में तल्लीन है। दुबले-पतले छिपकली-से, बालों की एक लट माथे पर झूलती हुई –

“कोई प्रेमी हैं, या कोई फिलासफ़र हैं, देखा ठाकुर?”

“नहीं यार, दोनो से निकृष्ट कोटि के जीव है – ये कवि हैं। मैं इन्हें जानता हूँ। ये रवीन्द्र बिसारिया हैं। एम०ए० पढ़ते हैं। आओ मिलाये तुम्हें।”

ठाकुर साहब ने एक बड़ा-सा घास का तिनका तोड़कर पीछे से चुपके से जा कर उस की गरदन गुदगुदायी। बिसरिया चौंक उठा। पीछे मुड़कर देखा और बिगड़ गया — “यह क्या बदतमीजी है ठाकुर साहब! मैं कितने गंभीर विचारों में डूबा था।” और सहसा बड़े विचित्र तौर पर आँख बंद कर बिसरिया बोला – “आह! वैसा मनोरम प्रभात है। मेरी आत्मा में एक घोर अनुभूति हो रही थी।”

कपूर बिसरिया की मुद्रा पर ठाकुर साहब की ओर देख कर मुस्कुराया और इशारे में बोला – “है यार शगल की चीज। छेड़ो ज़रा” ठाकुर साहब ने तिनका फेंक दिया और बोले – “माफ करना बिसरिया। बात यह है कि हम लोग कवि तो हैं नहीं, इसलिए समझ नहीं पाये। क्या सोच रहे थे तुम?”

बिसरिया ने आँख खोली और एक गहरी सांस लेकर बोला “मैं सोच रहा था कि आखिर प्रेम क्या होता है? कविता क्यों लिखी जाती है? फिर कविता के संग्रह उतने क्यों नहीं बिकते, जितने उपन्यास या कहानी संग्रह।”

“बात तो गंभीर है।” कपूर बोला – “जहाँ तक मैंने समझा और पढ़ा है – प्रेम एक तरह की बीमारी होती है, मानसिक बीमारी, जो मौसम बदलने के दिनो में होती है, मसलन क्वार-कातिक या फागुन चैत। उसका संबंध रीढ़ की हड्डी से होता है और कविता एक तरह का सन्निपात होता है। मेरा मतलब आप समझ रहे है मि० सिवरिया।”

“सिवरिया नहीं बिसरिया?”” ठाकुर साहब ने टोका। बिसरिया ने कुछ उलझन, कुछ परेशानी और कुछ गुस्से से उनकी ओर देखा और बोला – “क्षमा कीजियेगा, आप या तो फ्रायडवादी है, या प्रगतिवादी और आपके विचार सर्वदा विदेशी हैं। मैं इस तरह के विचारों से घृणा करता हूँ।”

कपूर कुछ जवाब ही देने वाला था कि ठाकुर साहब बोले – “अरे भाई, बेकार उलझ गये तुम लोग, पहले परिचय तो कर लो आपस में। ये है श्री चन्द्रकुमार कपूर, विश्वविद्यालय में रिसर्च कर रहे हैं और आप है श्री रवीन्द्र बिसरिया, इस वर्ष एम०ए० में बैठ रहे है। बहुत सुंदर कवि हैं।”

कपूर ने हाथ मिलाया और फिर गंभीरता से बोला – “क्यों साहब, आपको दुनिया में और कोई काम नहीं रहा, जो आप कविता करते है?”

बिसारिया ठाकुर साहब की ओर देखा और बोला – “ठाकुर साहब, यह मेरा अपमान है। इस तरह के सवालों का आदी नही हूँ।” और उठ खड़ा हुआ। “अरे बैठो बैठो” ठाकुर साहब ने हाथ खींच कर बिठा लिया – “देखो, कपूर का मतलब तुम समझे नहीं। उस का यह कहना है कि तुम में इतनी प्रतिभा है कि लोग तुम्हारी प्रतिभा का आदर नहीं करना जानते। इसलिए उन्होंने सहानुभूति में तुम से कहा कि तुम और कोई काम क्यों नहीं करते। वरना कपूर साहब तुम्हारी कविता के बहुत शौकीन हैं। मुझ से बराबर तारीफ करते हैं।”

बिसरिया पिघल गया और बोला- “क्षमा कीजिएगा। मैंने गलत समझा, अब मेरा कविता संग्रह छप रहा है, मैं आप को अवश्य भेंट करूंगा।” और फिर बिसरिया ठाकुर साहब की ओर मुड़कर बोला, “अब लोग मेरी इतनी मांग करते है कि मैं तो परेशान हो गया हूँ। अभी कल त्रिवेणी के संपादक मिले। कहने लगे अपना चित्र दे दो। मैंने कहा कि कोई चित्र नहीं है, तो पीछे पड़ गये। आखिरकार मैंने आइडेण्टिटी कार्ड उठाकर दे दिया।”

“वाह” कपूर बोला – “मान गये आपको हम! तो आप राष्ट्रीय कवितायें करते हैं या प्रेम की। “

“जब जैसा अवसर हो!” ठाकुर साहब ने जड़ दिया – “वह तो यह वार-फण्ट का कवि सम्मेलन, शराब बंदी कॉन्फ्रेंस का कवि सम्मेलन, शादी ब्याह का कवि सम्मेलन, साहित्य सम्मेलन का कवि-सम्मेलन सभी जगह बुलाये जाते हैं। बड़ा यश है इनका। “

बिसरिया ने प्रेम से मुग्ध हो कर देखा, मगर फिर एक-सा भाव मुँह पर ला कर गंभीर हो गया। कपूर थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला – “तो कुछ हो जाये।”

“अभी तो मूड नही है।” बिसरिया बोला। ठाकुर साहब बिसरिया को पिछले पाँच साल से जानते थे, इस तरह जानते थे कि बिसरिया समय और पैसे लेकर कविता सुनाता है। वह बोले –  “ऐसे नहीं कपूर, आज शाम को आओ। जरा गंगाजी चले, कुछ बोटिंग रहे, कुछ खाना-पीना रहे, तब कविता भी सुनना।” कपूर को बोटिंग का बेहद शौक था। फ़ौरन राजी हो गया और शाम का विस्तृत कार्यक्रम बन गया | इतने में एक कार उधर से लाइब्रेरी की ओर गुजरी। कपूर ने देखा और बोला – “अच्छा ठाकुर साहब, मुझे तो इज़ाज़त दीजिये। अब चलूं लाइब्रेरी में, वो लोग आ गये। आप कहाँ चल रहे हैं?”

“मैं ज़रा जिमखाने को ओर जा रहा हूँ। अच्छा भाई तो शाम को पक्की रही।”

“बिलकुल पक्की।” कपूर बोला और चल दिया। लाइब्रेरी के पोर्टिको में कार रुकी थी और उसके अंदर ही डॉक्टर साहब की लड़की बैठी थी।

“क्यों सुधा, अंदर क्यों बैठी हो?”

“तुम्हें ही देख रही थी चंदर।” और वह उतर आयी। दुबली-पतली, नाटी-सी साधारण सी लड़की, बहुत सुंदर नहीं, केवल सुंदर, लेकिन बातचीत में बहुत दुलारी।

“चलो, अंदर चलो।” चंदर ने कहा।

वह आगे बढ़ी, फिर ठिठक गयी और बोली – “चंदर एक आदमी को चार किताबें मिलती हैं?”

“हाँ, तो?”

“तो!” उस ने बड़े भोलेपन से मुस्कुराते हुए कहा, “तुम अपने नाम से मेंबर बन जाओ और दो किताबें हमें दे दिया करना बस, ज्यादा का हम क्या करेंगे ?”

“नहीं!” चंदर हँसा – ” तुम्हारा तो दिमाग खराब है। ख़ुद क्यों नहीं बनती मेंबर?”

“नहीं, हमें शरम लगती है, तुम बन जाओ मेंबर हमारी जगह पर।“

“पगली कहीं की!” चंदर ने उस का कंधा पकड़ कर आगे ले चलते हुए कहा – “वाह रे शरम! अभी कल ब्याह होगा, तो कहना, हमारी जगह तुम बैठ जाओ चंदर! कॉलेज में पहुँच गयी लड़की, अभी शरम नहीं छूटी इस लड़की की। चल अंदर!”

और वह हिचकती, ठिठकती, झेंपती और चंदर की ओर रूठी हुई निगाहों से देखती हुई अंदर चली।

थोड़ी देर बाद सुधा चार किताबें लादे हुए निकली। कपूर ने कहा – “लाओ मैं ले लूं !” तो बाँस की पतली टहनी की तरह लहरा कर बोली — “सदस्य मैं हूँ। तुम्हें क्यों दूं किताबें?” और जाकर कार के अंदर किताबें पटक दी | फिर बोली – “आओ बैठो चंदर।”

“मैं अब घर जाऊंगा।”

“ऊंह हूं, यह देखो!” और उस ने भीतर से कागजों का एक बंडल निकाला और बोली – “देखो यह पापा ने तुम्हारे लिए दिया है। लखनऊ में कॉन्फ्रेन्स है न। वहीं पढ़ने के लिए यह निबंध लिखा है उन्होंने, शाम तक यह टाइप हो जाना चाहिए। जहाँ सख्यायें हैं, वहाँ खुद आप को बैठ कर बोलना होगा। और पापा सुबह से ही कहीं गये हैं। समझे जनाब!” उसने बिलकुल अल्हड़ बच्चों की तरह गरदन हिला कर शोख स्वरों में कहा।

कपूर ने बंडल ले लिया और कुछ सोचता हुआ बोला – “लेकिन डॉक्टर साहब का हस्तलेख, इतने पृष्ट, शाम तक कौन टाइप कर देगा?”

“इसका का भी इंतजाम है।” और एक पर्ची निकाल कर चंदर के हाथ में देती हुई बोली- “यह कोई पापा की पुरानी ईसाई छात्रा है। टायपिस्ट के घर में तुम्हें पहुँचाये देती हूँ | मुखर्जी रोड पर रहती है, यह उसी के यहाँ टाइप कर लेना और यह खत उसे दे देना । “

“लेकिन अभी मैंने चाय नहीं पी “

“समझ गये, जब तुम सोच रहे होगे कि इसी बहाने सुधा तुम्हें चाय भी पिला देगी। सो मेरा काम नहीं है, जो में चाय पिलाऊं। पापा का काम है यह! चलो आओ।”

चंदर जाकर भीतर बैठ गया और किताबें उठा कर देखने लगा “अरे चारों कविता की किताबें उठा लाई, समझ में आायेंगी तुम्हारे सुधा?”

“नहीं!” चिढ़ते हुए सुधा बोली- “तुम कहो तुम्हें समझा दें। इकनॉमिक्स पढ़ने वाले क्या जानें साहित्य?”

“अरे मुखर्जी रोड ले चलो ड्राइवर।” चंदर बोला- “इधर कहाँ चल रहे हो।”

“नहीं पहले घर चलो!”

सुधा बोली – “चाय पी लो तब जाना!”

“नहीं, मैं चाय नही पिऊंगा।” चंदर बोला।”

“चाय नहीं पीऊंगा! वाह! वाह!” सुधा की हँसी में दुधिया बचपन छलक उठा – “मुँह तो सूख कर गोभी हो रहा है, चाय नहीं पियेंगे।”

बंगला आया, तो सुधा ने महराजिन से चाय बनाने के लिए कहा और चंदर को स्टडी रूम में बिठा कर प्याले निकालने के लिए चल दी।

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