Chapter 6 Nakli Naak Ibne Safi Novel
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लेफ्टिनेंट बाकिर
दूसरे रोज़ चाय पर बातें करते हुए फ़रीदी ने कहा, “हमीद मियां! मैंने ज़िन्दगी में कभी हार नहीं मानी…मगर मैं मानता हूँ कि मैं उसके सामने स्कूल का बच्चा हूँ… ग़ज़ब का दिमाग है ज़ालिम का।”
कहते-कहते फ़रीदी ठहर गया। हमीद जानने के लिए बेताब था, उसने मुँह खोला ही था कि फ़रीदी ने इशारे से रोक दिया और कहना शुरू किया।
“मुझे पूरा यक़ीन था कि शाकिर के केस में ज़ाबिर का हाथ है। उस रोज़ सुबह की डाक से मुझे खबर मिली थी कि बंबई के मशहूर व्यापारी सेठ गुन्नूमल छेदी लाल के यहाँ डाके का नोटिस मिल चुका था। इधर नवाबज़ादा शाकिर की जायदाद के एक वारिस और खड़े हो चुके थे। वे भी उस गाड़ी से बंबई जा रहे थे। ज़ाबिर की यह तरकीब मेरी समझ में आ गई। मैंने बंबई पुलिस को तार कर दिया था कि वे लोग स्टेशन पर मौजूद रहें और मेरे साथ जिसे देखें, गिरफ्तार कर लें या रास्ते ही में कहीं उसे धर लें। सिर्फ इसलिए कि मेरे काम में रुकावट हो और कुंवर साहब मेरे दुश्मन हो जायें, उसने मेरा भेस भरा…दूसरी तरफ उसे यकीन हो गया था कि मैं ज़रूर उसका पीछा करूंगा। मोटर का रास्ता रोकने के लिए उसने टाइम स्विच बम लगाए और रास्ते में रस्सियाँ बांधकर देर करा दी…और जब उसमें नाकाम रहा तो इत्तेफ़ाक़ से हमें कुंवर साहब की नज़र में गिरा दिया। इस तरह रास्ते में रोड़े अटकाता वह लेफ्टिनेंट बाकिर के डिब्बे में बैठने में कामयाब हुआ। आज का अखबार देखो “सेठ गुन्नूमल छेदी लाल बुरी तरह लुट गए…और लेफ्टिनेंट बाकिर और उनके लड़के ज़ाकिर पर जानलेवा हमला किया गया…वे बच तो गए, मगर उनकी तमाम कीमती दस्तावेज और नगदी लूट की गई।‘
“तो फिर आप वापस क्यों लौट आये?’ हमीद ने बेताबी से पूछा।
“यह मेरी हार और ज़ाबिर की जीत की कहानी है। मैं जिस डिब्बे में घुसा था, उसने बिल्कुल अंधेरा था… मैंने टॉर्च जलाकर पूरे डिब्बे में देखा। डिब्बा खाली था… मैं उसी डिब्बे में लेटा रहा। पता नहीं कब मेरी आँख लग गई…और जब मेरी आँख खुली, तो मैं ब्रांच लाइन के छोटे से स्टेशन पर था….जिया डिब्बा जिसमें मैं था, अगले जंक्शन पर काट दिया गया था।
“मैंने देखा, दुश्मन काम कर चुका है। सिवाय लौटने के कोई चारा नहीं था। रामगढ़ स्टेशन मास्टर को मैंने तुम्हारे बारे में खबर दे दी थी…तुम्हें वहाँ से ट्रांककॉल किया गया…मैं आया और आगे तो तुम जानते ही हो…मगर तुम्हारी बीवी क्या हुई?” फ़रीद ने एक जोरदार कहकहा लगाया…और हमीद ने झेंप मिटाते हुए कहा, “वह शाकिर वाली लाइब्रेरी वाली किताब में क्या था…उसके बारे में आपने कुछ नहीं बताया।”
फ़रीदी का चेहरा अचानक संजीदा हो गया…उसने ठहर कर कहा, “वह मेरे तरकश का आखिरी तीर होगा।”
इसमें में नौकर ने मेज़ पर विजिटिंग कार्ड लाकर रखा।
“लेफ्टिनेंट बाकिर आये हैं.”
“बुला लो…!” हमीद ने कहा।
औसत उम्र का आदमी…बायें गाल पर छोटा सा तिल, छोटी धंसी हुई आँखें, लंबा चेहरा और लाल नाक। यह थे लेफ्टिनेंट बकिर…उनके साथ पच्चीस-छब्बीस साल का एक नौजवान और था, जिसका परिचय लेफ्टिनेंट साहब ने ‘मेरा लड़का ग्रेजुएट है, इम्तिहान तैयारी कर रहा है’ इन शब्दों में कराया। ज़ाकिर दुबला-पतला भूरा रंग बड़ी बड़ी आँखें…चेहरे से मालूम होता था कि वह कम बातचीत करने का आदी है।
रस्मी परिचय के बाद लेफ्टिनेंट साहब ने कहा, “फ़रीदी साहब, मुझे आप ही बचा सकते हैं। मेरा जवान भाई मर गया!” कहते-कहते हुए वे जोर-जोर से रोने लगे। जज़्बात पर काबू पाते हुए उन्होंने कहा, “मेरी बहन सईदा लालची है। कुंवर ज़फर अली खां उसे बहका रहे हैं। मुझे जायजाद नहीं चाहिए, मगर बाप-दादा की ड्योढ़ी मैं यूं नहीं छोड़ सकता।” और फिर उनका चेहरा गुस्से से लाल हो गया। ज़ाकिर उनके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “अब्बा जान… सब्र कीजिए।” बाकिर साहब ठहर गए और रुक-रुक कर बोले, “मशहूर डाकू राहुल मेरे पीछे लगा हुआ है। उसने मुझे कहीं का ना रखा। मेरे कागजात दिलवा दीजिए उनसे…फ़रीदी साहब, ज़िन्दगी भर आपका एहसान मानूंगा।”
फ़रीदी बाकिर साहब की बात सुनता रहा। बीच में हमीद ने कई बार कोशिश की थी कि उनसे सवाल करें, मगर फ़रीदी का इशारा पाकर वह भी खामोश रहा।
फ़रीदी काफ़ी देर तक सोचता रहा। रह-रह कर उसकी आँखें चमक उठती। उसने बाकिर साहब के चेहरे पर नज़रें गाड़ दी, जैसे उनके चेहरे में कुछ तलाश कर रहा हो और एक लंबी खामोशी के बाद बोला –
“मैं आपको कुछ बता देना चाहता हूँ। वह यह कि यहाँ के मामले में मेरा कोई लेना देना नहीं। मैं सिर्फ अपने दोस्त के लिए यहाँ ठहरा हुआ हूँ। आपको जो कुछ बताया गया है, वह सच नहीं है। राहुल को मैं अच्छी तरह जानता हूँ और इसलिए फिलहाल मैं यह नहीं कह सकता कि राहुल ही आपके पीछे पड़ा हुआ है। बहरहाल, आप मुझे माफ़ कर दें।”
दुनिया देखे आदमी की तरह लेफ्टिनेंट बाकिर फ़रीदी की बातें सुनते रहे। उनके चेहरे पर मायूसी के एक लहर दौड़ गई। उन्होंने फिर कहा, “फ़रीदी साहब…मैं आपसे इंसानी हक और रिश्ते की बिना पर कह रहा हूँ…आप मेरा साथ दीजिए। खुदा आपकी मदद करेगा। मैं अपने हालात आपके सामने रख रहा हूँ। मेरी बदकिस्मती पर अगर आप को तरस आ जाये, तो इस काम में हाथ डलिए, वरना आपको अख्तियार है।”
“मेरे वालिद नवाब ज़ायर अली खान थे, उनकी पहली शादी राजा सैयदपुर की लड़की से हुई थी। शादी के तीन साल बाद मेरी माँ का इंतकाल हो गया। बारह साल तक बाप ने शादी नहीं की। लेकिन आखिरकार उन्हें शादी करनी ही पड़ी। अपनी दूसरी माँ के रवैये से तंग आकर मैं भाग निकला…मुंबई के एक कारखाने में नौकरी करके पढ़ाई की और फिर इस ओहदे तक पहुँचा। अब बाकायदा पेंशन मिल रही है। मुझे हमेशा शर्म आती थी कि बाप के इंतकाल के बाद अगर घर जाऊंगा तो शाकिर सोचेगा कि जायदाद में हिस्सा बटाने आ पहुँचे, लेकिन उनको खुद मेरा ख़याल था। मरने से एक हफ्ता पहले उनका खत मिला था, जिसमें उन्होंने मुझे बुलाया था और अब जब मैं आया हूँ, तो वे मरहूम…!” बाकिर साहब जितनी देर तक बातें करते रहे रोते रहे और आखिर जुमले पर पहुँचकर उनकी हिचकियाँ बंध गई।
हमीद बुरी तरह उनसे मुतासिर हुआ था। उनके बुढ़ापे और उनकी हालत पर उसे रहम आ रहा था। फ़रीदी यह पूरी बात लापरवाही के अंदाज़ से सुनता रहा। नवाबज़ादा शाकिर का खत देखने के बाद बहुत कुछ देर तक सोचता रहा, फिर उसने उसे बाकिर को वापस करते हुए कहा – “मगर सईदा का बयान है कि नवाबज़ादा शाकिर का कोई रिश्तेदार नहीं था।”
“हो सकता है, वह मुझे ना पहचाने, मगर उसे मालूम है कि शाकिर का एक बड़ा भाई भी था। खानदान में यह बात मशहूर कर दी गई थी कि बाकिर मर गया। इसमें शाकिर के ननिहाल वालों का हाथ था। वे सब मर गये।”
“सब..!” हमीद ने के मुँह से एकदम से निकला।
“जी हाँ! कुछ साल पहले फैली महामारी में।”
“बहरहाल…मैं वकील नहीं…लेकिन सुनने में ऐसा लगा कि आप का मुकदमा काफ़ी मजबूत है। अदालत में आप दरख्वास्त दे चुके हैं। वहाँ का फ़ैसला जज के अख्तियार में है। रहा आपकी हिफ़ाज़त का सवाल…तो मैं इतना कर सकता हूँ कि पुलिस का बेहतर इंतज़ाम करा दूं। अब अगर इज़ाज़त दें, तो बेहतर है।” फ़रीदी ने कुछ रुखाई से यह जुमला कहा। मगर लेफ्टिनेंट साहब का चेहरा वैसे ही संजीदा रहा…वे खामोशी से उठे और एक बार फिर फ़रीदी के चेहरे को गौर से देखा, फिर ठंडी सांस भरते हुए अपने लड़के से बोले, “आओ बेटा चले।”
दरवाजे पर पहुँचकर उन्होंने मुड़कर देखा और धीमी आवाज में बोले “ज़हमत का शुक्रिया और चले गये।”
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