चैप्टर 16 अदल बदल : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 16 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 16 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

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इस बातचीत के बाद डाक्टर कृष्णगोपाल ने घर आना-जाना और विमलादेवी से मिलना बंद कर दिया। अवसर पाकर मालतीदेवी ने विमलादेवी से उनके घर जाकर मुलाकात की। दोनों में इस प्रकार बातचीत प्रारंभ हुई।

मालतीदेवी ने प्रारंभिक शिष्टाचार के बाद कहा – ‘मैं आपके पास अप्रिय संदेश लाई हूँ विमलादेवी, नहीं जानती, कैसे कहूं।’

‘कुछ-कुछ तो मैं समझ ही गई हूँ। परन्तु आपको जो कहना है, वह खुलासा कह डालिए।’

‘परन्तु आपको दुःख होगा।’

‘स्त्री के सुख-दुःख से तो आप परिचित हैं ही मालतीदेवी। आप भी तो स्त्री हैं। स्त्री का सुख-दुःख स्त्री ही ठीक-ठीक जान सकती है, फिर आपको संकोच क्यों?’

‘सोचती हूँ कैसे कहूं?

‘न कहने से दुःख तो टलेगा नहीं।’

‘यह तो ठीक है।’

‘फिर आपको जो कहना है, कह दीजिए।’

‘मैं आपके पति के पास से समझौता करने आई हूँ।’

‘आप क्यों आई हैं?’

‘आपके पति के अनुरोध से।’

‘परन्तु अपने पति के साथ कोई समझौता करने के लिए पत्नी को किसी तीसरे व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। पति-पत्नी तो अपने जीवन के सुख-दुःख के साथी-साझीदार हैं। किसी बात पर यदि उनमें विवाद उठ खड़ा हुआ तो वे आपस में मिलकर ही समझौता कर सकते हैं, किसी मध्यस्थ के द्वारा नहीं।’

‘परन्तु परिस्थिति ऐसी आ पड़ी है, कि मुझे मध्यस्थ बनना ही पड़ा।’

‘किंतु मैंने तो आपको मध्यस्थ बनाया नहीं।’

‘आपके पति ने बनाया है।’

‘किंतु मैंने नहीं, जब तक हम दोनों समान भाव से आपको मध्यस्थ न बनायें, आप कैसे मध्यस्थ बन सकती हैं!’

‘तो क्या आप मुझसे बातचीत करना ही नापसंद करती हैं।’

‘जी नहीं, आपको जो कहना है कह दीजिए, मैं आपको अपने पति का संदेशवाहक समझकर आपकी बात सुनूंगी। परन्तु समझौते की यदि नौबत पहुँची, तो वह मेरे और उनके बीच प्रत्यक्ष ही होगा। किसी मध्यस्थ के द्वारा नहीं।’

‘तब संदेश ही सुन लीजिए। आपके पति ने आपको त्यागने का संकल्प कर लिया है, वे आपको तलाक दे रहे हैं।’

‘मैंने आपका संदेश सुन लिया।’

‘आपको इस संबंध में कुछ कहना है?’

‘जो कहना है उन्हीं से कहूंगी, वह भी तब, जब वे सुनना चाहेंगे, नहीं तो नहीं।’

‘किन्तु क्या आप अपने पति से लड़ेंगी?’

‘जी नहीं।’

‘आपके पति, यदि आप उनसे न लड़ें और समझौता कर लें तो वे आपको यह मकान और समुचित मासिक वृत्ति देने को तैयार हैं।’

‘मैं तो पहले ही कह चुकी हूँ कि इस संबंध में मैं आपसे कोई बात करना पसन्द नहीं करती।’

‘किन्तु बहन, मैं तो तुम्हारी भलाई के लिए यहाँ आई हूँ।’

‘इसके लिए मैं आपकी आभारी हूं।’

‘आप भली भांति जानती हैं, कि यह स्त्रियों की स्वाधीनता का युग है। आप भी इस बात से इंकार न कर सकेंगी कि जिन पति-पत्नियों में परस्पर एकता के भाव नहीं, उनका विच्छेद हो जाना ही सुखकर है।’

‘मेरे विचार कुछ दूसरे ही हैं और वे मेरी शिक्षा और संस्कृति पर आधारित हैं। मैं विश्वास करती हूं कि पति-पत्नी का सम्बन्ध उसी प्रकार अटूट है जैसे माता और पुत्र का, पिता और पुत्र का, तथा अन्य संबंधियों का। वह जो अपने पितृ-कुल को त्यागकर पति-कुल में आई है, तो इधर-उधर भटकने के लिए नहीं, न ही अपनी जीवन मर्यादा समाप्त करने के लिए। रही एकता न रहने की बात, सो पिता-पुत्र, माता-पुत्र में भी बहुधा मतभेद होता है, लड़ाइयां होती हैं, मुकदमेबाजी होती हैं, बोलचाल भी बंद रहती है, फिर भी यह नहीं होता कि वे अब माता-पिता या पुत्र-पुत्री नहीं रहे। कुछ और हो गए।’

‘परन्तु पति-पत्नी की बात जुदा है, विमलादेवी।’

‘निस्सन्देह, यह सम्बन्ध पिता-माता-पुत्र के संबंध से कहीं अधिक घनिष्ठ और गंभीर है। पुत्र, माता-पिता के अंग से उत्पन्न होकर दिन-दिन दूर होता जाता है। पहले वह माता के गर्भ में रहता है, फिर उसकी गोद में, इसके बाद घर के आंगन में, पीछे आंगन के बाहर और तब सारे विश्व में वह घूमता है। परन्तु पत्नी दूर से पति के पास आती है, वह दिन-दिन निकट होती जाती है। उनके दो शरीर जब अति निकट होते हैं तब उससे तीसरा शरीर संतान के रूप में प्रकट होता है, जो दोनों के अखंड संयोग का मूर्ति-चिह्न है। अब आप समझ सकती हैं कि पति-पत्नी विच्छेद का प्रश्न उठ ही नहीं सकता।’

‘तो आप क्या यह कहती हैं कि यदि पति-पत्नी दोनों के प्रकृति-स्वभाव न मिलें, और दोनों के जीवन भार स्वरूप हो जाये, तो भी वे परस्पर उसी हालत में रहें। क्या जीवन को सुखी बनाना उन्हें उचित नहीं है।’

‘यदि चाहे भी जिस उपाय से केवल जीवन को सुखी बनाने को ही जीवन का ध्येय मन लिया जाए तो फिर चोर, डाकू, ठग, अनीतिमूलक रीति से जो धनार्जन करते हैं, शराब पीकर और वेश्यागमन करके सुखी होना समझते हैं, उन्हे ही ठीक मान लेना चाहिए। पर मेरा विचार तो यह है कि सुख-दुःख जीवन के गौण विषय हैं। जीवन का मुख्य आधार कर्तव्य-पालन है। मनुष्य को अपने जीवन में धैर्यपूर्वक कर्तव्य-पालन करना चाहिए। कर्तव्य ही मनुष्य-जीवन की चरम मर्यादा है, इसी की राह पर चलकर बड़े- बड़े महापुरुषों ने सुख-दुःख की राह समाप्त की है, मेरा भी आदर्श वही है।’

‘परन्तु दुर्भाग्य से आपके पति के ऐसे विचार नहीं हैं।’

‘तो मैं अपनी शक्तिभर उनसे लड़ती रहूंगी। अपने मार्ग से हटूंगी नहीं।’

‘यदि वे आपको त्याग दें?’

‘पर मैं तो उन्हें त्यागूंगी नहीं–त्याग सकती भी नहीं।’

‘क्या आप अपने पति से संतुष्ट हैं? क्या आप उन्हें संतुष्ट रख सकी हैं?’

‘इसका हिसाब-किताब तो मैंने कभी रखा नहीं। परन्तु मैंने ईमानदारी से सदा अपना कर्तव्य-पालन किया है।’

‘और उन्होंने?’

‘उनकी वे जानें।’

‘आपके भी कुछ अधिकार हैं विमलादेवी।’

‘अधिकारों पर तो मैंने कभी विचार ही नहीं किया।’

‘पर अब तो करना होगा।’

‘नहीं करूंगी।’

‘पर आपके पति अपने अधिकारों की रक्षा करेंगे।’

‘मैं तो अपना कर्तव्य-पालन करती रहूंगी।’

‘कब तक?’

‘जब तक जीवित हूँ।’

‘यदि वे आपको त्याग दें?’

‘तो भी मैं उन्हें नहीं त्यागूंगी।’

‘परन्तु कानून तलाक को स्वीकार कर दे तो?’

‘तो भी नहीं।’

‘क्या आप कानून के विरुद्ध लड़ेंगी?’

‘लड़ने की मुझे आवश्यकता ही नहीं है।’

‘यदि वे अपना दूसरा विवाह करें?’

‘वे जो चाहे करें।’

‘आप और कुछ कहना चाहती हैं?’

‘नहीं।’

‘उन्होंने कुछ रुपया मेरे द्वारा आपके पास भेजा है, आप लेंगी?’

‘नहीं लूंगी।’

‘क्यों?’

‘उनका धन मेरा ही है, उसे आपके हाथ से क्यों लूंगी? हाँ, देना हो तो आपको प्रसन्न मन से दूंगी।’

‘क्षमा कीजिए, आप अव्यावहारिक हैं। मैं आपको सहायता देने के विचार से आई थी।”

‘मैं आपको धन्यवाद देती हूँ।’

‘खैर, जब कभी आपको मेरी सहायता की आवश्यकता हो, आप मुझे याद कर सकती हैं।’

‘आपकी कृपा के लिए मैं अत्यंत कृतज्ञ हूँ।’

मालतीदेवी खिन्न मन उठकर चल दीं। जलपान का अनुरोध उन्होंने नहीं माना।

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अन्य हिंदी उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ गबन मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ चंद्रकांता देवकी नंदन खत्री का उपन्यास

 

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