चैप्टर 13 अदल बदल : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 13 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 13 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 13 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

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मास्टर हरप्रसाद ने वह रात बड़े कष्ट और उद्वेग से काटी। रुग्णा बालिका को छोड़कर वे रात में कहीं जा भी नहीं सकते थे। और मायादेवी का इस प्रकार चला जाना उनके लिए एक असंभावित घटना थी। इसकी उन्होंने कभी कल्पना भी न की थी। वे एक उदार विचारों के तथा शांत प्रकृति के सज्जन सद्गृहस्थ थे, इसीसे उन्होंने अपनी पत्नी को इतनी स्वतंत्रता भी दे रखी थी। उसका परिणाम ऐसा घातक होगा, जिससे उनकी गृहस्थी ही में आग लग जाएगी, यह उन्होंने नहीं सोचा था। इधर कुछ दिन से मायादेवी के व्यवहार, आचरण उनके लिए असह्य होते जा रहे थे, परन्तु वे यह सोच भी न सके थे कि एकमात्र अपने पति और पुत्री को इस भांति निर्मम होकर छोड़कर चली जायेगी।

प्रातःकाल होने पर जल्दी-जल्दी वे अपने नित्य-कर्म से निवृत्त होकर प्रभा को कुछ पथ्थ-पानी दे और तसल्ली दे मालती देवी के मकान पर पहुँचे। मालती से मुलाकात होने पर उन्होंने कहाँ-  ‘संभवतः मेरी पत्नी मायादेवी आपके यहाँ आ गई है। कृपया ज़रा उसे बुला दीजिए, मैं उसे घर ले जाने के लिए आया हूँ।’

मालती देवी ने जवाब दिया – श्रीमती मायादेवी आपसे मुलाकात करना नहीं चाहतीं, पत्नी की हैसियत से आपके साथ रहना नहीं चाहती, आपने उन पर अत्याचार किया है। अतः आजाद महिला-संघ के नियम के अनुसार हमने उन्हें आश्रय दिया है, और मुझे आपसे यह कहना है कि आप उनकी मर्जी के विरुद्ध न मिल सकते हैं, न उन्हें जबरदस्ती साथ ले जा सकते हैं।’

‘परन्तु वह मेरी पत्नी है, मुझे उससे मिलने तथा अपने साथ उसे घर ले जाने का अधिकार है।’

‘तो आप इसके लिए कानूनी कार्यवाही कर सकते हैं।’

‘परन्तु इसकी आवश्यकता क्या है, यह पति-पत्नी के बीच की बात है।’

‘सैकड़ों वर्षों के उत्पीड़न के बाद अब इस बात की आवश्यकता आ ही पड़ी है कि पति-पत्नी के बीच भी कानून हस्तक्षेप करे, जिससे पति के अत्याचारों से पत्नी की रक्षा हो।’

‘परन्तु कहीं अत्याचार की बात, भी हो, इस प्रकार की चेष्टा तो स्त्रियों ही का अत्याचार है।’

‘तब तो अवश्य कानून आपका सहायक होगा, अब आप जा सकते हैं।’

‘कृपा कर मेरी पत्नी को बुला दीजिए, झंझट मत खड़ा कीजिए।’

‘आप स्वयं ही संघ के ऑफिस में झंझट खड़ा कर रहे हैं। कृपया आप चले जाइए।’

‘मैं अपनी पत्नी को यहाँ से ले जाने के लिए आया हूँ।’

‘वह आपके साथ नहीं जाना चाहतीं।’

‘मैं उसे समझा लूंगा, आप उसे बुलाइए।’

‘वह आपसे बात भी करना नहीं चाहतीं।’

‘आप गजब करती हैं मालती देवी, एक पति और पुत्री से उसकी पत्नी और माता को जुदा करती हैं! आपको तो मेरी सहायता करनी चाहिए।’

‘शायद कानून आपकी सहायता करे।’

‘आप व्यर्थ ही बारम्बार कानून का नाम क्यों घसीटती हैं? पति-पत्नी के बीच आत्मा का संबंध है, कानून की इसमें क्या आवश्यकता?’

‘मै आपसे इस समय, इस विषय पर विवाद नहीं कर सकती।’

‘मैं भी विवाद करना नहीं चाहता। आप मेरी पत्नी को बुला दीजिए।’

‘वह नहीं आयेगी?’

‘क्यों नहीं आयेगी?’

‘यह उनकी इच्छा है।’

‘यह तो आपका अन्याय है मालतीदेवी, आप नहीं जानतीं, उसकी पुत्री बीमार है, वह माँ को पुकार रही है।’

‘तो इसमें मैं क्या करूं?’

‘आप दया कीजिए मालती देवी!’

‘क्या ज़बरदस्ती?’

‘ज़बरदस्ती नहीं, श्रीमतीजी, मै आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ।’

‘आप नाहक हमारा सिर खाते हैं।’

‘लेकिन उसने उचित नहीं किया है, उसे सोचना होगा और आपको भी उसे समझाना चाहिए। सोचिए तो सही, वह एक पति की पत्नी ही नहीं, एक बच्ची की माँ भी है।’

‘वह अपना हानि-लाभ सोच सकती है, उसे आपकी शिक्षा की आवश्यकता नहीं।’

‘है, श्रीमतीजी, है। उसे मेरी शिक्षा की, सहायता की बहुत ज़रूरत है। वह अपना हानि-लाभ नहीं सोच सकती।’

तो आप चाहते क्या हैं?’

‘ज़रा उसे यहाँ बुलाइए, मैं उससे बात करना चाहता हूँ।’

‘परन्तु मैंने कहा, वह आपसे बात करना नहीं चाहती।’

‘नहीं, नहीं, बात करने में हानि नहीं है।’

‘ओफ, आपने तो सिर खा डाला! मैं कहती हूँ, आप चले जाइए।’

‘मैं उसे ले जाने के लिए आया हूँ।’

‘आप उसे जबरदस्ती नहीं ले जा सकते।’

‘मै उसे समझाना चाहता हूँ।’

‘वह आपसे मिलने को तैयार नहीं।’

‘मै उसका पति हूँ श्रीमतीजी, वह मेरी पत्नी है, मेरा उसपर पूरा अधिकार है।’

‘तो आप अदालत में जाइए, अपने अधिकार का दावा कीजिए।’

‘छी, छी! श्रीमतीजी, आप महिलाओं की हितैषिणी हैं, आप कभी यह पसंद नहीं करेंगी।’

जी, मैं तो यह भी पसंद नहीं करती कि पुरुष स्त्रियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध अपनी आवश्यकताओं का गुलाम बनायें।’

‘कहाँ, हम तो उन्हें अपने घर-बार की मालकिन बनाकर, अपनी प्रतिष्ठा, सब कुछ सौंपकर निश्चिंत रहते हैं। जो कमाते हैं, उन्हीं के हाथ पर धरते हैं, फिर प्रत्येक वस्तु और कार्य के लिए उन्हीं की सहायता के भिखारी रहते हैं।’

‘विचित्र प्रकृति के व्यक्ति हैं आप, अब मुझीसे उलझ रहे हैं। आप यह व्याख्यान किसी पत्र में छपवा दीजिएगा। आपकी युक्तियों का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है।’

‘किन्तु श्रीमतीजी, आप एक पति और उसकी पत्नी के बीच इस प्रकार का व्यवधान मत बनिये।’

‘अच्छा तो आप मुझे धमकाना चाहते हैं?’

‘मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, विनय करता हूँ। आप भद्र महिला हैं। एक माता को उसकी रुग्णा पुत्री से, उसके निरीह पति से पृथक् मत कीजिए। आप बड़े घर की महिलायें, और आप के पतिगण, यह सब विच्छेद सहन करने की शक्ति रखते हैं, हम बेचारे गरीब अध्यापक नहीं। हमारी छोटी-सी गरीब दुनिया है, शांत छोटा-सा घर है, एक छोटे-से घोंसले के समान। हम लोग न ऊधो के लेने में और न माधो के देने में। दिन भर मेहनत करते हैं, घर में पत्नी और बाहर पति, और रात को अपनी नींद सोते हैं। आप बड़े-बड़े आदमियों का शिकारी जीवन है, उसमें संघर्ष है, आकांक्षायें हैं, प्रतिक्रिया है और प्रतिस्पर्धा है। इन सबके बीच आप लोंगों का व्यक्तिगत जीवन एक गौण वस्तु बन जाता है। पर हम लोग इन सब झंझटों से पाक-साफ हैं। कृपया हम जैसे निरीह प्राणियों को अपनी इस जीवन की घुड़दौड़ में न घसीटियेगा। दया कीजिए। मेरी पत्नी मेरे साथ कर दीजिए, मैं उसे समझा लूंगा, उससे निपट लूंगा।’

‘अच्छा तो आप चाहते हैं कि मैं चपरासी को बुलाऊं? या पुलिस को फोन करूं?

‘जी नहीं, मैं चाहता हूँ कि आप मायादेवी को यहाँ बुला दें। मैं उन्हें अपने घर ले जाऊं।’

‘यह नहीं हो सकता।’

‘यह बड़ा अन्याय है, श्रीमतीजी!

‘आप जाते हैं, या चपरासी बुलाया जाये?…’

‘चपरासी….’ओ चपरासी!’

देवीजी ने उच्च स्वर से पुकारा। अपनी टेढ़ी और घिनौनी मूंछों में हँसता हुआ हरिया आ खड़ा हुआ। अर्ध उद्दण्डता से बोला – ‘क्या करना होगा मेम साहेब?’

मेम साहब के कुछ कहने से प्रथम ही मास्टर साहब – ‘कुछ, नहीं, भाई, कुछ नहीं’ कहते हुए अपना छाता उठा ऑफिस से बाहर हो गए। चलती बार वे श्रीमती को नमस्ते कहना भूले नहीं। उनके हृदय में द्वन्द्व मचा हुआ था।

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अन्य हिंदी उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ गबन मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ चंद्रकांता देवकी नंदन खत्री का उपन्यास

 

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