चैप्टर 18 अदल बदल : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 18 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 18 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

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तलाक हो जाने के बाद मायादेवी और डाक्टर कृष्णगोपाल दोनों परस्पर बहुत कम मिलते, मिलने पर भी गुम-सुम रहते, दोनों ही परस्पर मिलने पर एक-दूसरे को प्रसन्न करने की चेष्टा करते, परन्तु यह बात दोनों ही जान जाते कि यह चेष्टा स्वाभाविक नहीं है, कृत्रिम है। मायादेवी अभी मालतीदेवी के साथ ही रह रही थीं, और डाक्टर कृष्णगोपाल अपने दूसरे मकान में आ गए थे। केवल उनका एक विश्वासी नौकर उनके साथ रहता था। एक गहरी उदासी की छाया हर समय उनके मन पर बनी रहती थी। और वे रह-रहकर ऐसा समझने लगते थे मानो उन्होंने कोई बड़ा जघन्य पाप-कर्म कर डाला हो। वास्तव में बात यह थी कि दोनों भयभीत से रहते थे, दोनों ही जैसे कुछ ऐसी घटना की प्रतीक्षा-सी कर रहे थे मानो कोई दुर्घटना घटने वाली हो।

‘विवाह’ एक ऐसा शब्द है, जिसके नाम से ही युवक-युवतियों के हृदय में नवजीवन और आनंद की लहर उठने लगती है, परन्तु इतने संघर्ष और कठिन प्रयास के बाद जब दोनों की मिलन-बाधायें खत्म हो गईं तो अब जैसे वह मिलन ही उनके लिए भय की वस्तु बन गई। परन्तु जैसे भय का सामना करने को मनुष्य साहस करता है उसी भांति दोनों ने साहस किया और केवल चुने हुए मित्रों की उपस्थिति में दोनों का विवाह संपन्न हो गया। विवाह हो जाने पर दोनों ही ने ऐसा अनुभव किया मानो उनके शरीर में से रक्त की एक-एक बूंद निकाल ली गई हो।

मित्रों का आनन्दोत्सव और हा-हू जब समाप्त हो गया, तो अंत में एकांत रात्रि में दोनों का एकांत मिलन हुआ। इसे आप सुहागरात का मिलन कह सकते हैं, पर यह वह सुहागरात न थी, जो प्रकृति की प्रेरणा का प्रतीक है, जहाँ जीवन में पहली बार बसंत विकसित होता है, यहाँ तो वर-वधू दोनों ही एक-एक संतति के जन्मदाता थे। पति एक दूसरी पत्नी का अत्याचारी पति था और स्त्री एक सीधे, सच्चे, निर्दोष पति की पत्नी थी।

स्वभावत: ये दोनों ही निर्बुद्धि और पाशाविक प्रवृत्ति के हीन प्राणी न थे। विचारवान और सभ्य थे। यद्यपि डाक्टर को मद्यपान की आदत थी और दुराचारी तथा वेश्यागामी भी था, परन्तु आज इस सुहागरात के एकांत मिलन में उसकी सारी विलास-वासना जैसे सो गई थी। उसे ऐसा अनुभव हो रहा था मानो उसकी रगों में रक्त नहीं बर्फ का पानी भरा हुआ है। यह जितना ही प्रसन्न और उत्साहित रहने की चेष्टा करता, उतनी ही उसकी चेष्टायें हास्यास्पद और वीभत्स बन जाती थीं। अपनी साध्वी सुशीला पत्नी विमला देवी के प्रति अपने किए सब अन्याय मूर्तिमान होकर, जितना वह उन्हें भुलाना चाहता था, उतना ही उसके सम्मुख उसके मानस नेत्रों में आ घुसते थे। उसकी दशा मद्यप, उन्मत्त तथा शोकार्त मनुष्य के समान हो रही थी। उसे स्पष्ट सुनाई दे रहा था कि उसकी पुत्री चीत्कार करके बाबूजी-बाबूजी पुकार रही है। इस समय वह मायादेवी की ओर आँख उठाकर भी देखने का साहस न कर सकता था।

मायादेवी की दशा भी कुछ ऐसी ही थी। उसका मन हाहाकार कर रहा था। उसकी इच्छा हो रही थी कि गले में फांसी लगाकर मर जाए। विवाह काल में कुछ लोगों ने अशिष्ट व्यंग्य किया था, वह अब सैकड़ों बिच्छुओं की भांति डंक मारकर उसे तड़पा रहा था।

वह छिपी नज़र से बीच-बीच में अपने नये पति की ओर देख लेती थी। उसे याद आ रहा था, यही वह आदमी है जो क्लब में मेरे सामने ही शराब पीता था। इस समय मायादेवी को इस नये पति के चेहरे में ऐसे अप्रिय और घृणा-उत्पादक भाव दिख रहे थे कि उसका मन उसके सामने से भाग जाने का हो रहा था। वह सोच रही थी, अपने त्यागे हुए पति की बात। आज तक कभी उन्होंने एक कड़ा शब्द उससे कहा नहीं, कभी उसने उनका क्रोध से भरा चेहरा देखा नहीं। कभी उसके पति ने शराब छुई नहीं। वह सदा अपनी सारी आमदनी उसी को देते। उसकी एक प्रकार से पूजा करते। वह सोचने लगी अपनी पहली सुहागरात की बात, फिर उसने आप-ही-आप भुनभुना कर कहा -‘क्या यह आज की रात भी सुहागरात कही जा सकती है? क्या यह शराबी, दुराचारी और अपनी साध्वी पत्नी के साथ निर्मम अत्याचार करने वाला पुरुष उसके साथ वैसा ही कोमल भावुक बनकर रह सकेगा जैसा उसका प्रथम पति था। परन्तु यह प्रथम और दूसरा क्या? पत्नी का पति एक ही है। क्या उसके जीवित रहते मैं दूसरे पुरुष को अपना अंग दिखलाऊंगी? स्वाधीन होने की आग में मैं अवश्य जल रही हूँ, पर इसके लिए मैं अपने शरीर को अपवित्र करूं? नहीं, वह मैं न कर सकूंगी। नहीं कर सकूंगी। नहीं कर सकूंगी।’ एकाएक उसे ज्ञात हुआ कि उसकी पुत्री ने उसके कण्ठ में हाथ डालकर पुकारा – ‘माँ’  और जैसे उसने उसे उठाकर खिड़की की राह बीच सड़क पर फेंक दिया। वह एक चीख मारकर बेहोश हो गई।

यत्न करने पर उसे होश हुआ, तो उसने अपने वस्त्र ठीक करके मुस्कराकर डाक्टर से कहा – ‘बैठ जाइए, अब मैं ठीक हूँ।’

‘तुमने तो मुझे डरा दिया।

‘समय ही ऐसा आ गया है, कि हम लोग अब एक-दूसरे से डरते हैं।’

परन्तु डाक्टर ने बात आगे नहीं बढ़ाई। वे पलंग पर लेट गए और आँखें मूंदकर अपना भविष्य सोचने लगे। कुछ देर बाद माया भी करवट फेरकर पड़ गई। दोनों ही थके हुए थे, शीघ्र ही उन्हें निद्रा देवी ने अपनी गोद में ले लिया।

प्रभात होने पर दोनों ने अपराधी मन लेकर अपनी-अपनी दिनचर्या प्रारंभ की। एक-दूसरे को देखते और मन की भाषा प्रकट करने में असमर्थ रहते।

धीरे-धीरे दिन व्यतीत होते गए।

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