चैप्टर 10 अदल बदल : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 10 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 10 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Table of Contents

Chapter 10 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 567| 9 10111213141516 | 17 | 18 | 19 | 20

Prev | Next | ALL Chapters

क्लब में बड़ी गर्मागर्म बहस चल रही थी। यद्यपि अभी इने-गिने ही सदस्य उपस्थित थे। मायादेवी आज सब्जपरी बनी हुई थीं। वे जोश में आकर कह रही थीं – ‘पतिव्रतधर्म स्त्रियों के सिर पर जबरदस्ती लादा हुआ बोझ है, अब समय आ गया है कि स्त्रियां उसे उतार फेंकें।’

सेठजी ने तपाक से कहा – ‘अजी गोली मारिए, पतिव्रत धर्म भला अब संसार में है ही कहाँ? यदि हजार-दो हजार में कहीं एक में पतिव्रत धर्म दिखा पड़ा, तो उसकी गणना नहीं के समान है।’

इस पर डाक्टर ने छिपी नजर से मायादेवी की ओर देखकर कहा – ‘आपने शायद पतिव्रत धर्म पर ठीक-ठीक विचार नहीं किया। पतिव्रत धर्म का संबंध और स्वरूप, वह आध्यात्मिक पारलौकिक भावना है कि जिसका तारतम्य जन्म-जन्मान्तरों तक हिन्दू-संस्कार में है, हिन्दू स्त्री जब तक यह समझती रहेगी कि जिस पति से मेरा संबंध हुआ है वह जन्म-जन्मान्तर संयोग है, और जन्म-जन्मान्तर तक रहेगा, तो पतिव्रत धर्म की रूपरेखा गंभीर हो जाती है।’

‘परन्तु हज़रत, आप एक बात मत भूलिए। स्त्री-पुरुष का संबंध कामात्मक है, प्रेमात्मक नहीं। क्योंकि प्रेम और काम दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते।’

‘यह आपने खूब कही, भला प्रेम और काम दोनों साथ-साथ क्यों नहीं रह सकते? कदाचित मैं एक डाक्टर की हैसियत से इस विषय को समझाने में अधिक सफल हो सकूं?’

‘ज़रूर-ज़रूर’ सेठजी ने आग्रहपूर्वक कहा।

मायादेवी ने हँसकर कहा – ‘और मैं इस संबंध में आपको अपना प्रतिनिधि बनाती हूँ।’

‘धन्यवाद!’ डाक्टर ने हँसकर कहा। फिर उसने गंभीर भाव से कहना प्रारंभ किया – ‘यदि इस संबंध में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार किया जाए, तो आपका यह कहना कि प्रेम और काम साथ-साथ नहीं रह सकते, गलत प्रमाणित होगा। यह सिद्धांत भी ठीक नहीं है कि स्त्री-पुरुष का संबंध कामात्मक है, प्रेमात्मक नहीं। ‘काम’ विशुद्ध शारीरिक उद्वेग है। नर-मादा अपरिचित रह जाते हैं। संसार के समस्त जीव-जन्तु, नर-मादा जो केवल कामवृत्ति से मिलते हैं वे काम पूर्ति के बाद अपरिचित रह जाते हैं, केवल पुरुष और स्त्री ही अपने सम्बन्ध को अनुबाधित बनाए रह सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्रेमतत्त्व की कामतत्त्व के साथ गंभीर आवश्यकता इसलिए भी है कि काम संबंध एक ही काल में अनेक स्त्रियों से एक पुरुष का, और अनेक पुरुषों से एक स्त्री का हो सकता है, परन्तु प्रेम संबंध नहीं। प्रेम संबंध एक काल में एक स्त्री और एक ही पुरुष का परस्पर हो सकता है। स्त्री और पुरुष के संबंध में समाज की एक मर्यादा भी है, इसलिए एक स्त्री और पुरुष का स्थिर संबंध रहना, यह युग-युगान्तर में अनुभव के वाद मनुष्य-जाति ने सीखा और उससे लाभ उठाया है।”

सेठजी ने कहा – ‘आपकी बात स्वीकार करता हूँ, परन्तु लैंगिक आकर्षण और लैंगिक तृप्ति से जो पारस्परिक प्रीति उत्पन्न होती है, उसे प्रेम नहीं कहा जा सकता। यदि किसी स्त्री-पुरुष के जोड़े की परस्पर काम-तृप्ति होती रहती है तो उनमें प्रीति उत्पन्न हो जाती है, अर्थात् एक-दूसरे के लिए रुचिकारक भोजन की भांति प्रिय हो जाते हैं। लोगों ने इसीका नाम ‘प्रेम’ रख लिया है।’

डाक्टर ने हँसकर मायादेवी की तरफ देखा और कहा – ‘आपका यह कथन तो सर्वथा अवैज्ञानिक है। असत्य भी है। प्रेम वास्तव में एक विशुद्ध आध्यात्मिक वस्तु है, उसका संबंध मन से है, और कामतत्त्व से उसका कोई प्रत्यक्ष अनुबंध नहीं है। यों जहाँ कहीं स्त्री और पुरुष का मिलना होता है, वहाँ कामतत्त्व भी उदय होता है, लेकिन जहाँ काम प्रधान है वहाँ प्रेम हो ही नहीं सकता।’

काम-तृप्ति का आभास ही प्रेम है, ऐसी बात नहीं है। देखिए, छोटे शिशुओं पर माता का प्रेम होता है, भाई-भाई में प्रेम होता है, यह प्रेमतत्त्व कामतत्त्व से बिलकुल ही भिन्न एक वस्तु है। यह भी संभव है कि प्रेमतत्त्व कायम रहे और कामतत्त्व कायम न रहे। यह भी संभव है कि कामतत्त्व कायम रहे, पर प्रेमतत्त्व कायम न रहे।’

‘वाह, यह आपने खूब कहा। अजी साहेब, आप ज़रा वात्स्यायन के कामशास्त्र को पढ़ें या हवेलिक एलिस के ‘साइकोलॉजी ऑफ सेक्स’ को पढ़ें, तो ऐसा कदापि न कहेंगे।’ सेठजी ने बड़े जोश के साथ कहा। वे मायादेवी पर अपनी विद्वत्ता की धाक जमाना चाहते थे। मायदेवी चुपचाप मुस्कुरा रही थीं।

उन्होंने कहा – ‘तो फिर डाक्टर साहेब, आप पढ़ डालिए इन ग्रंथों को इस बुढ़ापे में।’

डाक्टर ने ज़रा-सा मुस्कराकर एक सिगरेट निकालकर जलाया और धीरे से कहा – ‘बहुत कुछ तो पढ़ चुका हूँ। मेरे दोस्त इन ग्रंथों को जितना पूर्ण समझते हैं, वे उतने नहीं हैं। सच पूछा जाये, तो वात्स्यायन के ग्रंथ की महत्ता तो उसकी प्राचीनता ही में है। आधुनिक कामशास्त्र में और भी नवीन महत्त्वपूर्ण बातों की खोज की गई है, जिनकी चर्चा उपर्युक्त दोनों ग्रंथों में नहीं है। फिर, यह तो आप स्वीकार ही करते हैं कि पुरुष-पुरुष में स्त्री-स्त्री में, मनुष्य और पशु में, मनुष्य और जड़ में भी प्रेम हो सकता है, उससे क्या यह बात प्रमाणित नहीं हो जाती कि काम और प्रेम दोनों पृथक वस्तु हैं।’

‘किन्तु मीराबाई ने मूर्ति से प्रेम किया और बाद में उस प्रेम की शक्ति से उस जड़मूर्ति को चैतन्य बना लिया।’ सेठजी ने कहा।

‘अफ़सोस है कि आप इस अत्यन्त भूठी दकियानूसी बात पर विश्वास करते हैं। कृपया इस बात का ध्यान रखिए कि एक वैज्ञानिक किसी विषय पर सामाजिक दृष्टिकोण से विचार नहीं कर सकता। अलबत्ता विज्ञान पर विचार करने का असर समाज पर अवश्य होगा।’

‘छोड़िए, ऐसा ही होगा। परन्तु मैं तो फिर मूल विषय पर आता हूँ। पतिव्रत धर्म का बंधन कई शताब्दियों से न केवल हिन्दू स्त्रियों पर है, प्रत्युत मानव सभ्यता के प्रारम्भिक आर्य समुदाय में भी इसकी विशिष्टता स्वीकार की गई है। इतना ही नहीं, प्राचीन अरबी-फारसियन, ग्रीक, लेटिन, एवं अंग्रेजी साहित्य में भी इसको काफी चर्चा है। हाँ, यह सत्य है कि, यह ऋमिक रूप से शिथिल-सा रहा है, परन्तु यह रूढ़िवाद का नहीं, वस्तुवाद और विज्ञानवाद का ध्वंसावशेष माना जाएगा। इसमें स्वार्थ पुरुषों का नहीं स्त्रियों का है। क्योंकि यदि पतिव्रत धर्म के पालन में स्त्री को त्याग करना पड़े, तो यह मानना ही पड़ेगा कि त्याग की भावना अभी तक यत्किचित् मानवता को कायम रख सकी है। भौतिक या सामाजिक दृष्टि से भी पतिव्रत अनावश्यक नहीं समझा जा सकता।

‘अच्छा, तो अब आप मुझे चैलेंज कर रहे हैं?’ मायादेवी ने थोड़ा उत्तेजित होकर, सेठजी को घूरकर कहा।

‘चैलेंज नहीं कर रहा हूँ मायादेवी, एक सत्य बात कह रहा हूँ। सोचिए तो, स्त्री-पुरुष में इहलौकिक नहीं पारलौकिक संबंध भी है। यह पारलौकिक संबंध की विवेचना केवल साम्प्रतिक आध्यात्मिक, या मानविक वस्तु-परिस्थिति पर नहीं की जा सकती। जो नर-नारी के शारीरिक संबंध को केवल ‘काम’ शब्द के व्यापक रूप में ही समझना चाहते हैं, वे भूल करते हैं।’

‘भूल कैसे करते हैं, सुनूं तो?’

‘निवेदन करता हूँ! यह तो आपको मानना पड़ेगा कि भौतिक अभिवृद्धि के लिए ही नारी में नारीत्व का उदय हुआ है।’

‘खैर, अब ज़रा अपना आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी फरमा दीजिए।’

‘यदि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो आप स्वीकार करेंगी कि न प्रेम में स्वार्थ है, न काम में पाशविकता। पशुभाव की भावना से, काम में पाशविकता की और प्रेम के ऊपर स्वार्थपरता की छाया पड़ गई है। पर देखने से इसमें त्याग की प्रतिमूर्ति के भी दर्शन हो सकते हैं।’

‘खाक दर्शन हो सकते हैं, कमाल करते हैं आप सेठजी! खैर आप स्त्रियों की आर्थिक दासता के विषय में क्या कहते हैं ?’

‘आर्थिक दासता से आपका क्या अभिप्राय है ?’

‘अभिप्राय साफ है। पहले आप हिन्दू घरों की विधवाओं को ही लीजिए, चाहे वह किसी भी आयु की हों। जिस आसानी से मर्द पत्नी के मरने पर दुबारा ब्याह कर लेते हैं, उस आसानी से पति के मर जाने पर स्त्रियाँ ब्याह नहीं कर पातीं, यह तो आप देखते ही हैं।’

‘बेशक, परन्तु मायादेवी, इसमें सिर्फ लज्जा, समाज के धर्म ही का बंधन नहीं है, और भी बहुत-सी बातें हैं।’

‘और कौनसी बातें हैं ?

‘पहली बात तो यह है कि जहाँ पुरुष ब्याहकर स्त्री को अपने घर ले आता है, वहाँ स्त्री ब्याह करके पति के घर आती है। ऐसी हालत में वह विधवा होकर यदि फिर ब्याह करना चाहे, तो पति के परिवार से उसे कुछ भी सहायता और सहानुभूति की आशा नहीं रखनी चाहिए। रही पिता के परिवार की बात ! पहले तो माता-पिता लड़की की दुबारा शादी करना ही पाप समझते हैं, दूसरे, वे इसे अपने वंश की अप्रतिष्ठा भी समझते हैं। आम तौर पर यही खयाल किया जाता है नीच जाति में ही स्त्रियाँ दूसरा ब्याह करती हैं। यदि उनकी लड़की का दुबारा ब्याह कर दिया जायेगा, तो उनकी नाक कट जायेगी। तीसरे, वे ब्याह के समय ‘कन्यादान’ कर चुकते हैं और लड़की पर उनका तब कोई हक भी नहीं रह जाता। इसलिए यदि वे जब कभी ऐसा करने का साहस करते भी हैं, तभी बहुधा पति के परिवार वाले विघ्न डालते हैं, क्योंकि इस काम में पिता के परिवार की अपेक्षा पति के परिवार वाले अधिक अपनी अप्रतिष्ठा समझते हैं।’

डाक्टर ने बीच ही में बात काटकर कहा – ‘इसका कारण यह है सेठजी, कि स्त्रियों की न कोई अपनी सामाजिक हस्ती है, न उनका कोई अधिकार है। न उन्हें कुछ कहने या आगे बढ़ने का साहस ही है। इन्हीं सब कारणों से हिन्दू घरों में खासकर उच्च परिवारों में स्त्रियाँ चाहे जैसी उम्र में विधवा हो जायें, वे प्रायः ससुराल और पिता के घर में असहाय अवस्था ही में दिन काटती हैं।’

‘यही बात है, जो मैं कहती हूँ’ – मायादेवी ने उत्तेजित होकर कहा – ‘संयुक्त परिवार में पति की संपत्ति में से एक धेला भी नहीं मिल सकता। यदि वे उस परिवार के साथ रहें तो उन्हें रोटी-कपड़े का सहारा मात्र मिल सकता है। इस रोटी-कपड़े के सहारे का यह अर्थ है कि घरभर की सेवा-चाकरी करना, लांच्छना और तिरस्कार सहना, सब भांति के सुखों और जीवन के आनंदों से वंचित रहना, सबसे पहले उठना और सबसे पीछे सोना, सबसे पीछे खराब-से-खराब खाना खाना, और सबसे खराब पहनना। यही उनकी मर्यादा है! इस मर्यादा से यदि वे तनिक भी चूकीं, तो अपमान, तिरस्कार, और व्यंग से उनकी जान ले डालते हैं। प्रायः उन्हें अपनी देवरानियों में दासी की भांति रहना पड़ता है, जिनकी कभी वे मालिक रह चुकी होती हैं। उनकी आबरू और चरित्र पर दाग लगाना एक बहुत साधारण बात है। और इसके लिए उसे बहुत सावधान रहना पड़ता है। पति का मर जाना उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य समझा जाता है।

डाक्टर ने चेहरे पर शोक-मुद्रा लाकर कहा – ‘निस्संदेह यह बड़े ही दुःख की बात है। यह उनका दुर्भाग्य नहीं, हमारी सारी जाति का दुर्भाग्य है।’

मायादेवी ने कहा – ‘अभी तो मैंने यह उनके पति के घर की बात कही है, पिता के घर का तो हाल सुनिए।…यदि विधवा छोटी अवस्था की हुई, तो वह प्रायः पिता के घर ही अधिक रहती है, यदि ससुराल वाले शरीफ़ हुए तो। माता-पिता उस पर दया और स्नेह तो अवश्य करते हैं, परन्तु उसे देखकर दुखी रहते हैं। किन्तु कठिनाई तो तब आती है, जब वह अधिक आयु की हो जाती है। माता-पिता, सास-ससुर मर जाते हैं। ससुराल में देवर-देवरानियों का और पीहर में भाई-भावजों का अकण्टक राज्य रहता है। तब वह सर्वत्र एक भार, एक पराई चीज, एक घृणा और तिरस्कार, क्रोध और अपमान की पात्री भर रह जाती है। उसके दुःख-दर्द को कोई न समझता है, न उसकी परवाह करता है। संसार के सब सुखों और मानवीय अधिकारों से वह वंचित है।’

डाक्टर ने सहानुभूति-सूचक स्वर में कहा – ‘निस्संदेह माया देवी, ऐसी अवस्था में यह बात गंभीरता से सोचने योग्य है कि ऐसे कौन-कौन उपाय काम में लाए जायें, जिनसे स्त्रियों की यह असहायावस्था दूर हो।’

सेठजी अब तक चुप बैठे थे। उन्होंने कहा – ‘डाक्टर साहेब, आपने ऐसे कुछ उपाय सोचे हैं?’

‘क्यों नहीं, मैं तो सदैव से इन विषयों में दिलचस्पी रखता हूँ। फिर मायादेवी की धार्मिक बातें भी भुलाने के योग्य नहीं हैं। मेरी राय में राहत मिलने के कुछ उपाय हैं। पहला तो यह कि विवाह के समय में माता-पिता अधिक-से-अधिक दहेज दें। और दहेज की शक्ल में हो, गहना, कपड़ा। बर्तन आदि नहीं। और उस पर लड़की ही का अधिकार हो, ससुराल वालों का तथा उसके पति का न हो। वह रकम एक पेडअप पालिसी की तौर पर इस भांति दी जाये कि उसे वह लड़की भी चाहे, तो खुद खर्च न कर सके, न पति आदि के दबाव में पड़कर उसे दे सके। यह रकम ब्याज सहित उसे या तो ब्याह के बीस वर्ष बाद जब कि वह प्रौढ़ और समझदार हो जाये तब मिले, या फिर विधवा होने पर कुछ शर्तों के साथ, जिससे उस रकम का वह पूरा लाभ उठा सके और उसे कोई ठग न सके।’

मायादेवी ने समर्थन करते हुए कहा – ‘निस्संदेह ऐसा ही होना चाहिए।’

परन्तु सेठजी ने आपत्ति उठाई – ‘यह तो आप दहेज की प्रथा का समर्थन कर रहे हैं, जिसका विरोध सभी सुधारवादी करते हैं।’

‘मैं स्वीकार करता हूँ कि आजकल दहेज की प्रथा की ओर लोगों के विरोधी भाव पैदा हो गए हैं। परन्तु इसका कारण यह है कि दहेज की प्रथा के असली कारण को लोग नहीं समझ पाए हैं। दहेज को, पति या उसके ससुराल वाले अपनी बपौती समझते और उसे हड़प लेते हैं, जो वास्तव में अत्यंत अनुचित है। दहेज की रकम वास्तव में लड़की की संपत्ति ही माननी चाहिए, उसी का उस पर अधिकार भी होना चाहिए।’

‘यह भला कैसे हो सकता है?’ सेठजी ने तर्क उठाया।

‘क्यों नहीं हो सकता?’ मायादेवी ने तपाक से कहा – ‘लड़कों की भांति क्या लड़कियाँ भी अपने माता-पिता की संतान नहीं हैं? उन्हें क्या माता-पिता की संपत्ति में हिस्सा न मिलना चाहिए? हिन्दू कानून में लड़की को पिता की संपत्ति में कुछ नहीं मिलता। सब पुत्र का ही होता है। इसलिए पिता के धन का कुछ भाग लड़की को दहेज के रूप में मिलना ही चाहिए। यह न्याययुक्त भी है।’

डाक्टर ने कहा – ‘मायादेवी सत्य कहती हैं।’

‘खैर, यह हुई एक बात। दूसरी बात क्या है, वह भी कहिए।’

‘दूसरी बात यह कि विवाह के समय जेवर और नगदी के रूप में ससुराल से भी उसे कुछ मिलना चाहिए। यह धन उसी का ही हो। जैसे दहेज का धन पुत्री का धन है उसी प्रकार ससुराल का यह ‘दान’ स्त्री का धन है। इसे उससे कोई अपहरण न करे। दहेज की भांति आजकल जेवर आदि की ठहरानी को भी निन्दनीय ठहराया जाता है। परन्तु उसका कारण यही है कि लड़की का उस धन पर कोई अधिकार नहीं होता। यह तय होना चाहिए कि जो जेवर, नगदी अधिक-से-अधिक ससुराल वाले अपनी सामर्थ्य के अनुसार दे सकते हैं, वह उस स्त्री का धन हो चुका और वह विधवा होने पर उसी के द्वारा अपना गुजर-बसर कर सकती है। अतएव अधिक-से-अधिक यह हो सकता है कि फिर ब्याह होने की हालत में ससुराल का यह धन उसे लौटा दिया जाये। परन्तु यदि स्त्री की आयु पच्चीस साल से ऊपर हो चुकी हो, एकाध-संतान भी उसकी हो गई हो, खाने-पीने और सुख-सम्मान से रहने की भी सुविधा हो, तो वह दूसरा ब्याह न करे।’

‘यह हुई दूसरी बात, विचारने योग्य है। अच्छा, तीसरी बात क्या है?

‘तीसरी बात यह है कि विवाह के समय कन्यादान में सगे-संबंधी,  इष्ट-मित्र बहुत कुछ कन्या को नगदी अर्पण करते हैं। विदाई के समय में भी ऐसा ही होता है। रिवाज के अनुसार यह सब रकम दूल्हा महाशय हड़प जाते हैं, परन्तु वह रकम भी स्त्री-धन होना चाहिए।’

‘बस, या और कुछ।’

‘हाँ, हाँ, अभी तो कई मद हैं। बहू जब ससुराल आती है, तब उसे मुँह दिखाई, पैर पड़ाई आदि अवसरों पर भी बहुत कुछ भेंट मिलती है, वह भी उसी का धन होना चाहिए और यह रकम सुरक्षित रूप से उसके नाम कहीं जमा रहनी चाहिए, जो आड़े वक्त पर काम आए। या तो उसकी पेड-अप पालिसी खरीद ली जाये या और कोई ऐसी व्यवस्था कर ली जाये, जिसमें उस रकम के मारे जाने का भय ही न हो।’

मायादेवी ने डाक्टर को बहुत-बहुत साधुवाद देकर कहा – ‘ब्रेवो डाक्टर, इस योजना को अवश्य अमल में लाना चाहिए।’

‘जरूर, जरूर, परन्तु मायादेवी, अभी तो इस संबंध में बहुत-सी गंभीर बातें हैं, मसलन देश की उन्नति में स्त्रियों का कितना हाथ है, क्या कभी किसी ने इस पर भी विचार किया है?’

‘नहीं, आप इस संबंध में क्या कहना चाहते हैं?’ सेठजी ने कहा।

डाक्टर ने कहा – ‘बहुत कुछ। पुरुष चाहे जैसा वीर हो, स्त्री के सामने उसकी वीरता हार खाती है। शास्त्रों में जहाँ स्त्री को अबला कहा गया है, वहाँ वे चण्डिका भी बन जाती हैं।’

मायादेवी उत्साह से बोलीं – ‘बेशक। जनाब, स्त्रियों की प्रकृति जल के समान है, जो शांत रहने पर तो अत्यन्त शीतल रहता है, परन्तु जब उसमें तूफान आता है, तो वह ऐसा भयंकर हो जाता है कि बड़े-बड़े भारी जहाज भी टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं।’

‘मेरा तो खयाल ऐसा है, कि स्त्रियाँ यदि सुधर जायें, तो देश की बहुत उन्नति हो।’

‘अजी आप यही सोचिए कि वे बच्चों की मातायें हैं। उन्हें ढालने के सांचे हैं, वे बच्चों की गुरु हैं, यदि वे योग्य न होंगी तो बच्चे योग्य हो ही नहीं सकते। बच्चे यदि अयोग्य हुए तो कुल मर्यादा नष्ट हुई समझिए।’

‘परन्तु हमारे देश की तो यह हालत है कि स्त्रियाँ पांच-छ: बच्चे पैदा कर लें और बूढ़ी होकर बैठी रहें। उन्हें पुरुष चाहे जितना अपमानित करता जाए, उन्हें उससे कोई वास्ता ही नहीं, पीटें तो पीट भी लें। रात-दिन घर के धंधे में जुती रहें।’ – मायादेवी एक सांस ही में कह गईं।

डाक्टर ने कहा -‘ निःसंदेह यह एक आपत्तिजनक बात है।

‘अजी, इस गरीब और भूखे-नंगे देश में स्त्रियों को अपने सुधार की बात सोचने का अवसर ही कब मिलता है? एक जमाना था जब चित्तौड़ की क्षत्राणियों ने अपने पुत्रों, भाइयों और पतियों को देश के शत्रुओं से युद्ध करने के लिए उनकी कमर में तलवारें बांधी थीं। एक बात में हम कह सकते हैं कि स्त्रियों के हाथ से देश जिया और उन्हीं के बल पर मर मिटेगा।’

‘परन्तु आज तो लोग स्त्रियों को पैर की बेड़ियाँ समझते हैं। वे सोचते हैं मेरे पीछे स्त्री है, बच्चे हैं, कौन इन्हें सहारा देगा। गोया स्त्री एक मिट्टी का लौंदा है, एक निर्जीव पिण्ड की, जिसकी रक्षा के लिए पुरुषों को अपने सभी कर्तव्य छोड़ने पड़ते हैं। माताओ, तुमने अब वीर पुत्रों को उत्पन्न करना छोड़ दिया, तुम श्रृंगार करके सज-धजकर बैठ गईं, लोहे के पिंजरे में तुम गहने-कपड़ों के ऊल-जलूल झगड़ों में उलझकर बैठ गईं। और पुरुषों को इसी उद्योग में फंसा रखा कि वह तुम्हारी आवश्यकताओं को जुटाने में मर मिटें। फलतः जीवन के सारे ध्येय पीछे रह गए।’ – सेठजी यह कहकर तीखी नजर से मायादेवी की ओर ताकने लगे।

मायादेवी ने कहा – ‘इसके लिए भी पुरुष ही दोषी हैं। यदि वे स्त्रियों को अपनी वासना का गुलाम बनाए रखने के लिए उन्हें घरों की चहारदीवारी में बंद न रखते तो आज आपको ऐसा कहने का अवसर न आता।’

‘श्रीमती मायादेवी के समर्थन में मैं इस बोतल में बची हुई लाल परी के तीन समान भाग करता हूँ, जिससे दुनिया समझे कि अब पुरुष स्त्रियों को समान अधिकार दे रहे हैं।’ यह कहकर डाक्टर ने तीन गिलास भरे और एक-एक गिलास दोनों साथियों के आगे बढ़ाया।

सेठजी ने हँसकर गिलास उठाते हुए कहा – ‘मैं सादर आपका अनुमोदन करता हूं।’

‘और मैं भी।’ यह कहकर मायादेवी ने भी गिलास होंठों से लगा लिया।

पी चुकने पर डाक्टर ने एक संकेत मायादेवी को किया और वे बिदा ले चल दीं। डाक्टर भी उठ खड़े हुए।

Prev | Next | ALL Chapters

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 567| 9 10111213141516 | 17 | 18 | 19 | 20

अन्य हिंदी उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ गबन मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ चंद्रकांता देवकी नंदन खत्री का उपन्यास

 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *