चैप्टर 13 बिराज बहू : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 13 Biraj Bahu Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 13 Biraj Bahu Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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वैसे बिराज का मर जाना ही ठीक था, पर वह मरी नहीं। कई दनों से भूख और दु:ख-दर्द से आहत थी। अपमान की चोटों से उसका दुर्बल मस्तिष्क खराब हो गया। उसी रात मरने के चंद क्षणों पूर्व उसने दूसरी राह पर अपने कदम बढ़ा दिए। मौत का इरादा करके वह अपने हाथ-पांव बांध रही थी, तभी बजली चमकी। भयभीत होकर उसने सिर उठाया। तेज रोशनी में नदी के पार घाट पर बनाए हुए मचान पर उसकी दृष्टि पड़ गई। लगा जैसे वह उसकी प्रतीक्षा में आँखें फाड़े हुए है। मानो उससे चार नजर हो गए हों और उसे बुला रहे हों। अचानक बिराज गरज उठी – “वे साधु-महात्मा तो मेरे हाथ का पानी नहीं पीएंगे, पर यह पापी तो पीएगा, ठीक है।”

लुहार की धौंकनी में जलते हुए कोयलों की तरह बिराज का अतुलनीय अमूल्य हृदय भी उसके मस्तिष्त की धधकती आग में स्वाहा हो गया। पति और मृत्यु-धर्म को भूलकर वह उस पार घाट को अपलक देखने लगी। घोर अंधेरे में आकाश की छाती को चीरती हुई बिजली फिर एक बार कौंध गई। उसने सिर उठाकर एक बार बन्धनों की ओर देखा, फर एक बार घर की ओर, और बंधन खोलकर वह जंगल की ओर चल पड़ी। बुद्धि लुप्त हो गई। उसके कदमों की आहट से कितने ही जीव-जन्तु रास्ता छोड़कर हट गए, पर उसे कुछ होश नहीं रहा। वह सुन्दरी के पास जा रही थ। पंचानन ठाकुर के तल्ले में वह रहती थी। पूजा चढ़ाते जाते वक्त वह उसका घर कई बार देख आई थी। इस गाँव की बहू होने के बाद वह लगभग सभी रास्तों को जान गई थी।

इसके दो घण्टे बाद कंगाली मल्लाह ने अपनी नाव उस पार के लिए छोड़ दी। पैसे के लालच में रात के अंधेरे में उसने सुंदरी को कई बार उस पार पहुँचाया था, पर आज वह एक की जगह दो स्त्रियों को ले जा रहा था, जो एकदम चुपचाप थीं। अंधेरे में वह बिराज को पहचान नहीं सका। घाट के पास आकर अंधेरे में ही उसने एक लंबे कद का काया को देखा। उसने आँखें बन्द कर लीं।

सुंदरी ने धीरे से पूछा – “किसने मारा इतनी निर्ममता से?”

बिराज ने अधीर होकर कहा – “उनके अलावा मुझ पर कौन हाथ उठा सकता है।”

सुंदरी हतप्रभ होकर चुप हो गई।

***

दो घण्टे के बाद सजे-सजाये बजरे का जब लंगर उठने लगा, तब बिराज ने पूछा – “सुंदरी तुम नहीं चलोगी?”

“नहीं बहू!” सुंदरी ने कहा – “मैं इधर नहीं रही तो लोग शक करेंगे। बहू! डरो नहीं, जाओ। फिर भेंट होगी।”

बिराज निरुत्तर रही। सुंदरी उसी नाव से वापस अपने घर आ गई।

बिराज को लेकर जमींदार का सजा हुआ बजरा नदीं के बीच चलने लगा। वह त्रिवेणी की ओर जा रहा था। आंधी के कारण डांडों की आवाज मर गई थी। एक ओर राजेन्द्र चुपचाप बैठा शराब पी रहा था। उसका सिर झुका हुआ था। बिराज बुत की तरह बैठी-बैठी जलधारा को देख रही थी। राजेन्द्र ने आज अधिर सुरापान किया हुआ था। नशे में वह उन्मत्त हुआ जा रहा था। धीरे-धीरे बजरा सप्तमग्राम की समा पार कर गया। वह उठकर बिराज के पास आया। बिराज के सूखे बाल इधर-उधर उड़ रहे थे। सिर का आंचल खिससकर कंधे पर आ गया था। वह मदहोश थी, उसका ध्यान उधर गया ही नहीं कि कौन आया है और कौन गया है।

परंतु राजेन्द्र को यह क्या हो गया? वह भयभीत हो गया। मन-ही-मन मानो किसी सूनी व डरावनी जगह में भूत-प्रेतों का भय जाग गया हो। वह देखता रहा, पर बातचीत नहीं कर सका।

और इस औरत के लिए उसने क्या नहीं किया। इसके लिए दो साल तक पागल बना रहा। सोते-जागते बस केवल इसकी एक झलक देखने के लिए तरसता रहा। वह जंगल-जंगल भटका। जिस बात की उसे सपने में भी आशा नहीं थी, उसी के लिए जब सुन्दरी ने उसे सोते में जगाया तो उसे अपने भाग्य पर घमण्ड हुआ।

नदी का घुमाव आ गया था। उसके दोनों ओर बरगद और पाकड़ के बड़े-बड़े पेड़ और बांस के झुरमुट थे। जगह-जगह बांस की पंक्तियां झुक आई थई, जिससे अंधेरा घना हो गया था। अब राजेन्द्र ने अपना साहस बटोरा औऱ बोला – “तुम… आप… आप जरा भीतर बैठ जाइए। यहाँ पेड़ों की डालियाँ वगैरह लग जायेंगी।”

बिराज ने सिर घुमाया। सामने एक छोटा-सा दीया जल रहा था। उसी के मंद उजाले में दोनों की आँखें मिली। उस पल भी वह पापी परायी धरा पर खड़ा होकर उससे आँखें नहीं मिला पा रहा था। शराह में मदमस्त होने के बाद भी वह बिराज को ठीक से नहीं देख पा रहा था। उसका सिर झुका हुआ था।

बिराज भी देखती रह गई। पराये मर्द के पास बैठकर भी उसने न तो पर्दा कर रखा है और न आँचल ही व्यवस्थित कर रखा है। यहाँ नदी तंग थी। भाटे का प्रभाव था। इसलिए मल्लाहों ने डांडे चलाना बंद कर दिया। राजेन्द्र ने उन्हें सावधान किया- “भाई, संभल के।”

उसने बिराज से कहा – “आप भीतर आ जाइए… कहीं चोट लग जाएगी।” कहकर खुद भीतर चला गया।

बिराज यंत्र-चालित-सी भीतर चली गई। भीतर पहुँचते ही वह चिल्ला पड़ी- “ओ माँ!”

राजेन्द्र चौंक गया। दीये के धुंधले उजास में बिराज की दोनों आँखें तथा खून से सना माथे का सिंदूर चामुंडा के तीनों नेत्रों की तरह जल रहा था। शराबी-कबाबी राजेन्द्र कांप रहा था। भयभीत हो गया। वह ऐसे चौंकी जैसे उसका पांव अंधेरे में सांप पर पड़ गया हो! वह सिंहनी की तरह भागी और बोल पड़ी – “माँ… यह मैंने क्या किया?” और वह अंधेरे में अतल जलधारा में कूद गई।

नाविक शोर मचाते हुए इधर-उधर दौड़े। बजरा भी उलटते-उलटते बचा वे कुछ भी नहीं कर पाए। बहुत गौर से देखा, पर उन्हें कहीं भी कुछ भी दिखाई नहीं दिया। राजेद्र विमूढ़ हो गया। उसका सारा नशा हवा हो गया।

नाविक ने समीप आकर पूछा – “क्या किया जाये? पुलिस को सूचना दी जाये?”

राजेन्द्र ने विह्वल होकर कहा – “क्या जेल की हवा खाने के लिए? अरे गदाई! किसी तरह यहाँ से भाग निकलो!”

गदाई पुराना नाविक था। राजेन्द्र को पहचानता था। ऐसी घटना की परेशानियों व चिन्ताओं से सारे परिचित थे। राजेन्द्र की बात का मर्म समझ गए। देखते-देखते बजरा वहाँ से दूर, बहुत दूर निकल गया।

राजेन्द्र ने कलकत्ता पहुँचकर चैन की सांस ली। पिछली रात जो कुछ भी घटा था, उसे याद करके वह कांप जाता था। उसने सोच लिया था ति अब वह उधर कभी मुँह नहीं करेगा! आज तक उसका सामना बाजारु व छिनाल स्त्रियों से हुआ था, किसी सती-साध्वी से नहीं। वह आज से पहले नहीं जानता था कि सती क्या होती है। उस चरित्रहीन पापी को पहली बार यह लगा कि मरे सांप से खेला जा सकता है, पर जमींदार का बेटा होकर भी वह ज़िन्दा सांप से नहीं खेल सकता।

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