चैप्टर 9 अदल बदल : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 9 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 9 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

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डाक्टर कृष्णगोपाल को पत्नी विमलादेवो एक आदर्श हिन्दू महिला थीं। वे अधिक शिक्षित तो न थीं, परन्तु शील, सहिष्णुता परिश्रम और निष्ठा में वे अद्वितीय थीं। कृष्णगोपाल के साथ विमलादेवी का विवाह हुए बारह साल हो गए थे। इस बीच उनकी तीन संतानें हुई, जिनमें एक पुत्री सावित्री नौ वर्ष की जीवित थी। दो पुत्र शैशव अवस्था ही में मर चुके थे। जीवन के प्रारंभ में ही संतान का घाव खाने से विमलादेवी अपने जीवन के प्रारंभ ही में गंभीर हो गई थीं। वैसे भी वह धीर-गंभीर प्रकृति की स्त्री थीं। वे दिनभर अपने घर-गृहस्थी के धंधे में लगी रहतीं। दो संतानों के बाद इसी पुत्री को पाकर विमलादेवी का मोह इसी पुत्री पर केंद्रित हो गया था। इससे वह केवल पुत्री सावित्री को प्यार ही न करती थीं, वरन् उसके लिए विकल भी रहती थीं। पुत्री के खराब स्वास्थ्य से वह बहुत भयभीत रहती थीं।

डाक्टर कृष्णगोपाल ने जब विमलादेवी को लेकर अपनी गृहस्थी की देहरी पर पैर रखा, तब तो उन्होंने भी पत्नी को खूब प्यार किया। पति-पत्नी दोनों ही आनन्द से अपनी गृहथी चलाने लगे। वे खुशमिजाज, मिलनसार और परिश्रमी थे, इससे उनकी प्रैक्टिस खूब चली। परन्तु रुपये की आमदनी ने उनके चरित्र में दोष पैदा कर दिया। वे घर के संपन्न पुरुष न थे। साधारण घर के लड़के थे। पिता एक साधारण सरकारी क्लर्क थे। उन्होंने बड़े यत्न से पुत्र को शिक्षा दिलाई। कृष्णगोपाल अपने पिता के अकेले ही पुत्र थे। इससे पिता उन्हें चाहते भी बहुत थे। माता का बचपन ही में देहांत हो गया था। इससे भी पिता का पुत्र पर बहुत प्रेम था। परन्तु अपनी अवस्था संभाल लेने पर जब उनकी डाक्टरी खूब चलने लगी, उन्होंने पिता की कुछ भी खोज-खबर नहीं ली। बेचारे ने अपने देहात के घर में, बहुत दिनों तक एकाकी जीवन व्यतीत करके परलोक प्रयाण किया।

इधर हाथ में रुपया आते ही डाक्टर कृष्णगोपाल को चार दोस्तों की मण्डली मिल गई। उसमें कुछ लोग दुष्चरित्र थे। उन्होंने डाक्टर को ऐय्याश बनाने में अच्छी सफलता प्राप्त की। इससे दिन-दिनभर डाक्टर घर से बाहर रहने लगे और उनकी आय का बहुत-सा भाग इस मद में खर्च होने लगा।

विमलादेवी ने पहले तो इधर ध्यान नहीं दिया। पर धीरे-धीरे उसे सभी बातें ज्ञात होने लगीं। पहले डाक्टर छिपकर शराब पीते थे, बाद में पीकर मदमस्त होकर घर आने लगे। घर लौटने में उन्हें विलंब होने लगा। कभी-कभी तो विमलादेवी को पूरी रात-रातभर उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी। बहुत बार विरोध भी करना पड़ा। इससे धीरे-धीरे पति-पत्नी में संघर्ष का उदय हुआ। महाभारत छिड़ जाता और दो-दो दिन तक घर में भोजन न बनता। परन्तु इसमें सारा कष्ट विमलादेवी को ही भोगना पड़ता। डाक्टर बाहर चार दोस्तों में जाकर खूब खाते-पीते और मस्त रहते थे। धीरे-धीरे डाक्टर में आवारागर्दी बढ़ती ही गई। अब उनका मन पुत्री से भी हट गया। संतान-स्नेह का जैसे उनके मन में बीज ही न रहा। वे यों भी बहुत कम घर में आते। परन्तु जब-जब आते, या तो शराब के नशे की झोंक में बकते-झकते, या बदहवाश होकर सो रहते, या पत्नी से छोटी-छोटी बातों में नोंक-झोंक करते।

विमला देवी के धैर्य का भी अंततः बांध टूटा और खूबसहिष्णु और गंभीर होने पर भी वह अधीर होकर उत्तेजित हो जातीं। पहले डाक्टर बक-झक करके ही रह जाते थे। अब मार-पीट भी करने लगे। गाली-गलौज भी इतनी गंदी बकते कि, विमलादेवी सुनने में असमर्थ हो भागकर अपनी कोठरी का, भीतर से द्वार बंद करके पलंग पर जा पड़तीं। ऐसी अवस्था में क्रोध से फुफकारते हुए घर से बाहर चले जाते और फिर बहुधा दो-दो, तीन- तीन दिन तक घर न आते थे।

इस प्रकार डाक्टर कृष्णगोपाल की ज्यों-ज्यों डाक्टरी सफल होती गई, त्यों-त्यों उनकी गृहस्थी बिगड़ती गई। विमलादेवी बहुत दुखी रहने लगीं। पुत्री के खराब स्वास्थ्य ने तो उन्हें चिंतित कर ही रखा था, अब पुत्री तथा अपनी घर-गृहस्थी की ओर से पति की यह उपेक्षा देख, उनका मन वेदना और क्षोभ से भरा रहता। उन्हें बहुधा उपवास करना पड़ता। पति-पत्नी में जब झगड़ा होता तब तो निश्चय चूल्हा जलता ही नहीं था, परन्तु अपने मन की विकलता और अन्तरात्मा के क्षोभ के कारण बहुधा ऐसा होता कि पति और पुत्री को खिला-पिलाकर वह चुपचाप बिना कुछ खाए-पिए सो जाती।

पुत्री सावित्री यद्यपि नौ वर्ष की छोटी बालिका थी, पर बहुत सौम्य और कोमल वृत्ति की थी। चिरकाल तक अस्वस्थ रहने से उसमें एक गंभीर उदासी भी आ गई थी। माता के दुःख को वह कुछ-कुछ समझने लगी थी। माँ का प्रेम, उसका सेवा-भाव और उसका दुःख, यह सब देख छोटी-सी बालिका माँ को कभी-कभी बहुत लाड़-दुलार करती। उसे यत्न से हठपूर्वक खिलाती, हँसाती और मन रखती। माँ के लिए वह पिता से भी झिड़कियाँ खाती।

दुर्भाग्य से विमलादेवी के मातृपक्ष में भो कोई न था। इससे उनका वह सहारा भी नहीं जैसा था। बस सारे संसार में उनकी पुत्री ही उनके लिए एक अवलंब थी।

परिस्थिति और आवश्यकता ने विमला देवी को थोड़ा कठोर और दृढ़ भी बना दिया। बहुधा वह पति के अत्याचार का डटकर मुकाबला करती। वह भी अपने अधिकारों को उतना ही जान गई थी, जितना अपने कर्तव्यों को। अतः वह जहाँ अपने कर्तव्य-पालन में पूर्ण सावधान थी, वहाँ अपने अधिकारों की रक्षा के लिए भी सचेष्ट थी। इसी कारण जब-जब पति-पत्नी में वाग्युद्ध होता, तो वह काफी तूमतड़ाम का होता था। दिनोदिन इस युद्ध की भीषणता बढ़ती जा रही थी। और अब तो बहुधा मार-पीट के बाद ही उसकी इतिश्री होती थी। शराब पीकर उसके नशे में डाक्टर बहुधा बहुत गंदी गालियाँ बक जाते थे। इन सब बातों से बेचारी छोटी-सी बालिका को व्यर्थ ही अपने आँसू बहाने पड़ते थे।

इस प्रकार यह सुशिक्षित डाक्टर अपनी ही गृहस्थी में आग लगाकर उसी में ताप रहा था।

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