चैप्टर 11 अदल बदल : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 11 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 11 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

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प्रभा को दो दिन से बड़ा तेज़ बुखार था, और माया दो दिन से गायब थी। किसी कार्यवश नहीं, क्रुद्ध होकर। प्रभा ने अम्मा-अम्मा की रट लगा रखी थी। उसके होंठ सूख रहे थे, बदन तप रहा था। मास्टर साहब स्कूल नहीं जा सके थे। ट्यूशन भी नहीं, खाना भी नहीं, वे पुत्री के पास पानी से उसके होंठों को तर करते ‘अम्मा आ रही है’ कहकर धीरज देते, फिर एक गहरी सांस के साथ हृदय के दुःख को बाहर फेंकते और अपने दांतों से होंठ दबा लेते और माया के प्रति उत्पन्न क्रोध को दबाने की चेष्टा करते। दिनभर दोनों पिता-पुत्री मायादेवी की प्रतीक्षा करते, परन्तु उसका कहीं पता न था।

माया अब एक बालिका की माँ, एक पति की पत्नी, एक घर की गृहिणी नहीं, एक आधुनिकतम स्वतंत्र महिला थी। पुरुषों से, गृहस्थी की रूढ़ियों से, दरिद्र जीवन से सम्पूर्ण विद्रोह करने वाली। वह बात-बात पर पति से झगड़ा करने लगी, प्रभा को अकारण ही पीटने लगी। तनिक-सी भी बात मन के विपरीत होने पर तिनककर घर से चली जाती और दो-दो दिन गायब रहती। उसकी बहुत-सी सखी-सहेलियाँ हो गई थीं, बहुत-से अड्डे बन गए थे, जिनमें स्कूलों की मास्टरनियाँ, अध्यापिकायें, विधवाएं, प्रौढ़ाएं और स्वतंत्र जीवन का रस लेने वाली अन्य अनेक प्रकार की स्त्रियां थीं। उनमें प्रायः सबों ने स्त्रियों के उद्धार का व्रत ले रखा था।

इन सब बातों से अन्ततः एक दिन मास्टर साहब का समुद्र-सा गंभीर हृदय भी विचलित हो गया। पत्नी के प्रति उत्पन्न रोष को वे यत्न करके भी न दबा सके। उनका धैर्य साथ छोड़ बैठा। उन्होंने आप-ही-आप बड़बड़ाकर कहा -‘बड़ी आफ़त है, आजाद महिला-संघ की आजादी का तो इन पढ़ी-लिखी बेवकूफ स्त्रियों पर ऐसा गंदा प्रभाव हुआ है कि वे घर से बेघर होने मे ही अपनी प्रतिष्ठा समझती हैं।’ उन्होंने एक बार चश्मे से घूरकर ज्वर में छटपटाती पुत्री को देखा।

बालिका ने अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए पूछा – ‘बाबूजी, अम्मा आईं!’

‘अब आती ही होंगी बेटी। लो, तुम यह दवा पी लो।’

‘नहीं पीऊंगी।’

‘पी लो बेटी, दवा पीने से बुखार उतर जायेगा।’

‘अम्मा के हाथ से पीऊंगी।’

‘बेटी, अभी मेरे हाथ से पी लो, पीछे अम्मा आकर पिला देगी।’

‘वह कब आयेंगी बाबूजी, मैं उससे नहीं बोलूंगी, रूठ जाऊंगी।’

‘नहीं बेटी, अच्छी लड़की अम्मा से नहीं रूठा करतीं। लो, दवा पी लो।’

उन्होंने धीरे से बालिका को उठाकर दवा पिला दी, और उसे लिटाकर चुपके से अपनी आँखें पोंछीं।

दूसरे दिन रात्रि में माया आई। उसने न रुग्ण पुत्री की ओर देखा, न भूख-प्यास से जर्जर चितित पति को। वह भरी हुई जाकर अपनी कोठरी में द्वार बन्द करके पड़ गई। कुछ देर तो मास्टरजी ने प्रतीक्षा की। बालिका सो गई थी। वे उठकर पत्नी के कमरे के द्वार पर गए और धीरे से कहा – ‘प्रभा की माँ, प्रभा सुबह ही से बेहोश पड़ी है, तुम्हारी ही रट बेहोशी में लगाये है। आओ, तनिक उसे देखो तो।’

‘भाई, मैं बहुत थकी हूँ, ज़रा आराम करने दो।’

‘उसे बड़ा तेज़ बुखार है।’

‘तो दवा दो, मैं इसमें क्या कर सकती हूँ। मैं कोई वैद्य-डाक्टर भी तो नहीं हूं।’

‘लेकिन माँ तो हो।’

‘माँ बनना पड़ा, तो काफी गू-मूत कर चुकी। अब और क्या चाहते हो?’

‘प्रभा की माँ, वह तुम्हारी बच्ची है।’

‘तुम्हारी भी तो है।’

मास्टरजी को गुस्सा आ गया। उन्होंने कहा -‘ किन्तु बच्चों की देख-भाल तो माँ ही कर सकती है।’

‘पर बच्चे माँ के नहीं, बाप के हैं। उन्हें ही उनकी संभाल करनी चाहिए।’

‘यह तुम कैसी बात कर रही हो प्रभा की माँ, ज़रा लड़की के पास आओ।’

मायादेवी ने फूत्कार कर कहा – ‘तुम लोग मेरी जान मत खाओ।’

मास्टर अवाक रह गए। उन्हें ऐसे उत्तर की आशा न थी। उन्होंने कुछ रुककर कहा – ‘तुम ऐसी हृदयहीन हो प्रभा की माँ!’

मायादेवी सिंहनी की भांति तड़प उठीं। उन्होंने कहा – ‘मैं जैसी हूँ, उसे समझ लो, मेरी आँखें खुल गई हैं। मैं अपने अधिकारों को जान गई हूँ। मैं भी आदमी हूँ, जैसे तुम मर्द लोग हो। मुझे भी तुम मर्दों की भांति स्वतंत्र रहने का अधिकार है। मैं तुम्हारे लिए बच्चे पैदा करने, उनका गू-मूत उठाने से इंकार करती हूँ। तुम्हारे सामने हाथ पसारने से इंकार करती हूँ। मैं जाती हूँ। तुम्हें बलपूर्वक मुझे अपने भाग्य से बांध रखने का कोई अधिकार नहीं है।’

वह तेजी से उठकर घर के बाहर चल दी। मास्टर साहब भौंचक मुँह बायें खड़े-के-खड़े रह गये। वे सोचने लगे – ‘आखिर माया यह सब कैसे कह सकी। बिल्कुल ग्रामोफोन की-सी भाषा है, व्याख्यान के नपे-तुले शब्द, साफ-तीखी युक्ति-सुगठित भाषा। क्या उसने सत्य ही इन सब गंभीर बातों पर, स्त्री-स्वातन्त्र्य पर सामाजिक जीवन के इस असाधारण स्त्री-विद्रोह पर पूरा-पूरा विचार कर लिया है? क्या वह जानती है कि इस मार्ग पर जाने से उस पर क्या-क्या जिम्मेदारियाँ आयेंगी? मैं तो उसे जानता हूँ, वह कमजोर दिमाग की स्त्री है, एक असहनशील पत्नी है, एक निर्मम माँ है। वह इन सब बातों को समझ नहीं सकती। परन्तु वह यह सब कैसे कर सकी? घर त्यागने का साहस उसमें हो सकता है, यह उसकी दिमागी कमजोरी और असहनशीलतापूर्ण हृदय का परिणाम है, परन्तु उसके कारण इतने उच्च, इतने विशाल, इतने क्रांतिमय हैं, यह माया समझ नहीं सकती। वह सिर्फ भरी गई है, भुलावे में आई है। ईश्वर करे, उसे सुबुद्धि प्राप्त हो, वह लौट आए, मेरे पास नहीं, मैं जानता हूँ, मैं अच्छा पति नहीं, मैं उसकी अभिलाषाओं की पूर्ति नहीं कर सकता। मेरी क्षुद्र आमदनी उसके लिए काफी नहीं है। फिर भी प्रभा के लिए लौट ही आना चाहिए उसे। पता नहीं कहाँ गई? पर उसे तलाश करना होगा। उसके गुस्से को इतना सहा है, और भी सहना होगा। और उसने समझा हो या न समझा हो, उसका यह कहना तो सही है ही कि मुझे उसे बलपूर्वक अपने दुर्भाग्य से बांध रखने का कोई अधिकार नहीं है।

क्षणभर के लिए मास्टर साहब को तनखाह के गोल-गोल चालीस रुपये झल-झल करके उनके कानों में चालीस की गिनती कर गुम-गुम होने लगे और उनकी दरिद्रता, असहाय गृहस्थी विद्रूप कर ही-ही करके उनका उपहास करने लगी।

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अन्य हिंदी उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ गबन मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ चंद्रकांता देवकी नंदन खत्री का उपन्यास

 

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