चैप्टर 3 : मेरे हमदम मेरे दोस्त उर्दू नॉवेल हिंदी में | Chapter 3 : Mere Humdam Mere Dost Novel In Hindi

Chapter 3 Mere Humdam Mere Dost Novel 

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“आप पानी पीजिये” – उसने अपना जुमला दोहराया, उसने अपना झुका हुआ सिर उठाकर उसकी तरफ देखा. उसका एक हाथ स्टीयरिंग पर था, निगाहें विंडस्क्रीन पर थी और दूसरा हाथ, जो उसने उसकी तरफ बढ़ाया हुआ था, उसमें मिनरल वाटर की बोतल थी. वो इतना ला-तकल्लुफ़ (बिना किसी शिष्टता, फिक्र या विचार के) भी नहीं था, जितना वो उसे समझ रही थी. उसका चेहरा देखे बगैर वो जानता था कि वो रो रही है.

शायद वो ज़रूरत से ज्यादा ज़हीन (समझदार) था या शायद उसकी हैसियत बहुत तेज़ थी या फिर शायद वो उस वक़्त उस बेचारी और मजबूर लड़की से सिवाय रोने के किसी और बात की उम्मीद ही नहीं रख रहा था.

उसके हलक में आँसुओं का फंदा सा लग रहा था. उसने फ़ौरन ही उसके हाथ से पानी की बोतल ले ली. उसने एक बार भी ऐमन की तरफ़ नहीं देखा. वो उसी तरह ड्राइविंग करने में मशरूफ़ था. उसके पानी की बोतल ले लेने पर उसने अपना दूसरा हाथ भी स्टीयरिंग पर रख लिया. बोतल खोल कर उसने उसे जल्दी से मुँह से लगा लिया. बगैर साँस लिए वो पानी के जाने कितने ही घूंट पी गयी. बोतल बंद करते हुये उसने ख़ुद  को थोड़ी देर पहले वाली कैफ़ियत के मुकाबले में खासा बेहतर महसूस किया.

“आप चाय पियेंगी?” उसकी निगाह बदस्तूर विंडस्क्रीन पर थी. उसके लिए जैसे शीशे से पार नज़र आती सड़क और आगे-पीछे भागती-दौड़ती गाड़ियों और बसों के अलावा दूसरी कोई चीज़ देखे जाने के लायक ही नहीं थी.

ऐमन ने बोतल उसकी तरफ़ बढ़ायी, तो उसने बोतल हाथ में लेने के लिए एक पल के लिए विंडस्क्रीन से निगाह हटा कर उसकी तरफ देखा और फिर निगाह हटा ली.

“शुक्रिया! मैंने चाय घर पर पी ली थी.” उसका लहज़ा अभी उसके आँसुओं की चुगली कर रहा था.

“तकलीफ़ ना करें. चाय के लिए ख़ास तौर पर कहीं रुकना नहीं पड़ेगा. मेरे पास थर्मस में चाय है.” उसने दोबारा एक सरसरी निगाह उस पर डालते हुए गाड़ी की पिछली सीट पर रखे थर्मस की तरफ इशारा किया.

“मैं तकलीफ नहीं कर रही.” बहुत ही मुहजज़्ब (शिष्ट, सभ्य) और शाइस्ता (नम्र) किस्म के लहज़े में उसने आहिस्तगी से कहा. उसने मज़ीद (ज्यादा) इसरार (ज़िद, जबरदस्ती) नहीं किया. वो एक मर्तबा फिर उससे ला- तकल्लुफ़ होकर ड्राइविंग में मगन हो चुका था. कम-अज-कम उस सफ़र के दौरान उस अजनबी के बराबर बैठकर वो हरगिज़ भी रोना नहीं चाहती थी. इसलिए अब वो कस्दन (जानबूझकर, सोच-समझकर) ऐसी बातें सोचने लगी थी, जिन्हें सोचते हुए उसका ज़ेहन माज़ी हाल और मुस्तकबिल (भविष्य) की उलझनों से बाहर आ जाये.

हैदराबाद और करांची इतने करीब है, ये बात उसने ज़िन्दगी में पहली बार जानी थी. वो अपने कलीग से और बाखिर भाई से और बाज़ दूसरे जानने वाले लोगों से अक्सर करांची ताज करे सुना करती थी. वो बहुत सालों से जानती थी कि उस शहर में उसका बाप रहता है, फिर भी उसका दिल कभी नहीं चाहा था यहाँ आने को. आज जब उस शहर में आई थी, तो भी उसका दिल वहीं उसके प्यारे शहर की गली-कूंचे में भटकता फिर रहा था.

उसके बराबरी बैठा शख्स उस मुख़्तसर सी गुफ्तगू के बाद बाक़ी सारा रास्ता उससे यकसर (नितांत, बिल्कुल) ला-तकल्लुफ़ तेज़ रफ्तार से ड्राइविंग करता रहा. ख़ुद ही अपने गोद में धरे दोनों हाथों पर निगाह जमाये वह उस शहर के बारे में सोच रही थी. गाड़ी अब एक रिहायशी इलाके में दाखिल हो चुकी थी. उसने नज़रें दौड़ा कर अपने दायें-बायें देखा. वो कोई पॉश इलाका था. वो उन घरों को बाहर से देख कर ही उनमें रहने वाले मकीनों के इमारात का अंदाज़ा कर सकती तथी. गाड़ी का हॉर्न सुनते ही चौकीदार ने फौरन गेट खोल किया. उस शानदार मकान के पोर्च में पहले से ही तीन गाड़ियाँ खड़ी हुई थी. वो अपनी तरफ़ का दरवाज़ा खोल कर गाड़ी से उतर गया. एक मुलाज़िम टाइप बंदा तेज़ी से चलता हुआ अपनी मालिक के पास आया.

“गाड़ी में से सूटकेस निकलकर कमरे में रखावाओ.” उसने मुलाज़िम के सलाम का जवाब देते हुए गाड़ी की चाबियाँ उसके हाथ में पकड़ाई.

मुलाजिम सिर हिलता हुआ गाड़ी की तरफ़ मुड़ गया,

“आइये उम्मे ऐमन” अबकी बार वो उससे मुखातिब था. बारह-ए-रास्त (सीधे तौर पर) उसकी तरफ़ देखता हुये.

“ऊम्मे ऐमन.” उसने ख़ुद बहुत ताज्जुब से अपना नाम दोहराया.

ये उसका पूरा नाम था. ये उसका असली नाम था, मगर उस नाम के गिर्द मौजूद लोगों में से कोई भी ऐसे उस नाम से नहीं पुकारता था.

आज पहली बार किसी ने उसे इस तरह उसके पूरे नाम के साथ मुखातिब किया था. उसे अपना नाम इस तरह लिया जाना बड़ा अजीब सा लगा.

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