चैप्टर 19 देवांगना : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 19 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 19 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

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अँधेरी रात में : देवांगना

शयन-आरती हो रही थी। मन्दिर में बहुत-से स्त्री-पुरुष एकत्र थे। संगीत-नृत्य हो रहा था। भक्त गण भाव-विभोर होकर नर्तिकाओं की रूप माधुरी का मधुपान कर रहे थे। दिवोदास एक अँधेरे कोने में छिपा खड़ा था। वह सोच रहा था, शयन-विधि समाप्त होते ही मेरा कार्य सिद्ध होगा। कैसी दुःख की बात है कि इन पाखंडियों के लिए मुझे भी छल-कपट करना पड़ रहा है। उसने देखा-दो अपरिचित पुरुष आकर उसके निकट ही छिपकर खड़े हो गये हैं। दिवोदास ने सोचा-ये लोग कौन हैं? और इस प्रकार छिपकर खड़े होने में इनकी क्या दुरभिसन्धि है। वह इतना सोच ही रहा था कि आगन्तुकों में से एक ने कहा-

“किन्तु मंजुघोषा तो यहाँ दिखाई नहीं दे रही है?”

मंजु का नमा सुनकर दिवोदास के कान खड़े हो गये। उसने सोचा-यह कोई नया षड्यन्त्र है। वह ध्यान से उनकी बातें सुनने लगा।

आगन्तुकों में एक गोरख ब्राह्मण था, दूसरा जयमंगल सेठ।

सेठ ने कहा—”क्या यह सच है कि महाप्रभु भी उस छोकरी पर मुग्ध हैं?”

गोरख ने उसका हाथ दबाकर कहा—”चुप-चुप, महाप्रभु इधर ही आ रहे हैं।”

दोनों अन्धकार से निकलकर बाहर प्रकाश में आ खड़े हुए। सिद्धेश्वर को देखकर दोनों ने प्रणाम किया। सिद्धेश्वर ने हँसकर आशीर्वाद देते हुए कहा—”आज नगर की चहल- पहल छोड़कर श्रेष्ठि इस समय यहाँ कैसे?”

“महाराज, क्या यहाँ सब कुछ नीरस ही है?”

“जिसने कंचन-कामिनी का स्वाद ले लिया, उसे देव प्रसाद में क्या स्वाद मिलेगा?”

“गुरुदेव, जैसे बिना विरह के प्रेम का स्वाद नहीं मिलता, उसी प्रकार बिन विलास किए, शान्ति का अनुभव नहीं होता।”

“यह तो तुम्हारी भावुकता है श्रेष्ठि, जो कामना के अग्निकुण्ड में ईंधन डालेंगे शान्ति कहाँ मिलेगी?” उसने गोरख की ओर तीखी दृष्टि से देखा।

जयमंगल ने कहा—”महाराज, विधाता ने भोगविलास के लिए जवानी और त्याग के लिए बुढ़ापा दिया है।”

सिद्धेश्वर ने हँसकर कहा—”हो सकता है श्रेष्ठि, जब तक समय है भोग लो। फूल सूख जायेगा। गन्ध हवा में मिल जायेगी। जगत् में दो ही मार्ग हैं। भोग और योग। तुम भोग के मार्ग पर हो, मैं योग के। अच्छा, अब जाता हूँ। चिरंजीव रहो।”

सिद्धेश्वर के जाने पर गोरख ने सिर उठाया। अब तक वह सिर नीचा किए खड़ा था। अब उसने कहा—”ये साक्षात् कलियुग के अवतार हैं, श्रेष्ठि।”

जयमंगल ने हँसकर कहा—”मालूम तो यही होता है। परन्तु इनके तप और वैराग्य की तो बड़ी-बड़ी बातें सुनी हैं, वे क्या सब झूठी हैं?”

“आओ देखो।”

उसने संकेत से सेठ को पीछे आने को कहा। और एक पेचीदा तंग गली में घुस गया। उन दोनों के पीछे दिवोदास भी छिपता हुआ चला। इसी समय सुखदास भी उससे आ मिला।

एक कुंज के निकट पहुँच कर सिद्धेश्वर ने पुकारा :

“माधव!”

माधव ने सम्मुख आ प्रणाम किया। सिद्धेश्वर ने कहा :

“माधव, अभागे बौद्धों को धोखा देने और मेरी सभी गुप्त आज्ञाओं की तत्परता से पालन करने के बदले, मैंने तुम्हें भण्डार का प्रधान अधिकारी बनाने का निश्चय कर लिया है।”

“यह तो प्रभु की दास पर भारी कृपा है।”

“तुम जानते ही हो कि सुन्दरियों का कोमल आलिंगन, मेरी योग साधना है?”

“हाँ प्रभु।”

“मुझे कोई कुछ समझे, परन्तु तुमसे कुछ छिपाना नहीं चाहता। मैं अपनी चित्तवृत्ति के देवता को सुन्दरियों की बलि से सन्तुष्ट करता हूँ। तुम्हें मालूम है कि लिच्छवि राजकुमारी मंजुघोषा इस समय मेरी आँखों में है, मैं उसका रक्षक हूँ।”

माधव ने हँसकर कहा—”समझ गया प्रभु। अब रक्षण काल समाप्त हो गया। वह फल सावधानी से पाला गया है, अब पक गया है, महाप्रभु अब उसे भक्षण किया चाहते हैं।”

“ठीक समझे माधव, जिस तरह प्रभात की वायु फूल की कली को खिलाकर उसकी सुगन्ध ले उड़ती है, उसी तरह यौवन के प्रभात ने उस कली को खिला दिया है। अब उसकी सुगन्ध मेरे उपयोग में आनी चाहिए।”

गोरख ने जयमंगल का हाथ दबाया। और दिवोदास ने वस्त्र में छिपी छुरी को सम्भाला। सुखदास ने पीछे से उसके कान में कहा “चुपचाप सब कृत्य देखो, जल्दी मत करो।”

माधव ने कहा—”तो इसमें क्या कठिनाई है प्रभु?”

“वह अभागा उस पर मोहित प्रतीत होता है। ध्यान रखना, ये भाग्यहीन मिथ्यावादी लोग, मन्दिर के भेद को न जानने पाएँ।”

“ऐसा ही होगा प्रभु, और क्या आज्ञा है?”

“आज आधी रात को, मैंने मंजुघोषा को महामन्त्र दीक्षा देने के लिए गर्भगृह में बुलाया है। इसी के लिए वह तीन दिन से व्रत और उपासना कर रही है। तुम उसे दो पहर रात बीते मेरे सोने के कमरे में ले आना समझे।”

“समझ गया प्रभु।”

“एक बात और।”

“क्या?”

“अन्धकूप पर कड़ा पहरा लगा दो। जिससे यह खबर सुनयना के कानों में न पड़ने पाए।”

“बहुत अच्छा।”

माधव एक ओर को चल दिया। और सिद्धेश्वर दूसरी ओर को।

गोरख ने कहा—”अब कहो।”

जयमंगल ने तलवार वस्त्र से निकालकर कहा—”रक्षा करनी होगी।”

दिवोदास ने आड़ से बाहर आकर कहा—”मैं तुम्हारी सहायता करूँगा।”

सुखानन्द ने बढ़कर कहा—”और मैं भी।”

जयमंगल ने कहा—”वाह, तब तो हमारा दल विजयी होगा।”

चारों जन कुछ सोच-सलाह कर, एक अँधेरी गली में घुस गए।

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