चैप्टर 15 देवांगना : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 15 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 15 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 15 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | | | | | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32

PrevNext | All Chapters

अभिसन्धि : देवांगना

महा संघस्थविर वज्रसिद्धि और महन्त सिद्धेश्वर एकान्त कक्ष में बैठे गुप्त मन्त्रणा कर रहे थे। दोनों दो पृथक् आसन पर बैठे थे। वज्रसिद्धि ने कहा—”अच्छा, उसके बाद?”

“उसके बाद क्या? लिच्छविराज ने काशिराज की प्रार्थना स्वीकार नहीं की। इस पर काशिराज ने सैन्य लेकर लिच्छविराज की राजधानी वैशाली को घेर लिया। लिच्छविराज भी दुर्बल न था। वह भी सैन्य लेकर सम्मुख आया। घनघोर युद्ध हुआ। परन्तु मेरी अभिसंधि से लिच्छविराज का छिद्र मिल गया। काशिराज ने उनके प्रासाद में घुसकर लिच्छविराज को मार डाला और महल तथा नगर लूट लिया। पीछे उसमें आग लगा दी। सारा नगर जलकर खाक हो गया।

“परन्तु आपका काम?”

“वह नहीं हुआ। बहुत सिर मारने पर भी वह गुप्त धनकोष नहीं मिला। मेरी इच्छा लिच्छविराज को जीवित पकड़ने की थी––ऐसी ही मैंने काशिराज को सलाह भी दी थी। परन्तु काशिराज ने मेरी बात नहीं रखी, क्रोध में आ लिच्छविराज को तलवार के घाट उतार दिया। इससे उस गुप्त राजकोष का भेद भी लिच्छविराज के साथ चला गया।”

“फिर?”

“उस मार-काट और लूट-पाट में गुप्त राजकोष को ढूंढते हुए एक गुप्त स्थान में छिपी एक दासी के साथ तीन वर्ष की बालिका मिली। दासी ने उस बालिका को छीन ले जाने से रोकने के लिए मेरे सेवकों को बहुत स्वर्ण-धन देना चाहा, परन्तु उन्होंने नहीं माना। वे उसे मेरे पास ले आए। बालिका के साथ उसकी धाय भी रोती-पीटती आई और बहुत कुछ अनुनय-विनय उस बालिका को छोड़ देने के लिए करने लगी। परन्तु जब मैंने उस बालिका को काशी ले जाने का संकल्प नहीं छोड़ा तो उसने रो-पीटकर उसके साथ स्वयं भी चलने की प्रार्थना की। बालिका बड़ी सुंदर थी तथा वह उसकी दासी-धाय थी, इससे मैंने उसे भी बालिका के साथ रहने की अनुमति दे दी।”

“तो वह कन्या?”

“मन्दिर में लाकर मैंने उसे देवार्पण कर दिया और वह देवदासी बना ली गई। उसकी धाय को भी देवदासियों में रख लिया।”

“तो यही वह कन्या है? क्या नाम है इसका?”

“मंजुघोषा, यह नाम उस दासी ही ने रखा था।”

“और वह दासी अब कहाँ है?”

“वह अभी तक उसी कन्या के साथ देवदासियों में रहती है। उसका शील और नैपुण्य देख मैंने उसे सब देवदासियों का प्रधान बना दिया है।”

“उसका नाम क्या है?”

“सुनयना।”

“ठीक है। तो आपको यह भेद कैसे मालूम हुआ कि मंजुघोषा लिच्छविराज नृसिंहदेव की पुत्री है?”

“कन्या के कण्ठ में एक गुटिका थी, उसी से। उसमें उसकी जन्म-तिथि तथा वंशपरिचय था। पीछे उस दासी ने भी यह बात स्वीकार कर ली। इसी से उन दोनों के रहने की उत्तम व्यवस्था मैंने कर दी। तथा यह भेद भी मैंने अपने पेट में रखा।”

“तो महात्मन्, मैं आपको अब और एक भेद बताता हूँ कि यह सुनयना दासी वास्तव में लिच्छविराज नृसिंहदेव की राजमहिषी है। और मंजुघोषा की असल जन्मदात्री माता है।”

“अरे! यह कैसी बात?”

“यह सत्य बात है।”

“किन्तु इसका प्रमाण?”

“मैं स्वयं उसे जानता हूँ। इसी से मैंने उसे बुलवाया है। क्या वह आई है?”

“बाहर उपस्थित है।”

“तो उसे बुलवाइये। वही एक व्यक्ति इस समय जीवित है, जो लिच्छविराज के उस गुप्त कोष का ठीक पता जानता है।”

महाप्रभु ने ताली बजाई। माधव कक्ष में आ उपस्थित हुआ। महाप्रभु ने कहा :

“सुनयना दासी को यहाँ ले आओ।”

सुनयना ने आकर पृथ्वी पर गिरकर दोनों महात्माओं को प्रणाम किया। सुनयना की आयु कोई 40 वर्ष की होगी। कभी वह अप्रतिम रूप लावण्यवती रही होगी, इस समय भी रूप ने उसे छोड़ा नहीं था। वह निरवलम्ब थी––परन्तु उसका उज्ज्वल-शुभ्र-प्रशस्त ललाट और बड़ी-बड़ी आँखें उसकी महत्ता का प्रदर्शन कर रही थीं।

सुनयना ने बद्धांजलि होकर कहा—”महाप्रभु ने दासी को किसलिए बुलाया है?”

वज्रसिद्धि ने कुटिल हास्य करके कहा—”लिच्छविराज की महिषी सुकीर्ति देवी, तुम्हारा कल्याण हो! मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ।”

राजमहिषी ने घबराकर आचार्य की ओर देखा, फिर कहा—”आचार्य! मैं अभागिनी सुनयना दासी हूँ।”

वज्रसिद्धि जोर से हँस दिए। उन्होंने कहा—”अभी वज्रसिद्धि की आँखें इतनी कमजोर नहीं हुई हैं। परन्तु महारानी, तुम धन्य हो, तुमने विपत्ति में अपनी पुत्री की खूब रक्षा की।”

रानी ने विनयावनत होकर कहा—”आचार्य, आप यदि सचमुच ही मुझे पहचान गए हैं, तो इस अभागिनी विधवा नारी की प्रतिष्ठा का विचार कीजिए।”

‘महारानी, मैं तुम्हें और तुम्हारी कन्या को स्वतंत्र कराने ही काशी आया हूँ। महाप्रभु ने ज्यों ही मेरे मुँह से तुम्हारा परिचय सुना––वे तुम्हें स्वतंत्र करने को तैयार हो गए।”

“इस अभागिनी के भाग्य आपके हाथ में हैं।”

“मैं तुम दोनों को अपने साथ ले जाऊंगा, तथा लिच्छविराज को सौंप दूँगा। माता और भगिनी को पाकर लिच्छविराज प्रसन्न होंगे।”

“यह तो असम्भावित-सा भाग्योदय है, जिस पर एकाएक विश्वास ही नहीं होता।”

महाप्रभु ने धीमी तथा दृढ़ वाणी से कहा—”मैं तुम्हें छोड़ दूंगा, महारानी!”

“मेरी पुत्री सहित?”

“हाँ।”

“आप धन्य हैं महाप्रभु!”

“परन्तु एक शर्त है।”

“शर्त कैसी?”

“मुझे गुप्त रत्नागार का बीजक दे दो।”

“कैसा बीजक?”

“इतनी नादान न बनो महारानी। बस, बीजक दे दो और तुम तथा तुम्हारी कन्या स्वतन्त्र हो।”

“प्रभु, मैं इस सम्बन्ध में कुछ नहीं जानती, मैं लिच्छविराज की पट्टराजमहिषी सुकीर्ति देवी नहीं हूँ, सुनयना दासी हूँ, मैं कुछ नहीं जानती।”

“तुम्हें बीजक देना होगा महारानी!”

“मैं कुछ नहीं जानती।”

“सो अभी जान जाओगी।” उन्होंने क्रुद्ध स्वर में माधव को पुकारा। माधव आ खड़ा हुआ। महाप्रभु ने कहा—“इस स्त्री को अभी अन्धकूप में डाल दो।”

माधव ने रानी का हाथ पकड़कर कहा—”चलो।”

वज्रसिद्धि ने कहा—”ठहरो माधव।” फिर रानी की ओर देखकर मृदु स्वर से कहा—”बता दो महारानी, इसी में कल्याण है, मैं तुम्हारा शुभ चिन्तक हूँ!”

“तुम दोनों लोलुप गृद्धों को मैं पहचानती हूँ,” रानी ने सिंहिनी की भांति ज्वालामय नेत्रों से उनकी ओर देखा––फिर सीना तानकर कहा—”जाओ, मैं कुछ नहीं जानती।”

सिद्धेश्वर ने गरजकर कहा—”तब ले जाओ माधव?”

परन्तु वज्रसिद्धि ने माधव को फिर ठहरने का संकेत करके सिद्धेश्वर के कान में कहा—”अंधकूप में डालने को बहुत समय है, अभी उसे समय की ढील दो।” फिर उच्च स्वर से कहा—”जाओ महारानी, अच्छी तरह सोच-समझ लो। अंधकूप कहीं दूर थोड़े ही है।”

उसने कुटिल हास्य करके सिद्धेश्वर की ओर देखा। सुनयना चली गई। और दोनों महापुरुष भी अन्तर्धान हुए। कहने की आवश्यकता नहीं, कि सुखदास ने छिपकर सारी बातें सुन ली थीं। उसने खूब सतर्क रहकर, माता-पुत्री की प्राण रहते रक्षा करने की मन ही मन प्रतिज्ञा की।

PrevNext | All Chapters

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | | | | | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32

अन्य नॉवेल :

अदल बदल ~ आचार्य चतुर सेन का उपन्यास 

गुनाहों का देवता ~ धर्मवीर भारती उपन्यास

मनोरमा ~ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

Leave a Comment