चैप्टर 18 देवांगना : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 18 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 18 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

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राजा का साला : देवांगना

उन दिनों राजा के सालों का भी बहुत महत्व था। विलासी राजा लोग नीच-ऊँच, जात-पाँत का बिना विचार किए सब जाति की लड़कियों को अपनी रानी बना लेते थे। विवाह करके और बिना विवाह के भी। आर्यों के धर्म में पुरानी मर्यादा चली आई है कि उच्च जाति के लोग नीच जाति की लड़की से विवाह कर सकते थे। यह मर्यादा अन्य जाति वालों ने इस काल में बहुत कुछ त्याग दी थी और वे अपनी ही जाति में विवाह करने लगे थे। पर राजा अभी तक जात-पाँत की परवाह न करते थे। छोटी जाति की सुन्दरी लड़कियों को खोज- खोजकर अपनी अंकशायिनी बनाते थे। बहुत लोग अपना मतलब साधने के लिए अपनी लड़कियाँ घूस दे-देकर राजा के रंग महल में भेजते थे। खास कर प्रधानमंत्री की लड़की तो राजा की एक रानी बनती ही थी, जो उसके लिए चतुर जासूस और आलोचक का काम देती थी। इस प्रथा का एक परिणाम यह होता था कि राजा के सालों की एक फौज तैयार हो जाती थी। नीच जाति के दुश्चरित्र लोग किसी भी ऐसी लड़की से सम्बन्ध जोड़कर––जो किसी भी रूप में रंग-महल में राजा की अंकशायिनी हो चुकी हो-उसके भाई बन जाते और अपने को बड़ी अकड़ से राजा का साला घोषित करते थे। इन राजा के सालों की कहीं कोई दाद-फरियाद न थी। ये चाहे जिस भले आदमी के घर में घुस जाते, उसकी कोई भी वस्तु उठा ले जाते, हाट-बाजार से दूकानदारों का माल उठाकर चम्पत हो जाते। इन पर कोई मामला मुकदमा नहीं चला सकता था। ‘मैं राजा का साला’, इतना ही कह देने भर से न्यायालय के न्यायाधीश भी उनके लिए कुर्सी छोड़ देते थे। बहुधा इन सालों का प्रवेश राजदरबार में हो जाता था। और योग्यता की चिन्ता न करके इन्हें राज्य में बड़े-बड़े पद मिल जाते थे। वहाँ बैठकर ये लोग अंधेर-गर्दियाँ किया करते थे। ऐसा ही वह सामन्ती काल था, जब बारहवीं शताब्दी समाप्त हो रही थी।

काशी के बाजार में काशिराज का साला शम्भुदेव मुसाहिबों सहित नगर भ्रमण को निकला। हाट-बाजार सुनसान था। दूकानें बन्द थीं। पहर रात बीत चुकी थी। सड़कों पर धुंधला प्रकाश छा रहा था। राजा का यह साला नगर कोतवाल भी था।

चलते-चलते उसने मुसाहिबों से कहा—”खेद है कि कामदेव के बाणों से घायल होकर रात-दिन सुरा-सुन्दरियों में मन फँस जाने से नगर का कुछ हाल-चाल महीनों से नहीं मिल रहा है।”

मुसाहिब ने हाथ बाँधकर कहा—”धन-धम-मूर्ति, आपको नगर की इतनी चिंता है‍!”

शम्भुदेव ने कपाल पर आँखें चढ़ाकर कहा—”नगर की चिन्ता मुझे न होगी तो क्या राजा को होगी! अरे, आखिर नगर कोतवाल मैं हूँ या राजा?”

सब मुसाहिबों ने हाथ बांधकर कहा—”हाँ, महाराज, हाँ, आप ही नगर कोटपाल हैं धर्मावतार।”

“तब हमें ही राजा समझो। राजा के बाद बस…” उसने एक विशेष प्रकार का संकेत किया और हँस दिया।

सब मुसाहिबों ने बिना आपत्ति कोटपाल के मत में सहमति दे दी। इस पर प्रसन्न होकर शम्भुदेव ने कहा—”तब मुझे नगर की बस्ती की चिन्ता तो रखनी ही चाहिए। अरे चर मिथ्यानंद, नगर का हाल-चाल कह।”

मिथ्यानन्द ने हाथ बाँधकर विनयावनत हो कहा—”जैसी आज्ञा महाराज, परन्तु अभयदान मिले तो सत्य-सत्य कहूं”

“कह, सत्य-सत्य कह। तुझे हमने अभयदान दिया। हम नगर कोटपाल हैं कि नहीं!”

“हैं, महाराज। आप ही नगर कोटपाल हैं।”

“तब कह, डर मत।”

“सुनिए महाराज! नगर में बड़ा गड़बड़झाला फैला हुआ है। वेश्यायें और उनके अनुचर भूखों मर रहे हैं। लोग अपनी-अपनी सड़ी-गली धर्म-पत्नियों से ही सन्तोष करने लगे। धुनियाँ-जुलाहे, चमार खुलकर मद्य पीते हैं, कोई कुछ नहीं कहता, पर ब्राह्मण को सब टोकते हैं। मद्य की बिक्री बहुत कम हो गई है, लोग रात-भर जागते रहते हैं, चोर बेचारों की घात नहीं लगती। वे घर से निकले—कि फँसे। सड़कों पर रात-भर रोशनी रहती है। भले घर की बहू-बेटियाँ अब छिपकर अभिसार को जाँय तो कैसे? और महाराज, अब तो ब्राह्मण भी परिश्रम करने लगे।”

चर की यह सूचना सुनकर कोटपाल को बहुत क्रोध आया। उसने कहा—”समझा- समझा, बहुत दिन से हमने जो नगर के प्रबन्ध पर ध्यान नहीं दिया, इसी से ऐसा हो रहा है। मैं सबको कठोर दण्ड दूँगा।”

सब मुसाहिबों ने हाथ बांधकर कहा—”धन्य है धर्ममूर्ति, आप साक्षात् न्यायमूर्ति हैं।”

कोटपाल ने उपाध्यक्ष कुमतिचन्द्र की ओर मुँह करके कहा—”तुम क्या कहते हो कुमतिचन्द्र?”

कुमतिचन्द्र ने हाथ बाँधकर कहा—”श्रीमान् का कहना बिल्कुल ठीक है।”

परन्तु कोटपाल ने क्रुद्ध स्वर में कहा—”प्रबंध करना होगा, प्रबन्ध। सुना तुमने, नगर में बड़ा गड़बड़ हो रहा है!”

कोटपाल की डाँट खाने का उपाध्यक्ष अभ्यस्त था। उसने कुछ भी विचलित न होकर कहा—”हाँ, महाराज, हाँ।”

“तब करो प्रबंध।”

उपाध्यक्ष ने निर्विकार रूप से हाथ बांधकर कहा—”जो आज्ञा महाराज। मैं अभी प्रबंध करता हूँ।”

कोटपाल उपाध्यक्ष के वचन से प्रसन्न और सन्तुष्ट हो गया। “तुम्हें पुरस्कार दूंगा— कुमति, तुम मेरे सबसे अच्छे सहयोगी हो। परन्तु देखो-वह गोरख ब्राह्मण इधर ही आ रहा है।”

कोटपाल ने ब्राह्मण के निकट आने पर कहा—”प्रणाम ब्राह्मण देवता।”

गोरख आदर्श ब्राह्मण था। घुटा हुआ सिर और दाड़ी-मूँछ, सिर के बीचोबीच मोटी चोटी। कण्ठ में जनेऊ। शीशे की भाँति दमकता शरीर, मोटी थल-थल तोंद। छोटी-छोटी आँखें, पीताम्बर कमर में बाँधे और शाल कन्धे पर डाले, चार शिष्यों सहित वह नगर चारण को निकला था। कोटपाल की ओर देख तथा उसके प्रणाम की कुछ अवहेलना से उपेक्षा करते हुए उसने कहा—”अहा, नगर कोटपाल है?” फिर शिष्य की ओर देखकर कहा—”अरे कलहकूट, शीघ्र कोटपाल को आशीर्वाद दे।” कोटपाल जाति का शूद्र था। राजा का साला अवश्य था-कोटपाल भी था––पर था तो शूद्र। इसी से श्रोत्रिय ब्राह्मण उसे आशीर्वाद नहीं दे सकता था। श्रोत्रिय ब्राह्मण तो राजा ही को आशीर्वाद दे सकता है। इसी से उसने शिष्य को आशीर्वाद देने की आज्ञा दी। शिष्य ने दूब जल में डुबोकर कोटपाल के सिर पर मार्जन किया। और आशीर्वाद दिया—

शत्रु बढ़े भय रोग बढ़े, कलवार की हाट पै ठाठ जुड़े।
भडुए रण्डी रस रङ्ग करें, निर्भय तस्कर दिन रात फिरे।

आशीर्वाद ग्रहण कर कोटपाल प्रसन्न हो गया। उसने कहा—”आज किधर सवारी चली? आजकल तो महाराज यज्ञ कर रहे हैं, नगर में बड़ी चहल-पहल है। ब्राह्मणों की तो चाँदी ही चाँदी है।”

गोरख ने असन्तुष्ट होकर कहा—“पर इस बार राजा मुझे भूल गया है। उसने मुझे इस सम्मान से वंचित करके अच्छा नहीं किया।”

“अरे ऐसा अनर्थ? तुम काशी के महामहोपाध्याय, श्रोत्रिय ब्राह्मण! और तुम्हें ही राजा ने भुला दिया!”

“तभी तो काशिराज का नाश होगा। कोटपाल, मैं उसे श्राप दूंगा।”

कोटपाल हँस पड़ा। हँसकर उसने कहा—”शाप, केवल इतनी-सी बात पर? पर मुझ पर कृपादृष्टि रखना देवता। और कभी इन चरणों की रज मेरे घर पर भी डालकर पवित्र कीजिए।”

फिर उसने ब्राह्मण का कन्धा पकड़कर कान के पास मुँह ले जाकर कहा—”बहुत बढ़िया पुराना मद्य गौड़ से आया है।”

गोरख श्रोत्रिय ब्राह्मण प्रसन्न हो गया। उसने हँसकर कहा—”अच्छा, अच्छा, कभी देखा जायगा।”

परन्तु कोटपाल ने आग्रह करके कहा—”कभी क्यों, कल ही रही।” फिर कान के पास मुँह लगाकर कहा—”हाँ उस सुन्दरी देवदासी का क्या रहा? क्या नाम था उसका?”

ब्राह्मण हँस पड़ा। उसने कहा—”उसे भूले नहीं कोटपाल, मालूम होता है––दिल में घर कर गई है। उसका नाम मंजुघोषा है।”

“वाह क्या सुन्दर नाम है। हाँ, तो मेरा काम कब होगा?”

“महाराज, सब काम समय पर ही होते हैं। जल्दी करना ठीक नहीं है।”

“फिर भी, कब तक आशा करूँ?”

इसी समय श्रेष्ठि जयमंगल ने आकर प्रथम ब्राह्मण को दण्डवत् की फिर कोटपाल को अभिवादन किया और हँसकर कहा—”मेरे मित्र महाराज शम्भुपाल देव हैं, और मेरे मित्र गोरख महाराज भी हैं।”

गोरख ने मुँह बनाकर कहा—”सावधान सेट्ठि, ब्राह्मण किसी का मित्र नहीं, वह भूदेव हैं, जगत्पूज्य है।”

जयमंगल ने हँसकर कहा—”ब्राह्मण देवता प्रणाम करता हूँ।”

गोरख ने शुष्क वाणी से शिष्य को सम्बोधन करके कहा—”दे रे आशीर्वाद।”

शिष्य ने घास के तिनके से, जलपात्र से जल लेकर सेठ के सिर पर छिड़ककर आशीर्वाद दिया।

कोटपाल का इस ओर ध्यान न था। उसने सेठ के निकट जाकर कहा-“कहो मित्र, कल तो तुम जुए में इतना रुपया हार गए पर चेहरे पर अभी भी मौज-बहार है।”

जयमंगल ने कहा-“वाह, रुपया-पैसा हाथ का मैल है मित्र, उसके लिए सोच क्या। जब तक भोगा जाय, भोगिए।”

गोरख ब्राह्मण ने बीच में बात काटकर कहा-“इसमें क्या सन्देह। संयम और धर्म के लिए तो सारी ही उम्र पड़ी है, जब इन्द्रियाँ थक जायेंगी तब वह काम भी कर लिया जायेगा।”

कोटपाल ने जोर से हँसकर कहा-“बस धर्म की बात तो गोरख महाराज कहते हैं। बावन तोला पाव रत्ती। अच्छा, भाई हम जाते हैं। नगर का प्रबंध करना है। परन्तु कल का निमन्त्रण मत भूल जाना।”

“नहीं भूलूँगा कोटपाल महाराज।”

कोटपाल के चले जाने पर उसने होंठ बिचकाकर कहा-“देखा तुमने सेट्ठि, कैसा नीच आदमी है। मूर्ख धन और अधिकार के घमण्ड में ब्राह्मण को निमन्त्रण का लोभ दिखाकर अपने नीच वंश को भूल रहा है। हम श्रोत्रिमय ब्राह्मण हैं। जानते हो सेट्ठि, इसकी जाति क्या है?”

सेठ ने इस बात में रस लेकर कहा-“नहीं जानता। क्या जाति है भला?”

“साला चमार है कि जुलाहा, याद नहीं आ रहा है।”

इसी समय सामने से चन्द्रावली को आते देखकर वह प्रसन्न हो गया। उसने सेठ के कन्धे को झकझोरकर कहा-“देखो सेट्ठि, बिना बादल के बिजली, पहिचानते हो?”

“कोई गणिका प्रतीत होती है।”

“अरे नहीं, चन्द्रावली देवदासी है।”

सेट्ठि ने हँसकर आगे बढ़कर कहा—”आह, चन्द्रावली, अच्छी तो हो?”

चन्द्रावली ने हँसकर नखरे से कहा—”आपकी बला से। आप तो एकबारगी ही अपने मित्रों को भूल गये।”

सेठ ने खींसे निपोर कर कहा—”वाह, ऐसा भी कहीं हो सकता है! यह मुख भी भला कहीं भुलाया जा सकता है।”

“आपसे बातों में कौन जीत सकता है!”

चन्द्रावली ने घातक कटाक्षपात किया। सेठ ने अधिक रसिकता प्रकट करते हुए कहा-

“इस मुख को देखकर तो गूँगा भी बोल उठे।”

चन्द्रावली ने हँसकर सेठ से कहा—”कहिए, अब कब श्रीमान् मेरे घर पधार रहे हैं?”

“कहो तो अभी-“

“अभी नहीं, कल।”

“अच्छा” सेठ ने हँसकर उत्तर दिया। चन्द्रावली ने गोरख की ओर मुँह करके कहा—”आप भी ब्राह्मण हैं?”

गोरख खुश हो गया। उसने कहा-“सिर केवल ब्राह्मण है।”

चन्द्रावली हास्य बखेरती हुई चली गई। गोरख कुछ देर उसी ओर देखता रहा। फिर उसने कहा—”बहुत सुन्दर है, क्यों सेट्ठि-क्या कहते हो?”

“है तो, परन्तु-“

“परन्तु क्या?”

“कहने योग्य नहीं।’

“कहो, कहो, क्या किसी ने तुम्हारा मन हरण किया है?”

“किया तो है।’

“वह कौन है?”

“है कोई अद्वितीय बाला।”

“वह है कहाँ भला?”

“मन्दिर में ही!”

“मन्दिर में?”

जयमंगल ने आनंद में विभोर होकर कहा—”है, एक संन्ध्या समय मैं मन्दिर में गया था। आरती नहीं हुई थी। वहाँ सन्नाटा था। महाप्रभु भी नहीं आए थे। मैं भीतर चला गया। सहसा मुझे एक आहट सुनाई दी। देखा, एक फूल-सी सुकुमारी बैठी देवता का फूलों से श्रृंगार कर रही है। हम लोगों की आँखें चार हुईं। तभी से मेरे हृदय में वह बस गई। वाह, क्या सौन्दर्य था! विधाता ने सुन्दरता के कण सारे विश्व से समेटकर उसे रचा होगा। उसकी आँखों में आँसू थे, और उसके ओठ फड़क रहे थे।”

“क्या तुमने उसका नाम पूछा था?”

“जब मैंने उसके निकट जाकर पूछा—”सुन्दरी, तेरा नाम क्या है, और तुझे क्या दुःख है, तो वह बिना उत्तर दिये चली गई। परन्तु मुझे उस मोहिनी के नाम का पता चल गया था-वह मंजुघोषा थी।”

गोरख कुटिलतापूर्वक हँस दिया। उसने कहा—”समझा। जिसे देखो वही मंजुघोषा की रट लगा रहा है। सेट्ठी, उसकी आशा छोड़ दो।”

“यह तो न होगा मित्र, प्राण रहते नहीं होगा। भले ही प्राण भी देना पड़े।”

“ओ हो, यहाँ तक? तब तो मामला गम्भीर है। खैर, तो मैं तुम्हारी सहायता करूँगा।”

जयमंगल प्रसन्न हो गया। उसने मुहरों की एक छोटी-सी थैली ब्राह्मण के हाथ में थमाकर कहा: “मैं तुम्हें मुँह माँगा द्रव्य दूँगा देवता।”

गोरख ने थैली अपनी टेंट में खोसते हुए हँसकर कहा—”तब आओ मंदिर में।”

जयमंगल ने ब्राह्मण का हाथ पकड़ लिया। और दोनों आगे बढ़कर एक गली में घुस गए।

सारी ही बातें सुखदास ने छिपकर सुन ली थी। उसने समझ लिया कि अवश्य ही मंजुघोषा पर कोई नई विपत्ति आने वाली है। वह सावधानी से अपने को छिपाता हुआ उनके पीछे चला।

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